साहिर लुधियानवी हमारे सिनेमा के सबसे बड़े गीतकारों में थे जिनके गानों की गूंज आज भी घर-घर में सुनाई देती है। भारतीय सिने पटल पर उनसे बड़ा शब्दों का बाजीगर शायद न कोई था न कोई होगा। साहिर प्रगतिशील बदलाव के वाहक भी हैं और प्रेम के पुजारी भी। 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस भी होता है और शायद साहिर जैसे क्रांतिकारी कवि की रचनाओं के सहारे हम महिलाओं की बराबरी से नई इबादत भी लिख सकते हैं। वैसे साहिर को सिनेमा तक ही सीमित कर देना बड़ी भूल होगी लेकिन आज हम साहिर को याद करते हुए उनकी अमर रचनाओं को भी याद करेंगे।
साहिर का जन्म लुधियाना, पंजाब में एक जमींदार परिवार में 8 मार्च, 1921 को हुआ था। साहिर उनका पेन नेम था और बचपन में उनका नाम अब्दुल हई फजल मोहम्मद था। वहअपने पिता फजल मोहम्मद की 11वीं संतान थे लेकिन माँ सरदार बेगम से पहली। दरअसल, उनकी माँ सरदार बेगम ने पिता फजल मोहम्मद को छोड़ दिया था और फिर दोनों के बीच साहिर को लेकर अदालतों में लड़ाई भी हुई। साहिर की पढ़ाई-लिखाई लुधियाना में ही हुई। 1943 में वह लाहौर में सेटल हो गए और फिर उनकी नज़्म की किताब तल्खियाँ पूरी की जो 1944 में उर्दू में छपी। वह आल इंडिया स्टूडेंट फेडरेशन के सदस्य भी बने और उर्दू में बहुत-सी पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन किया। बाद में वह प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के सदस्य भी बन गए। विभाजन के बाद वह पाकिस्तान में थे लेकिन जब उन्होंने साम्यवादी विचारधारा के समर्थन में लेख लिखे और अपने भाषणों में बात रखी तो पाकिस्तान की सरकार को वह नागुजार लगी और उनके विरुद्ध गिरफ़्तारी का वारंट निकल गया। 1949 में साहिर ने हमेशा के लिए पाकिस्तान छोड़ दिया और भारत आ गए और आखिर में मुम्बई में बस गए, जहाँ गुलज़ार और किसन चंदर उनके पड़ोसी थे। उनकी पहली फिल्म का सफर उनके दोस्त द्वारा बनाई जा रही फिल्म आज़ादी की राह पर से शुरू हुआ हालांकि इस फिल्म के विषय में कुछ विशेष जानकारी अब उपलब्ध नहीं है। साहिर के लिए पहला बिग ब्रेक था देव आनंद की फिल्म बाजी जिसका संगीत एसडी बर्मन ने दिया। 1951 में नवकेतन बैनर्स के तहत बनी इस फिल्म के डायरेक्टर थे गुरु दत्त। इस फिल्म में गीता दत्त का गीत तबदीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, अपने पे भरोसा हो तो यह दांव लगा ले। साहिर गुरुदत्त की फिल्मों के अभिन्न अंग बन गए और फिर उनके गीतों ने प्रेम और क्रांति की बरसात की। गुरुदत्त की फिल्म प्यासा भारतीय सिनेमा की महानतम फिल्मों में से एक मानी जाती है, लेकिन यदि साहिर के गीत न होते तो इस फिल्म की आत्मा न होती। एसडी बर्मन, साहिर, रफी, शमशाद बेगम, गीता दत्त ने मिलकर सिनेमा के परदे पर एक यथार्थ को जीवित किया। साहिर का यह गीत आज भी हमारे जीवन की हकीकत को बयान करता है :
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रवाजों की दुनिया,
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
हर इक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
यहाँ इक खिलौना है इसां की हस्ती
ये बस्ती हैं मुर्दा परस्तों की बस्ती
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
इसी फिल्म में साहिर के एक और बेहद खूबसूरत गीत को हेमंत कुमार की गहरी आवाज ने अमर कर दिया –
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला,
हमने तो जब कलियां मांगी, काँटों का हार मिला।
[bs-quote quote=”साहिर के गीतों में न केवल उनके जीवन का दर्शन था अपितु इंसानी रिश्तों की गहरी समझ भी थी। 1959 में बीआर चोपड़ा की फिल्म धूल का फूल में साहिर के गीतों ने धूम मचा दी। एक-एक गीत अपने समय से बहुत आगे था और उनको मात्र सिनेमा तक सीमित नहीं किया जा सकता। इस फिल्म का यह गीत तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा… हमारे देश की तत्कालीन राजनीति और विचारधारा का एक बहुत बड़ा प्रतीक था। आज के दौर में जब मजहब और जाति की अस्मिताओं के नाम को ही संस्कृति कह दिया जा रहा हो तो ऐसे गीतों को धर्म या देश विरोधी करार दे दिया जाएगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
साहिर जिस समय इतने गंभीर बातें बोल रहे होते हैं तो उसी समय वह बेहद रोमांटिक क्षण भी पैदा कर सकते हैं। इसी फिल्म में साहिर के रोमांटिक गीतों को रफी और गीता दत्त ने अपनी आवाज थी। हम आपकी आखों में, इस दिल को बसा दें तो… या जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गई… । इसी फिल्म में वहीदा रहमान पर शुरुआती दौर में फिल्माया गया गीत आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाए।
1957 में बीआर चोपड़ा के निर्देशन में दिलीप कुमार-वैजयंतीमाला की फिल्म नया दौर में साहिर के नगमों ने धमाल मचा दिया था। मांग के साथ तुम्हारा, मैंने मांग लिया संसार… आज भी लोगों के दिलों में ताजा रहता है। इस फिल्म में ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का… एक ऐसा देशभक्ति गीत है जो भारतीय आयोजनों और कई विवाह-शादियों में भी सबसे अधिक बजता है। रोमांस का एक और बेहतरीन नगमा उड़े जब जब जुलफ़े तेरी… लोकप्रियता की दौड़ में आज भी किसी से कम नहीं है लेकिन इस फिल्म का वजूद और उसकी आत्मा वह गीत है जो भारत के सामाजिक आंदोलनों में भी उम्मीद की बात रखता है। यह वह दौर था जब भारत के स्वाधीनता आंदोलन की खुशबू अभी भी संगीत और कविताओं में दिखाई देती है। नेहरू का समाजवादी धर्मनिरपेक्ष भारत अभी भी प्रगतिशील लोगों की आकांक्षाओं का प्रतीक बन गया था और ऐसे में साहिर जैसे कवियों के पास समाजवादी भारत की भावनाओं को अभिव्यक्त करने में शब्दों की कोई कमी नहीं होती।
हम मेहनत वालों ने जब भी मिलकर कदम बढ़ाया
सागर ने रस्ता छोड़ा परबत ने शीश झुकाया
फ़ौलादी हैं सीने अपने फ़ौलादी हैं बाहें
हम चाहें तो पैदा करदें, चट्टानों में राहें
साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जायेगा मिल कर बोझ उठाना
साथी हाथ बढ़ाना
मेहनत अपनी लेख की रेखा मेहनत से क्या डरना
कल गैरों की खातिर की अब अपनी खातिर करना
अपना सुख भी एक है साथी अपना दुख भी एक
अपनी मंजिल सच की मंजिल अपना रस्ता नेक
साथी हाथ बढ़ाना साथी रे
एक से एक मिले तो कतरा बन जाता है दरिया
एक से एक मिले तो ज़र्रा बन जाता है सेहरा
एक से एक मिले तो राई बन सकती है परबत
एक से एक मिले तो इन्सां बस में कर ले किस्मत
साथी हाथ बढ़ाना
एक अकेला थक जायेगा मिल कर बोझ उठाना
साथी हाथ बढ़ाना
1958 में रमेश सहगल के निर्देशन में राज कपूर और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म फिर सुबह होगी, महान रूसी उपन्यासकार फ्योडोर दोस्तोवस्की की क्राइम एण्ड पनिशमेंट पर आधारित थी। हालांकि यह फिल्म अपने दौर की सुपर हिट फिल्म रही है फिर भी आज इसे कोई याद भी नहीं करता, लेकिन इस फिल्म में खैय्यम का संगीत और साहिर के गीत आज भी क्लासिक कहे जा सकते हैं। वे गीत हैं उम्मीद के और भरोसे के। साहिर ने वो सुबह कभी तो आएगी में आजाद भारत के भविष्य का सपना बुना था।
वो सुबह कभी तो आयेगी, वो सुबह कभी तो आयेगी
इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगी, जब धरती नग़मे गाएगी
वो सुबह कभी तो आयेगी …
जिस सुबह की खातिर जुग-जुग से,
हम सब मर-मर के जीते हैं
जिस सुबह की अमृत की धुन में, हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूखी प्यासी रूहों पर, एक दिन तो करम फ़रमायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
माना के अभी तेरे मेरे इन अरमानों की, कीमत कुछ नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर,
इनसानों की कीमत कुछ भी नहीं
इनसानों की इज़्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
दौलत के लिये अब औरत की, इस्मत को न बेचा जायेगा
चाहत को ना कुचला जायेगा, गैरत को न बेचा जायेगा
अपनी काली करतूतों पर, जब ये दुनिया शरमायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
बीतेंगे कभी तो दिन आखिर, ये भूख और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर, दौलत की इजारेदारी की
अब एक अनोखी दुनिया की, बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
मजबूर बुढ़ापा जब सूनी, राहों में धूल न फेंकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी, गलियों में भीख न माँगेगा
हक माँगने वालों को, जिस दिन सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी…
साहिर यहीं नहीं रुकते। वह उम्मीद ही नहीं दिखाते अपितु यह भी बताते हैं कि यह होगा कैसे? यानि जिस सुबह का हम इंतज़ार कर रहे हैं उसे कौन लाएगा और फिर उसका उत्तर वह देते हैं कि-
वो सुबह हमीं से आएगी।
वो सुबह हमीं से आएगी
जब धरती करवट बदलेगी जब क़ैद से क़ैदी छूटेंगे
जब पाप घरौंदे फूटेंगे जब ज़ुल्म के बंधन टूटेंगे
उस सुबह को हम ही लाएँगे वो सुबह हमीं से आएगी
वो सुबह हमीं से आएगी
मनहूस समाजी ढाँचों में जब ज़ुल्म न पाले जाएँगे
जब हाथ न काटे जाएँगे जब सर न उछाले जाएँगे
जेलों के बिना जब दुनिया की सरकार चलाई जाएगी
वो सुबह हमीं से आएगी
संसार के सारे मेहनत-कश खेतों से , मिलों से निकलेंगे
बेघर बेदर बेबस इंसां तारीक बिलों से निकलेंगे
दुनिया अम्न और ख़़ुशहाली के फूलों से सजाई जाएगी
वो सुबह कभी से आएगी।
फिल्म फिर सुबह होगी में साहिर ने भारत की एक तस्वीर भी दुनिया के सामने रखी। हालांकि यह नज़्म आज के दौर में तो और भी सार्थक प्रतीत होती है-
चीन ओ अरब हमारा
हिंदोस्तां हमारा
रहने को घर नहीं है
सारा जहां हमारा
हिंदोस्तां हमारा
खोली भी छीन गयी है
बेंचें भी छीन गयी हैं
सड़को पे घूमता है
अब कारवां हमारा
जेबें हैं अपनी खाली क्यों
देता वर्ना गाली
वो संतरी हमारा
वो पासबाँ हमारा
चीन ओ अरब हमारा
हिंदोस्तां हमारा
रहने को घर नहीं है
सारा जहां हमारा
हिंदोस्तां हमारा
जितनी भी बिल्डिंगें थीं
सेठो ने बाँट ली है
फुटपाथ बम्बई के
हैं आशियाँ हमारा
सोने को हम कलन्दर
आते है बोरी बन्दर
हर एक कुली यहाँ का
है राज़दाँ हमारा
चीनो अरब हमारा
हिंदोस्तां हमारा
रहने को घर नहीं है
सारा जहां हमारा
हिंदोस्तां हमारा
तालीम है अधूरी
मिलती नहीं मजूरी
मालूम क्या किसी को
दर्द ए निहां हमारा
चीनओ अरब हमारा
पतला है हाल अपना
लेकिन लहू है गाढ़ा
फौलाद से बना है
हर नौजवाँ हमारा
मिल जुलके इस वतन को
ऐसा सजायेंगे हम
हैरत से मुंह तकेगा
सारा जहां हमारा
चीनो अरब हमारा
हिंदोस्तां हमारा
रहने को घर नहीं है
सारा जहां हमारा
अंधविश्वास और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध बोलना उस दौर में प्रगतिशील और लिबरल साहित्य का हिस्सा था। ऐसा कहने पर कोई उन्हें धमकी भी नहीं देता था। भगवान को भी मसखरी का हिस्सा बना दिया जाता और उससे सवाल होते। शायद आज के दौर में ऐसा लिखना साहिर के लिए बहुत मुश्किल होता हालांकि हम मानते हैं कि उनकी कलम रुकती नहीं-
आसमान पे है खुदा
और ज़मीन पे हम
आज कल वो इस तरफ
देखता है कम
आज कल किसी को
वो टोकता नहीं
चाहे कुछ भी
कीजिये रोकता नहीं
हो रही है लूट मार
फट रहे हैं बम
आसमान पे है खुदा
और ज़मीन पे हम
आज कल वो इस तरफ
देखता है कम
किसको भेजे वो
यहाँ हाथ थामने
इस तमाम भीड़
का हाल जानने
आदमी है अनगिनत
देवता है कम
आसमान पे है खुदा
और ज़मीन पे हम
जो भी है वो ठीक
है ज़िक्र क्यों करे
हम ही सब जहां
की फिक्र क्यों करे
जब उसे ही ग़म नहीं
तो क्यों हमें हो ग़म
आसमान पे है खुदा
और ज़मीन पे हम
साहिर के गीतों में न केवल उनके जीवन का दर्शन था अपितु इंसानी रिश्तों की गहरी समझ भी थी। 1959 में बीआर चोपड़ा की फिल्म धूल का फूल में साहिर के गीतों ने धूम मचा दी। एक-एक गीत अपने समय से बहुत आगे था और उनको मात्र सिनेमा तक सीमित नहीं किया जा सकता। इस फिल्म का यह गीत तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है इंसान बनेगा… हमारे देश की तत्कालीन राजनीति और विचारधारा का एक बहुत बड़ा प्रतीक था। आज के दौर में जब मजहब और जाति की अस्मिताओं के नाम को ही संस्कृति कह दिया जा रहा हो तो ऐसे गीतों को धर्म या देश विरोधी करार दे दिया जाएगा।
अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है,
तुझको अभी तक किसी मजहब से कोई काम नहीं है,
जिस इल्म ने इंसान को तकसीम किया है,
उस इल्म का तुझ पर कोई इल्जाम नहीं है,
तू बदले हुए वक्त की पहचान बनेगा,
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा।
वो यही नहीं रुकते। वह सच्चे हिन्दू और मुसलमान की परिभाषा भी बता रहे हैं। वो कह रहे हैं कोई धर्म नफरत नहीं सिखाता। हम सब एक हैं और हमारे बीच में धर्म की दीवार पूरी तरह से इंसान द्वारा बनाई गई है-
मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया
हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया
कुदरत ने तो बख्शी थी हमें एक ही धरती
हमने कहीं भारत कहीं ईरान बनाया
जो तोड़ दे हर बंध वो तूफ़ान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
तू हिन्दु बनेगा ना मुसलमान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
नफरत जो सिखाये वो धरम तेरा नहीं है
इन्सां को जो रौंदे वो कदम तेरा नहीं है
कुरआन न हो जिसमे वो मंदिर नहीं तेरा
गीता न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है
तू अम्न का और सुलह का अरमान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा
तू हिन्दु बनेगा ना मुसलमान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा।
आज के बदलते हालात में तो ये गीत हमारे समाज में और भी मजबूती से गाया जाना चाहिए। कोई भी गीत, कविता या साहित्य उस दौर की परिस्थितियों की उपज होता है। इस फिल्म में बहुत से रोमांटिक गीत हैं लेकिन इस गीत या कव्वाली जो राजेन्द्र कुमार और माला सिन्हा के बीच है, के एक-एक बोल ऐसे हैं जो समाज की हकीकत बयाँ करते और उसे चुनौती देते हैं। लता मंगेशकर और महेंद्र कपूर का गाया यह युगल गीत है – तेरे प्यार का आसरा चाहता हूँ…। कई बार हम गाने की तारीफ करते हैं लेकिन बोलों की गंभीरता को नहीं समझते। प्यार की भावनाओं को समाज की अस्वीकार्यता प्रेमिका में गहरी असुरक्षा की भावना पैदा करता है जो कहती है-
जरा सोच लो दिल लगाने से पहले कि खोना भी पड़ता है पाने से पहले,
इजाजत तो ले लो जमाने से पहले कि तुम हुस्न को पूजना चाहते हैं,
मोहब्बत की दुश्मन है सारी खुदाई, मोहब्बत की तकदीर में है जुदाई,
जो सुनते नहीं है, दिलों की दुहाई…।
उन्हीं से मुझे, माँगना चाहते हो,
वफ़ा कर रहे हो, वफ़ा चाहते हो
मोहब्बत के सारे फैसलों के अंजाम साहिर को पता थे और उनके एवं पंजाबी कवियत्री-लेखिका अमृता प्रीतम की प्रेम कहानी जग जाहिर है। दरअसल, अमृता के प्रति साहिर का प्रेम उनके हर गीत मे दिखाई दिया। प्रेम मे धर्म, जाति और वर्ग चरित्र को एक प्रेमी के नाते उन्होंने देखा था। इसलिए उनकी प्रेमिका कहती है –
गलत सारे दावे, गलत सारी कसमें,
निभेंगीं यहाँ कैसे उलफ़त की रस्में,
यहाँ जिंदगी है रिवाजों के बस में,
रिवाजों को तुम तोड़ना चाहते हो,
बड़े नासमझ हो ये ये क्या चाहते हो।
मोहब्बत या प्रेम बदलाव की लड़ाई है। रिवाजों और परम्पराओं को चुनौती देने का नाम और इसीलिए इस गीत का अंत प्रेमी द्वारा समाज और परम्पराओं को चुनौती देने के रूप में हुआ है-
रिवाजों की परवाह न रस्मों का डर है,
तेरी आँख के फैसले पर नज़र है,
बला से अगर रास्ता पुरखतर है,
मैं इस हाथ को थामना चाहता हूँ,
वफ़ा कर रहा हूँ, वफ़ा चाहता हूँ।
सन 1961 में देवानंद की फिल्म हम दोनों में साहिर की कलम ने फिर जादू लिखा। उसके रोमांस में भी भी एक दर्शन था। फिल्म का टाइटल सॉन्ग मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, हर फिक्र को धुये में उड़ाता चला गया… आज भी बहुत से लोगों का जीवन दर्शन बन चुका है। गम और खुशी में फर्क न महसूस हो जहाँ, मैं दिल को उस मुकाम पे लाता चला गया…। इसी फिल्म में साहिर की अभी न जाओ छोड़ के, दिल अभी भरा नहीं… रोमांस की बेहतरीन अभिव्यक्ति है। देश की सीमा पर काम करने वाले बहादुर और जाँबाज जवान भी प्यार के आगे बेबस हो जाता है और फिर प्रेमिका उसे जो ढाँढस बँधाती है वह न केवल सुनने और गुनने लायक है अपितु सबके लिए प्रेरणा का स्रोत है-
दुःख और सुख के रास्ते
बने हैं सबके वास्ते
जो गम से हार जाओगे
तो किस तरह निभाओगे
ख़ुशी मिले हमें कि गम
जो होगा बाट लेंगे हम
जहाँ में ऐसा कौन है
कि जिसको गम मिला नहीं
तुम्हारे प्यार की कसम
तुम्हारा गम है मेरा गम
न यूं बुझे बुझे रहो
जो दिल की बात है कहो
जो मुझसे भी छुपाओगे
तो फिर किसे बताओगे
मैं कोई गैर तो नहीं
दिलाऊँ किस तरह यकीन
के तुम से मैं जुड़ा नहीं
मुझसे तुम जुदा नहीं
सन 1963 में बनी फिल्म ताजमहल में साहिर के गीतों ने फिल्म को अमर बना दिया। इस फिल्म में साहिर द्वारा लिखित जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा… उस वर्ष के सबसे हिट गीतों में एक था। वहीं जो बात तुझमें है तेरी तस्वीर में नहीं… में एक प्रेमी की भावनाओं का गुब्बार है। रोमांस की और बेहतरीन अभिव्यक्ति हुई पाँव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी… में।
ताजमहल को लेकर साहिर की एक नज़्म एक शहंशाह ने बनाके हसीन ताजमहल हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया मज़ाक… ने मेरे ख्याल से ताजमहल और उस जैसे आलीशान महलों को बनाने वालों की हकीकत को बयां किया है। ताजमहल को लेकर साहिर की इस कविता से हम केवल कुछ सोचने को मजबूर होते हैं कि ऐसे आलीशान जगहें मोहब्बत की निशानी नहीं हो सकते-
ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उल्फ़त[1] ही सही
तुझ को इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत[2] ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्म-ए-शाही[3] में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त[4] जिस राह में हों सतवत-ए-शाही[5] के निशां
उस पे उल्फ़त भरी रूहों का सफ़र क्या मानी
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तश्हीर-ए-वफ़ा[6]
तू ने सतवत[7] के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा-शाहों[8] के मक़ाबिर[9] से बहलने वाली
अपने तारीक[10] मकानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मोहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़[11] न थे जज़्बे उन के
लेकिन उन के लिए तश्हीर[12] का सामान नहीं
क्यूंकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़्लिस[13] थे
ये इमारात ओ मक़ाबिर[14] ये फ़सीलें[15] ये हिसार[16]
मुतलक़-उल-हुक्म[17] शहंशाहों की अज़्मत[18] के सुतूं[19]
सीना-ए-दहर[20] के नासूर हैं कोहना[21] नासूर
जज़्ब है उनमें तेरे और मेरे अज्दाद[22] का ख़ूं
मेरी महबूब उन्हें भी तो मोहब्बत होगी
जिनकी सनाई[23] ने बख़्शी है उसे शक्ल-ए-जमील[24]
उन के प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नुमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ंदी[25]ल
ये चमन-ज़ार[26] ये जमुना का किनारा ये महल
ये मुनक़्क़श[27] दर ओ दीवार ये मेहराब ये ताक़
इक शहंशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
सन 1965 में आई फिल्म वक्त का एक एक गीत प्यार, रोमांस, भावनाओं और मिठास से भरपूर है। कौन आया कि निगाहों में खनक जाग उठी…, हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए…, दिन हैं बहार के, तेरे मेरे इकरार के, दिल के सहारे आजा प्यार करे…, चेहरे पे खुशी छा जाती है, आँखों मे सुरूर आ जाता है…, आगे भी जाने न तू, पीछे भी जाने न तू, जो भी है बस यही पल है… आदि गीत प्रेम, मोहब्बत और जज़्बातों से सराबोर हैं और उनकी मिठास आज भी हमारे बीच है। मन्ना डे का गाया, ऐ मेरी जोहरा ज़बीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसीं…, आज भी महफिलों की शान है। वहीं मोहम्मद रफी की आवाज में वक़्त से दिन और रात पूरी फिल्म के दर्शन को प्रस्तुत कर देती है।
सन 1963 में आई बीआर चोपड़ा की बनाई फिल्म गुमराह के लिए साहिर का गीत, चलो एक बार फिर से, अजबनी बन जाए हम दोनों… एक मास्टर क्लासिक माना जा सकता है। प्रेम में सफलता न मिलने पर एक-दूसरे को गाली दिए बिना भी हम अलग हो सकते हैं। साहिर की यह बात आज के दौर में सभी के लिए सच्ची मोहब्बत का पैग़ाम है। इसकी गहराहियों को समझने की जरूरत है –
न मैं तुम से कोई उम्मीद रखूँ दिल-नवाज़ी की
न तुम मेरी तरफ़ देखो ग़लत-अंदाज़ नज़रों से
न मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों से
न ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्मकश का राज़ नज़रों से
तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश-क़दमी से
मुझे भी लोग कहते हैं कि ये जलवे पराए हैं
मिरे हमराह भी रुस्वाइयाँ हैं मेरे माज़ी की
तुम्हारे साथ भी गुज़री हुई रातों के साए हैं
तआरुफ़ रोग हो जाए तो उस का भूलना बेहतर
तअ’ल्लुक़ बोझ बन जाए तो उस को तोड़ना अच्छा
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों।
साहिर एक राजनीतिक कवि थे और उनकी राजनीति थी सांप्रदायिकता और पूंजीवाद के खिलाफ। यही बात उनके गीतों में दिखाई देती है। ऐसा कहते हैं कि दुनिया के अधिकांश क्रांतिकारी गहरे रोमांटिक भी थे। साहिर को बहुत से पुरस्कारों से नवाजा गया हालांकि उन्होंने इनके प्रति कोई विशेष लगाव नहीं दिखया। 1971 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया और दो बार वह फिल्मफेयर पुरस्कार से सम्मानित हुए। इसके अलावा भी अनेक राज्यों और संस्थानों नें उन्हें सम्मानित किया।
सन 1976 में यश चोपड़ा की फिल्म कभी कभी में साहिर ने मोहब्बत की शायरी के नए आयाम गढ़े। फिल्म के टाइटल सॉन्ग कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है… ने खूबसूरत नगमों की फेहरिस्त में एक नया मुकाम बनाया। भारत के सिनेमा में सबसे पॉपुलर गीतों में कभी–कभी अभी भी सबसे ऊंचे पायदान पर आता है। इसी फिल्म में साहिर ने अपनी कलम के जादू से हमें प्रभावित किया है और वो गीत है- मैं पल दो पल का शायर हूँ, पल दो पल मेरी कहानी है, पल दो पल मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी जवानी है…। साहिर का जीवन-दर्शन इसमें साफ झलकता है। एक ईमानदार और प्रतिबद्ध कलाकार, कवि या दार्शनिक दुनिया की वाह-वाही के लिए नहीं लिखता, वह सत्ता को आईना दिखाता है। साहिर अपनी भावनाओं को इन अविस्मरणीय पंक्तियों मे कहते हैं –
कल और आएंगे सुख दुख की मीठी कलियां चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले,
कल कोई मुझको याद करे, क्यों कोई मुझको याद करे,
मशरूफ़ जमाना मेरे लिए क्यों वक्त अपना बर्बाद करे।
लेखन और कविता का काम मात्र किसी घटनाक्रम का चित्रण कर देना नहीं होता। यदि कोई कविता या नज़्म किसी जुल्म से टक्कर नहीं लेती, किसी दबे-कुचले को जीने की राह नहीं दिखाती तो उसके कोई मतलब नहीं है। साहिर ने ये काम बखूबी हर वक्त किया है। 1970 में जितेंद्र की एक फिल्म नया रास्ता की ये नज़्म आज के दौर में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है-
पोंछकर अश्क अपनी आँखों से
मुस्कराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होगा
सर उठाओ तो कोई बात बने
पोंछ कर अश्क…
ज़िन्दगी भीख में नहीं मिलती
ज़िन्दगी बढ़ के छीनी जाती है
अपना हक़ संगदिल ज़माने से
छीन पाओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से…
रंग और नस्ल, ज़ात और मज़हब
जो भी हो, आदमी से कमतर है
इस हक़ीक़त को तुम भी मेरी तरह
मान जाओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से…
नफरतों के जहान में हमको
प्यार की बस्तियाँ बसानी है
दूर रहना कोई कमाल नहीं
पास आओ तो कोई बात बने
पोंछ कर अश्क
सन 1963 की फिल्म आज और कल में साहिर एक सच्चे लोकतंत्र की परिभाषा बता रहे हैं-
तख़्त न होगा ताज न होगा, कल था लेकिन आज न होगा
जिसमें सब अधिकार न पायें, वो सच्चा स्वराज न होगा।
लाखों की मेहनत पर कब्ज़ा मुट्ठी भर धनवानों का
दीन धरम के नाम पे खूनी बंटवारा इनसानों का
जिसका ये इतिहास रहा है अब वो अँधा राज न होगा
जिसमें सब अधिकार न पायें, वो सच्चा स्वराज न होगा।
जनता का फरमान चलेगा, जनता की सरकार बनेगी
धरती की बेहक आबादी धरती की हकदार बनेगी
सामन्ती सरकार न होगी पूंजीवाद समाज न होगा
जिसमें सब अधिकार न पायें, वो सच्चा स्वराज न होगा।
सन 1971 में साहिर को सोवियत लेंड नेहरू अवॉर्ड से सम्मानित किया गया जो उनकी नज़्म आओ कोई खवाब बुनें के लिए था-
आओ कि कोई ख़्वाब बुनें
आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें
गो हम से भागती रही ये तेज़-गाम उम्र
ख़्वाबों के आसरे पे कटी है तमाम उम्र
ज़ुल्फ़ों के ख़्वाब, होंठों के ख़्वाब, और बदन के ख़्वाब
मैराज-ए-फ़न के ख़्वाब, कमाल-ए-सुख़न के ख़्वाब
तहज़ीब-ए-ज़िन्दगी के, फुरोग़-ए-वतन के ख़्वाब
ज़िन्दाँ के ख़्वाब, कूचा-ए-दार-ओ-रसन के ख़्वाब
ये ख़्वाब ही तो अपनी जवानी के पास थे
ये ख़्वाब ही तो अपने अमल की असास थे
ये ख़्वाब मर गये हैं तो बेरंग है हयात
यूँ है कि जैसे दस्त-ए-तह-ए-संग है हयात
आओ कि कोई ख़्वाब बुनें कल के वास्ते
वरना ये रात आज के संगीन दौर की
डस लेगी जान-ओ-दिल को कुछ ऐसे कि जान-ओ-दिल
ता-उम्र फिर न कोई हसीं ख़्वाब बुन सकें।
साहिर को असीमित लोकप्रियता मिली। ये उनकी ही ज़िद थी कि आकाशवाणी पर फिल्मी गीतों में गीतकार का नाम भी गायक और संगीतकार के साथ लिया जाने लगा। उन्होंने लेखन और कविता को वो सम्मान सिनेमा में दिलाया जो उसे नहीं दिया गया था। गायक के मुकाबले गीतकार को अधिक तवज्जो नहीं मिलती थी। दरअसल, मुम्बई का सिनेमा साहिर, शैलेन्द्र, कैफ़ी आजमी, मजरूह सुल्तानपुरी, शकील बदायूँनी, भरत व्यास, राजेन्द्र कृष्ण आदि गीतकारों के होने से बहुत मजबूत हुआ। साहिर और शैलेन्द्र तो प्रगतिशील विचारधारा से जुड़े थे इसलिए उनके गीतों मे भरपूर रोमांस था और बदलाव की बात भी थी। साहिर अंत तक लिखते रहे और उनकी हर एक नज़्म के पीछे बड़ा दर्शन था जिसे ध्यान से समझने की ज़रूरत है। आज के दौर में तो साहिर और भी ज़रूरी हो गए हैं। उनके गीतों में उम्मीद और भविष्य का सपना है। उन्होंने बहुत लिखा और उनकी हर एक नज़्म पर अलग से चर्चा हो सकती है। साहिर उस दौर से आए जब उर्दू पोइट्री में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे लोगों का दबदबा था। बहुत से लोग ये कहते हैं कि साहिर वैसा नहीं लिख पाए जैसे फ़ैज़ लिखते थे लेकिन दो समकालीन लोगों की ऐसी तुलना बहुत अच्छी बात नहीं है। साहिर ने अपना एक बहुत बड़ा मुकाम बनाया और बहुत से लोगों के बीच साहिर सिनेमा के अपने गीतों से पहले और ज्यादा दूर तक पहुंचे। हर एक बड़ी शख्सियत की कमजोरियां भी होती हैं और साहिर की भी रही होंगी लेकिन हम उनकी व्यक्तिगत जिंदगी के अफसानों के जरिए उनके साहित्य का विश्लेषण नहीं कर सकते। साहिर भारत की एक बहुत बड़ी धरोहर हैं और उनके गीत हमारे जीवन में हमेशा रोमांस और ऊर्जा भरते रहेंगे। 25 अक्टूबर, 1980 को साहिर ने दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन उनके रचनाओं के जरिए वह हमारे बीच हमेशा बने रहेंगे। साहिर सही अर्थों मे एक क्रांतिकारी जनकवि थे जिनके गीत आज भी हमारे दिलों पर राज करते हैं और वे बदलाव के प्रतीक हैं।
शब्दार्थ : 1. प्यार का वादा 2.श्रद्धा 3. राजा की सभा 4.शिलालेख,अंकित,उत्कीर्ण 5.राजसी महिमा/गौरव/वैभव 6.वफ़ा के दिखावे के पर्दे के पीछे 7.महिमा,भय, ताक़त 8.मृत राजा 9.मक़बरे 10. अंधेरा 11.ईमानदार, वफ़ादार 12.प्रचार, मशहूर करना,विज्ञापन 13.ग़रीब,निर्धन 14. इमारतें और मक़बरे 15. क़िले के आसपास की दीवार 16.क़िला,महल 17.सर्वोच्च कमान,सर्वोच्च शक्ति, स्वतंत्र, संपूर्ण 18. इज़्ज़त,सम्मान 19. खंभा, स्तम्भ।
विद्या भूषण रावत जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं।
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