आस्था के केन्द्रों में बढ़ते हादसे पर कब गंभीर होंगी सरकारें
गाँव के लोग डॉट कॉम डेस्क
त्रिपुरा। बीते 28 जून को त्रिपुरा के उनाकोटी जिले में ‘उल्टा रथ यात्रा’ उत्सव के समय एक भयानक दुर्घटना हो गई। रथ यात्रा निकालने समय रथ हाईटेंशन तार के संपर्क में आया और उसमें आग लग गई। आग लगने से रथ मे बैठे हुए दो बच्चों समेत सात लोगों की जलकर मौत हो गई और 15 लोग घायल अवस्था में अस्पताल ले जाए गए।
इसी वर्ष यानी 2023 की 30 मार्च को रामनवमी के दिन इंदौर, मध्य प्रदेश में एक बड़ा हादसा श्रीबेलेश्वर महादेव झूलेलाल मंदिर में हवन के समय बावड़ी की छत धंस जाने से हुआ था। वहां मौजूद 50 से अधिक लोग बावड़ी के नीचे दब गए थे। इस हादसे में 36 लोगों की मौत हुई।
वर्ष 2022 में ही तीन बड़े हादसे हुए। वर्ष 2022 के पहले ही दिन यानी 1 जनवरी को जम्मू-कश्मीर स्थित वैष्णों देवी मंदिर में भगदड़ मचने से 12 लोगों की मौत हो गई थी और 20 लोग घायल हो गए थे। वहीं 21 अगस्त, 2022 को कृष्ण जन्माष्टमी के दिन वृन्दावन के बाँके-बिहारी मंदिर में मंगला आरती के समय हुई भगदड़ में दो लोगों की जान चली गई थी और कई घायल हो गए थे। वहीं, 30 अक्टूबर, 2022 को गुजरात के मोरबी में मच्छू नदी पर बने एक संसपेन्शन पुल के गिर जाने से छठ पूजा देखने पहुंचे 141 लोग मौत के मुंह में समा गए थे। ये केवल भारत देश में घटी हुई दुर्घटनाएं हैं, लेकिन इस तरह की अनेक बड़ी दुर्घटनाएं हर वर्ष होती हैं।
किसी भी तरह धर्म और धार्मिक आयोजन में आस्था-विश्वास हर किसी का व्यक्तिगत मामला है। यहाँ किसी को जाने से मना नहीं किया जा सकता, लेकिन हादसे रोके जा सकते हैं, यदि प्रशासन आयोजकों के साथ मिलकर अपने लापरवाह रवैए से बाहर आते हुए आयोजन के लिए सही प्रबंधन नीति बनाए।
इन खबरों को पढ़ते हुए लगता है कि धार्मिक स्थलों पर ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। जब दुर्घटनाएं होती हैं तब सरकार, प्रशासन और आम जनता का दुख प्रकट होता है, उसके बाद भी ऐसी दुर्घटनाएं हो जाती हैं। कहने का मतलब यह है कि ऐसी दुर्घटनाओं से सबक सीखने के बजाय मृतक के परिवार और घायलों को मुआवजा देने की घोषणा कर इतिश्री कर लिया जाता है। दुर्घटना के बाद जनता के गुस्से से बचने के लिए उस जगह पर मंत्री और विधायाक जाकर मुआयना कर लेते हैं, लेकिन हल कुछ नहीं निकलता। जिन परिवारों ने अपने लोगों को खोया, वे जीवन भर उस दुख से उबर नहीं पाते। दुर्घटना के बाद होने वाली मौतों पर परिवार को दी गई शोक संवेदना दो मिनट के लिए ढांढस जरूर देती है, लेकिन उससे होना क्या है? जबकि आयोजन होने से पहले ही इन आयोजनों की व्यवस्था और सुरक्षा वहाँ के प्रशासनिक अधिकारियों के साथ-साथ जनप्रतिनिधियों के जिम्मे होनी चाहिए, जैसे कि तब होता है जब मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के आने पर होता है।
जहां-जहां ऐसे हादसे होते हैं, वहाँ-वहाँ बाद में प्रशासन और आयोजकों की घोर लापरवाही सामने आई। यह लोग किसी भी व्यवस्था को टेकेन फॉर ग्रांटेड (हल्के में लेना) समझ लेते हैं और इन हादसों को खुला आमंत्रण दे देते हैं। कहीं अव्यवस्था कारण बनती है तो कहीं अफवाह। इतनी भीड़ में एक गलत सूचना मिलना उस भीड़ के लिए घातक हो जाता है। हमारा पूरा देश धार्मिक विविधता से पटा पड़ा है और इस वजह से आए दिन कहीं न कहीं मेले और इस तरह के धार्मिक आयोजन होते रहते हैं। इन्हें रोका नहीं जा सकता, न ही इसमें पहुँचने वालों को मना किया जा सकता है। यह लोगों की आस्था का मामला होता है, लेकिन व्यवस्था जरूर दुरुस्त की जा सकती है।
यह देखा गया है कि ऐसे धार्मिक उत्सवों चाहे वह काँवड़ यात्रा हो या कोई धार्मिक आयोजन और मेला इसमें समाज का पिछड़ा वर्ग, निम्न वर्ग और मध्य वर्ग के युवा पूरे उत्साह के साथ शामिल होते हैं। हादसे में मरने वालों में इनकी ही संख्या ज्यादा होती है। इसका कोई आंकड़ा नहीं है लेकिन हादसे की जितनी भी तस्वीरें दिखाई देती हैं, उसमें सभी लोगों के नाम और फोटो देखकर उनकी आर्थिक स्थिति का एक अनुमान लगाया जा सकता है। आर्थिक रूप से मजबूत लोग इस भीड़ का हिस्सा बनना कम ही पसंद करते हैं और जो शामिल होते भी हैं तो अपनी पूरी सुविधा-सुरक्षा का भुगतान कर शामिल होते हैं। ऐसे लोग धार्मिक आस्था के साथ सुविधा और सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा होना भी चाहिए, क्योंकि बदइंतजामी में अपनी सुरक्षा जरूरी है।
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इस तरह के हादसे हो जाने के बाद जिनके परिजनों की मौत हो गई, उनका तो सब खत्म हो जाता है। घायल हुए लोगों को इलाज के लिए आर्थिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लेकिन सवाल यह है कि इसका जिम्मेदार कौन? सरकार और आयोजक, प्रशासन को जिम्मेदार मानता है तो वहीं प्रशासन अनियंत्रित भीड़ और आयोजकों को। और इस तरह बात आई-गई हो जाती है। जिम्मेदार लोगों के न तो नाम सामने आते हैं न ही कोई कार्यवाही होती है। कुछ अपवाद छोड़ दें तो बात यहीं खत्म हो जाती है और कुछ माह बाद एक नया हादसा हो जाता है।
सरकार ने आपदाओं को रोकने और कम करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया है, जिसमें राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर काम किया जाता है। विशेषकर भीड़ में जैसे मेले, धार्मिक उत्सव, जुलूसों में हादसे को रोकने के लिए। राष्ट्रीय आपदा प्रबंध प्राधिकरण (नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी) ने वर्ष 2014 में एक रिपोर्ट पेश कर कुछ सुझाव दिया। जो मुख्यत: राज्य सरकार के साथ स्थानीय प्रशासन और आयोजकों के लिए थे, जिससे हादसों को पूर्णत: रोका जा सके। जहां यह बताया गया था कि प्रबंधन से जुड़े लोगों को स्थानीय और जमीनी जरूरतों को ध्यान में रखकर तैयारी करें, क्योंकि हर आयोजन की भौगोलिक बनावट और जरूरतें अलग-अलग होती हैं। इसलिए आपदा रोकने के एक जैसे नियम हर कहीं लागू नहीं किए जा सकते। भीड़ का मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर उसके प्रबंध की तकनीक विक्सित करनी पड़ेगी । साथ ही भीड़ रोकने के लिए भीड़ वाली जगह की केस स्टडी कर वहाँ होने वाली आपदाओं को रोकने के लिए कुछ नियम बनाना, इत्यादि तरीके हैं। हादसों की बढ़ती संख्या को देखते हुए यही लगता है कि इस पर कभी अमल नही हुआ।
हादसे हो जाने के बाद कई जांच बैठा दी जाती हैं जिसकी रिपोर्ट या तो देर से आती है या कब आती है यह पता ही नहीं चलता। समय से यदि सतर्तोकता बाराती जाए तो आगे होने वाले हादसों को रोका जा सकता है।
किसी भी तरह के धर्म और धार्मिक आयोजन में आस्था-विश्वास हर किसी का व्यक्तिगत मामला है। यहाँ किसी को जाने से मना नहीं किया जा सकता, लेकिन हादसे रोके जा सकते हैं, यदि प्रशासन आयोजकों के साथ मिलकर अपने लापरवाह रवैए से बाहर आते हुए आयोजन के लिए सही प्रबंधन नीति बनाए।