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पिंजरेवाली मुनिया (डायरी 22 जुलाई, 2022) 

पिछले दो दिनों से क्रिस्टोफर कॉडवेल को पढ़ रहा हूं। संभवत: यह उनकी पहली किताब है। इसका नाम है– ‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर।’ कॉडवेल को मैं मूल रूप से अर्थशास्त्री ही मानता हूं। लेकिन वह भगत सिंह के माफिक रहे। स्पेन में लोकतांत्रिक शक्तियों की विजय सुनिश्चित करते के लिए वह ब्रिटेन गए और […]

पिछले दो दिनों से क्रिस्टोफर कॉडवेल को पढ़ रहा हूं। संभवत: यह उनकी पहली किताब है। इसका नाम है– ‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर।’ कॉडवेल को मैं मूल रूप से अर्थशास्त्री ही मानता हूं। लेकिन वह भगत सिंह के माफिक रहे। स्पेन में लोकतांत्रिक शक्तियों की विजय सुनिश्चित करते के लिए वह ब्रिटेन गए और वहां गृह युद्ध में मारे गए। वह मार्क्सवादी आलोचक भी रहे। मैं ‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर’ की बात एक खास वजह से कर रहा हूं। अपनी इस किताब में कॉडवेल ने यह विशेष तौर पर बताया है कि पश्चिमी सभ्यता के जितने भी नायक रहे हों, फिर चाहे वह जार्ज बर्नाड शॉ रहे हों या फिर पी. लॉरेंस, सभी सैनिक के रूप में बदल गए।
‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर’ की चर्चा इसलिए भी कि कल द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति निर्वाचित हो गईं। वह अब देश की पहली आदिवासी राष्ट्रपति के रूप में अमर हो जाएंगीं। उन्हें 64.03 फीसदी और उनके विपक्षी यशवंत सिन्हा को 35.97 फीसदी मत प्राप्त हुए। दलित-बहुजन समाज का व्यक्ति होने के कारण कहिए या फिर यह कि शासन-प्रशासन में वंचितों की अधिकतम भागीदारी का समर्थक होने के कारण, मुझे इस बात की खुशी है कि कुछ चीजें बदल रही हैं। हालांकि अब भी मैं कॉडवेल की किताब ‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर’ के बारे में ही सोच रहा हूं। सोच इसलिए रहा हूं क्योंकि इस देश में जो शासन व्यवस्था है, जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, वह खतरे में है।

[bs-quote quote=”मैं जब अपने देश के लोकतंत्र को पिंजरे वाली मुनिया कह रहा हूं तो इसके पीछे यही बात है कि कर्ता नरेंद्र मोदी हैं और उनके पीछे आरएसएस खड़ा है। गंभीर सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी ही सब कुछ करनेवाले क्यों बने हैं? उनके मन में आता है तो वह नोटबंदी की घोषणा कर देते हैं। उनके मन में आता है तो वह जीएसटी के नये कानूनों का ऐलान कर देते हैं। उनके मन में आता है तो वह रातों-रात लॉकडाउन की घोषणा कर देते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

हालांकि वह खतरे में तब भी था जब इस देश में वास्तविक अर्थों में लोकतंत्र का आगाज हुआ। यानी 1950 में। लेकिन मेरी जेहन में एक सवाल है। 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई और फिर ब्रिटेन ने एक के बाद एक अपने उपनिवेशों को स्वतंत्र करना प्रारंभ कर दिया। हालांकि इसके पीछे दूसरे विश्व युद्ध का भी दबाव था। मैं बहुत दूर की बात नहीं कर रहा। मैं अपने देश भारत और इसके तीन पड़ोसी देशों की बात कर रहा हूं। हमें 1947 में आजादी मिली और देश में लोकतंत्र बहाली की प्रक्रिया शुरू हुई। फिर देखिए कि 1948 में गांधी की हत्या हो गई। हालांकि मैं गांधी को महानायक नहीं मानता। वह अपने ही तरह के तानाशाह थे। आज के नरेंद्र मोदी उनके वीभत्स अवतार की तरह हैं। गांधी इतने वीभत्स नहीं थे। वे ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के संपोषक थे, लेकिन वह दौर अलग था। अपने ही पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी वहां के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की हत्या कर दी गयी। बर्मा में आंग सान की हत्या भी 1947 में कर दी गई। इसके दो साल बाद श्रीलंका के प्रधानमंत्री भंडारनायके की हत्या कर दी गई।
मेरे सामने ‘कॉडवेल की ‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर’ किताब है और मैं यह सोच रहा हूं कि उपरोक्त चार हत्याओं की वजह क्या थी? क्या इन हत्याओं के पीछे कोई कॉमन बात थी? मुझे लगता है कि कॉमन बात थी और यह कॉमन बात थी लोकतंत्र की स्थापना। जिस दौर में यह सब चला, उस दौर में लोकतंत्र के अलावा कोई शासन व्यवस्था बेहतर नहीं थी। वैसे आज भी नहीं है। लेकिन कुछ लोगों को, जिनका संसाधनों पर सबसे अधिक अधिकार था, जो शासक वर्ग के थे, सामंत थे, जमींदार थे, उद्योगपति थे, बड़े व्यापारी थे, लोकतंत्र नहीं चाहिए था। यह बात मैं केवल भारत के दृष्टिकोण से नहीं कह रहा। यह मैं पाकिस्तान, श्रीलंका और बर्मा को भी ध्यान में रखकर कह रहा हूं।

[bs-quote quote=”क्रिस्टोफर कॉडवेल अपनी किताब ‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर’ में जब यह कह रहे हैं कि पश्चिमी सभ्यता के जितने भी नायक रहे हों, फिर चाहे वह जार्ज बर्नाड शॉ रहे हों या फिर पी. लॉरेंस, सभी सैनिक के रूप में बदल गए, तो उनका आकलन बिल्कुल सही था। मैं तो आज भारत के संदर्भ में कह रहा हूं कि डेमोक्रेसी के जितने भी नायक इस देश में अबतक हुए या फिर हैं, वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के दलाल बन चुके हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

दरअसल, द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना दो महत्वपूर्ण संकेत देता है। एक तो यह कि इस देश में लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई हैं। और दूसरा संकेत यह कि लोकतंत्र पिंजरे वाली मुनिया बन चुकी है। आप देखें कि अनेक लोगों ने यशवंत सिन्हा की इस बात के लिए आलोचना की कि उन्होंने द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में भाग क्यों लिया? ऐसी आलोचना करनेवाले अनेक लोग थे, जिनमें आदिवासी समाज के लोग भी थे, जो इस बात से खुश हो रहे थे/हैं कि ब्राह्मणवादी और हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी ने पहली किसी आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया है। सीधे शब्दों में कहें तो कर्ता नरेंद्र मोदी हैं।
दरअसल, मैं जब अपने देश के लोकतंत्र को पिंजरे वाली मुनिया कह रहा हूं तो इसके पीछे यही बात है कि कर्ता नरेंद्र मोदी हैं और उनके पीछे आरएसएस खड़ा है। गंभीर सवाल यह है कि नरेंद्र मोदी ही सब कुछ करनेवाले क्यों बने हैं? उनके मन में आता है तो वह नोटबंदी की घोषणा कर देते हैं। उनके मन में आता है तो वह जीएसटी के नये कानूनों का ऐलान कर देते हैं। उनके मन में आता है तो वह रातों-रात लॉकडाउन की घोषणा कर देते हैं। अभी हाल ही में दिल्ली में संसद भवन के नये परिसर में विद्रूपित अशोक स्तंभ का अनावरण और ब्राह्मणवादी तरीके से पूजन भी नरेंद्र मोदी ने किया। उनका मन हुआ तो उन्होंने अयोध्या मामले में आरएसएस के पक्ष में फैसला सुनानेवाले मुख्य न्यायाधीश को राज्यसभा का सदस्य बना दिया।
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सब कुछ नरेंद्र मोदी कर रहे हैं। उनकी पूरी कैबिनेट गौण है। मुझे तो राजनाथ सिंह पर तरस आता है, जो एक समय भाजपा के धाकड़ नेता माने जाते थे, आज नरेंद्र मोदी के आगे चूहा बन चुके हैं। दरअसल, लोकतंत्र खतरे में है और यह बात इस देश की जनता को समझने की आवश्यकता है। क्रिस्टोफर कॉडवेल अपनी किताब ‘स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर’ में जब यह कह रहे हैं कि पश्चिमी सभ्यता के जितने भी नायक रहे हों, फिर चाहे वह जार्ज बर्नाड शॉ रहे हों या फिर पी. लॉरेंस, सभी सैनिक के रूप में बदल गए, तो उनका आकलन बिल्कुल सही था। मैं तो आज भारत के संदर्भ में कह रहा हूं कि डेमोक्रेसी के जितने भी नायक इस देश में अबतक हुए या फिर हैं, वे ब्राह्मणवादी व्यवस्था के दलाल बन चुके हैं। किसी को डेमोक्रेसी से कोई मतलब नहीं। आप चाहें ते जयप्रकाश नारायण का उदाहरण लें या फिर आज से कुछ साल पहले खुद को देश का दूसरा गांधी घोषित करनेवाले अन्ना हजारे का। आप यही पाएंगे।
खैर, कल ही एक कविता जेहन में आयी।
द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं
और मैं हूं कि 
बस्तर के आदिवासियों के बारे में सोच रहा हूं
गोया मेरे सोचने से
सबकुछ बदल जाएगा
और जल-जंगल-जमीन का दोहन करना
कारपोरेट कंपनियां बंद देंगीं
और आदिवासियों को
अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज के साथ जीने की
पूरी आजादी मिल जाएगी।
हां, द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं
और मैं हूं कि
इस देश की बहुजन औरतों के बारे में सोच रहा हूं
जबकि वाकिफ हूं कि
कल फिर किसी दलित या फिर 
किसी आदिवासी औरत को
सामंती गुंडे उठा ले जाएंगे
उसके साथ सामूहिक बलात्कार करेंगे
और विरोध करने पर
हाथरस की बेटी के जैसे
उसकी जीभ काट लेंगे
और उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ देंगे।
हां, द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं
और मैं हूं कि कितना कुछ सोच रहा हूं
जबकि जानता हूं
इस देश में राष्ट्रपति 
केवल कहने को संविधान प्रमुख होता है
और फिर भी मैं सोच रहा हूं कि
द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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