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त्रासदियों की त्रासदी (डायरी, 24 जून, 2022)

आइंस्टीन अलहदा वैज्ञानिक रहे। कम से कम मेरे लिए तो वह अलहदा ही हैं। हालांकि उनके कुछ विचारों और सिद्धांतों से सहमत नहीं हूं लेकिन एक सापेक्षवाद के सिद्धांत को मैं उनका इतना महान योगदान मानता हूं कि उनके सारे गुण-अवगुण गौण हैं। सापेक्षवाद का सिद्धांत वैसे तो वैज्ञानिक सिद्धांत है और इसे आइंस्टीन ने […]

आइंस्टीन अलहदा वैज्ञानिक रहे। कम से कम मेरे लिए तो वह अलहदा ही हैं। हालांकि उनके कुछ विचारों और सिद्धांतों से सहमत नहीं हूं लेकिन एक सापेक्षवाद के सिद्धांत को मैं उनका इतना महान योगदान मानता हूं कि उनके सारे गुण-अवगुण गौण हैं। सापेक्षवाद का सिद्धांत वैसे तो वैज्ञानिक सिद्धांत है और इसे आइंस्टीन ने अपने प्रमेयों के जरिए साबित भी किया। लेकिन यह सिद्धांत समाज और सभ्यता के लिहाज से भी बहुत महत्वपूर्ण है। कहने का मतलब यह कि आप इस सिद्धांत के जरिए बेबीलोन से लेकर सिंधु घाटी सभ्यता के इतिहास से लेकर वर्तमान तक को बड़ी आसानी से समझ सकते हैं। मैं तो समाज को समझने के लिए इसी सिद्धांत का उपयोग करता हूं।

आज आइंस्टीन की चर्चा इसलिए, कि मेरे पास दो खबरें हैं। एक खबर तो यह कि महाराष्ट्र में सत्ता को लेकर उठापटक की सियासत चल रही है। आसाम भाजपाइयों के लिए बंकर बन चुका है। आप चाहें तो ठिकाना भी कह सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कभी चंबल की घाटी डाकुओं का ठिकाना हुआ करती थी। एक बार घने जंगल में घुस जाने के बाद डाकू सब सुरक्षित महसूस करते थे। ठीक वैसे ही आसाम बन गया है भाजपाइयों के लिये।

बहुत अधिक दिन नहीं हुए जब गुजरात के दलित निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी को आसाम की पुलिस ने रातों-रात जाकर गिरफ्तार किया और उन्हें आसाम ले गई। वहां जिग्नेश को लंबे समय तक जेल में रखने की साजिश रची गई। हालांकि वह तो अदालत थी, जिसकी आत्मा बिकाऊ नहीं थी, उसने जिग्नेश को दो-दो बार जमानत दी। एक बार फिर आसाम चर्चा में है। इस बार चर्चा में इसलिए है क्योंकि शिवसेना के तथाकथित विधायकों को आसाम में रखा गया है। खबरों में तो यह बताया जा रहा है कि विधायकों को विशेष हवाई जहाज से गुजरात से ले जाया गया है।

अब मैं कुछ और बातें सोच रहा हूं। पहली बात तो यही कि जिन विधायकों को पहले गुजरात और फिर आसाम ले जाया गया है, क्या वे अपनी मर्जी से गए हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि उन्हें ईडी, सीबीआई, इनकम टैक्स आदि का डर दिखाकर डरा दिया गया है? या फिर कहीं उन्हें पिस्तौल के बल पर बंधक बनाया गया है? या यह भी मुमकिन हो कि उन्हें यह कहकर धमकाया गया हो कि यदि उन्होंने तख्तापलट के खेल में भाजपा का साथ नहीं दिया तो उनके परिजनों के साथ कोई अनहोनी हो सकती है? या यह भी संभव है कि उन्हें अपनी विधायकी के बदले सौ-सौ करोड़ रुपए की रिश्वत का लोभ दिया गया हो? हालांकि मैं यह भी सोच रहा हूं कि वे सब अपनी मर्जी से बागी बने हों और वाकई में उद्धव ठाकरे से नाराज हों।

लेकिन इस पूरे प्रसंग में दो बातें और हैं। एक तो यह कि आखिर आसाम क्यों ले जाया गया? आसाम छोड़िए उन्हें गुजरात ही क्यों ले जाया गया? क्या वे महराष्ट्र में रहकर उद्धव ठाकरे का विरोध नहीं कर सकते थे? क्या उन्हें यह डर लग रहा होगा कि यदि महाराष्ट्र में मुंह खोला तो उद्धव ठाकरे अपने शिवसैनिकों से कहकर कुछ गलत कर देंगे?

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कुछ घड़ी के लिए यह मान भी लें कि महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे उनके साथ कुछ कर सकते थे, फिर भी गुजरात से आसाम भागने की जरूरत क्यों पड़ी? क्या गुजरात में भाजपा एकनाथ शिंदे और उनके तथाकथित समर्थक विधायकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में नाकाम थी? अब कुछ घड़ी के लिए यह भी मान लिया जाय कि गुजरात सरकार निकम्मी है, लेकिन मध्य प्रदेश तो उनके लिए सेफ था। शिवराज सिंह चौहान पर विश्वास क्यों नहीं किया गया? साइबर स्टेट से काऊ स्टेट बन चुके कर्नाटक पर भी भाजपाइयों ने विश्वास नहीं किया। और नहीं तो बिहार में नीतीश कुमार भी थे, जहां वे बड़े आराम से भाजपा की यह पालकी भी ढो सकते थे? आसाम ही क्यों?

खैर, महराष्ट्र में अभी खेला खत्म नहीं हुआ है। मैं तो इस पूरे घटनाक्रम को एक सजीव मूवी के जैसे देख रहा हूं। लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी से अधिक कुछ भी नहीं है।

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वैसे दूसरी खबर भी कम त्रासदीपूर्ण नहीं है। यह खबर कनार्टक हाईकोर्ट से जुड़ी है। हाईकोर्ट के न्यायाधीश एम नाग प्रसन्ना ने बीते 10 जून को अपने एक फैसले में कहा है कि किसी को जातिसूचक गाली देने पर एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट के तहत मुकदमा तभी वैध माना जाएगा जब गाली किसी सार्वजनिक जगह पर दी जाय। एकांत में दी गयी गाली को गाली के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा।

अब मैं यह सोच रहा हूं कि न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना कितने मासूम हैं या फिर उनके अंदर जातिगत श्रेष्ठता का ज़हर कितना भरा है जो उन्होंने उपरोक्त टिप्पणी की। क्या वे इतना भी नहीं समझते हैं कि उनकी उपरोक्त टिप्पणी से ऊंची जातियेां के लफंगों का मनोबल कितना बढ़ेगा? अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम इन कमजोर वर्गों की सुरक्षा के लिए बनाया गया है। इस अधिनियम के तहत दर्ज अधिकांश मामलों में याचिकाकर्ता कमजोर होता है और चूंकि वह कमजोर होता है तभी वह अदालत की शरण में जाता है। यदि वह मजबूत होता तो गालियां देनेवाले व्यक्ति के मुंह पर ऑन द स्पॉट मुक्का नहीं जड़ देता?

बहरहाल, आइंस्टीन ने सही कहा था कि सब एक-दूसरे के सापेक्ष होते हैं। कुछ भी निरपेक्ष नहीं होता। न हुकूमतें और ना ही अदालतें। समाज भी निरपेक्ष नहीं होता। मैं भी निरपेक्ष नहीं हूं।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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