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कांग्रेस के दंभ और भाजपा के मुंगेरी सपने पर भारी पड़ रहा भूविस्थापितों का संघर्ष

वैसे तो हर चुनाव ही दिलचस्प होते हैं और कांटे की टक्कर में मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की सांसें लटकी होती हैं, लेकिन इस बार कोरबा जिले की कटघोरा विधानसभा का नज़ारा कुछ ज्यादा ही दिलचस्प है और कांग्रेस और भाजपा त्रिकोणीय संघर्ष में फंस गई है। ऊंट किस करवट बैठेगा और बाजी कौन मारेगा, यह […]

वैसे तो हर चुनाव ही दिलचस्प होते हैं और कांटे की टक्कर में मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की सांसें लटकी होती हैं, लेकिन इस बार कोरबा जिले की कटघोरा विधानसभा का नज़ारा कुछ ज्यादा ही दिलचस्प है और कांग्रेस और भाजपा त्रिकोणीय संघर्ष में फंस गई है। ऊंट किस करवट बैठेगा और बाजी कौन मारेगा, यह तो मतगणना के बाद ही पता चलेगा। बहरहाल, भाजपा और कांग्रेस, दोनों में से कोई भी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं है।

पिछले पांच सालों में कटघोरा के सामाजिक-राजनैतिक समीकरणों में बदलाव आया है, जिसे वक्त रहते दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता महसूस नहीं कर पाए। इसका कारण यही था कि कांग्रेस के पास सत्ता का दंभ था, तो भाजपा के पास फिर से सत्ता वापसी का मुंगेरी सपना था। यह दंभ और सपना आज उन्हें भारी पड़ रहा है और उनकी राह में कांटे बिछे हुए हैं।

पूरे प्रदेश में पिछली बार माहौल कांग्रेस के पक्ष में था और कटघोरा में उसकी आसान जीत हुई थी। लेकिन आज उसके विधायक की निष्क्रियता आम जनता की जुबान पर है। सड़क, बिजली, पानी की जो समस्याएं तब के भाजपा राज में मौजूद थी, कांग्रेस के राज में भी और विकट हुई है। पांच साल पहले इस क्षेत्र में भूविस्थापितों की मांगें थीं, लेकिन कोई आंदोलन नहीं था। पिछले तीन वर्षों से भूविस्थापितों के रोजगार और पुनर्वास और बसावट गांवों में बुनियादी सुविधा देने की मांग पर एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया है। दो साल से भूविस्थापित कुसमुंडा परियोजना के सामने धरने पर बैठे हैं। चक्काजाम, प्रदर्शन-घेराव और खदान बंदी रोजमर्रा की बात हो गई है। लेकिन वर्तमान कांग्रेस विधायक वहां झांकने भी नहीं गए, समर्थन की तो बात ही दूर है। इस आंदोलन के प्रति ऐसा ही रवैया भाजपा का भी रहा। नतीजे में इस आंदोलन का नेतृत्व करने वाली छत्तीसगढ़ किसान सभा और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को पैर फैलाने का मौका मिला है। पिछले चुनाव की अपेक्षा आज वह ऐसी स्थिति में पहुंच चुकी है कि भाजपा और कांग्रेस की हार-जीत को तय कर सकती है।

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माकपा ने कंवर समाज के जवाहर सिंह कंवर को अपना प्रत्याशी बनाया है, जिनकी छवि भूविस्थापितों के बीच एक जुझारू नेता की है। इससे कंवर समाज के वोटों पर कांग्रेस की एकछत्र दावेदारी को धक्का लगा है। कंवर समाज का एक बड़ा तबका कांग्रेस छोड़ माकपा के पाले में जाता दिखाई पड़ रहा है। पारंपरिक रूप से कांग्रेस के खिलाफ जाने वाले मतदाता भी इस बार भाजपा के बजाय माकपा को मतदान कर सकते हैं। इस क्षेत्र में काम करने वाली सभी वामपंथी ट्रेड यूनियनों की सक्रियता का फायदा भी माकपा को मिलेगा। यह स्पष्ट है कि इस चुनाव के बाद माकपा की जमीनी ताकत को कम करके आंकने की भूल प्रशासन नहीं कर पाएगा और भूविस्थापितों की मांगों पर उसे कुछ सकारात्मक फैसला करना होगा।

जोगी कांग्रेस ने पिछली बार अच्छे वोट हासिल किए थे। उस समय अजीत जोगी का राजनैतिक और उनके प्रत्याशी गोविंद सिंह राजपूत का व्यक्तिगत प्रभाव काम कर गया था। इस बार सपूरन कुलदीप जोगी कांग्रेस के प्रत्याशी है। पिछली बार उन्होंने माकपा से चुनाव लड़ा था। माकपा को मिले वोटों को आज भी वे अपनी राजनैतिक पूंजी मानते हैं। वे भी कांग्रेस के वोट काटते हुए दिख रहे हैं। कांग्रेस के वोट काट रहे हर प्रत्याशी को मिलने वाली भाजपा की मदद उन्हें भी मिल रही है, जिसके कारण उनका पूरा परिवार चुनाव प्रचार को आकर्षक बनाए हुए हैं। उन्होंने हर गांव में विधायक नियुक्त करने की अनोखी घोषणा की है। इससे विधायकी का सपना देखने वाले कितने लोग उनके साथ जुड़ते हैं, यह देखना भी दिलचस्प होगा।

कभी कुलदीप के सहयोगी रहे निर्दलीय सोनू राठौर भी पूरे दम-खम और धन बल के साथ चुनाव मैदान में है। वे कांग्रेस और भाजपा के साथ ही और कहां, किसके वोटों में सेंध लगाते हैं, यह मतगणना का विश्लेषण ही बताएगा। लेकिन सपूरन और सोनू दोनों मिलकर कांग्रेस के वोटों में सेंधमारी कर सकते हैं। इसका अप्रत्यक्ष फायदा भाजपा के खाते में जाएगा। मैदान में आप और बसपा जैसी पार्टियां भी हैं, लेकिन वे यहां केवल अपने वजूद के लिए लड़ रही हैं।

इन सबके बीच भाजपा मौन दर्शक की तरह है। चुनाव प्रचार में कांग्रेस से कमतर होने के बावजूद मोदी के नाम और कांग्रेस की नाकामी पर उसकी निगाह टिकी हुई है। विपक्ष में रहने के कारण कहने के लिए भी उसके पास कोई उपलब्धि नहीं है। भाजपा ने जो वादे अपने घोषणा-पत्र में किए हैं, वह भाजपा प्रत्याशी के लिए तिनके का सहारा है। वह प्रत्याशी को तो सहारा दे सकता है, लेकिन अपनी जुमलेबाजी के लिए प्रसिद्ध भाजपा आम जनता को इसके सहारे कोई आस नहीं बंधा सकती।

कुल मिलाकर, इस बार कांग्रेस-भाजपा के बीच भूविस्थापितों के आंदोलन की धमक और माकपा की फांस इतनी गहरी है कि दोनों प्रमुख पार्टियों के लिए मैदान जीतना आसान नहीं है। त्रिकोणीय संघर्ष में फंसी कांग्रेस और भाजपा के लिए जनता को इस बार साधना आसान नहीं है, क्योंकि उनकी पिछली करनियों का मजा चखाने के लिए इस बार कटघोरा की जनता कमर कसे बैठी है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार और राजनैतिक टिप्पणीकार हैं।

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