‘गाजीपुर ज़िला मुख्यालय यहाँ से महज़ सोलह किलोमीटर दूर है। यहाँ से थाने की दूरी तीन किलोमीटर है, जिला चिकित्सालय की दूरी सोलह किलोमीटर और डिग्री कॉलेज की दूरी अठारह किलोमीटर है लेकिन नदी पर पुल न होने से वहाँ तक पहुँचने के लिए हम लोगों को पचास किलोमीटर का चक्कर काटना पड़ता है।’
गाजीपुर जिले के कासिमबाद के पास कयामपुर छावनी गाँव में मंगई नदी पर जनसहयोग से बनाए जा रहे पुल के लिए श्रमदान कर रहे बगल के गाँव वासुदेवपुर के रमाकांत यादव ने कहा कि ‘अगर गाँव में कोई बीमार पड़ जाय। किसी औरत को बच्चा होनेवाला हो या कोई दुर्घटना ही हो जाय तो पचास किलोमीटर की दूरी तय कर करके ही दवा-इलाज या कोई सुविधा पाई जा सकती है। यहाँ तक कि थाने के लोग भी आना चाहें तो पचास किलोमीटर का चक्कर काटे बिना आना संभव नहीं है।’ यह बताते-बताते रमाकांत की आवाज़ तल्ख और ऊंची होती गई। उन्हें वर्तमान निज़ाम और मशीनरी से गहरी शिकायत है।
मंगई एक छोटी नदी है जो आजमगढ़ से निकलती है और मऊ के दक्षिणी तथा गाजीपुर जिले उत्तर पूर्वी छोर के अनेक गांवों से गुजरती हुई बलिया जिले के गंगा में मिलनेवाले एक तालाब तक जाती है। लगभग दो सौ किलोमीटर के प्रवाह क्षेत्र वाली यह नदी भी प्रदूषण और अतिक्रमण का शिकार हो चुकी है। कहीं-कहीं बिलकुल कम तो कहीं पर्याप्त पानी से भरी इस नदी से सैकड़ों गाँवों के किसान लाभान्वित होते रहे हैं।
मार्च के इस महीने में नदी ठीक-ठाक पानी से लहलहा रही है। अभी भी इसे नाव या चह (लकड़ी और बाँस से बना अस्थायी पुल) के बिना पार नहीं किया जा सकता। नदी पर बन रहे पुल से आसपास के गांवों के लोगों में बहुत उत्साह है और उम्मीद की जा रही है कि अगले दो-तीन महीनों में यह बनकर तैयार हो जाएगा। लेकिन दशकों तक यह नदी कम से कम पचास गाँवों के लिए एक बड़ी चुनौती रही है।
रमाकांत बताते है कि ‘दूसरी ओर जाने के लिए एकमात्र माध्यम डोंगी थी और जो भी डोंगी में सवार होता था वह अपने को पार उतरने के पहले मरा हुआ मान लेता था। लोग जिंदगी में एक बार मरते हैं लेकिन हमलोगों को हर दिन दो बार मरना पड़ता था।’
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पुल के इंतज़ार में कई पीढ़ियाँ गुजर गईं।
गाजीपुर के नोनहरा थाना क्षेत्र के क़यामपुर छावनी गांव सहित करीब 14-15 गांव को जाने के लिए मंगई नदी को पार कर जाना पड़ता है लेकिन चालीस-पचास फुट चौड़ी इस नदी को पार करना सबसे बड़ी चुनौती रही है। इसके लिए एकमात्र साधन डोंगी थी। बरसात के दिनों में लकड़ी का पुल डूब जाता तब डोंगी ही पार लगाती लेकिन यह एक खतरनाक यात्रा होती। गोया बीच धारा में डोंगी पलट जाएगी। इतनी डरावनी यात्रा होती थी।
लोगों ने जनप्रतिनिधियों से संपर्क किया लेकिन कोरे आश्वासन के सिवा कुछ न मिला। चुनाव के समय नेता आते तो पुल बनवा देने के सपने दिखाते। लंबे-लंबे वादे करते लेकिन चुनाव बीत जाने के बाद उनका वादा ज़बानी जमा खर्च रह जाता।
यह सिलसिला वर्षों से बढ़ते-बढ़ते दशकों तक चलता रहा। देखते-देखते कई पीढ़ियाँ गुजर गईं लेकिन पुल नहीं बना। हर चुनाव में उम्मीद बंधती और टूट जाती। कालिका यादव कहते हैं ‘हम विधायक-सांसद को क्या दोष दें जो अपने ही इलाके के लोगों से झूठे वादे करते हैं लेकिन असली दोष तो अखिलेश यादव का है जो अपने जनप्रतिनिधियों से यह भी नहीं पूछते कि अपने इलाके में क्या काम कर रहे हो और वहाँ की क्या समस्या है।’
मुहम्मदाबाद विधानसभा और बलिया लोकसभा सीटें फिलहाल सपा के खाते में हैं। यादव बहुल इस क्षेत्र की उम्मीदों पर कई बार सत्ता में रही सपा सरकारों ने भी पानी फेरा और बाकियों ने भी। इसलिए लोगों के मन में एक स्वाभाविक आक्रोश है। कालिका कहते हैं –‘देखते-देखते आज़ादी का अमृत महोत्सव भी आया और चला गया। लेकिन पुल नहीं बना तो नहीं ही बना।’

अंततः ग्रामीणों ने अपने ही प्रयास से पुल बनाना शुरू किया
यह कयामपुर और आस-पास के गाँव के लोगों का ही जिगरा था कि चारों ओर से निराश होने के बावजूद उन्होंने पुल बनाने को ठान लिया। लेकिन यह कोई छोटा-मोटा काम न था। लोगों ने इसके लिए श्रमदान के लिए फावड़े और टोकरे जरूर उठा लिए लेकिन सीमेंट, बालू, गिट्टी, मोरंग और सरिये के लिए तो पैसे की जरूरत थी। वह भी थोड़ा-बहुत नहीं लाखों का खर्च था।
इस समस्या का समाधान निकाला इसी गाँव के रवीन्द्र यादव ने, जो भारतीय सेना के 55 इंजीनियर रेजीमेंट में आर्टिलरी कैप्टन थे। वे सिविल जेई की परीक्षा पास करके सेना में नियुक्त हुये थे। उनके पास इंजीयरिंग का तीस वर्षों लंबा तजुर्बा है। अपने गाँव में नदी पर पुल न होने की परेशानियों से वह केवल वाकिफ ही नहीं बल्कि भुक्तभोगी भी रहे हैं। सेवानिवृत्ति के बाद रवीन्द्र गाँव में ही रहते हैं।
इसलिए जब पिछले साल के जाड़े में पुल बनाने का अंतिम निर्णय हुआ तब उन्होंने अपनी पेंशन के दस लाख रुपये पुल बनाने के लिए दे दिया। केवल रुपये ही नहीं दिये बल्कि अपने इंजीनियरिंग अनुभवों सहित ही लोगों के साथ खुद भी पुल निर्माण में जुट भी गए। मार्च 2025 की तीखी होती धूप में सबके साथ लगकर काम करना उनके जीवट और समर्पण का एक नायाब उदाहरण है।
पिछले साल 25 फरवरी 2024 को पुल का भूमि पूजन और शिलान्यास कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। निर्माण का पहला पत्थर इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश शेखर कुमार यादव ने रखा। काम तेजी से शुरू हुआ और आगे के काम के लिए गाँव-गाँव घूमकर चंदा इकट्ठा किया जाने लगा।

धीरे-धीरे इस टीम पर लोगों का भरोसा बनने लगा। चंदा और पुल के निर्माण में लगने वाली सामग्री देने का सिलसिला बढ़ता चला गया। इसी तरह अब तक गांव वालों की मदद से नदी के अंदर दो पिलर पड़ चुके हैं और नदी के दोनों सिरे पर अप्रोच मार्ग का निर्माण भी हो रहा है। पुल के एक स्लैब की ढलाई का काम पूरा होनेवाला है। माना जा रहा है कि आगामी बरसात के मौसम तक काफी काम हो चुका होगा। काम रुकने न पाये इसलिए लोगों के पास जाकर चंदा इकट्ठा किया जा रहा है। अब तक इसके लिए सत्तर लाख रुपये का सहयोग जनता ने किया है।
पूर्वांचल के प्रसिद्ध स्वतंत्र पत्रकार और यूट्यूबर संतोष कुमार मौर्य ने जब इसके बारे में सुना तो तुरंत जाकर इस मुहिम पर दो कार्यक्रम बनाया। इस मामले में संतोष कुमार पहले पत्रकार हैं जो वहाँ तक गए। फोन पर हुई बातचीत में उन्होंने कहा कि ‘गाजीपुर के मंगई नदी पर एक अनोखा पुल बन रहा है। मैं अनोखा पुल इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इसमें किसी भी प्रकार के सरकारी धन का उपयोग नहीं हुआ है, बल्कि यह पुल गांव वालों की मदद से एक-एक रुपए चंदा जुटाकर बनाया जा रहा है।’

संतोष आगे कहते हैं कि ‘यूं तो पूर्वांचल के विकास पुरुष कहे जाने वाले पूर्व सांसद और फिलहाल कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का भी गांव इस पुल से कुछ ही दूरी पर है लेकिन इस क्षेत्र की जनता को उनका कोई लाभ नहीं मिला। लोग कई बार उनके पास गए लेकिन उनकी कोई सुनवाई न हुई। आखिर पुल बनवाने का बीड़ा उठाया आर्मी से रिटायर्ड कैप्टन रवीन्द्र यादव ने और अपनी कमाई के 10 लाख रुपये से इस पुल के निर्माण का कार्य शुरू किया गया।
‘देखते ही देखते इसमें गांव वाले भी शामिल हुए। लोग चंदा इकट्ठा करने लगे और काम तेजी से आगे बढ़ने लगा। अब लगता है कि यह देश का एक और ऐसा पुल होगा जो किसी सरकारी योजना से नहीं बन रहा है, बल्कि जनता खुद अपनी कमाई से बनवा रही है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि अभी तक कोई भी जनप्रतिनिधि नींद से नहीं जगा और न मौके पर ही पहुंचा। जब मुझे पता चला तो एक स्वतंत्र पत्रकार और जिम्मेदार नागरिक होने के नाते यह खबर दिखाए बिना मुझसे नहीं रहा गया। जब मैंने यह खबर अपने चैनल पर प्रकाशित की तो थोड़ी हलचल बढ़ी। धीरे धीरे नेशनल मीडिया के पोर्टलों पर भी खबरें चलने लगी है।’
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गाजीपुर के दसरथ मांझी
मंगई नदी पर पुल का काम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे न केवल वातावरण में गर्मी बढ़ रही है बल्कि लोगों की गहमागहमी भी बढ़ रही है। यहाँ लोगों ने अपनी-अपनी भूमिकाएँ बाँट ली है और उसे निभाने के लिए जी-जान से जुटा है। धूप और पसीने को खुली छूट है। न धूप लगना कम हो रही है न पसीना रुकने का नाम ले रहा है।
कालिका यादव अक्सर गाजीपुर के किसी न किसी इलाके में चंदा इकट्ठा करने जाते हैं। कोई सौ देता है कोई पाँच सौ कोई हज़ार या उससे ज्यादा भी। हर चीज को महत्व दिया जा रहा है। हर व्यक्ति की भावना का सम्मान है। कोई किसी को कमतर नहीं मानता। सबसे अधिक चंदा देनेवाले रवीन्द्र यादव स्वयं बनियान पहने लोगों के साथ स्लैब ढलाई के काम में लगे हैं और धूल-धूसरित हैं।
इसके बावजूद कि रवींद्र यादव ने इसके लिए दस लाख रुपए का सहयोग दिया लेकिन वह स्वयं और गाँव के अन्य लोग मानते हैं कि सबसे पहला सहयोग एक ट्रेक्टर बालू और एक ट्रेक्टर गिट्टी देकर एक बेरोजगार युवक ने किया। अब उन्होंने कितनी मुश्किल से यह किया यह तो वही जाने लेकिन यह उनका अद्भुत सहयोग है।
रमाकांत यादव ने इस पुल की परिकल्पना और निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले बगल के गाँव के लालजी सिंह, विश्वनाथ तिवारी, फकीर राम, विनोद चौरसिया, रामदरस गुप्ता, रमेश राजभर आदि के योगदान को रेखांकित करते हुये कहा कि यह पुल ग्रामीणों की एकता का बेमिसाल प्रतीक है। इसमें जाति-पांति से ऊपर उठकर लोगों ने सहयोग किया है।

रवीद्र यादव के अतिरिक्त स्वयं रमाकांत और कालिका यादव दिन-रात इस काम में लगे हैं। उनके साथ दर्जनों गांवों के युवा और प्रौढ़ अलग-अलग कामों में सुबह से शाम तक लगे रहते हैं। लोग कहते हैं कि यह पुल जनसहयोग और एकता से निर्मित पुल है और इसका नाम भी यही होगा।
एक दसरथ मांझी ने पूरी उम्र लगा कर हथौड़ी और छेनी से पहाड़ को काटकर सड़क बना दिया। इसके बाद लोग उन्हें माउंटेनमैन के रूप में भी जानते हैं लेकिन गाजीपुर जिले के इन गांवों में हजारों लोगों में दसरथ मांझी जैसा जज़्बा और जुनून है।
एक लंबे इंतज़ार के बाद उन्होंने अपनी इच्छाशक्ति और हाथों के हुनर को अपनी ताकत में बदल दिया है। जो लोग चंदा नहीं दे पा रहे हैं वह स्वेच्छा से पुल के निर्माण में मजदूरी कर रहे हैं। मेहनत और योगदान के मोर्चे पर कोई भी किसी से कमतर नहीं होना चाह रहा है और न ही कोई किसी को कमतर आँक रहा है।
रवीन्द्र यादव कहते हैं कि ‘मुझे हमेशा अपने देश की जनता की ताकत पर भरोसा रहा है। सेना में रहने के कारण मैंने इस बात को आत्मसात किया कि पूरा देश ही मेरा परिवार है। इसी से मुझे प्रेरणा मिली कि पुल बना कर गाँव को एक नया जीवन दिया जा सकता है। शिक्षा और स्वस्थ्य जैसी बुनियादी चीजों तक लोगों की पहुँच हो जाएगी तो गाँव और प्रगति करेगा।’
वह कहते हैं ‘मेरा गांव जनपद गाजीपुर में है लेकिन लोकसभा बलिया और विधानसभा मोहम्मदाबाद पड़ता है। बगल में ही जम्मू कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का भी गांव पड़ता है जो गाजीपुर के सांसद और रेल राज्य मंत्री भी रह चुके हैं। इस पुल के लिए गांव के लोगों ने पिछले कई सालों से संघर्ष किया। कोई भी ऐसा जनप्रतिनिधि नहीं रहा, जिसके दरवाजे पर जाकर पुल निर्माण करने की मांग न रखी हो। सभी चुनाव के दिनों में आश्वासन तो देते रहे लेकिन आज तक पुल निर्माण के लिए शासन को एक पत्र तक नहीं लिखा।’
उम्मीदों के पंख
गाँव के सभी लोगों की आँखों में उम्मीद और उत्साह की चमक है। 105 फीट लंबे इस निर्माणाधीन पुल के दो पिलर बन जाने और एक स्लैब पड़ जाने से उनकी उम्मीदों को पंख लग गए हैं।
पुराने दिनों को याद करते हुये वे कहते हैं कि ‘जब इस नदी में बाढ़ आ जाती है तब हमारा बनाया लकड़ी का पुल भी टूट जाता है और एक डोंगी के सहारे ही 14 -15 गांव तक आने-जाने का एकमात्र विकल्प रहता है। इसके लिए भी लोगों को कई-कई घंटे इंतजार करना पड़ता है। बहुत मुश्किल और डरावना दौर हो जाता है।’
गाजीपुर के युवा समाजसेवी और नेता सुजीत यादव कहते हैं कि बलिया लोकसभा के अंतर्गत पड़नेवाले ग्राम कयामपुर छावनी के समाजसेवी कालिका यादव के नेतृत्व में मगई नदी पर जनता द्वारा चंदा मांगकर पुल बनाने का ऐतिहासिक काम किया गया है। इससे कम से कम पचास गाँव जिले की मुख्यधारा से जुड़ जाएंगे। यह पुल बिना किसी सरकारी सहायता एवं बिना किसी जनप्रतिनिधि की मदद लिए बनाया जा रहा है। असल में यह सरकार एवं जनप्रतिनिधियों के गाल पर तमाचा है। यह वह आईना है जिसमें वे अपने झूठे चेहरे देख सकते हैं।’
उम्मीद यही की जा रही है कि इस साल इस पुल पर आवागमन शुरू हो जाएगा।