सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आखिर कैसे देखा जाए? एससी-एसटी समाज में उप वर्गीकरण यानि बंटवारे की और क्रीमीलेयर तलाशने की जरूरत क्यों आ पड़ी? इसके पीछे की राजनीतिक मंशा क्या है? इस फैसले के चलते, समाज के किस हिस्से पर, तात्कालिक और दूरगामी नज़रिए से क्या असर पड़ने वाला है? इन सब बिंदुओं पर अब खुलकर बात करने का समय आ गया है।
आज़ के हालात पर अगर थोड़ी भी नज़र डाली जाए, तो तुरंत जो बात समझ में आने वाली है कि दलित-आदिवासी समाज के संघर्षरत मुख्य हिस्से, जो अभी-अभी संघर्ष करने की स्थिति में आएं ही हैं, उन्हीं परिवारों और जातियों को राज्य दर राज्य क्रीमीलेयर के नाम पर निशाने पर लिया जाएगा, यानि इन्हें न केवल एससी-एसटी दायरे से बाहर किया जाएगा बल्कि उस ओपन कैटेगरी से भी बाहर कर दिया जाएगा, जो पहले से ही अघोषित रूप से वर्चस्ववादी जातियों के लिए रिजर्व कर दिया गया है।
यह भी आश्चर्यजनक बात है कि सात जजों को फैसला लेना था कि एससी एसटी कैटेगरी में उप वर्गीकरण किया जाए या नहीं, क्रीमीलेयर का मसला, बहस के केंद्र में कहीं था ही नहीं पर न्यायधीशों ने अपने सांविधानिक दायरे से बाहर जाकर आर्थिक मामले को ही प्रधान तत्व बना दिया और क्रीमीलेयर मसले को ही केंद्र में ला दिया।
अब खुद सोचिए, अगर ये जातिवादी हमला नहीं है तो क्या है? अगर तथाकथित क्रीमीलेयर के लोग चौतरफ़ा अगर छा गए हैं तो फिर बैकलॉग के लाखों पद खाली कैसे पड़े है? ज्यूडिशियरी और मीडिया, सरकारी कार्यालयों व विश्विद्यालयों में सवर्ण वर्चस्व कैसे बरकरार है? नाट फाउंड सुटेबुल यानि NFS जैसे शब्द देशव्यापी स्तर पर चर्चा में क्यों है?
जजों को इसका जवाब नहीं देना था। उन्हें न्याय नहीं करना था, फैसला सुनाना था, जो उन्होंने सुना दिया।
कोर्ट ने न्याय की जगह दिया फैसला
एक और कमाल देखिए, कोर्ट ने एक तरफ तो यह कहा कि बिना डाटा के कोई भी राज्य एसटी एससी के अंदर उपवर्गीकरण नहीं कर सकता, बंटवारे के लिए तथ्य पेश करना होगा पर दूसरी तरफ खुद कोर्ट ने बिना किसी तथ्य या डाटा के ही अपर कास्ट द्वारा बहुप्रचारित उस नैरेटिव को मान लिया कि कुछ दलित या आदिवासी जातियां आरक्षण का ज्यादा फायदा उठा रही हैं। पर इस संदर्भ में न कोई तथ्य पेश किया गया न न्यायधीशों द्वारा मांगा गया। अगर ये राजनीतिक फैसला नहीं है तो कोर्ट सीधे कहता कि पहले डाटा लाओ, तत्काल जाति जनगणना की देशव्यापी स्तर पर गारंटी करो, फिर उपवर्गीकरण या क्रीमीलेयर की बात करो।
पर हर बात पर डाटा मांगने वाले कोर्ट ने ऐसा कुछ नहीं किया, बल्कि शासक जातियों के मिथ्या प्रचार को ही तथ्य मान लिया।
न्यायधीशों ने बड़ी बेरहमी से अनुच्छेद 341-342 की धज्जी उड़ाकर रख दी है। यह संविधान के साथ बस कुछ छेड़छाड़ नहीं है बल्कि उसे पूरी तरह बदल दिया गया है। एससी एसटी आरक्षण से जुड़ा कोई भी मामला, जो संसद और राष्ट्रपति के अधीन था, संविधान के कुछ बुनियादी अधिकारों में आता था, उसे अब राज्य सरकारों के हवाले कर मनमानी करने व अराजकता फैलाने की खुली छूट दे दी है।
डां आंबेडकर ने कभी कहा था कि ‘एसटी एससी समाज को आरक्षण की सुरक्षा देने का मकसद, भागीदारी या प्रतिनिधित्व देने के साथ हर हाल में आपस की एकता को बनाए रखना है।‘ पर इस फैसले के बाद राज्य दर राज्य, सस्ते राजनीतिक हितों के लिए बहुजनों की एकता को तार-तार किया जाएगा, आने वाले समय में देश भर में अराजकता का विस्तार होगा और दलितों-आदिवासियों ने अपने संघर्षों के बल पर जो कुछ भी अभी तक उपलब्धियां हासिल कर रखी थीं,उसे फिर से पीछे ढकेलने की जबरदस्त कोशिश की जाएगी।
सात जजों के संविधान पीठ ने संविधान पर एक और बड़ा हमला धीरे से कर दिया है, आरक्षण के आधार को पूरी तरह बदल दिया है। आरक्षण के आधार का प्रधान तत्व अब ‘आर्थिक’ हो जाएगा। सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ापन या सामाजिक भेदभाव, छूआछूत अब गौण तत्व में तब्दील हो जाएगा।
कोर्ट का इस दिशा में प्रयास पहले से ही जारी था। बिना किसी डाटा के सबसे पहले ओबीसी में क्रीमीलेयर खोजा, फिर इडब्ल्यूएस की अवधारणा को लाया और बिना किसी सर्वेक्षण के इकनामिकली वीकर सेक्शन के नाम पर अपरकास्ट को 10 फीसदी आरक्षण दे दिया यानि 15 फीसदी वाले समुदाय को लगभग 70 फीसदी आरक्षण देकर संविधान की नींव को हिला दी। हद तो तब हो गई जब एसटी एससी समुदाय में भी क्रीमीलेयर तलाश लिया। इस तरह वर्चस्ववादी जातियों के आरक्षण को पूरी तरह से आर्थिक आधार पर देने की लंबे समय की मंशा को सफलतापूर्वक संपन्न किया गया।
पिछले कई वर्षों से अपने निर्णयों में, न्यायपालिका बार-बार सामाजिक न्याय से जुड़े गंभीर मुद्दों पर संविधान का पक्ष लेने के बजाय, वर्चस्ववादी जातियों या उनकी समर्थक सरकारों का पक्ष लेती हुई दिख जा रही है।
चाहे एसटी एससी एक्ट को कमजोर कर देने की कोशिश हो, आर्थिक आधार पर आरक्षण को जायज़ ठहरा देने का मसला हो यानि इडब्ल्यूएस को हरी झंडी देने का मामला हो या प्रमोशन में आरक्षण पर रोक लगा देने का फैसला हो, हर ऐसे मामले में संविधान को खुलेआम दरकिनार कर दिया जा रहा है। तथ्यों और तर्कों परे जाकर फैसले लिए जा रहे है।
जनता के बीच यह आम धारणा बनती जा रही है कि न्यायपालिका सरकार की मंशा के अनुरूप ही फ़ैसले देने वाली एजेंसी में तब्दील होती जा रही है। खुद मोदी सरकार की पहचान वर्चस्ववादी जातियो व कारपोरेट ताकतों को संरक्षण देने वाली सरकार की बनती जा रही है। इस तरह से पूरे तंत्र पर भरोसे का संकट पैदा हो गया है।
कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच संविधान और सरकार के बीच, उसी तरह ताकतवर समूहों और कमजोर रह गए समूहों के बीच जो संतुलन का तंत्र था, उसे धीरे-धीरे करके पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया है।
सामाजिक न्याय व धर्मनिरपेक्ष की बातें केवल बातें भर ही
बिहार में बढ़े आरक्षण को जिस तरह से पटना हाईकोर्ट ने तथ्यों, तर्कों व संविधान की मंशा से परे जाकर असंवैधानिक करार दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से उस आदेश को बरकरार रखा है उसे आप-हम, कार्यपालिका, न्यायपालिका और ताकतवर समूहों के बीच के गठजोड़ के क्लासिक उदाहरण के बतौर देख सकते हैं।
ईडब्ल्यूएस आरक्षण के जरिए 50 फीसदी सीमा तो कोर्ट पहले ही पार कर चुका है और हर बात पर डाटा मांगने वाले कोर्ट के सामने बिहार में बिल्कुल नया डाटा भी मौजूद था। बावजूद इसके मनमाने तरीके से खाप पंचायतों की तर्ज़ पर बिहार में आरक्षण को रद्द कर दिया गया।
ऐसे में यह जरूरी हो गया है कि सरकार, न्यायपालिका और ताकतवर समूहों के बीच बढ़ते गठजोड़ को अब, सार्वजनिक बहस के केंद्र में लाया जाए, खासकर न्यायतंत्र, जिस पर बातचीत कम होती है, उसे सवालों के दायरे में बार-बार लाने की तरफ अब बढ़ा जाए।
हालांकि न्यायपालिका पहले से ही सवालों के घेरे में रही है। अन्य पावर सेंटर के बनिस्पत उसकी घेरेबंदी कम होती रही है, पर इधर मोदी काल में यानि पिछले 10 सालों से न्यायतंत्र पर भारतीय जनता का भरोसा बेहद कमजोर होता गया है। इस दौरान, न्यायधीशों की विवेकशीलता का मनमाना इस्तेमाल भी बहुत बढ़ गया है। इन 10 सालों में सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष प्रश्नों पर न्यायतंत्र का रवैया बेहद निराश करने वाला रहा है। इसके दर्जनों उदाहरण दिए और देखे जा सकते हैं।
पर मूल सवाल, न्यायपालिका की संरचना और भारतीय सामाज की संरचना के बीच का जो मुख्य अंतर्विरोध है, उसको ठीक-ठीक पहचानने का है। भारतीय राज्य के निर्माण के दौर से ही पावर के जितने भी केंद्र थे लगभग वे सभी भारतीय समाज की विविधता के खिलाफ काम करते रहे है। विधायिका और कार्यपालिका पर तो एक स्तर तक अंकुश बना रहा पर न्यायपालिका को ख़ास ऐतिहासिक कारणों से पवित्र गाय का दर्ज़ा दे दिया गया। इसके चलते न्यायतंत्र को सवालों से परे कर दिया गया। नतीजन नीचे से ऊपर तक न्यायतंत्र, अपने मुल्क के पुराने व नए वर्चस्ववादी ताकतों के विचार, दर्शन का ही ज्यादा प्रतिनिधित्व करता रहा, जबकि भारत एक बहुसांस्कृतिक, बहुजातीय विविधता वाला देश है, इसके विपरित भारतीय राज्य के जितने भी शक्ति केंद्र हैं, वे सभी अपनी संरचना में ही बेहद एकांगी हैं,पर न्यायतंत्र तो और भी ज्यादा एकांगीपन लिए हुए है,यह निर्धनता तब और बढ़ जाती है जब उसी तरह या उससे भी ज्यादा एक रंग वाला मुल्क बनाने की मंशा रखने वाली सरकार भी आ जाती है।
इस नकारात्मक तालमेल के चलते ही इस दौर में न्यायतंत्र को दलितों-आदिवासियों की बात समझ में नहीं आती है। लिंचिंग झेल रहे अल्पसंख्यकों की आवाज को नहीं सुन पाता है न्यायतंत्र। उसे कश्मीरियों की भावनाएं नही समझ में आती हैं। इस एकांगीपन के चलते ही एससी-एसटी को सुरक्षा देने वाले कानून, उसे अपर कास्ट को सताने वाले नज़र आने लगते हैं। इस नजरिए के चलते ही बिहार में नए आरक्षण को असंवैधानिक बता दिया जाता है,और एसटी एससी को बांटना ज़रूरी लगता है और वहां भी क्रीमीलेयर दिखाई देने लगता है।
सरकार की मंशा एसटी, एससी,ओबीसी की एकता को कमजोर करना
असल में नये-पुराने संसाधनों पर कब्ज़ा जमाए, वर्चस्ववादी समूहों व जातियों का राजनीतिक अर्थशास्त्र ही इसके केंद्र में है। यह अनायास ही नहीं है कि यह फैसला संघ-भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को भी सूट करता है। हम सब जानते हैं कि हाल के लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत और खासकर उत्तर प्रदेश में, बहुजनों की एकता ने भाजपा और उसके मूल समर्थक जातियों को जोर का झटका दिया है, पर अब इस फैसले ने संघ-भाजपा को फिर से दलित-आदिवासी-ओबीसी समाज की अंदरूनी एकता को तोड़ डालने का नया रास्ता मुहैय्या करा दिया है, विभाजनकारी राजनीति को नये सिरे से मांजने का बड़ा मौका दे दिया है.यह भी बिल्कुल संभव है कि ओबीसी समाज के बंटवारे पर केंद्रित रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को भी जल्दी ही ज़ारी कर दिया जाए,ताकि संपूर्णता में राज्य दर राज्य,संघ-भाजपा के नेतृत्व में,नए सिरे से,नफ़रत और विभाजन की ख़तरनाक और विनाशकारी राजनीति को परवान चढ़ाया जा सकें.
पर सवाल ये है कि नागरिक विपक्ष व जनांदोलन की ताक़तें, इस आसन्न ख़तरे से वाकिफ हैं? इस बड़े ख़तरे से निपटने की उनकी कोई तैयारी है? जब हम इस सवाल की पड़ताल करते हैं तो थोड़ी निराशा हाथ लगती है, सामाजिक न्याय व सेकुलरिज्म से जुड़े हर सवाल की तरह, इस बिंदु पर भी विपक्ष या तो चुप है या फिर बेहद औपचारिक विरोध में है। इस मसले पर भी एक विभाजित और बिखरा हुआ विपक्ष साफ-साफ दिख रहा है, जो जनता के बदले हुए मिज़ाज़ के बावजूद अपनी पुरानी रणनीति को ही बार-बार दोहराता नज़र आ रहा है।