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उत्तर-पूर्व में भाजपा के ‘विजय रथ’ में ‘जीत’ के पांव कहां हैं!

त्रिपुरा में वामपंथविरोधी हिंसा का सिलसिला तो 2018 के चुनाव में जीत के बाद ही शुरू हो गया था। भाजपा के राज के पांच साल में राज्य में एक भी चुनाव स्वतंत्र व निष्पक्ष तरीके से नहीं होने दिया गया था। इसी के चलते, आम लोगों के बीच इसकी भारी आशंकाएं थीं कि क्या इस बार उन्हें मर्जी से अपना वोट डालने दिया जाएगा? इन्हीं आशंकाओं के दबाव में, चुनाव आयोग के कुछ कदमों से किसी हद तक लोगों का विश्वास जमा और धीरे-धीरे लोग वोट करने के लिए बाहर भी निकले।

इस वर्ष के विधानसभा चुनाव के पहले चक्र की मतगणना के नतीजे आने के फौरन बाद, 2 मार्च की शाम को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राजधानी में भाजपा के हजारों करोड़ रुपये के विशाल भवन में, संघ-भाजपा समर्थकों का जमावड़ा करके, विशेष रूप से उत्तर-पूर्व में ‘विजय’ का एलान करने से भी आगे बढक़र, ‘2024 में क्या होगा, उसकी प्रस्तावना’ लिख दिए जाने का ढोल पीट रहे थे। ठीक उसी समय त्रिपुरा के विभिन्न हिस्सों से ‘विजयोत्सव’ के नाम पर, संघ-भाजपा के गुंडा गिरोहों द्वारा अपने राजनीतिक विरोधियों, खासतौर पर सीपीआइ (एम) के नेताओं व कार्यकर्ताओं के घरों-दूकानों-बागानों और पार्टी के दफ्तरों आदि पर आगजनी, हमलों तथा कार्यकर्ताओं के घायल किए जाने की खबरें आनी शुरू हो चुकी थीं। कथित ‘विजय’ के साथ ही शुरू हो गए इन हमलों के मूल चरित्र को समझने में इसका जिक्र करना शायद मददगार होगा कि हमलों के ताजा चक्र में हुए सबसे पहले हमलों में, जुबराजनगर विधानसभा क्षेत्र से तुरंत ही चुनकर आए, सीपीआइ (एम) के शैलेंद्र नाथ के रबर के बाग में आगजनी शामिल थी।

इन हमलों की इस बाढ़ के लगातार जारी रहने के चौथे दिन, 5 मार्च को राज्य के वामपंथी नेताओं को जब राज्यपाल से मुलाकात की कई कोशिशों में विफल होने के बाद, राज्य के मुख्य सचिव से इस सम्बंध में मुलाकात करने का समय मिला, उनके पास इस हिंसा की पूरी 668 घटनाओं की सूची थी, जिनमें बड़े पैमाने पर आगजनी से होने वाले नुकसान के अलावा, 3 मौतें होने और 100 से ज्यादा लोग घायल होने की भी जानकारी थी। एक ओर ‘विजय’ का ढोल पीटना और दूसरी ओर, कथित शानदार विजय का सहारा लेकर, विरोधियों के खिलाफ हिंसा की मुहिम बहुत तेज कर देना, इन दोनों के साथ-साथ आने को किसी भी तरह से, महज एक समय-संयोग नहीं माना जा सकता है। वास्तव में, प्रधानमंत्री मोदी पूरे देश और दुनिया भर को सुनाने के लिए, मोदी-मोदी का जाप कराने और अपने समर्थकों से सैल फोन की टार्चों की रौशनी के जरिए, उत्तर-पूर्व को धन्यवाद संदेश भिजवाने जैसे लटकों-झटकों के साथ, जिस ‘विजय’ का ढोल पीट रहे थे, इसकी मूल प्रकृति में ही इसकी मांग छुपी हुई थी कि जनतांत्रिक स्पेस को ज्यादा से ज्यादा सिकोड़ा जाए। विपक्ष पर हिंसक हमले, इसी मांग को पूरा करने की कोशिश का प्रमुख हथियार हैं।

मीडिया पर अपने लगभग मुकम्मल नियंत्रण के जरिए, अपने अर्ध सत्यों को पूर्ण सत्य बनाकर चलवाने की कोशिश में, मोदी-शाह की भाजपा द्वारा उत्तर-पूर्व में भी ‘जीत ही जीत’ की जो हवा बांधने की कोशिश की गयी है, वह ‘विजय’ के इस ढोल को वास्तविक नतीजों से काफी हद तक स्वतंत्र ही कर देती है। बेशक, उत्तर-पूर्व के जिन तीन राज्यों- त्रिपुरा, मेघालय तथा नगालैंड, में इस चक्र में विधानसभाई चुनाव हुए हैं, उन तीनों में 2 मार्च के चुनाव नतीजों से, भाजपा के सत्ता तक पहुंचने का जुगाड़ तो बन ही गया है। लेकिन, किस तरह? फिर हाल के विधानसभा चुनाव से पहले भी तो भाजपा इन तीनों राज्यों में सत्ता का हिस्सा थी ही। फिर इसे जबर्दस्त ‘जीत’ किस तर्क से माना जा सकता है? वास्तव में, सत्ता का हिस्सा होने की एक न्यूनतम समानता को छोड़ दें तो, इन तीनों राज्यों में भाजपा की हैसियत में काफी अंतर था और ताजा चुनाव के नतीजे, इस अंतर के कमोबेश ज्यों का त्यों बने रहने को ही नहीं, पांच साल सत्ता का हिस्सा रहने के बाद, भाजपा के थोड़ा-बहुत नीचे खिसकने को भी दिखाते हैं। तीनों राज्यों की कुल 180 सीटों में से भाजपा को, 2018 के चुनाव के मुकाबले इस बार 4 सीटें कम मिली हैं। जहां उसे मेघालय में पिछले चुनाव की तरह 2 सीटों पर तथा नगालैंड में 12 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा है, वहीं त्रिपुरा में, जो इन तीनों राज्यों में अकेला था, जहां भाजपा सरकार का नेतृत्व कर रही थी, उसकी अपनी सीटें 36 से घटकर 32 रह गयी हैं और उसके नेतृत्ववाले मोर्चे की, 44 से घटकर 33 ।

कहने की जरूरत नहीं है कि त्रिपुरा को छोडक़र, दोनों अन्य राज्यों में भाजपा की सत्ता में हिस्सेदारी, उसकी चुनावी ताकत का कम और जोड़-जुगाड़ तथा जुगत का मामला ही ज्यादा थी, जिसमें उत्तर-पूर्वी राज्यों की विखंडित राजनीति में और छोटी-छोटी पार्टियों को, केंद्र में सत्ता की नजदीकी से ललचाने का, कमोबेश नंगई से खेला गया खेल भी शामिल है। मेघालय और नगालैंड, दोनों में भाजपा ने 2 मार्च के चुनाव के नतीजे के बाद भी, उस हद तक अपना सत्ता में बने रहना बेशक सुनिश्चित कर लिया है। फिर भी, नगालैंड की तुलना में, मेघालय में भाजपा का जीत का किसी भी तरह का दावा, वास्तव में झूठा ही कहा जाना चाहिए। नगालैंड में तो फिर भी, भाजपा ने 60 सदस्यीय विधानसभा में सबसे ज्यादा, 25 सीटें जीतकर आई एनडीपीपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। और हालांकि, इस बार भी भाजपा के हिस्से में 12 सीटें ही आयीं, कम से कम उसका मत फीसद 15.30 से बढक़र 18.80 हो गया है। लेकिन, मेघालय में तो भाजपा ने पांच साल सत्ता में शामिल रहने के बाद, पिछली बार सरकार का नेतृत्व कर रही कोनराड संगमा की पीपीपी के ही खिलाफ और राज्य की सभी 60 विधानसभाई सीटों पर चुनाव लड़ा था, जबकि पिछली बार उसने 47 सीटों पर ही चुनाव लड़ा था। चुनाव प्रचार में भाजपा ने पीपीपी को ही मुख्य निशाना बनाया था और खुद गृहमंत्री अमित शाह ने कथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का एलान करते हुए, मेघालय सरकार को जिसमें भाजपा चुनाव के समय तक बनी ही हुई थी, देश की सबसे भ्रष्ट सरकार ही करार दे दिया था। खुद प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी प्रचार भाषणों में इस दावे को आगे बढ़ाया था। लेकिन, 2 मार्च को मतगणना से पहले ही संगमा की, उत्तर-पूर्व में भाजपा-संघ के मुख्य रणनीतिकार बन चुके, असम के भाजपाई मुख्यमंत्री से गोपनीय मुलाकात हो चुकी थी और पूरे चुनाव नतीजे आने से पहले ही भाजपा, न सिर्फ पीपीपी के लिए समर्थन की घोषणा कर चुकी थी बल्कि सबसे पहले इन तीन राज्यों में से मेघालय में ही प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने की घोषणा की जा चुकी थी। इसे हार छुपाने की चतुराई भले ही कहा जा सकता हो, पर ‘जीत’ तो किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता है। याद रहे कि मेघालय में इस बार, सभी सीटों पर लड़ने के बावजूद, भाजपा का मत फीसद पिछली बार के 9.6 फीसद से घटकर, 9.33 फीसद पर आ गया है।

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वास्तव में मेघालय में पिछले चुनाव के बाद भाजपा ने चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर आयी कांग्रेस को सबसे बढ़कर केंद्र की सत्ता के बल पर, सरकार से दूर रखने के बाद, उसे ही नहीं अपने साथ सत्ताधारी गठजोड़ में शामिल अन्य पार्टियों को भी अस्थिर करने का खेल, जमकर खेला था। इसी प्रकार, नगालैंड में पिछले चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आयी एनडीपीपी के साथ गठजोड़ करने के बाद, उसके अधिकांश विधायकों का उसने सत्ताधारी एनडीपीपी में विलय कराया और उसके बाद एनडीपीपी के साथ गठजोड़ किया, जिस गठजोड़ को हाल के चुनाव में बहुमत मिल गया है। केंद्र में सत्ता के सहारे इतनी जोड़-तोड़ के बाद भी, दोनों राज्यों में भाजपा की सीटें जस की तस ही बनी रही हैं। इसके बावजूद, 2 मार्च के चुनाव नतीजे के आधार पर नरेंद्र मोदी के यह दावा करने को कि अब तक बनी रही आम धारणा के विपरीत, अल्पसंख्यक भाजपा के साथ आ चुके हैं, शुद्ध हवाबाजी की कहा जा सकता है। हैरानी की बात नहीं है कि पहले गोवा में तथा अब उत्तर-पूर्व में, अल्पसंख्यकों के समर्थन के ऐसे ही ‘संकेतों’ के बल पर, प्रधानमंत्री मोदी ने आगे केरल में भी सरकार बनाने का जो दावा किया था, उसे केरल की एलडीएफ सरकार के मुख्यमंत्री, पिनरायी विजयन ने उनका ‘दिन में सपने देखना’ करार देकर, हाथ के हाथ खारिज भी कर दिया।

बहरहाल, त्रिपुरा के चुनाव नतीजों पर लौटें, जहां चुनावोत्तर हिंसा से हमने अपनी यह टिप्पणी शुरू की थी। वास्तव में तीनों राज्यों में एक त्रिपुरा ही है, जहां भाजपा अपनी सरकार बचाने में कामयाबी का दावा कर सकती है। लेकिन, यह कामयाबी भी कम से कम भाजपा या उसकी सरकार की लोकप्रियता बढ़ने या उसके लिए जनसमर्थन बढ़ने का, दूर-दूर तक कोई इशारा नहीं करती है। उल्टे 2018 के चुनाव के मुकाबले भाजपा के नेतृत्ववाले गठजोड़ की सीटों में पूरे 11 की गिरावट हुई है और उसका आंकड़ा 33 पर आ गया है, जो पिछले कम से कम चार दशकों में पहली बार, सत्तापक्ष का बहुमत इतना कम रह जाने को दिखाता है। इसी प्रकार, सत्ताधारी गठजोड़ के मत फीसद में भी लगभग 11 फीसद की गिरावट आईं है। इसी का नतीजा है कि भाजपा ने त्रिपुरा में अपनी सरकार तो जैसे-जैसे कर के बचा ली है, पर इस सचाई को वह चाहकर भी छुपा नहीं सकती है कि 16 फरवरी को हुए मतदान में, राज्य के मतदाताओं में से 60 फीसद ने, उसकी सरकार के खिलाफ ही वोट दिया था। यानी विपक्ष के वोटों के विभाजन की कृपा से ही, भाजपा त्रिपुरा में मामूली अंतर से अपनी सरकार बचा पाई है वर्ना राज्य की जनता के स्पष्ट बहुमत का जनादेश तो उसकी सरकार के खिलाफ ही था।

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स्वाभाविक रूप से राज्य में विपक्ष की सबसे बड़ी ताकत होने के नाते, सीपीआइ (एम) के नेतृत्व में वाम मोर्चे ने, भाजपा गठजोड़-विरोधी मतों के विभाजन को टालने की अपनी ओर से पूरी कोशिश की थी। इसी क्रम में उसने कभी इस राज्य में अपनी मुख्य विरोधी रही, कांग्रेस पार्टी के साथ ही नहीं, पिछले चुनाव के बाद की अवधि में त्रिपुरा के आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए विशेष प्रयत्न करने का दावा करने वाली, नवोदित त्रिपुरा मोथा पार्टी के साथ भी तालमेल का प्रयास किया था, जिसे इससे पहले त्रिपुरा आदिवासी स्वायत्त जिला परिषद के चुनाव में तथा उसके बाद हुए विधानसभा उपचुनाव में भी, आदिवासियों का काफी समर्थन मिला था। लेकिन, विपक्षी वोट को एकजुट करने में उसे पूरी सफलता नहीं मिली और वाम मोर्चा तथा कांग्रेस के एकजुट मंच के अलावा, त्रिपुरा मोथा ने करीब 41 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार कर मुकाबले को बहुत हद तक तिकोना कर दिया। इसके अलावा तृणमूल कांग्रेस ने विधानसभा की करीब सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए, हालांकि आमतौर पर मतदाताओं ने उसके उम्मीदवारों को खारिज कर दिया।

इस त्रिकोणीय मुकाबले में ही, 40 फीसद के करीब वोट के बल पर, भाजपा का गठजोड़, बहुमत का आंकड़ा पार करने में कामयाब हो गया। इस तिकोने मुकाबले की भी, एक अतिरिक्त विशेषता ने, भाजपा की खासतौर पर मदद की। 20 सुरक्षित आदिवासी सीटों पर, त्रिपुरा मोथा की स्थिति मुख्य दावेदारों में रही और उसने इनमें से 13 सीटों पर जीत भी दर्ज कराई। लेकिन, इसके अलावा 21 और गैर-आदिवासी बहुल सीटों पर उसके उम्मीदवार, मुख्य मुकाबले के लिहाज से ज्यादातर अगंभीर उम्मीदवार ही साबित हुए और उनमें से अनेक ने विपक्ष के वोटों में थोड़ा-बहुत जो भी विभाजन किया, उसने भाजपा की राह हमवार करने का ही काम किया।

एक अध्ययन के अनुसार धानपुर, बिशालगढ़, चंडीपुर, पबियाचारा में वाम मोर्चा-कांग्रेस के उम्मीदवार, त्रिपुरा मोथा के उम्मीदवारों द्वारा लिए गए वोट से भी कम अंतर से, भाजपा के उम्मीदवार से हार गए, जबकि मोहनपुर, तेलियामुरा, पेंचरथाल तथा पानीसागर आदि में भी विपक्ष का वोट भाजपा से ठीक-ठाक ज्यादा होने के बावजूद, उनके वोट के बंटने से भाजपा के उम्मीदवार जीत गए। इसी प्रकार, अगरतला में रामनगर से वाम मोर्चा-कांग्रेस समर्थित, निर्दलीय मानवाधिकार कार्यकर्ता, पुरुषोत्तम रायबर्मन, भाजपा उम्मीदवार से कुल 897 वोट से हार गए, जबकि यहां टीएमसी उम्मीदवार 2,079 वोट ले गया! यानी त्रिपुरा तक में भाजपा का कम से कम बड़े जनसमर्थन कोई दावा नहीं बनता है, फिर नगालैंड तथा मेघालय की तो बात ही क्या है?

लेकिन, चुनाव के इस चक्र में भाजपा की जीत के इस खोखलेपन का त्रिपुरा में उठे चुनावोत्तर हमलों के ज्वार से क्या सम्बंध है? दोनों में सम्बंध वास्तव में काफी सीधा और सरल है। अर्ध-सत्य व असत्य पर टिके अतिशय प्रचार के सहारे, भाजपा की जीत के खोखलेपन को छुपाते हुए, नरेंद्र मोदी की अजेयता का जो नैरेटिव प्रचारित किया जा रहा है, उसकी असलियत से जाहिर है कि खुद संघ-भाजपा पूरी तरह से बेखबर तो नहीं ही हो सकते हैं। इसीलिए, जहां उनका मुकाबला वामपंथ जैसी कड़ियल, वास्तविक हितों के आधार पर जनता को गोलबंद करने में समर्थ ताकतों से है, फासीवादी हथकंडों के सहारे वे सीधे-सीधे विरोधी ताकतों को पंगु बनाने की ही कोशिश करते हैं। त्रिपुरा में आज वही हो रहा है।

वास्तव में त्रिपुरा में वामपंथविरोधी हिंसा का सिलसिला तो 2018 के चुनाव में जीत के बाद ही शुरू हो गया था। भाजपा के राज के पांच साल में राज्य में एक भी चुनाव स्वतंत्र व निष्पक्ष तरीके से नहीं होने दिया गया था। इसी के चलते, आम लोगों के बीच इसकी भारी आशंकाएं थीं कि क्या इस बार उन्हें मर्जी से अपना वोट डालने दिया जाएगा? इन्हीं आशंकाओं के दबाव में, चुनाव आयोग के कुछ कदमों से किसी हद तक लोगों का विश्वास जमा और धीरे-धीरे लोग वोट करने के लिए बाहर भी निकले। इसी ने भाजपा गठजोड़ को सब कुछ के बावजूद, हार के करीब पहुंचा दिया था। अब सत्ता में वापसी के साथ ही भाजपा सरकार एक बार फिर, विपक्ष के इस बढ़ते खतरे को हिंसक हथकंडों से कुचलने की कोशिशों में जुट गई है। मगर यह तो उसकी जीत का नहीं, बल्कि हार के उसके डर का ही इशारा है।

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