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क्या सरकार पूँजीवाद के ‘अग्निपथ’ पर चल रही है?

अग्निपथ योजना के निहितार्थ पिछले पखवाड़े देश में दो बड़ी घटनाएँ हुई हैं, देश के राजनीतिक भविष्य को लेकर सोचने-विचारने वाले लोगों के लिए इनके गहरे निहतार्थ हैं। एक टीवी शो में पैगम्बरे-इस्लाम पर अमर्यादित टिप्पणी और उस पर देश के भीतर और बाहर से आयी प्रतिक्रिया और दूसरा भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित अग्निपथ योजना […]

अग्निपथ योजना के निहितार्थ

पिछले पखवाड़े देश में दो बड़ी घटनाएँ हुई हैं, देश के राजनीतिक भविष्य को लेकर सोचने-विचारने वाले लोगों के लिए इनके गहरे निहतार्थ हैं। एक टीवी शो में पैगम्बरे-इस्लाम पर अमर्यादित टिप्पणी और उस पर देश के भीतर और बाहर से आयी प्रतिक्रिया और दूसरा भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित अग्निपथ योजना जिसका देश में भारी विरोध हो रहा है, ख़ासतौर पर उत्तर भारत में।

पहले इन दोनों घटनाओं पर संक्षेप में टिप्पणी फिर इनका विश्लेषण। पैगम्बरे-इस्लाम के अपमान पर देश के मुसलमानों ने रोष व्यक्त किया और अरब जगत ने भी विरोध जताया, इस विरोध का परिणाम ये हुआ कि भाजपा सरकार को प्रतीकात्मक ही सही नुपुर शर्मा पर कार्यवाही करनी पड़ी। इस घटना पर गौर करें तो कुछ सवाल उठते हैं, अरब जगत ने अब से पहले इस्लाम या पैगम्बरे इस्लाम पर हुई किसी टिप्पणी पर ऐसी ही प्रतिक्रिया नहीं दी थी। दुनिया के कई हिस्सों में कुरआन की प्रतियाँ जलाई गईं, पैगम्बरे इस्लाम के कार्टून बनाये गये और मुसलमानों की हत्याएं हुईं, लेकिन अरब जगत से इस तरह की प्रतिक्रिया कभी नहीं आयी। इस बार भी जो प्रतिक्रिया आई, वो आई और ग़ायब हो गयी, यानि अरबों ने बाद में अपने ही ऐतराजात का फॉलोअप नहीं किया।

अग्निपथ के विरोध में सड़कों पर उतरे नौजवानों पर शासन-प्रशासन का रवैया सौहार्द्रपूर्ण है, मीडिया की रिपोर्टिंग भी संतुलित है। जबकि लगभग पूरा बिहार अग्निपथ के विरोध में अग्नि बना हुआ है, खबर है कि कई जिलों में इन्टरनेट सेवाओं को भी बंद करनी पड़ी है। सोचने वाली बात है कि इसका मतलब क्या है?

भारत सरकार ने भी बस उनकी तसल्ली के लिए कुछ रसमी कार्यवाहियां कर दी लेकिन देश के भीतर मुसलमानों पर अपनी सख्ती को बनाये रखा, मुसलमान अपने विरोध के कारण दमन का शिकार हुआ, दो लोगों की जान गयी, दर्जनों पर केस दर्ज हुए और एक व्यक्ति का घर बुलडोज़र से गिरा दिया गया। हमेशा की तरह इस बार भी शासन-प्रशासन ने मुसलमानों के प्रति अपने कानूनी दायित्व का पालन नहीं किया और बहुसंख्यक जनता को यह सन्देश देने की कोशिश की कि वे  मुसलमानों को सबक सिखा रहे हैं।

यहाँ सोचने के लिए कुछ सवाल उभरते हैं, जैसे, क्या अरब जगत से उठा विरोध अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी कूटनीति का परिणाम था? क्या इस कूटनीति का नयी विश्व व्यवस्था से कोई सम्बंध है? अगर ऐसा था तो भारत ने कह दिया है कि “हम तुम्हारा सम्मान करते हैं लेकिन देश के भीतर हम अपनी सियासत में कोई तब्दीली नहीं करेंगे।” यहाँ फिर दो बातें साफ़ हो जाती हैं, फ़िलहाल राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी सियासी गुट को मुसलमानों के प्रति भारतीय जनता पार्टी के रवैये से कोई ऐतराज़ नहीं है, दूसरा ये कि भारतीय जनता पार्टी मुसलमानों के प्रति अपने रवैये में कोई तब्दीली नहीं करेगी। यहाँ इस पहलु पर गौर किया जाना चाहिए कि देश या दुनिया को मुसलमानों से कोई दुश्मनी नहीं है और न ही हिन्दुओं से कोई मुहब्बत, सियासत बहुत निर्मम होती है, हम कह सकते हैं कि सियासत का सम्बंध मुहब्बत और नफ़रत से परे मुट्ठी भर पूंजीपतियों के मुनाफ़े से होता है, इस मुनाफ़े के लिए जहाँ मुहब्बत की ज़रूरत है मुहब्बत का इज़हार किया जाता है और जहाँ नफ़रत की ज़रूरत होती है नफ़रत फैलाया जाता है।

भारत में पूंजीपतियों की लूट में मुस्लिम विरोधी सियासत मददगार है, इसलिए दुनिया के पूंजीपति वर्ग को इससे कोई ऐतराज़ नहीं है। अगर आपको याद हो तो बुलडोज़र न्याय का सबसे पहले आदिवासियों के लिए इस्तेमाल किया गया था, इत्तेफाक़ से आदिवासी धरती के जिस टुकड़े पर आबाद हैं, वहां धरती के नीचे वो खनिज सम्पदा है जिसे बेचकर पूंजीपति भारी मुनाफ़ा कमाता है। इस सम्पदा को ज़मीन से निकालकर बाज़ार तक पहुँचाने के लिए आदिवासियों को वहां से उजाड़ना पड़ेगा। उन्हें वहां से उजाड़ना कानूनी तरीके से संभव नहीं है, इसलिए आदिवासियों को ज़बरदस्ती गैरकानूनी तरीके से उजाड़ने का सिलसिला शुरू हुआ, सलवा जुडूम जैसा गुंडा संगठन सरकार ने बनाया और आज भी आदिवासियों के मामले में कानून का कितना पालन किया जाता है, इस पर आपको नज़र डालनी चाहिए। यानि बात साफ़ है कि सरकारें पूंजीपतियों के हितों के लिए दुनिया के किसी भी हिस्से में आम जनता के किसी भी हिस्से के ऊपर किसी भी तरह का ज़ुल्म कर सकती हैं। भारत में मुसलमानों पर हो रहे ज़ुल्म की निरंतरता को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए।

अब अग्निपथ योजना, इसके निहतार्थ और प्रभाव पर थोड़ी-सी बातें। भारतीय जनता पार्टी की हुकूमत बनने के बाद निजीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई है। ऐसा लगता है कि आज़ादी के बाद तमाम हुकूमतों ने जो कुछ निर्मित और सृजित किया है उसे बेच देने का वर्तमान सरकार ने मुहिम छेड़ रखा है। स्कूली तंत्र पूरी तरह प्राइवेट हो चुका है, अब सरकारी स्कूल गरीब बच्चों को खिचड़ी बांटने के केंद्र बन कर रह गये है। हालांकि देश के वो लोग जो 40 की उम्र पूरी कर चुके हैं, सभी किसी न किसी सरकारी स्कूल से ही पढ़े हुए हैं, लेकिन आज ये कोई पूछने वाला नहीं है कि सरकारी स्कूल इस कदर बर्बाद क्यों किये गये?

यही हाल सरकारी अस्पतालों का है, कोरोना में लाखों की मौतों के बाद भी सरकार को नहीं लग रहा है कि सरकारी अस्पताल में इलाज के निज़ाम को ठीक किया जाये, उलटे इन्हें बेचने का रास्ता साफ़ किया जा रहा है। निजीकरण के रफ़्तार को देखते हुए कहा जा सकता है अगले 10-15 सालों में गली मोहल्ले की सड़क से लेकर हाईवे तक सब बिक चुके होंगे, रेल का पूरा तंत्र बिक चुका होगा, तमाम स्कूल और यूनिवर्सिटीज बिक चुकी होंगी और इसी तरह दूसरे उपक्रम भी।

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तमाम तरह के सेवा क्षेत्र भी अब निजी होंगे। सरकार, पुलिस और सेना पर भी बहुत खर्च करती है, अब जब सब कुछ बिक ही रहा है तो सेना और पुलिस भी सरकारी क्यों रहे, बहुत मुमकिन है कि अगले कुछ सालों में में सरकारी सेना पूर्ण या आंशिक रूप से समाप्त कर दी जाए, यही हाल दूसरी सुरक्षा एजेंसियों का भी हो सकता है. क्या ये भारत में ही पहली बार हो रहा है?

नहीं, यूरोप और अमेरिका में पहले ही प्राइवेट आर्मी का कांसेप्ट आ चुका है, अमेरिका ने ईराक में प्राइवेट सेना ब्लैक वाटर का इस्तेमाल किया था और इस वक्त रूस युक्रेन में इसी तरह की सेना का इस्तेमाल कर रहा है। दरअसल, दो ध्रुवीय विश्व व्यवस्था के समाप्त होने के बाद ही ऐसी सेनाओं की मांग उठने लगी थी जिनका उपयोग मनमाना तौर पर किया जा सके लेकिन इनके प्रति जिम्मेदारियां या तो कम हों या न हों।

सरकारी सेना के साथ सरकार की जिम्मेदारी जुड़ी होती है, सेना की कार्यवाहियों के लिए पूरी तरह सरकार जिम्मेदार होती है। यही नहीं, सैनिकों और उनके परिवारों से सम्बंधित बहुत-सी जिम्मेदारियां भी सरकरों को उठानी पड़ती हैं। रिटायर होने पर सैनिकों के पेंशन पर भी भारी रकम खर्च होती है। अब अगर सरकारी सेना कम या ख़त्म कर दी जाती है, तो सरकारी खर्च भी कम होगा और सरकारी पैसा बचेगा। ये अतिरक्त राशि संकटग्रस्त पूंजीवाद को ऑक्सीजन देने में खर्च किया जा सकता है।

अग्निपथ योजना सेना के निजीकरण की दिशा में एक कदम हो सकता है। अब सरकार एक ऐसी सेना के गठन की ओर चल पड़ी है जिसमें कम खर्च में सैनिकों को हासिल किया जायेगा। तकनीकी विकास की निरंतरता ने पहले ही सैनिकों की संख्या कम रखने का आधार निर्मित कर दिया है। इसलिए बहुत मुमकिन है कि आने वाले दिनों में भारत की सेना का आकार छोटा कर दिया जायेगा।

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अग्निपथ योजना के तहत जो प्रशिक्षित सैनिक सेना से छटेंगे वो गार्ड और सैनिक सप्लाई करने वाली कंपनियों का हिस्सा बनेंगे। ये सैनिक तमाम आधुनिक हथियार चलाने में पारंगत होंगे, इसलिए प्राइवेट कंपनियां इन्हें आसानी से अपने यहाँ भर्ती कर लेंगी। ये सैनिक दस साल बाद, जब देश का वह सब कुछ जो सरकारी है, निजी हो चुका होगा, तब इन निजी परिसरों की सुरक्षा करेंगे। यही नहीं, जब देश को ज़रूरत होगी तो सरकार भी सैनिकों को इन कंपनियों से भाड़े पर लेगी। निश्चित रूप से भाड़े के इन सैनिकों का वही सम्मान नहीं रह जायेगा जो आज है, यही नहीं सैनिकों पर काम का बोझ बढ़ेगा लेकिन इनकी आय और सुविधाएँ घटेगी।

कुछ लोगों की चिंता है कि ऐसे सैनिक देश या राष्ट्र के प्रति समर्पित नहीं होंगे। दरअसल, देश की पूरी अवधारणा का इस्तेमाल पहले ही हथियार उद्योग के लिए हो रहा था और ज़रूरत पड़ने पर आगे भी होगा, जहाँ तक राष्ट्र की बात है, राष्ट्र पहले भी एक पूंजीवादी टूल था आज भी है, राष्ट्र बाज़ार से पैदा हुआ था बाज़ार में ही विलीन हो रहा है। ये बातें भावुक मन के लिए पीड़ादायी हैं, हालांकि जिस दिन बाज़ार को लगेगा कि आपकी इस पीड़ा से भी मुनाफा कमाया जा सकता है, बाज़ार इस पीड़ा को भी उत्पाद में बदल देगा।

आपने देखा कि हमने दो अलग-अलग तरह की घटनाओं को इस लेख में शामिल किया है, अब ये स्पष्ट करना ज़रूरी है कि इनमें कोई तालमेल है भी या यूँ ही दोनों घटनाओं को एक साथ जोड़ दिया गया है! सबसे पहले आप इन दोनों घटनाओं की भारतीय मीडिया संस्थाओं के द्वारा रिपोर्टिंग पर गौर कीजिये। जुमे के रोज़ देश के विभिन्न शहरों में कुछ रहस्यमय लोगों के ज़रिये गिनती के कुछ विरोध-प्रदर्शन आयोजित करवाए गये। उन रहस्यमय लोगों की तश्वीरें और वीडियोज़ सोशल मीडिया पर तैर रही हैं लेकिन सुरक्षा एजेंसियों ने उन्हें पकड़ने की ज़रूरत फ़िलहाल नहीं समझी है। लेकिन मीडिया में इन छिटपुट घटनाओं की रिपोर्टिंग ऐसे की गयी जैसे पूरा देश ही जल रहा है। शासन-प्रशासन की कार्यवाही भी ऐसी ही रही है कि भारत का मुस्लिम समाज जो पहले ही सियासी ज़ुल्मो-सितम का शिकार है, एक बार फिर दहशतज़दा हो गया है।

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इसके विपरीत अग्निपथ के विरोध में सड़कों पर उतरे नौजवानों पर शासन-प्रशासन का रवैया सौहार्द्रपूर्ण है, मीडिया की रिपोर्टिंग भी संतुलित है। जबकि लगभग पूरा बिहार अग्निपथ के विरोध में अग्नि बना हुआ है, खबर है कि कई जिलों में इन्टरनेट सेवाओं को भी बंद करनी पड़ी है। सोचने वाली बात है कि इसका मतलब क्या है?

मतलब बहुत साफ़ है, इस व्यवस्था के पास नौजवानों को देने के लिए नोकरियां नहीं हैं, हो ही नहीं सकती हैं, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था जिस मुकाम पर पहुँच गयी है, वहां नौकरियां सृजित नहीं होतीं बल्कि जो हैं वो भी ख़त्म होती हैं। लेकिन मुसलमानों के प्रति निरंतर नफ़रत बढ़ाकर बहुसंख्यक वर्ग के नौजवानों के अहम को तुष्ट करने का प्रयास किया जाता रहेगा। अग्निपथ योजना के विरोध में जब पूरा उत्तर भारत नाराज़ नौजवानों के विरोध का साक्षी बना हुआ है उसी दौरान जामा मस्जिद पर कार्यवाही नौजवानों को लालीपॉप देने की ही एक कोशिश है। देश का नौजवान जब तक मुसलमानों से नफ़रत के सहारे जीने को तैयार है, भारत में पूंजीवादी लूट को कोई खतरा नहीं है। वर्तमान सियासत देश की जनता, ख़ासतौर पर नौजवानों की समझ एक सवाल बन गयी है, देश का नौजवान और जागरूक जनता इस सवाल का क्या ज़वाब ढूंढेगी, इस पर ही देश का भविष्य निर्भर है।

सलमान अरशद स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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