26 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने बेलेट पेपर से मतदान कराने की याचिका को खारिज करते हुए ईवीएम से ही चुनाव कराये जाने की बात कही।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन व वोटर वेरीफायेबल पेपर ऑडिट ट्रेल(वीवीपीएटी) से ही चुनाव कराते रहने को जायज़ ठहराया है और मतपत्र के विकल्प पर वापस जाने के सुझाव को एक सिरे से खारिज कर दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने मूल तर्क देते हुए कहा कि प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल करते हुए फर्जी मतदान पर रोक लगना, मानवीय त्रुटियों की गुंजाइश खत्म करना व जल्दी मतगणना हो जाना जैसी बातें शामिल हैं, वहीं प्रौद्योगिकी का ही इस्तेमाल करते हुए इस व्यवस्था को और मजबूत बनाना है। इसमें जैसे वीवीपीएटी की पर्चियों में बार कोड डाल कर पर्चियों की यांत्रिक मतगणना की जा सके।
सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि बढ़ता मतदान प्रतिशत लोगों की ईवीएम व्यवस्था में आस्था का प्रतीक है। इस तर्क का कोई आधार नहीं है। इस देश के आम इंसान को हमारी सरकारी-प्रशासनिक व्यवस्था में काम कराने के लिए घूस देनी पड़ती है, यहां तक कि न्यायालयों में भी अगली तारीख लेने के लिए मुंशी को पैसे देने पड़ते हैं। तो क्या हम मानेंगे कि आम इंसान का इस व्यवस्था में भरोसा है? असल में लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है, अन्यथा उन्हें बहुत परेशानी उठानी पड़ती है। इसी तरह यदि हम उन्हें मतपत्र का विकल्प न दें और निर्वाचन आयोग, सरकार, गैर सरकारी संगठन, राजनीतिेक दल सभी लोगों को मतदान के लिए प्रेरित करें और वे ईवीएम के माध्यम से मजबूरी में जाकर मतदान करें तो क्या यह मानना चाहिए कि लोगों की ईवीएम में आस्था है? सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों को चाहिए कि जरा आम इंसानों के बीच जाएं, खासकर ग्रामीण इलाकों में और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जमीनी स्तर का अनुभव प्राप्त करें। उन्हें आश्चर्य होगा कि बड़े पैमाने पर जनता का ईवीएम से भरोसा उठ चुका है। क्या उन्होंने वर्तमान में हो रहे चुनावों के वे वीडियो नहीं देखे जिसमें कुछ लोग मतदान केन्द्र के अंदर जाकर ईवीएम उठा कर पटक रहे हैं? पहले आपने कभी ऐसा चुनाव देखा था? मोहभंग व्यापक है।
सीतापुर जिले की महमूदाबाद तहसील के चांदपुर-फरीदपुर गांव के रहने वाले दलित मजदूर बनारसी कहते हैं कि उन्होंने पिछले चुनाव में हाथी चिन्ह का बटन दबाया किंतु वीवीपीएटी के शीशे में कमल का फूल दिखाई पड़ा।
इसी तरह लखनऊ में रहने वाले सेवानिवृत भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अनीस अंसारी, जो अब कांग्रेस पार्टी से जुड़े हैं, ने भी बताया कि उन्हें भी कमल का फूल दिखाई पड़ा जबकि उन्होंने किसी अन्य चिन्ह का बटन दबाया था। निर्वाचन आयोग के अनुसार अभी तक 25 ऐसी शिकायतें प्राप्त हुईं हैं जिसमें जिस चिन्ह पर बटन दबाया गया वह नहीं दिखाई पड़ा किंतु ये सारी शिकायतें झूठी पाई गईं। शिकायत झूठी पाई जाने पर मतदाता के खिलाफ कार्यवाही भी हो सकती है। अब दिक्कत यह है कि बनारसी या अनीस अंसारी के पास कोई सबूत तो है नहीं कि उन्होंने क्या बटन दबाया था और कौन सा चिन्ह दिखाई पड़ा तो वे अपना दावा कैसे मजबूती से रख सकते हैं? अपने खिलाफ कार्यवाही के डर से लोग शिकायत करने से भी बचते हैं।
ईवीएम के तीन हिस्से हैं – कंट्रोल इकाई, बैलट इकाई व वीवीपीएटी जिन सभी में माइक्रो कंट्रोलर लगे हैं। चूंकि यह मालूम नहीं होता कि कौन सी मशीन कहां जाएगी और जिले पर पहुंचने के बाद ये स्ट्रांग कक्ष में रखी जाती है इसलिए उम्मीदवारों की अंतिम सूची तय होने से पहले मशीनों में कोई हेरा-फेरी की गुंजाइश कम है। चुनाव को जब पंद्रह दिन रह जाते हैं तब इलेक्ट्रॉनिेक कारपोरेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड या भारत इलेक्ट्रॉनिक लिमिटेड, जो मशीन के निर्माता हैं, से एक इंजीनियर आता है जो उम्मीदवारों की अंतिम सूची के अनुसार उनके चिन्ह एक लैपटॉप कम्प्यूटर और सिम्बल लोडिंग इकाई के माध्यम से वीवीपीएटी में डालता है। बैलट इकाई में तो उम्मीदवारों के नाम व चिन्ह हाथ से मशीन के ऊपर चिपकाए जाते हैं। कंट्रोल इकाई व बैलट इकाई, जिनमें बनाए जाने के समय प्रोग्राम डाला जाता है, को नहीं मालूम रहता कि किस स्थान पर कौन सा चिन्ह है। किंतु तुरंत चुनाव से पहले वीवीपीएटी में सिम्बल लोडिंग इकाई के माध्यम से चिन्ह डाले जाते हैं इसलिए यहां कुछ खुराफात की गुंजाइश बनती है।
सिम्बल लोड्रिग इकाई से जो बिटमैप फाइल वीवीपीएटी में डाली जाती है, उसमें कुछ हेरा-फेरी करने के संदेश दिए जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों ने इस बात को नजरअंदाज कर दिया है। यह समझने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, नई दिल्ली व अमरीका से प्रशिक्षित इंजीनियर राहुल मेहता द्वारा बनाए गए ईवीएम के एक नमूने को देखना होगा। इसमें विपक्षी दलों के चिन्हों में जिस चिन्ह को जिताना है, काले शीशे की आड़ में उसमें परिवर्तित कर दिया जाता है। इस मशीन का प्रोग्राम इसी तरह लिखा गया है। हलांकि यह नहीं कहा जा रहा कि निर्वाचन आयोग की मशीन में भी यही किया जा रहा होगा किंतु निर्वाचन आयोग अपनी मशीन, कीमत अदा करने पर भी, देने को तैयार नहीं है। निर्वाचन आयोग मशीन के अंदर क्या प्रोग्राम लिखा गया है, जिसे सोर्स कोड कहते हैं, किसी से साझा करने को तैयार नहीं और सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसकी इस भूमिका का समर्थन किया है।
गनीमत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कम से कम सिम्बल लोडिंग इकाई को भी कंट्रोल इकाई, बैलट इकाई व वीवीपीएटी की तरह, चुनाव के 45 दिनों बाद तक स्ट्रांग कक्ष में रखने का आदेश दिया है। उन्होंने दूसरे और तीसरे सबसे ज्यादा मत पाने वाले उम्मीवारों को यह अधिकार भी दिया है कि यदि उन्हें चुनाव परिणाम पर आपत्ति हो तो वे अपने खर्च पर मशीन के सॉफ्टवेयर की भी जांच की मांग कर सकते हैं। इससे कम से कम प्रोग्राम में हेरा फेरी करने के प्रयासों पर कुछ अंकुश लगेगा।
ईवीएम को हटाने के खिलाफ अंतिम तर्क होता है खर्च हुए पैसे का। यह भी खोखला तर्क ही है। यह ठीक है कि ईवीएम व वीवीपीएटी के निर्माण में बहुत पैसा खर्च हो चुका है। किंतु तब दक्षिण अफ्रीका को लगा कि नाभिकीय शस्त्र उसके किसी काम के नहीं हैं तो उसने अपने छह नाभिकीय शस्त्र खत्म किए। अब ईवीएम पर खर्च किया गया पैसा नाभिकीय शस्त्र की कीमत से ज्यादा तो नहीं होगा।
ईवीएम के प्रति गहरे असंतोष को देखते हुए यह बेहतर है कि हम कैमरों की नजर में मतपत्र की व्यवस्था पर वापस जाएं। जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश ने कहा कि हम मतपत्र की ओर वापस लौटने पर विचार भी नहीं कर सकते तो उनके दिमाग में यह बात नहीं रही होगी। चण्डीगढ़ के महापौर के चुनाव में हमने देखा किस तरह मतपत्र में की जा रही गड़बड़ी को कैमरे के माध्यम से पकड़ लिया गया। यदि यही गड़बड़ी प्रोग्राम के माध्यम से ईवीएम व वीवीपीएटी में की जा रही होती तो कैमरे में पकड़ में नहीं आती और न ही वहां मौजूद अधिकारी पकड़ पाते। निर्वाचन अधिकारी व पर्यवेक्षक की जानकारी के बिना भी ईवीएम-वीवीपीएटी में हेराफेरी की सम्भावना है इसलिए अधिकारी वर्ग जो खुलकर ईवीएम व्यवस्था का पक्ष लेता है वह अज्ञानता में ऐसा करता है।