यह बेहद गंभीर विश्लेषण का विषय है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप अपनी दूसरी पारी में भी बेहद आक्रामक नज़र क्यों आ रहे हैं? वे ऐसा क्यों कर रहे हैं? इसके पीछे की मूल वज़ह क्या है? दुनिया भर में फैली अनिश्चितता से अमेरिका को क्या मिलने जा रहा है? क्या इस तेवर के जरिए अमेरिका को अपनी खोई हुई ताक़त दुबारा हासिल हो सकती है? ऐसे ही ही बहुत सारे सवाल है जिनका जवाब ढूँढना अभी बाकी है,पर अभी इस पर नज़र डालना जरूरी है कि ट्रंप क्या-क्या फैसले ले रहे हैं।
इस दिशा में अगर देखने की कोशिश करें तो सबसे पहले तो अवैध प्रवासियों पर हमला किया गया,उन्हें घृणापूर्वक एलियन कहा गया। इस प्रक्रिया में कई बार वैध प्रवासियों को भी टारगेट किया गया,उन्हें अमेरिका पर बोझ बताया गया,मैक्सिको के लंबे बार्डर पर दी वार तक खड़ा करने की बात की जाने लगी।
पर मूल बात ये कि इस तरह की नकारात्मक बयानों के बावजूद ट्रंप का समर्थन आधार बढ़ता ही गया, वे अपने जनाधार को यह समझाने में कामयाब होते गए कि ये प्रवासी अमरीकी अर्थव्यवस्था पर बोझ है, अमेरिकियों की हकमारी कर रहे हैं।
फिर अमेरिका फर्स्ट का नारा देते हुए भी ट्रंप, दुनिया भर में दिए जा रहे अमरीकी मदद को, अमरीकी हितों को आगे बढ़ाने वाला मानते के बजाय उसे फिजूलखर्ची और अमरीका को कमजोर करने वाली नीति के बतौर देखते और समझाते रहे।
उसी तरह दुनिया भर में लोकतंत्र को मजबूत करने के नाम पर जो अमरीका, भिन्न-भिन्न एजेंसियों के माध्यम से अरबों-खरबों डालर खर्च करता रहा है, अब इस पर भी लगाम लगाने की घोषणाएं की जा रही है।
जैसे अभी-अभी अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि वोटर टर्नओवर बढ़ाने के लिए भारत को कोई भी आर्थिक मदद क्यों दी जाए, वास्तव में यह पैसा किसलिए आ रहा था, ये अलग बहस का विषय है पर ट्रंप ने अभी ये पैसा देने से साफ-साफ मना कर दिया।
दुनिया के अलग-अलग देशों में लोकतंत्र स्थापित करने की अमरीका की पुरानी नीति में गुणात्मक बदलाव की घोषणा भी बार-बार की जा रही है। अमरीका को अब इन मसलों की कोई भी फ़िक्र नही है,यानि अमेरिका अब हथियारों के जरिए दुनिया भर में तथाकथित लोकतंत्र स्थापित करने की ठेकेदारी लेने से इंकार कर रहा है और अपनी पुरानी सरकारों को इस तरह के लिए गए पहल के लिए कोस भी रहा है।
हालांकि अमेरिका ने इसके पहले, संयुक्त राष्ट्र संघ तक पर अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर,यह प्रस्ताव भी पास करवा लिया था कि जिस भी देश में जनता अपनी सरकारों से खुश नही है। वहां अमेरिका को मित्र राष्ट्रों के साथ सैनिक हस्तक्षेप तक करने की इजाज़त दी जा सकती है।
इसी परियोजना के तहत हम सबने देखा है कि कैसे अफगानिस्तान में हस्तक्षेप किया गया, वियतनाम को कंट्रोल करने की कोशिश की गई, इराक़ को बर्बाद किया गया। ताइवान को लेकर चीन को धमकी दी जाती रही, फिर इसी तर्ज पर सीरिया और अब गाज़ा को तबाह करने की कोशिश जारी है।
पर अब अचानक से अमेरिका कह रहा है कि यह सब अमेरिकी धन की बर्बादी थी और इस नीति ने हमारे हितों को बहुत ज्यादा नुकसान पहुंचाया।
इन्हीं नयी नीतियों के आलोक में ट्रंप प्रशासन अब यहां तक कह रहा है कि नाटो संगठन को मुख्य रूप से हम ही क्यों चलाएं, पूरे यूरोप की सुरक्षा की जिम्मेदारी अमेरिका ही क्यों संभाले या यह भी कि संयुक्त राष्ट्र संघ सहित ज्यादातर अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं का जिम्मा, अमेरिका खुद ही क्यों ले।
इस तरह के सुरक्षा संबंधी बयानों और फैसलों के बाद पूरी दुनिया और खासकर कर यूरोप के ज्यादातर देशों में कई तरह की असुरक्षा फैलती जा रही है,दुनिया भर में एक खास तरह की अनिश्चितता बढ़ती जा रही है।
जर्मनी ने तो ये मान भी लिया कि अपनी या पूरे यूरोप की सुरक्षा खुद करनी पड़ेगी। इस दिशा में बढ़ने का ऐलान भी कर दिया गया है, जर्मनी में रक्षा बजट को जीडीपी का एक फीसदी ही रखने का जो पिछले 70 सालों से है बदला जा रहा है, जो रक्षा बजट अभी तक जीडीपी का मात्र 0.35 फीसदी था, उसे अब 1 फीसदी के ऊपर ले जाने का ऐलान कर दिया गया है।
चीन भी अपने बजट में भारी बढ़त करने जा रहा है। इसी तरह आने वाले समय में इसी असुरक्षा राजनीति के चलते, नाटो, संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के अंदर भी शक्ति संतुलन में भारी बदलाव हो सकता है।
वार की जगह टैरिफ वार की तरफ बढ़ता अमेरिका..
अमेरिका, अब उसके द्वारा दुनिया भर में चलाए जा रहे प्रत्यक्ष वार को थोड़ा नेपथ्य में ले जाते हुए, टैरिफ़ वार की जंग को पूरी दुनिया पर अपने तरीके से, थोपना चाहता है। यह एक ऐसा वार या युद्ध होगा जो परंपरागत युद्धों से इतर,असिमित समय तक चल सकता है, जो कि द्वितीय विश्व युद्ध से भी ज्यादा असर दुनिया पर छोड़ सकता है।
शुरुआती लक्षण ही बेहद ख़तरनाक है, कनाडा, मैक्सिको,या कई यूरोपीय मुल्क साथ ही चीन व भारत जैसे देश भी अमेरिकी टैरिफ वार के जद में आ गए हैं, इन सभी व अन्य देशों पर भी रिसिप्रोकल टैरिफ़ यानि टैक्स का जबाब टैक्स से दिए जाने,यानि 100 फीसदी तक टैरिफ या तो थोप दी गई या थोपने की धमकी दी जा रही है।
ट्रंप की भाषा तमाम देशों व उनके राष्ट्राध्यक्षों के लिए बेहद अपमानजनक है,वह कनाडा के प्रधानमंत्री को अपना गवर्नर बता देते हैं और कनाडा को अपना 52वां राज्य बता देते हैं। उसी तरह वो युक्रेन के राष्ट्रपति को कमेडियन बोलने लगते हैं। भारत को टैरिफ किंग बोलते हैं और भारतीय नागरिकों को हथकड़ियां लगाकर सैन्य जहाज से भारत भेजकर बार-बार अपमानित करते हैं।
यह सब कुछ असल में टैरिफ को अमेरिकी हितों के अनुकूल करने की कोशिश के तहत किया जा रहा है। हालांकि तमाम मुल्कों ने टैरिफ का जवाब टैरिफ से ही देना शुरू कर दिया है और अब तो ट्रंप की बदजुबानी को भी जवाब चौतरफ़ा मिलने लगा है।
कनाडा ने टैरिफ का जवाब टैरिफ से तो दिया ही है, साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति के क़दम को बेवकुफी भरा करार दिया है। फ्रांस ने भी अमेरिकी धमकी का जबाब देते हुए कहा है कि फ्रांस का भविष्य न्यूयॉर्क या मास्को नही तय करेगा।
चीन के विदेश मंत्री ने यहां तक कह दिया कि हमें धमकाया नही जा सकता और अगर युद्ध ही लड़ना है तो किसी भी तरह का वार हो या टैरिफ वार,अंत तक लड़ा जाएगा।
ट्रंप की धमकी का जवाब मैक्सिको व यूक्रेन तक ने दिया है,पर आश्चर्यजनक रूप से केवल भारत सरकार ने एकदम से चुप्पी साध रखी है, प्रधानमंत्री मोदी के सामने ही ट्रंप ने कई बार बदजुबानी की। बावजूद इसके मोदी चुप रहे,अमेरिका जाने से पहले भारत सरकार ने कई अमेरिकी सामानों पर टैक्स कम कर दिया। फिर भी ट्रंप,प्रधानमंत्री मोदी को सामने से अपमानित करते रहे।
भारत के वाणिज्य मंत्री हफ्ता भर अमेरिका में रहे, पर वहां पर क्या बात हुई,यह बताना उन्होंने अभी तक जरूरी नही समझा है,जबकि ट्रंप ने एकतरफा ऐलान करते हुए कहा कि भारत, टैरिफ कम करने के लिए मान गया है। हालांकि यह चकित करने वाली चुप्पी है,पर सच्चाई यही है कि अभी न प्रधानमंत्री, न विदेशमंत्री और वाणिज्य, किसी ने कुछ नही बोला है।
अभी-अभी भारत के सामने संकट क्या है…
भारत को इस टैरिफ वार से लांग टर्म में क्या नुकसान होने जा रहा है, इसका ठीक-ठीक अनुमान लगा पाना, भारी अनिश्चितता के चलते अभी बहुत मुश्किल है। पर तत्काल क्या असर हो रहा इस पर एक नज़र डाली जा सकती है।
पहली बात तो ये कि विदेशी पूंजी में भारी गिरावट अभी ही देखी जा सकती है और शेयर बाजार का हाल बहुत ही बुरा है। यह भी साफ-साफ देखा जा सकता है कि डालर के मुक़ाबले रूपया तेजी से टूट रहा है। महंगाई दर बढ़ रही है और बेरोजगारी अपने चरम पर है।
अर्थव्यवस्था की बढ़ती कमजोरी को 2025 के बजट में भी देखा जा सकता है, जहां कई जरूरी योजनाओं में कटौती करनी पड़ी है। यहां तक कि पता चला है सांसद निधि में भी भारी कटौती कर दी गई है।
जबकि मोदी सरकार को यह पता है कि 100 करोड़ लोगों के पास चीजों को खरीदने की क्षमता ही नही है और उन्हें 5 किलो राशन पर जिंदा रखना पड़ रहा है।
फ्रीबीज की घोषणाएं भी सरकार कर तो दे रही है, पर उन्हें इसके लिए पैसा जुटाना बहुत ही मुश्किल हो रहा है। ऐसे में ट्रंप जिस तरह का रूख अख्तियार किए हुए हैं और भारत सरकार जिस तरह, सरेंडर की मुद्रा में दिख रही है उससे तो साफ-साफ लग रहा है कि आने वाले समय में भारत का संकट बड़े पैमाने पर बढ़ने वाला है।
क्या ट्रंप के रास्ते अमेरिकी संकट का समाधान संभव है
हम सब जानते हैं कि 2008 की मंदी का केंद्र अमेरिका ही था,उस मंदी के दौरान ढ़ेर सारे वित्तीय संस्थान, विशालकाय बैंक ध्वस्त हो गए थे, शेयर मार्केट ने गिरावट के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे, सिर्फ एक दिन में 1.2 ट्रिलियन डॉलर का नुक़सान हो गया था और हाऊसिंग सेक्टर का बुलबुला फट चुका था।
अमेरिका आज़ भी उस मंदी से उबर नही पाया है, संकट और बढ़ता ही जा रहा है,अभी हाल ही में सिलिकान वैली बैंक डूब गया है, क्रेडिट सूइस भी भारी संकट में है, अमेरिकी नागरिकों को 2008 की मंदी फिर से याद आ रही है।
इसलिए, इसका साफ़ मतलब ये है कि आज़ एलेन मस्क व डोनाल्ड ट्रम्प का तेवर किसी ताकत का नही बल्कि कमजोरी का प्रदर्शन है। आज़ अमेरिकी पूंजी अपने सारे लोकतांत्रिक खोल उतार फेंकना इसी लिए चाह रही है। 80 के दशक में अपनाए गए वैश्वीकरण की नीतियों को,जो खुद सामराजी पूंजी ने अपने लिए ही बनाए थे, उन नीतियों को और उनसे जुड़े वैश्विक संस्थाओं को भी बर्दाश्त करने की स्थिति नही रह गई है, तथाकथित ग्लोबलाइजेशन को एक बार फिर से नये तरह के डी ग्लोबलाइजेशन में बदला जा रहा है।
ट्रंप का जीतकर आना और एलेन मस्क का खुलकर सत्ता संचालन में हिस्सा लेना, इसी संकट के चलते है।
रूस, जर्मनी,भारत से लेकर अमेरिका तक दक्षिणपंथ का उभार इसी संकट का नतीजा है, जिसके केंद्र में अमेरिका है.
हालांकि अमेरिकी साम्राज्यवादी पूंजी के प्रतिनिधि, एलेन मस्क व डोनाल्ड ट्रम्प समाधान का जो तरीका ले रहे हैं, वह अमेरिका सहित दुनिया भर में मंहगाई व बेरोजगारी को और बढ़ाने जा रहा है। दुनिया और ज्यादा मजदूर विरोधी होने जा रही है।
तमाम राजनीतिक अर्थशास्त्रियों की नज़र में भी ट्रंप का रास्ता, समाधान को तो बिल्कुल ही नही, बल्कि समस्या को और कई गुना बढ़ाने वाला साबित होने जा रहा है।