अभी हाल ही में डॉ ओमशंकर द्वारा फेसबुक पर परशुराम को लेकर की गई टिप्पणी पर उनके खिलाफ एफआई आर दर्ज की गई। यह अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार पर ऐसा हमला है जो अतार्किक मान्यताओं और मिथकों की आलोचना करने के अधिकार को भी हड़प लेना चाहता है। इस मुद्दे ने देश के सामाजिक हलकों में उद्वेलन पैदा कर दिया है। उसी घटना को लेकर गाँव के लोग की विशेष संवाददाता पूजा ने उनके निवास पर जाकर बातचीत की।
हाल ही में आपके द्वारा फेसबुक पर परशुराम पर की गई टिप्पणी को लेकर बीएचयू विधि संकाय के पूर्व छात्र और वर्तमान में इलाहाबाद हाई कोर्ट के वकील सौरभ तिवारी ने लंका थाने में एफआईआर दर्ज कराया है। इस पर आपका क्या कहना है?
देखिये, पौराणिक ग्रंथों के हिसाब से हम विश्लेषण करें तो परशुराम एक एग्रेसिव कैरेक्टर हैं और उस एग्रेसिव कैरेक्टर में अगर आप देखेंगे तो वह खुद कहते हैं कि हमने इस पृथ्वी से इक्कीस बार क्षत्रियों का विनाश किया था। उसके बाद उन्हीं ग्रंथों में यह भी वर्णित है कि उन्होंने अपने पिता की आज्ञा के अनुसार अपनी ही मां की हत्या की थी। जहां संविधान लागू है उस देश में ऐसे इतिहास के नाम पर ऐसे पौराणिक ग्रंथों पढ़ाने से किसी खास समाज को दूसरे समाज से डर, भय या इस तरह की भावना से विद्वेष पैदा होता है। हमारी समझ से संविधान लागू होने के बाद इस तरह के ग्रंथ नहीं पढ़ाये जाने चाहिए या पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं होना चाहिए बल्कि इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए। दूसरी बात यह है कि हमने जो कहा है वह राजनीतिक संदर्भ में था। आज के राजनीतिज्ञों में यह होड़ लगी हुई है। आप ही देखिये कि समाजवाद अपने आप में बहुत सुंदर परिकल्पना है और यह लोहिया के महत्वपूर्ण विचारधाराओं से भी प्रभावित है। ऐसे विचारों पर चलने का दावा करनेवाली समाजवादी पार्टियां भी वोट की राजनीति के लिए अपनी पूरी समाजवाद विचारधारा की तिलांजलि देकर परशुराम का भव्य मंदिर बनवाने की घोषणा कर रही हैं। संविधान के हिसाब से धर्म को राजनीति का हिस्सा नहीं होना चाहिए लेकिन आज वे उसी राजनीति का हिस्सा बन गए हैं। हमारा समाज कट्टरता की तरफ बढ़ रहा है। मेरा प्रतिकार उस कट्टर राजनीति को लेकर है। मैंने जो भी बात कही वह एक तरह के कैरैक्टर के बीच की तुलना की है, जो नैचुरल है। हाल-फिलहाल के कुछ वर्षों में इस देश में एक वर्ग विशेष के विरुद्ध जो हिंसा भड़काने, भड़काऊ बयान देने या खुलेआम उस वर्ग को भारत वर्ष से मिटा देने की बात करते हैं । तो मेरा प्रतिकार इस तरह के कार्य से है। प्रेम, बंधुता, सौहार्द्र, अनेकता में एकता इस देश की पहचान है और भाईचारा जो संविधान की मूल आत्मा है। ऐसी बातें उसको आहत करती हैं। तो मेरा जो प्रतिकार था, वहप्रतिकार है और रहेगा। इस देश में राजनीति बिल्कुल बदल गयी है। सोच-समझ, हाव-भाव और व्यवहार बदल गया है, और व्यवहार बदलने में बहुत महती भूमिका हमारे राजनीतिज्ञों की है। राजनीतिज्ञ अगर अपनी विचारधारा को छोड़कर और उसके इतर उसके विपरीत विचारधारा के ऐसे पहलू को प्रमोट करना शुरू कर दें, ऐसी पूजा-अर्चना करने लगें, तो उनका प्रभाव समाज के ऊपर पड़ता है। मेरा कहना है कि अगर किसी दूसरे की भावना आहत होती है तो उसमें मेरी भी भावना है। मैं भी तो इस देश का नागरिक हूं। क्या भावना सिर्फ उन्हीं की हैं,, जो हिंसक प्रवृत्ति के कैरेक्टर हैं, उनकी तरफ जिनका प्रेम है उन्हीं की भावना है? जो प्रेम, संदेश और भाईचारे की बात करते हैं, उनका भी देश में सम्मान होना चाहिए। अगर किसी की भावना सत्य कहने से भड़क रही है तो वह वास्तव में सही नहीं है। मुझे भी अभिव्यक्ति की आजादी है। मैं एक पढ़ा-लिखा व्यक्ति हूं, मैं कोई भी विचार, व्यंग्य या कटाक्ष एक दायरे में रहकर कर सकता हूं। अगर समाज के दूसरे वर्ग में नफरत या वैमनस्यता शुरू होती है तो वास्तव में वह मूर्तिपूजा से शुरू होती है। मूर्तिपूजन के आयोजन करने वाले जो लोग हैं, वो असली दोषी हैं। उसको प्रचारित-प्रसारित करने वाली मीडिया दोषी है।
[bs-quote quote=”जहां संविधान लागू है उस देश में ऐसे इतिहास पढ़ाने से ऐसे पौराणिक ग्रंथो के रहने से किसी खास समाज को दूसरे समाज से डर, भय या इस तरह की भावना से विद्वेष पैदा होता है। हमारे समझ से संविधान लागू होने के बाद इस तरह के जो ग्रंथ हैं वे नहीं पढ़ाये जाने चाहिए या फिर पढ़ने के लिए उपलब्ध नहीं होना चाहिए, इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए। और दूसरी बात यह है कि हमने जो कहा है वो राजनीतिक संदर्भ में था। आज के राजनीतिज्ञों में ये होड़ लगी हुई है, आप ही देखिये समाजवाद अपने आपमें बहुत सुंदर परिकल्पना है और यह लोहिया के महत्वपूर्ण विचारधाराओं से भी प्रभावित है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
विधानसभा चुनाव बहुत नजदीक है और सभी राजनीतिक पार्टियों में धर्म की राजनीति जारी है, तो आपके हिसाब से राजनीतिक पार्टियों को क्यों लगता है कि भगवान का विकास करने से ही ये सत्ता में आ सकते हैं?
मुझे लगता है कि धर्म भावनाओं से जुड़ा होता है, और भावनाओं से खेलकर सत्ता पाना बहुत आसान होता है। लेकिन राजनीति का जो एक बहुआयामी बहुमुखी विचार है वो यह होना चाहिए कि जो भविष्य है उसकी राजनीति की जानी चाहिए। धर्म और आस्था राजनीति का विषय संवैधानिक तौर पर क भी नहीं हो सकता है। राजनीति का विषय है वास्तविक मुद्दे यानि आपके मौलिक अधिकार, स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार, शिक्षा के अधिकार, इस देश की जनता को नौकरी और रोजगार का अधिकार, बेरोजगारी भूखमरी से मुक्ति, सबको सड़क, बिजली, पानी, घर की जरूरत है और वो उन्हें नहीं मिल रहा है। इस देश की गिरती अर्थव्यवस्था पूरे समाज को एक हिंसक समाज बनाने में ऐसे भी मद्दगार रही है, उसपर नियंत्रण कैसे होना चाहिए। इस देश में संविधान कैसे लागू हो उसपर होनी चाहिए,इस पर बात होनी चाहिए। ज्यादातर बहुसंख्यक समाज है जिसे अभी तक अधिकार नहीं मिल पाया है, उसकी तो गिनती भी नहीं हो रही है अधिकार तो बाद की बात है। ये मुद्दे चुनावी मुद्दे होने चाहिए, और इसलिए मैं ज्यादा आहत हूं क्योंकि समाजवाद जैसी परिकल्पना से पैदा हुई पार्टियां अगर कट्टरता और कट्टरवाद को बढ़ावा देने लगे तो समझिए की यह देश और समाज विघटन की ओर बढ़ रहा है और इस देश के अन्दर बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है। सामाजिक क्रांति विकसित होने वाली है, और समाज में मारकाट, लूटपाट, हत्याएं होने वाली हैं। तो कोई भी बौद्धिक समाज ऐसे प्रतीकों को जो समाज के अन्दर इस तरह से वैमनस्यता पैदा कर सकता है शुरुआत में ही उसका जोरदार ढंग से विरोध किया जाना चाहिए। और वही विरोध मैंने दर्ज किया है, और वह भी एक राजनीतिक संदर्भ में है। किसी की भावनाओं को भड़काने के लिए नहीं है ना हीं आहत करने के लिए है। और इस तरह की राजनीति करने से मेरी भी भावना आहत हुई है उसके प्रतिकार में मैंने राजनीतिज्ञों को सही राह दिखाने के लिए मेरा यह प्रतिकार किया है। जो व्यक्ति है उसने अपनी सस्ती लोकप्रियता के लिए हमारे ऊपर केस दर्ज किया है। उसने जो धारायें लगायीं हैं वो कहीं से भी हमारे ऊपर बनती नहीं है। जो भारत से एक पूरी नस्ल को खत्म करने की बात कहते हैं, उनपर कोई धारायें नहीं लगती बल्कि लोग उनका लोग पांव पूजते हैं। तो असल कारर्वाई वहां होनी चाहिए।
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आपकी नजर में ऐसी कौन सी राजनीतिक पार्टी है जिसे 2022 के विधानसभा चुनाव जीतकर उत्तर प्रदेश में सत्ता में आना चाहिए?
मेरी नजर में ऐसी कोई भी पार्टी नहीं है। और जो भी पार्टियां आएंगी वो विकल्प विहीनता की वजह से ही सत्ता में आएंगी और गंदी राजनीति से ही आएंगी, न कि वास्तविक राजनीति से सत्ता में आएंगी। चार पार्टियां यहां पर प्रमुख रूप से चुनाव लड़ रही हैं एक है बीजेपी दूसरी उसकी अपोनेंट सपा, तीसरी अपोनेंट बसपा और चौथी कांग्रेस। सबको मालूम है कि भारतीय जनता पार्टी किस तरह से धर्म की राजनीति कर रही है। यह किसी से भी यह छुपा नहीं है और इस तरह की राजनीति को कतई बढ़ावा नहीं देना चाहिए क्योंकि यह आपके देश में आपसी वैमनस्य पैदा कर देश को विघटन के रास्ते में ले जाएगा। धन, बल, मीडिया को कंट्रोल कर हर तरह से उनके राजनीतिक संगठन काफी मजबूत हैं और तो और उनका वर्चस्व है। लेकिन वो आइडियल पार्टी बिल्कुल भी नहीं है। क्योंकि जब से वह सत्ता में आयी है तब से समाज की आर्थिक, सामाजिक, अर्थव्यवस्था और भी चरमरा गयी है। और यह देश पिछड़ता जा रहा है। चीजों को बेचना कोई राजनीति नहीं हो सकती है, उसको बनाना राजनीति होती है। कोई भी घर परिवार समाज में आप देखेंगे तो बेचना, तोड़ना सबसे आसान काम है लेकिन नया गढ़ना और भविष्य बनाना बहुत कठिक कार्य है। तो ये लोग आसान रास्ते को चुनकर धर्म को हथियार बनाकर गैर कानूनी तौर से सत्ता में आते हैं। मैं इस देश के माननीय सर्वोच्च न्यायालय और चुनाव कराने वाली संस्थाओं से निवेदन करूंगा कि ऐसे आदेश जारी किये जाने चाहिए कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का प्रतीक है और समाज में नफरत पैदा कर सकता है तो इस पर राजनीति करने पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए और धर्म से संबधित यदि कोई भी टिप्पणी करता है तो उनकी पार्टी की सदस्यता साल- दो साल के लिए रद्द कर देनी चाहिए, मेरा ऐसा मानना है अगर वो धर्म की राजनीति करके सत्ता पाना चाहते हैं तो इसमें माननीय न्यायालय की बहुत बड़ी भूमिका है। संविधान के संरक्षण और नियम कायदे कानून के संचालन की पूरी जिम्मेदारी इस देश के माननीय न्यायालय और न्यायाधीशों के ऊपर है। अगर वो ऐसा नहीं करते हैं तो सामाजिक व्यवस्था और एकीकृत समाज की जो परिकल्पना है उसको आगे नहीं बढ़ाएंगे। और ऐसा नहीं होगा तो इससे इस देश समाज का भी नुकसान होगा। इस तरह के नफरतकारी राजनीति पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। मेरा आग्रह है न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट से बल्कि चुनाव आयोग से भी है कि ऐसे मुद्दे पर विचार करे।
[bs-quote quote=”केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार दोनों के उनके कुल बजट का कम से कम 10 प्रतिशत यानि अगर 30 लाख करोड़ का पूरा बजट है तो 3 लाख करोड़ रुपये स्वास्थ्य पर खर्च किये जाने चाहिए। उस 10 प्रतिशत बजट का आधा प्राइमरी हेल्थ सेंटर जो गांव- गांव में होते हैं, उसकी मजबूती उसके रखरखाव और पेशेंट केयर पर खर्च करने की जरूरत है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
आप लम्बे समय से बीएचयू अस्पताल में सेवारत हैं और समय-समय पर आपने यहां की समस्याओं को उठाया भी है, आपने बनारस में एम्स के लिए भूख हड़ताल और आमरण अनशन भी किया। स्वास्थ्य संबंधी और भी कई मुद्दों लेकर आपने आन्दोलन चलाया तो आंदोलनों का कितना असर हुआ?
आपके सवाल के कई पहलू हैं। पहला तो यह है कि हमलोगों ने एक दशक से भी ज्यादा समय से स्वास्थ्य की क्रांति चलायी है, जो कि पूरी दुनिया के इतिहास में अद्भुत क्रांति है। और ऐसी भूख हड़ताल क्रांतियां स्वास्थ्य के अधिकारों के लिए पूरी दुनिया में और नहीं हुई हैं। हमलोग ऐसे आंदोलन के शुरुआती लोग हैं। बहुत सारे बौद्धिक समाज ने खुद से अपने स्वास्थ्य के आधिकारों को लागू कराया है। लेकिन स्वास्थ्य की क्रांति को लेकर भूख हड़ताल और आमरण अनशन किसी देश में नहीं हुआ है। तो यह एक तरह की अद्भुत क्रांति है। हमलोगों ने इस देश की जो वास्तविक संरचना है उसको सुदृढ़ करने के लिए, मानवीय विकास सूचकांक में लोगों को आगे पहुंचाने के लिए ये क्रांतियां चलायीं। समानांतर विकास हो। हर समाज विकसित हो, न कि सिर्फ कुछ लोग विकसित हों। उसके लिए ये स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार बहुत जरूरी हैं। इस लड़ाई के तहत हमलोगों ने कई सारी मांगें और सुझाव दिये और स्वास्थ्य़ को भारतीय राजनीति का हिस्सा बनाया। हम गर्व से कह सकते हैं कि हम लोगों ने राजनीतिज्ञों को स्वास्थ्य की राजनीति करनी शुरू करवाई। क्योंकि पहले कुछ काम स्वास्थ्य पर जरूर किया गया, उन्होंने छोटे बजट भी दिया खानापूर्ति के लिए, लेकिन स्वास्थ्य इस देश की राजनीति का कभी हिस्सा नहीं बन सका। लेकिन हम लोगों ने इस स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार की लड़ाई शुरू कर इस देश के राजनीतिज्ञों को मजबूर किया कि वह स्वास्थ्य की राजनीति करे। और मैं खुशी से कह सकता हूं कि यह राजनीति शुरू करने के बाद देश के स्वास्थ्य के प्रति वैचारिकी में एक बदलाव आया। स्वास्थ्य को नीतिगत तौर पर सभी राजनीतिज्ञों ने धीरे-धीरे स्वीकार करना शुरू किया, जिसके अच्छे परिणाम खुद उनकी पार्टियों में भी देखने को मिला। उसमें जो हमारी मांगे थी कि चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार दोनों के उनके कुल बजट का कम से कम 10 प्रतिशत यानि अगर 30 लाख करोड़ का पूरा बजट है तो 3 लाख करोड़ रुपये स्वास्थ्य पर खर्च किये जाने चाहिए। उस 10 प्रतिशत बजट का आधा प्राइमरी हेल्थ सेंटर जो गांव- गांव में होते हैं, उसकी मजबूती उसके रखरखाव और पेशेंट केयर पर खर्च करने की जरूरत है। उसमें स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता, बीमारियां ना हों, बीमारी हो तो उसको कैसे रोका जा सकता है उसके ऊपर खर्च किया जाना चाहिए। और उसके बाद 2 प्रतिशत के आस-पास सेकेंडरी हेल्थ केयर जैसे कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर वगैरह में होते हैं उसके रखरखाव, व्यवस्था उपचार हेतु खर्च किये जाने चाहिए। 3 प्रतिशत नर्सरी हेल्थ केयर सुपर स्पेशलिटी और मेडिकल कॉलेज उसके रखरखाव, पेशेंट केयर पर खर्च करने चाहिए। इसमें हमारी यह भी डिमांड थी कि हर तीन से पांच करोड़ की आबादी पर एम्स बनाया जाना चाहिए। और जो इस देश में लगभग दो सौ के आस-पास सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं उनको एम्स लाइक इंस्टिट्यूशन में रूपातंरित करना चाहिए। इस देश के हर जिला अस्पताल को मेडिकल कॉलेज के रूप बदलना चाहिए।
आपका सवाल था कि हमारे आन्दोलन का क्या प्रभाव हुआ? वह मैं अब बता रहूं कि एक तो हमने देश के राजनीतिज्ञों को स्वास्थ्य की राजनीति करनी सिखाई और स्वास्थ्य को देश की प्राथमिकता में शामिल किया। एक दशक के आन्दोलनों का असर यह हुआ कि नीति आयोग ने भी इसको प्राथमिकता दी और स्वास्थ्य के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए उस दिशा में कदम उठाया। हमारे आखिरी आंदोलन के बाद नीति आयोग ने एक हाई लेवल कमेटी बनाई और उस कमेटी ने स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार दिए जाने के बारे में रिकमेंडेशन किया। लेकिन दुख की बात है कि आज तक वह लागू नहीं हुआ। पिछले बजट को देखें तो केन्द्र सरकार ने स्वास्थ्य को मेन पिलर के एक पिलर में शामिल किया। और अगर उत्तर प्रदेश को देखें तो देश के अंदर पिछले चुनाव में सभी पार्टियों स्वास्थ्य के बजट के 10 प्रतिशत के इर्द-गिर्द घोषणाएं कीं। उसके बाद मैं अब के चुनाव में भी उम्मीद करता हूं कि पार्टियों को ऐसा ही करना चाहिए। और नहीं करेगी तो हमलोग फिर से आन्दोलन करेंगे। उसके बाद बदलाव की बात करें तो यूपी के सीएम कह रहें हैं कि हर जिले में मैं मेडिकल कॉलेज बनावाऊंगा, ये हमारी ही मांग थी, ये मांग हमलोगों के सामने फुलफिल होती दिख रहा है। उसके बाद जब यह सरकार आयी है 2014 में सत्ता में तो उसके बाद देखिये कितने सारे एम्स की घोषणा की। वह सब हमारी ही डिमांड का एक हिस्सा था जिसमें कि गोरखपुर में एम्स बना भी और कई जगह एम्स बन भी रहा है। ये हमारी सफलताएं हैं। लेकिन जहां से असली आन्दोलन शुरू हुआ था बनारस, वहाँ चिराग तले अंधेरा आज भी कायम है। प्रधानमंत्री जी का यह संसदीय क्षेत्र है इसके बावजूद कोरोना महामारी में जिस तरह की आशंकाएं थीं उससे कहीं ज्यादा नुकसान हुआ। जिसकी वजह से हम आन्दोलन कर रहे थे। उसकी वीभत्सता को आपने भी महसूस किया होगा। दवा और ऑक्सीजन के अभाव में किस तरह से लोगों ने जानें गवाईं, इसके बाद भी यहां एक एम्स स्थापित नहीं कर पाये। इसको लेकर हमने कहा था कि एम्स बन जाने से न सिर्फ बनारस में स्वास्थ्य की व्यवस्था कायम होगी बल्कि इस शहर को भीड़-भाड़ और जाम से भी मुक्ति मिलेगी, क्योंकि आउटर रिंग रोड बाईपास है। उस पर आप ऐसा कर देते हो तो यहां की भीड़ छंट जायेगी और शहर रहने लायक हो जाएगा। इसके बाद यह भी मैंने कहा था कि लगभग हर रोज 8-10 मरीज जाम में ही फंस के मर जाते हैं। वे अस्पताल तक ही नहीं पहुंच पाते हैं। अगर वह बाईपास के बाहर बन जाएगा तो जो आने वाले हैं वे समय से अस्पताल पहुंच जायेंगे और 8-10 ज़िंदगियाँ बचायी जा सकेंगी, प्रधानमंत्री ने कभी इसे सीरियसली नहीं लिया है, जिसे सीरियस लेना उनकी मौलिक जिम्मेदारी भी है। जहां तक बात बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी की है तो इसमें कुछ सुविधायें जरूर विकसित हुईं हैं। हमलोगों के आन्दोलन के हिसाब से घोषणाएं भी हुईं हैं। ये एम्स जैसा इंस्टीट्यूशन बनेगा लेकिन बड़े दुख की बात यह है कि वास्तविकता में जो बजट होना चाहिए वह मिला नहीं। हमारी मांग है कि कम से कम इस बार चुनावी साल में जो बजट आना है उसमें सरकार बनारस के लोगों के लिए एक एम्स बनवाती हैं तो इससे न सिर्फ यहां की जनता को, बल्कि उनको भी राजनीतिक लाभ मिलेगा। और प्रधानमंत्री रहते हुए भी आप यह नहीं करवा पाये तो जनता को आपसे निराशा होगी।
[bs-quote quote=”कोरोना बीमारी का जो असली अंत होगा वो कोई न कोई मेडिकेशन या टैबलेट से होगा, जैसे कि स्वाईन फ्लू एक बीमारी आयी तो उसके बाद आप देखिये कि उस फ्लू के विरूद्ध एक दवा विकसित हुई और उसके बाद वो गायब हो गया। तो जब तक दवा नहीं बनेगी तब तक समाज का हिस्सा ये बना रहेगा लेकिन जैसे ही वो दवा विकसित हो जाएगी, जो इसके प्रति विशेष रूप से कारगर है उस दवा के निर्माण से ही इसका खात्मा होगा। ये मेरा मानना है। और इसीलिए सरकार को मैंने एक कमेंट भी किया था कि सरकार ने अपने जितने धन का दुरूपयोग वैक्सीन लगवाने में किया है काश उसमें से कुछ हिस्सा इस देश में दवा के निर्माण में किया होता।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अभी कुछ दिन पहले ही अपनी फेसबुक पोस्ट में बीएचयू अस्पताल में चल रहे नवनिर्माण पर आपने सवाल उठाया तो वह मामला क्या था?
वो धन का दुरूपयोग है, एम्स लाइक इंस्टीट्यूशन के लिए जो बजट आया उसका दुरूपयोग व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जा रहा है, मैं तो कहूंगा की ये सीधे तौर पर भष्ट्राचार है। आपने कहीं भी दुनिया में नहीं सुना होगा कि जो मार्बल्स हो या कोटास्टोन्स हो उसके ऊपर टाईल्स लगायी जाती है, टाइल्स बिल्कुल इंफिरियर क्वालिटी की होती है और मार्वल्स और कोटास्टोन जो होता है उसे केवल पॉलिस करने पर चमकने लगता है। तो ये विशुद्ध भष्ट्राचार है और ये व्यक्तिगत लाभ के लिए किया गया था। और इसकी जो उपयुक्त एजेंसी है उससे इसकी जांच करायी जानी चाहिए। और जो भी लोग इस षड्यंत्र में शामिल हैं उसके विरूद्ध कठोर से कठोर सजा होनी चाहिए।
कोरोना नए वैरियंट ओमिक्रोन के मरीजों की संख्या को देखते हुए कोरोना की तीसरी लहर चेतावनी लगातार स्वास्थ्य विभाग की तरफ से दी जा रही है, तो इससे निपटने के लिए बीएचयू अस्पताल में कितनी तैयारी है?
दूसरी लहर में जो हमलोगों ने देखा, सीखा, परखा, समझा उससे केरोना से स्वयं की केयर प्रति समझ बेहतर हुई है इसमें कोई डाउट नहीं है। इससे आम आदमी की भी समझ बेहतर हुई है और तीसरी लहर जो है मेरे समझ से डेल्टा वेरियंट की तरह सीरियस नहीं होगा। हां लेकिन कोरोना का यह वैरियंट भी इनफेक्शन फैलायेगा और बहुत कम समय में बहुत तेजी से बहुत ज्यादा लोगों को इंफेक्ट करेगा। इसलिए हॉस्पिटलाईजेशन रेट भी बढ़ सकता है। उसके लिए यहां सुपर स्पेशियलिटी ब्लाक जो कोरोना की दूसरी लहर के दौरान के डेडिकेटेड अस्पताल घोषित कर दिया था। अगर उसकी जरूरत हुई तो शायद इस बार भी किये जाएं। लेकिन अगर डेल्टा वेरियंट की तरह यह वैरियंट भी आ जायेगा तो वही चीजें हमें फिरसे देखने के मिल सकती हैं। उस संदर्भ में मैं कह सकता हूं कि सरकार आज भी नहीं जागी है। जिससे जगाने की मैं लगातार साल डेढ़ साल से कोशिश कर रहा हूं।
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ऐसा क्यों होता है कोरोना के नए-नए वैररियंट के मरीजों की संख्या एक टाइम पीरियड जैसे दिसंबर से अप्रैल तक में ही ज्यादाकर सामने आते हैं और इसी समय इसका प्रभाव ज्यादा दिखायी देता है?
देखिये ऐसा नहीं है, थोड़ा बहुत तो मौसम का भी असर है, लेकिन ये मौसम से ज्यादा जैसे पिछली बार आप देखें तो डेल्टा का जो वैरियंट था वो मार्च अप्रैल से शुरु होकर मई जून, जुलाई में ज्यादा पीक पर था ऐसा नहीं है कि इसका कोई टाइम है। लेकिन उसमें जो समय आपको दिखता है उसकी वजह ये है कि कोविड 19 शुरुआत 19 दिसंबर से हुई थी, जिसकी वजह से पहला केस जो हुआ इसकी इम्यूनिटी जो जेनरेट होती है वो इन्फेक्शन के बाद 6 से 9 महीने के लास्ट तक रहती है 6 से 9 महीने के अंदर जैसे ही कोई नया वैरियंट जन्म लेता है ये इन्फेक्शन फिर से फैलना शुरु हे जाता है तो असली वजह ये है।
कुछ लोग कोरोना को राजनीति से जोड़कर देखते हैं लोगों को लगता है जैसे ही चुनाव आता है तो ही केसेज बढ़ने लगते हैं तो कहीं न कहीं चुनावी हथकंडा है आपकी नजर में यह कितना सत्य है?
मैं एक डॉक्टर हूं और मैं ऐसा नहीं मानता हूं। हो सकतै है कि यह संयोग हो लेकिन चुनाव तो पहले से ही सुनिश्चित है अगर पांच साल पहले भी देखें तो विधानसभा चुनाव जनवरी में ही हुए थे और आज भी जनवरी से ही शुरू हो रहे हैं। तो इंप्लांटेड नहीं है। लोकतंत्र अपना कार्य कर रहा है और इसमें सीधे तौर पर कोई राजनीति मुझे समझ नहीं आती। कोरोना के जो केसेज हैं वैज्ञानिक तौर पर एक बीमारी है लेकिन इस बार का वैरियंट माइल्ड है। लेकिन इसके पहले डेल्टा वैरियंट ज्यादा खतरनाक था। क्योंकि उसमें हॉस्पिटलाइजेशन रेट ज्यादा था, लंग्स में इंफेक्शन ज्यादा होते थे लेकिन ओमिक्रोन वैरियंट लंग्स को सीधे तौर पर इफेक्ट नहीं कर रहा है। और हॉस्पिटलाइजेशन रेट कम है हृदय के ऊपर जो प्रभाव पड़ रहा था या ब्लड क्लॉट बनने की जो संभावना थी वो इस वेरियंट के साथ नहीं है। लेकिन एक इसका डिसएडवांटेज जो है वो यह है कि ये पांच- सात गुना उससे भी ज्यादा तेजी से फैलता है और ये जितनी तेजी से फैलेगा उतनी तेजी खत्म भी हो जाएगा। हालांकि सरकार को इसके लिए तैयार तो रहना ही है।
आपके हिसाब से कब तक हमें कोरोना के नए- नए वैरियंट को झेलना पड़ेगा?
देखिये व्यक्तिगत तौर पर कुछ कहना तो एक ज्योतिषी की तरह काम करना है लेकिन एक चिकित्सक के तौर पर, एक सांइटिफिक विश्लेषक के तौर पर मैं कह सकता हूं कि हो सकता है ये एक सीजनल फ्लू की तरह समाज का एक हिस्सा बनकर रह जाए, लेकिन मैं हमेशा यही कहता आया हूं लेकिन इस देश की सरकार और पूरी दुनिया के बुद्धिजीवी को लगता है कि कोरोना बीमारी का असली जो विकल्प है वो वैक्सीन है लेकिन व्यक्तिगत और नीतिगत मैं इस डीबेट से असहमत हूं। मैं नहीं मानता कि कोरोना बीमारी के कब तक का जो सवाल है उसका इलाज उसको इस देश-दुनिया से खत्म कोई वैक्सीन लगाकर नहीं कर सकते। कोरोना बीमारी का जो असली अंत होगा वो कोई न कोई मेडिकेशन या टैबलेट से होगा, जैसे कि स्वाईन फ्लू एक बीमारी आयी और तो उसके उस फ्लू के विरूद्ध एक दवा विकसित हुई और उसके बाद वो गायब हो गया। तो जब तक दवा नहीं बनेगी तब तक समाज का हिस्सा ये बना रहेगा लेकिन जैसे ही वो दवा विकसित हो जाएगी, और दवा ही पूरी तरह कारगर होगी। उस दवा के निर्माण से ही इसका खात्मा होगा। ये मेरा मानना है। और इसीलिए सरकार को मैंने एक कमेंट भी किया था कि सरकार ने अपने जितने धन का दुरूपयोग वैक्सीन लगवाने में किया है काश उसमें से कुछ हिस्सा इस देश में दवा के निर्माण में किया होता। तो इस देश से ना सिर्फ हम कोरोना को मिटा सकते थे हम अपनी जो आर्थिक व्यवस्था है उसको भी सही कर सकते थे। उस टैबलेट को हम बेचकर हमारी अर्थव्यस्था मजबूत होती। एक वैक्सीन, दो वैक्सीन बूस्टर, डबल बूस्टर उससे लाभ नहीं है क्यों कि इसमें से कोई भी वैक्सीन कोरोना इंफेक्शन को रोकने में सक्षम नहीं है। जो वैक्सीन लगवाया है उसे भी कोरोना हो रहा है, और जो नहीं लगवाया है उसे भी हो रहा है। इस पर एक इंट्रेस्टिंग रिसर्च था जो कि इजराइल में पब्लिश हुआ था। वहां के लोगों ने यह देखा था कि जो कोरोना से जनित इम्यूनिटी है और वैक्सीन से जनित जो इम्यूनिटी है, वैक्सीन की इम्यूनिटी से कई गुना ज्यादा कारगर इम्यूनिटि नेचुरल इंफेक्शन से है। तो अगर ये ओमिक्रोन माइल्ड रहता है और पूरे समाज में फैलता है तो हो सकता है कि ये खुद में बहुत बड़ा वैक्सीन की तरह काम करे। अगर ये घातक नहीं होता है तो इससे नुकसान कम और फायदा ज्यादा होगा।
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[…] पौराणिक ग्रन्थों पर रोक लगनी चाहिए, जि… […]
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