रत देश और उसकी सीमाओं की सुरक्षा में तमाम बहादुर सैनिकों ने अपनी जान गवाई है। युद्ध में शहीद होने के बाद उनके परिवार और बच्चों की स्थिति बहुत ही नाजुक हो जाती है। फिर भी कई बहादुर महिलाएं हैं जिन्होंने युद्ध में अपने पति और बेटों के खोने के बाद भी साहस और देशप्रेम का परिचय देते हुए अपना जीवन यापन किया। इन सैनिकों की बहादुर पत्नियों के ऊपर भारतीय सिनेमा में कई फिल्में बनी है जो हम सभी के लिए प्रेरणा की स्रोत बन जाती हैं। आलिया भट्ट अभिनीत (राज़ी) तथा हालिया रिलीज शेरशाह (2021) इसके प्रमुख उदाहरण है। शेरशाह फिल्म में परमवीर चक्र विजेता कैप्टन विक्रम बत्रा की कहानी दिखाई गई है जिसमें उनकी मंगेतर और प्रेमिका डिंपल चीमा के त्याग और समर्पण को भी प्रस्तुत किया गया है। कैप्टन विक्रम बत्रा के शहीद होने के बाद डिंपल जी ने दूसरी शादी नहीं की। वह एक अध्यापक हैं और विक्रम बत्रा की विधवा के रूप में अपना जीवन यापन कर रही हैं। उनका जीवन महान त्याग का दुर्लभ उदाहरण है।
ऐसी ही कई अन्य फिल्में हैं जैसे कि बॉर्डर और कारगिल जिनमें ना केवल हमारे देश के बहादुर सैनिकों के साहस और सर्वोच्च बलिदान का चित्रण किया गया है बल्कि उनके घर परिवार के साथ ही उनकी पत्नियों के द्वारा किए गए त्याग और साहस को भी सामने लाती हैं। हमारे देश में इतनी साहसी माएं है जो अपने एक बेटे के शहीद होने के बाद अपने दूसरे बेटों और अपने पति के शहादत के बाद अपने बेटों को भी सेना में गर्व से भेजती हैं। वास्तव में एक सैनिक का ज़ज्बा लिए और वर्दी पहने नौजवान के लिए देश की सेवा की भावना बहुत ही पवित्र और महान भावना होती है जिससे प्रेरित लोग मौत को सामने देखकर न डरते हैं ना ही झुकते हैं। उनके लिए तिरंगे का सम्मान सबसे बड़ी चीज होती है। देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाली ऐसी देशभक्त महिलाओं और उनके महान चरित्र को दिखाने वाली फिल्मों की विषयवस्तु का विश्लेषण हम इस लेख के माध्यम में करेंगे।
कुछ उल्लेखनीय फ़िल्में
हकीकत (1964) , बॉर्डर (1997), द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह (2002), एलओसी कारगिल (2003), 1971 (2007), नीरजा (2016), राज़ी (2018), उरी द सर्जिकल स्ट्राइक (2019), केसरी (2019), गुंजन सक्सेना: द कारगिल गर्ल (2020), शेरशाह (2021), मुंबई डायरीज (2021), तेजस (2021), सैम बहादुर (2021), मेजर (2021), इक्कीस (2021), भुज: द प्राइड ऑफ़ इंडिया (2021)
सन 2021 में लगातार कई फ़िल्में युद्ध की पृष्ठभूमि पर आने वाली हैं। शेरशाह कैप्टन विक्रम बत्रा और डिम्पल चीमा की कहानी है तो मुंबई डायरीज पाकिस्तानी आतंकवादियों द्वारा 26 नवम्बर 2008 को ताज होटल, छत्रपति शिवाजी टर्मिनल और अन्य स्थानों पर हमला कर सैंकड़ों लोगों की हत्या करने की घटना का भावुक प्रस्तुतीकरण है। इस हमले में मेजर संदीप उन्नीकृष्णन ने शहादत दी थी। फिल्म ‘मेजर’ उन्हीं के जीवन पर आधारित है। सैम बहादुर, सन 1971 के भारत-पाक युद्ध में जीत दिलाने वाले सेना प्रमुख सैम मानेकशां के उपर है तो उसी युद्ध के दौरान भुज एयरस्ट्रिप को रातोंरात ठीक करने वाली तीन सौ महिलाओं और इंडियन एयर फ़ोर्स के स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्निक की कहानी कहती है। परमवीर चक्र विजेता लेफ्टिनेंट अरुण क्षेत्रपाल की जीवनी पर बनी फिल्म ‘इक्कीस’ भी युद्ध सिनेमा की श्रेणी में है। फिल्म ‘तेजस’ एक महिला पायलट के नेतृत्व में बनी फिल्म है जो कि गुंजन सक्सेना के बाद महिला पायलट के ऊपर बनी दूसरी फिल्म होगी। अब तक युद्ध पुरुष प्रधान रहे हैं और बॉलीवुड उनकी कहानी दिखाता रहा है। अब महिलाओं को सेना में भी स्थायी कमीशन मिल गया है, उम्मीद है कि बॉलीवुड अब युद्ध क्षेत्र में उनकी बहादुरी और रण कौशल को सिनेमा के परदे पर उचित स्थान देगा।
हॉलीवुड की फ़िल्में
मेगन लेवी, द इन्विजिवल, जीरो डार्क थर्टी, द किंगडम, जी. आई. जेन, करेज अंडर फायर, द इंग्लिश पेटेंट, टेस्टामेंट ऑफ़ यूथ, होम ऑफ द ब्रेव, रिटर्न, प्राइवेट बेंजामिन, द रीडर
नीरजा (2016) फिल्म की कहानी एयर होस्टेस नीरजा भनोट के साहसिक जीवन पर आधारित है। सन 1986 में एक भारतीय हवाई जहाज के हाईजैक होने पर अपनी बुद्धिमत्ता से कई यात्रियों की जान बचाई थी और खुद आतंकवादियों के हाथों मारी गईं थीं। उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत भारत सरकार ने अशोक चक्र से सम्मानित किया।
केसरी (2019) फिल्म भारत के सिख जवानों और अफगानी जनजातियों के बीच सारागढ़ी किले पर लड़े गए ऐतिहासिक युद्ध की घटना पर आधारित है। सन 1897 में ब्रिटिश सेना के 36वीं सिख रेजिमेंट के मात्र इक्कीस सिपाहियों ने अफगानिस्तान के अफरीदी और पख्तून जनजातियों के दस हजार से ज्यादा जवानों से बहादुरी से लड़ते हुए शहादत दी थी। कैप्टन विक्रम बत्रा ने कारगिल युद्ध में असीम साहस और वीरता का प्रदर्शन करते हुए खुद शहीद होकर विजय दिलाया था जिसके लिए उन्हें परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया।
फिल्म शेरशाह (2021) ने उनकी मंगेतर डिम्पल चीमा के त्याग और समर्पण को सामने लाने का काम किया है जो पंजाब में उनकी विधवा के रूप में अपना जीवन बिता रही हैं। सहमत खान, भारतीय इंटेलीजेंस एजेंसी रॉ की महिला जासूस थीं। उनके जीवन और बहादुरी भरे कार्यों पर ‘कालिंग सहमत’ (2008) शीर्षक उपन्यास को लिखने की प्रेरणा नेवी अफसर हरिदंर सिक्का को तब मिली जब वो कारगिल युद्ध के बारे में रिसर्च करने के दौरान सहमत के बेटे से मिले थे। उनके बेटे ने ही अपनी मां की देशभक्ति की नायाब मिसाल से उनका परिचय करवाया था। कहते हैं कि सहमत इस समय पंजाब के मलेरकोटला में रहती हैं और सिक्का उनसे मिलने भी गए थे। सहमत जी को देखकर इस किताब के लेखक को भी यकीन नहीं हुआ था कि वो वे जासूस रह चुकी महिला हैं। अगर हरिंदर सिंह सिक्का यह किताब न लिखते तो सहमत की कहानी एक गुमनामी में खो गई होती। मेघना गुलजार ने इस उपन्यास का फ़िल्मी रूपांतरण करके सहमत की देशभक्ति, त्याग, बलिदान और महान योगदान को राजी फिल्म के माध्यम से पूरी दुनिया को बताने का काम किया। सहमत ने कभी जासूसी करने के बारे में सोचा भी नहीं था, वह तो कश्मीर की एक सामान्य सी लड़की थीं।
जिस समय वह कॉलेज में पढ़ाई कर रही थीं उसी दौरान उनके पिता ने उन्हें जासूस बनने के लिये कहा था लेकिन सहमत को जासूसी के बारे कुछ भी मालूम नहीं था। अपने पिता की सलाह पर देश की खातिर सहमत खतरा उठाने को तैयार हो गई थीं। इसी क्रम में एक प्लानिंग के तहत सहमत का निकाह पाकिस्तानी आर्मी के एक ऑफिसर के साथ हुआ। वह अपने पति के घर में रहते हुए वह महत्वपूर्ण खुफिया जानकारियां इंडियन आर्मी को भेजती रहीं। सहमत के भेजे संदेशों की वजह से कई लोगों की जान बच सकी थी। फिल्म बताती है कि इन सब खतरों के बीच काम करते हुए उनके पति को भी जान गंवानी पड़ी थी और बड़ी मुश्किल से उन्हें पाकिस्तान से वापस लाया गया था। जब वह भारत लौटीं तो गर्भवती थीं, उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया जो आगे चलकर अपनी मां के जैसे ही भारतीय सेना में शामिल होकर देश की सेवा करता है।
मेगन लेवी (2017) एक महिला नौसैनिक और उसके जर्मन शेफर्ड कुत्ते की सच्ची कहानी पर बनी फिल्म है जो कई सैनिक मिशनों पर जाकर सफलतापूर्वक काम करते हैं। द इन विजिबल वार (2012) अमेरिकन सेना में रेप और लैंगिक शोषण पर आधारित फिल्म है। द किंगडम (2017) एक अमेरिकन महिला जासूस की कहानी है जो एफ.बी.आई. के साथ काम करती है। सऊदी अरब में बम विस्फोट की घटना के जांच के सिलसिले में जो मुश्किलें और लड़ाइयां उसे झेलनी पड़ती हैं उसका प्रभावी चित्रण इस फिल्म में मिलता है। रिटर्न (2011) युद्ध से वापस लौटी एक महिला सैनिक की कहानी है जो अपने घर लौटकर खुद को अडजस्ट कर पाने में असहज पाती है। हॉलीवुड सिनेमा में युद्ध में भाग लेने वाली तथा वार विडोस पर महत्वपूर्ण फ़िल्में बनी हैं जो युद्ध के दुष्प्रभावों और भावनात्मक वंचना को प्रस्तुत करती हैं।
युद्ध विधवाओं की त्रासद जिंदगी
युद्ध जब भी होगा सेना के जवान से लेकर आम जनता तक सबसे ज्यादा पुरुष मारे जायेंगे, शहीद होंगे और उसका अधिकतम दुष्प्रभाव महिलाएं और बच्चे झेलने को अभिशप्त होंगे। युद्धग्रस्त देश के प्राकृतिक संसाधनों से लेकर विकसित संसाधन भी तबाह होंगे। विधवा महिलाओं को अकेले अपने घर-परिवार और बच्चों की ज़िम्मेदारी संभालनी होती है। युद्ध का दुखद पहलू यह है कि इसमें ज्यादातर नौजवान सिपाहियों को जान गंवानी पड़ती है जिसके कारण माँ-बाप और पत्नी-बच्चों को असहनीय पीड़ा से गुजरना पड़ता है। जब हम जौनपुर में थे तब उरी (2016) की घटना हुई थी और श्री राजेश सिंह शहीद हुए थे उस समय उनका एक मात्र बेटा 2 साल का था। देवरिया जनपद में रहने के दौरान पुलवामा (2019) विस्फोट में सिपाही विजय मौर्य शहीद हुए, उनकी बेटी मात्र एक साल की थी।
इन दोनों जवानों का अंतिम संस्कार सैनिक सम्मान के साथ अपनी उपस्थिति में प्रशासन की टीम के साथ हम लोगों ने कराया था। प्रभावित दोनों परिवारों के माता-पिता और पत्नी और बच्चों के चेहरे आज भी जैसे सामने दिख जाते हैं, उनके बारे में सोचकर दुःख होता है। अब्दुल हमीद 10 सितम्बर 1965 को भारत पाकिस्तान युद्ध में शहीद हुए थे, उन्हें अदम्य साहस और वीरता के लिए याद किया जाता है। उनकी विधवा पत्नी रसूलन बीबी ने कई मुश्किलों का सामना करते हुए अपने घर-बच्चों को सम्भालने का काम किया। परमवीर चक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद की पत्नी रसूलन बीवी (89 वर्ष) का 02 अगस्त 2019 को गाजीपुर जनपद के ग्राम धामूपुर स्थित अपने आवास पर निधन हो गया। रसूलन बीवी के परिवार में चार पुत्र और एक पुत्री हैं। सन 2017 में सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत और तत्कालीन राज्यपाल श्री राम नाइक भी धामुपुर गांव गये थे।
राजस्थान राज्य के थार मरुस्थल में एक स्थान है शेरगढ़। नाम के अनुरूप ही यहां के लोग बहादुर हैं और सेना में जाना उनका सबसे बड़ा शौक है। शेरगढ़ तहसील के लगभग 100 गांवों के लोग विश्वयुद्ध से लेकर अब तक देश के अंदर और बाहर के मिशनों में काम कर चुके हैं और विभिन्न युद्धों में अपनी शहादत दी है। यहां के लोग बड़ी शान से कहते हैं कि शेरगढ़ प्रतिदिन देशभक्त और युद्ध के नायक पैदा करता है। सेना में नौकरी करने और युद्ध में शहीद होने के कारण यहां की गांवों में विधवाओं की संख्या (250 से ज्यादा) बहुत है। इन गांवों में शहीदों के नाम के पत्थर, स्मारक, घरों के भीतर शहीद जवानों के फोटोंउनकी वर्दियां, मेडल्स, ट्रंक्स पाए जाते हैं।
हॉलीवुड और बॉलीवुड, दोनों ने युद्ध को मसाला बनाया
अमेरिका में युद्ध के कारण विधवा हुई महिलाओं ने अपना एक संगठन बनाया है ताकि वे एक दूसरे की मदद कर सकें अपने पतियों की यादों को संजोकर रख सकें। इसकी शुरुआत 21 साल की उम्र में विधवा हो चुकी टारयन डेविस नाम की महिला ने किया, जिनके पति इराक युद्ध में 21 मई 2007 को शहीद हो गए थे। टारयन ने ‘अमेरिकन विडो प्रोजेक्ट’’ नामा से एक 75 मिनट लम्बी डाक्युमेंट्री फिल्म बनाकर प्रदर्शित किया। अब ये वार विडोस एकजुट होकर कार्यक्रम आयोजित करती हैं और फिर से एक उदेश्यपरक और खुशनुमा ज़िन्दगी जी रही हैं और एक दूसरे का सहयोग कर रही हैं।
सन 1976 में पाल बोगार्ट ने द वार विडो नाम से एक टेलीविजन फिल्म बनाया था। अमेरिकन टेलीविजन पर प्रदर्शित यह पहली मेनस्ट्रीम लेस्बियन प्रेम कहानी थी। प्रसिद्ध अमेरिकन-ऑस्ट्रलियन लेखिका तारा मॉस ने ‘द वार विडो’ नाम से एक पुस्तक लिखी जिसमें सन 1946 के सिडनी शहर में युद्ध रिपोर्टिंग करने वाली एक महिला पत्रकार बिल्ले वॉकर की कहानी को प्रस्तुत किया है जो अपने पिता और पति को खोने के बाद टूट चुकी है। युद्ध समाप्त होने के बाद उसके जैसे काबिल रिपोर्टर की अब जरूरत नहीं रह गयी है इसलिए वह एक जासूसी एजेंसी चलाने लगती हैं। एक गायब हुए लड़के की तलाश करने के दौरान उसे ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़ता है कि वह एक नतीजे पर पहुंचती है कि एक युद्ध को भले ही जीत लिया गया हो लेकिन वह कभी समाप्त नहीं होता।
सेना में खुद महिलायें
अपने देश में बहादुर महिलाओं का भी इतिहास रहा है। उदा देवी, झलकारी बाई, रानी गाईदिल्यु, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने युद्ध के मैदान में डटकर दुश्मनों का मुकाबला किया। अभी हाल में हुए ओलम्पिक खेलों में जो दम-ख़म महिलाओं ने दिखाया है वह साबित करता है कि महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं है। पुलिस और सेना में भी वे लम्बे समय से अपनी सेवाएं सफलता पूर्वक दे रही हैं। भारत में सन 1992 में शोर्ट सर्विस कमिशन के लिए महिलाओं का पहला बैच भर्ती हुआ था। पहले यह 5 साल के लिए था, बाद में 10 साल का होते हुए सन 2006 में 14 साल का हो गया। जहां सेना के पुरुष अधिकारी सेवा के दस साल पूरे होने पर अपनी योग्यतानुसार स्थायी कमीशन के लिए आवेदन कर सकते हैं जबकि महिलाएं ऐसा नहीं कर सकती हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट के 17 फरवरी 2020 के अपने आदेश में अब महिलाओं को सेना के 10 शाखाओं में स्थायी कमीशन मिल सकेगा। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि सामाजिक धारणाओं के आधार पर महिलाओं को समान मौके न मिलना परेशान करने वाला और अस्वीकार्य है। सेना में समानता लाने के लिए हमें अपनी मानसिकता परिवर्तित कर महिलाओं को समान अवसर देना ही होगा। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला बेहद प्रशंसनीय है जो महिला सशक्तिकरण के साथ सेना में उन्हें सम्मानजनक हैसियत दिलाने में ऐतिहासिक साबित होगा।
सेना में महिलाएं बख़ूबी काम कर रही हैं, स्थायी कमीशन मिलने से उनका मनोबल और बढ़ेगा। कुछ साहसी महिलाओं का ज़िक्र करना यहां प्रासंगिक होगा। नीतिका कौल ने अपने पति मेजर विभूति शंकर ढौंडियाल के शहीद होने के दो वर्ष बाद आर्मी अफसर के पद पर ज्वाइन किया। नीतिका के पति उन दोनों की शादी के दस महीने बाद ही फरवरी 2019 में जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में आतंकवादियों से मुठभेड़ के दौरान शहीद हो गए थे। यह निकिता के साहस की मिसाल है जो पति के शहादत के बाद भी वह सेना में जाकर देश की सेवा करना चाहती हैं। मेजर शफीक गोरी जुलाई 2001 में शहीद हुए थे तो उनकी पत्नी सलमा की उम्र मात्र 29 वर्ष थी। लोगों ने उन्हें नयी ज़िन्दगी शुरू करने की सलाह दी थी लेकिन उन्होंने अपने शहीद पति की स्मृतियों के साथ हमेशा के लिए उनकी पत्नी रहकर ही जीने का फैसला लिया। पति की शहादत के 16 साल बाद जब उन्होंने फेसबुक पर ‘बीइंग यू’ नाम की पोस्ट डाली तो उसे 2 लाख लाइक्स और 42 हजार शेयर मिले, एनडीटीवी न्यूज़डेस्क ने इस पर एक खबर प्रकाशित की।
सलमा शफीक अब युद्ध विधवाओं के लिए काम करती हैं और अपने बच्चों की परवरिश भी। देश के कोने-कोने से और हमारे उत्तर प्रदेश और बिहार के विभिन्न जनपदों से बड़ी संख्या में किसानों के बेटे सेना और अर्द्धसैनिक बलों में नौकरी के लिए जाते हैं और जब भी युद्ध या बड़ी आतंकवादी घटनाएं होती हैं वे बहादुरी से लड़ते हुए अपनी शहादत देते हैं। हम ऐसे शहीदों और उनकी विधवाओं के साहस और बाहादुरी को सलाम करते हैं। सैनिकों के पुनर्वास और कल्याण के लिए देश के प्रत्येक जनपद में सैनिक कल्याण के आफिस बने हुयें हैं। ‘इंडियन आर्मी वेटेरन पोर्टल’ भी काम कर रहा है इसमें सैनिकों, शहीदों और वीर नारियों के सहयोग और कल्याण (पेंशन, स्वास्थ्य और अन्य सुविधाएं) के लिए विशेष ध्यान रखा जाता है। भारतीय सिनेमा ने वीर सैनिकों और युद्ध विधवाओं (वार विडोज) के त्याग और बलिदान को पूरी दुनिया के सामने लाने का जो काम किया है वह सराहनीय है। उम्मीद है कि भविष्य में भी वे उन्हें सम्मान सहित परदे पर प्रस्तुत करते रहेंगे।
संदर्भ अरांगो, टिम (2008) हेल्पिंग वार विडोस ऑन रोड अहेड, इन द न्यूयॉर्क टाइम्स ऑन 24 अगस्त 2008. छिना, मान अमन सिंह (2021) टू इयर्स आफ्टर ऑफिसर किल्ल्ड इन एंटी-टेरर ऑपरेशन, वाइफ जॉइन्स आर्मी, इन इंडियन एक्सप्रेस ऑन मई 30, 2021. महूरकर, उदय (1997) वार विडोस ऑफ़ शेरगढ़: फालोविंग अ ट्रेडिशन ऑफ़ ऑनर देट इज एन इनविटेशन टू सॉरो, इन डब्लूडब्लूडब्लू.इंडियाटुडे.इन, ऑन अगस्त 4, 1997. ओयिबोके, अमेन (2017) 13 मूवीज अबाउट वीमेन इन वार टू सी एज सून एज पॉसिबल, इन डब्लूडब्लूडब्लू.बस्टल.कॉम., ऑन 30 मई 2017. सेठ, अनालिता (2021) इंडिपेंडेंस डे स्पेशल: 10 फिल्म्स बेस्ड ऑन ट्रू इवेंट्स देट विल अवेक द पेट्रियट इन यू, इन फिल्मफेयर ऑन 15 अगस्त 2021. ‘ही इज माय फॉरएवर’ सेज, आर्मी विडो अबाउट हसबेंड इन पोस्ट गॉन वायरल बाय एनडीटीवी ऑफबीट डेस्क ऑन 5 जुलाई 2017.
????
*युद्ध, समाज और सिनेमा* थीम पर केंद्रित राकेश कबीर जी का नया शोधपरक आलेख *सिनेमा ने युद्ध को मनोरंजन का माध्यम बनाया तो महिलाओं की दुर्दशा और जीवट को भी दिखाया* पढ़ा। आपने महत्वपूर्ण विषय चुना इस बार और उसे बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया है।
इस दुनिया को जिन कुछ चीजों ने बहुत क्षति पहुंचाई है उनमें युद्ध, युद्ध की मानसिकता, युद्ध का डर और युद्ध का उन्माद सबसे बड़े कारकों में से एक हैं। दुनिया के सभी देशों का इतिहास युद्धों के इतिहास और उसकी विभीषिकाओं की गाथाओं से पटा पड़ा है। सच तो यह है कि युद्धों से खोखले वर्चस्व के नाम हासिल तो बहुत कम होता है किंतु खोया बहुत जाता है। युद्ध करने वाले दोनों पक्षों/शामिल सभी देशों की बेहिसाब जन धन और अन्य संसाधनों की हानि/बर्बादी होती है। यह भी सच है कि युद्ध में जीत चाहे जिसकी भी होती हो हर युद्ध में इंसानियत और सभ्यताएं हारती हैं, मानवीयता और संवेदनाएं क्षरित होती हैं और इतिहास में कभी न भरे जाने वाले जख्मों की दास्तानें दर्ज हो जाती हैं।
युद्ध और युद्ध की विभीषिका पर हॉलीवुड तथा अन्य विकसित और एशियाई देशों के फिल्मकारों ने पूरी संवेदना और यथासंभव वास्तविक तथ्यों के आधार पर मार्मिक फिल्में बनाई हैं और कई फिल्मों ने ऑस्कर पुरस्कार जीते हैं। हमारे बॉलीवुड ने भी समय समय पर युद्ध, युद्ध के नायकों और युद्ध की विभीषिकाओं को केंद्र में रखकर कई फिल्में बनाई हैं जिनका लेखा – जोखा आपने अपने आलेख में बड़ी कुशलता से प्रस्तुत किया है। हमारे फिल्मकारों ने भी युद्ध की पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाते समय समझदारी दिखाई है और बहुत जरूरी होने पर ही सिनेमाई छूट ली है और मुंबईया लटकों – झटकों से ज्यादातर बचे ही रहे हैं। यह उनकी मजबूरी भी रही है क्योंकि युद्ध से जुड़ी कथाओं/घटनाओं/नायकों के फिल्मांकन/चित्रण में तोड़मरोड़ या छेड़छाड़ न तो दर्शक बर्दाश्त करते और न ही सेंसर बोर्ड (और सरकारें भी) ऐसा करने की उन्हें छूट देते। इसलिए इस विषय/थीम पर जितनी भी फिल्में बनी हैं (और बन रही हैं) व्यवसायिक रूप से भी सफल ही रही हैं। और हो भी क्यों न…देशभक्ति की भावना, अपने वीरों/नायकों की वीरता एवं बलिदान को सिनेमा के पर्दे पर दृश्यमान रूप में देखने की उत्कंठा और बलिदानियों के परिवारीजन की मनोदशा के प्रति गहरी सहानुभूति किस व्यक्ति में नहीं होती है।
राष्ट्र सुरक्षित, शांतिपूर्ण और अखंड रहे इसे सुनिश्चित करना हर देश के लिए सर्वोपरि लक्ष्य/ध्येय होता है। लेकिन अक्सर सत्ता शीर्ष पर बैठे अर्ध विक्षिप्त /पगलंट शासकों/ तानाशाहों की दुर्दम्य लालसाओं के कारण युद्ध जबरन थोप दिए जाते हैं और युद्ध में शामिल देशों को अंततः बर्बादी के सिवा कुछ भी हासिल नहीं होता है। युद्ध में कोई जीते या न जीते किंतु मनुष्यता, सभ्यता, निर्दोष सैन्यबलों और दुर्लभ संसाधनों का क्षरण/हार अवश्य होती है। युद्ध की मार से गरीब देश और गरीब होता है…विकासशील देश और पिछड़ जाता है तथा विकसित देश भी तगड़ी मार खाता है। आज दुनिया में युद्ध का डर न हो, सीमाओं के अतिक्रमण की आशंका न हो और प्रतिरक्षा की चिंता न हो तो परमाणु हथियारों सहित अन्य युद्धक संसाधनों को जुटाने और सेनाओं के अनुरक्षण पर हर साल किए जाने वाले खरबों डॉलर के व्यय को टालकर दुनिया के करोड़ों लोगों के लिए दो वक्त की रोटी, कपड़ा, आवास, चिकित्सा और शिक्षा की व्यवस्था कर इस दुनिया को वाकई में खूबसूरत और रहने लायक बनाया जा सकता है।
आपने अपने लेख में युद्ध की थीम पर आधारित सभी महत्वपूर्ण फिल्मों की कथावस्तु, उनके मूल नायकों और उनके परिजन, विशेष रूप से सेनानियों की पत्नियों के जीवन पर पड़े प्रभाव को शब्दबद्ध करने का यथेष्ट प्रयास किया है। पूरा आलेख पठनीय बन पड़ा है और समेकित रूप से जानकारी उपलब्ध कराता है।
आलेख की निम्नलिखित टिप्पणियों/सम्मतियों ने विशेष रूप से ध्यान आकर्षित किया है:
– “युद्ध जब भी होगा सेना के जवान से लेकर आम जनता तक सबसे ज्यादा पुरुष मारे जाएंगे, शहीद होंगे और उसका अधिकतम दुष्प्रभाव महिलाएं और बच्चे झेलने को अभिशप्त होंगे।”
-“….एक युद्ध को भले ही जीत लिया गया हो लेकिन वह कभी समाप्त नहीं होता।”
– ” भारतीय सिनेमा ने वीर सैनिकों और युद्ध विधवाओं के त्याग और बलिदान को पूरी दुनिया के सामने लाने का जो काम किया है वह सराहनीय है।”
राकेश जी, इस नए विषय पर सुंदर और पठनीय प्रस्तुति के लिए आपको बधाई। सिनेमा और समाज पर नियमित रूप से और बढ़िया लेखन कर रहे हैं। हमारी शुभकामनाएं।
– गुलाबचंद यादव
?????
विभिन्न देशों के बीच युद्ध या आतंकवादियों के विरुद्ध लड़ाई के दौरान आर्थिक नुकसान के साथ साथ जनहानि भी होता है ।आर्थिक स्थिति की भरपाई तो की जा सकती है लेकिन जन हानि में एक उस व्यक्ति के साथ साथ उसका पूरा परिवार बिखर जाता है बहुत मुश्किल होता है ऐसी स्थिति में परिवार का भरण पोषण करना । फिर भी इन सभी समस्याओं को झेलते हुए अपने को आगे ले गए है जिनको भारतीय सिनेमा ने इसे बखूबी दर्शकों के सामने पेश किया है । और दर्शकों के द्वारा पसंद भी किया गया है।इतने शोधपरक लेख लिखने के लिए बधाई एवम् शुभकामनाएं।
???
युद्ध, उसकी मानसिकता, और उसके आतंक ने विश्व को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाई है । सभी देशों ने समय समय पर युद्ध की विभीष्काओं को झेला है । यह सच है कि युद्ध कभी भी उतने रोमांचकारी नहीं होते हैं, जितना सिनेमा के पर्दे पर दर्शाए जाते हैं । युद्धरत दोनों पक्षों/शामिल सभी देशों को बेहिसाब जन धन और अन्य संसाधनों की हानि ही उठानी होती है। यह भी सच है कि युद्ध में जीत चाहे जिसकी भी होती हो हर युद्ध में इंसानियत और सभ्यताएं ही हारती हैं । युद्धों के परिणाम वो परिवार ही समझते हैं जिनके परिजन यहाँ कुर्बान होते हैं ।
युद्ध में सेना के जवान से लेकर आम जनता तक सबसे ज्यादा पुरुष मारे जाते हैं, और उनका दुष्प्रभाव महिलायें और बच्चे झेलते हैं । युद्धग्रस्त देश के प्राकृतिक संसाधनों से लेकर विकसित संसाधन भी तबाह होंगे। विधवा महिलाओं के जीवन का अकेलापन अकल्पनीय है ।
युद्ध समाज और सिनेमा को विषय बनाकर लिखा गया यह महत्वपूर्ण आलेख है । युद्ध और युद्ध की विभीषिका पर हॉलीवुड तथा अन्य विकसित और एशियाई देशों के फिल्मकारों ने पूरी संवेदना और यथासंभव वास्तविक तथ्यों के आधार पर मार्मिक फिल्में बनाई हैं ।
बॉलीवुड ने भी समय समय पर युद्ध, युद्ध के नायकों और युद्ध की विभीषिकाओं को केंद्र में रखकर कई फिल्में बनाई हैं जिनका सारगर्भित विवरण आलेख में प्रस्तुत किया गया है। हमारे फिल्मकारों ने भी युद्ध की पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाते समय समझदारी दिखाई है और बहुत जरूरी होने पर ही सिनेमाई छूट ली है और मुंबईया लटकों – झटकों से ज्यादातर बचे ही रहे हैं। यह काबिलेतारीफ है ।
बहरहाल युद्ध और समाज को सिनेमा के माध्यम से अभिव्यक्त करने में लेखक पूर्णतयः सफल रहें है , जिसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं ।
[…] सिनेमा ने युद्ध को मनोरंजन का माध्यम ब… […]