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किसने बनाया अस्सी नदी को गंदा नाला

वाराणसी। किसी शहर की पहचान उसकी नदियों के कारण भी होती है। बनारस की कल्पना करते हुये कोई भी गंगा को भुला नहीं सकता और न ही दिल्ली या आगरा की बात हो और यमुना को भुला दिया जाये। किसी शहर की एक नदी भी उसकी पुख्ता पहचान हो सकती है लेकिन जिस शहर में […]

वाराणसी। किसी शहर की पहचान उसकी नदियों के कारण भी होती है। बनारस की कल्पना करते हुये कोई भी गंगा को भुला नहीं सकता और न ही दिल्ली या आगरा की बात हो और यमुना को भुला दिया जाये। किसी शहर की एक नदी भी उसकी पुख्ता पहचान हो सकती है लेकिन जिस शहर में तीन-तीन नदियां बहती हों उसके तो ठाठ ही अलग है। बनारस में गंगा की तरह वरुणा और अस्सी का भी अपना महत्व है लेकिन वास्तविकता यह है कि गंगा के आगे वरुणा और अस्सी की पहचान धूमिल हो चली है जबकि वास्तविकता यह है कि वाराणसी शहर का नाम ही इन दो नदियों के युग्म से बना है। दुर्भाग्य से ये दोनों अब गंगा में मिलनेवाली दो प्रदूषित धाराएँ भर रह गई हैं जो शहर के कचरे गंगा तक लाने का माध्यम भर रह गई हैं। इनमें से अस्सी तो अब नाला कही जाने लगी है।  अस्सी के आस-पास के दुकानों पर लगी होर्डिंग बैनरों पर शायद ही कहीं नदी के रूप में उसका ज़िक्र हो।

कैसी विडम्बना है कि जो नदी कुछ दशक पहले तक अपना जीता-जागता वजूद रखती थी अब वह न केवल जहरीले नाले में बदल चुकी है बल्कि ऐसा ही रहा तो जल्दी ही यह पूरी तरह खत्म हो जाएगी। मैंने सुंदरपुर के एक व्यक्ति से जब पूछा कि ऐसे ही रहा तो कितने दिन तक यह नाला रह पाएगा? उसने पान की पीक संभालते हुये कहा कि ‘नाला कहीं नहीं जाएगा। वह रहेगा। इसी नाले से इलाके का सीवर बहाया जाता है। बाकी कोई और रास्ता तो है नहीं। सरकार भी नदी थोड़े चाहती है। और नेता भी नहीं चाहते। सबका फाइदा नाला रहने में है। इसलिए नाला रहेगा।’ इसके किनारे-किनारे शायद काफी दूर तक जाया जा सकता है लेकिन जाना बहुत मुश्किल है। इसलिए अस्सी की खोज में निकलने की बात करना लोगों के लिए मज़ाक लगता है और कोई नहीं बताता कि इसका उद्गम कहाँ है। जैसाकि लंका निवासी नारायन कहतेहैं – ‘आज के नए लड़कों को न अस्सी नदी से मतलब है न ही वरुणा नदी से। वे तो यह भी जानने की कोशिश नहीं करते कि काशी का नाम वाराणसी क्यों पड़ा?’

अवैध निर्माण की शिकार होती गई अस्सी नदी

कहा जाता है कि अस्सी नदी का उद्गम स्थल वाराणसी का कंदवा है। वहाँ से चितईपुर, करौंदी, करमजीतपुर, नेवादा, सरायनन्दन, नरिया, साकेत नगर, नगवा से गुजरते हुए यह गंगा में मिलती है। कुल मिलाकर इस नदी की लंबाई 8 किलोमीटर है। आज यह खुद अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। सवाल उठता है कि यह आज नाले के रूप में कैसे तब्दील हो चुकी है।  सवाल यह भी उठता है कि आखिर अस्सी नदी की इस दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार है, प्रदेश की सरकार, जिला प्रशासन या फिर स्थानीय लोग? इस सवाल का जवाब नाम न छापने की शर्त पर लंका के एक स्थानीय व्यक्ति ने दिया- अस्सी नदी की इस दुर्दशा के लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार जिला प्रशासन है। जिला प्रशासन अगर चाह दे तो मजाल है किसी के माई के लाल की जो अवैध कब्जा कर ले। इन्हीं अफसरों की मिलीभगत से अवैध कब्जा होता है। यही नहीं, स्थानीय नेता भी अवैध कब्जा करने में पीछे नहीं रहते। उसने यह भी बताया कि रवीद्रपुरी कालोनी वाली पुलिया जो अस्सी नदी का क्षेत्र घोषित है और जहां पर सावन के मेले में झूला लगता है उस एरिया को आज कि तारीख में भाजपा के ही दो विधायकों ने कब्जिया लिया है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत है यहाँ पर। वह व्यक्ति इतने पर ही नहीं रुका। उसने आगे बताया – ‘अस्सी नदी में आज से 40-45 वर्षों पूर्व लोग स्नान- ध्यान किया करते थे और तब इस नदी की चौड़ाई आज की वरुणा से भी ज्यादा थी। सच कहूँ तो गरीबों के पास हिम्मत नहीं है कि वे इस तरह से जमीन पर कब्जा कर लें। ये पैसे वाले लोग ऊंची जातियों के हैं,  इसलिए प्रशासन भी इनके आगे मजबूर है। कहाँ गया आज योगी का बुलडोजर जो अवैध कब्जा करने वालों पर चाबुक की तरह चल जाता था । आज खुद उनकी पार्टी के विधायक अवैध ढंग से कब्जा कर रहे हैं और योगी सरकार आंखें मूँदी हुई है। उसे अपने विधायकों की कोई भी करतूत दिखाई नहीं दे रही है।

प्रो. विश्वंभरनाथ मिश्र

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आइटी के प्रोफेसर और प्रसिद्ध पर्यावरणविद प्रो. विश्वंभरनाथ मिश्र भी इस व्यक्ति की बातों से सहमत होते हुए दिखाई देते हैं। अवैध कब्जे की बावत कहते हैं-  ‘कंदवा से लेकर अस्सी नदी के गंगा नदी में गिरने के लगभग 8 किलोमीटर की दूरी में जितने भी मकान या दूसरी तरह के अवैध निर्माण हुए हैं, वह सब वीडीए और नगर निगम के अधिकारियों की देन हैं। अगर ये अधिकारी चाह जाएँ तो किसी की मजाल नहीं कि एक इंच पर अवैध निर्माण हो जाय।’ प्रोफेसर मिश्र आगे कहते हैं- ‘मैं तो सरकार से मांग करता हूँ कि जितने भी अवैध निर्माण अस्सी नदी के किनारे हुए हैं, उन सभी को चिन्हित करके उन पर भी बुलडोजर चलाया जाय, तब जाकर ऐसे लोग ठीक होंगे। यही नहीं जिन अफसरों की संलिप्तता इसमें पायी जाय, उनसे तत्काल रिकवरी कि जाय, चाहे वे रिटायर्ड हो गए हों या नौकरी में हों। अगर वे रिटायर्ड हो गए हों तो उनके पेंशन से या फिर उनका घर-बार कुर्क करके वसूली कि जाय।’

कारखानों और घरों की गंदगी ने सीवर बनाया राजस्व विभाग ने कागज़ पर दिखाया

अस्सी नदी की बदहाली का दूसरा कारण अस्सी नदी में गिराया जाने वाला दूषित पानी है। इसकी बरबादी में बनारस डीजल इंजन कारखाना, बीएचयू, छोटे-मोटे कल-कारखानों के अपशिष्ट पानी के अलावा घरों से निकालने वाले सीवर के पानी की बहुत बड़ी भूमिका रही है। विश्वंभरनाथ मिश्र कहते हैं- ‘आज अस्सी नदी में सीवर और फैक्ट्रियों का ही पानी आ रहा है। नाले के पास जाने पर यह दूर से ही बदबू मारता है। वहाँ आप दस मिनट भी नहीं रुक सकते हैं। यही नहीं, जहां पर अस्सी नदी का पानी गंगा जी में गिराया जा रहा है, वहाँ की स्थिति तो बद से बदतर है। गंगा में गिरने वाले अस्सी नदी के पानी का एक मानक होना चाहिए, लेकिन यहाँ तो स्थिति भयावह है, जिसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।’

अस्सी नदी या नाला?

गौरतलब है कि अस्सी नदी की दुर्दशा का संज्ञान लेते हुए फरवरी 2019 में एनजीटी (National Green Tribunal)  की यूपी सालिड वेस्ट मैनेजमेंट मानिटिरिंग कमेटी के सदस्य वाराणसी आए और इन्होंने अस्सी नदी के किनारे काफी संख्या में भवनों के अतिक्रमण पर चिंता व्यक्त की थी। तत्कालीन कमेटी के अध्यक्ष देवी प्रसाद और सचिव राजेंद्र प्रसाद सिंह ने यहाँ पर विभागीय अधिकारियों के साथ बैठक कर अतिक्रमण को चिन्हित कर कार्रवाई का निर्देश दिया था। अस्सी नदी के उद्गम स्थल कंदवा की झील को पुनर्जीवन देने की बात कही। नदी के पानी को ट्रीटमेंट प्लांट के माध्यम से साफ करें। कब्जा हटाएँ और किनारे हरियाली करें। ऐसे पेड़ लगाएँ जो नदी को रिचार्ज करें। साथ ही खुले स्थानों पर पौधारोपण करें। देवी प्रसाद ने तो अधिकारियों को चार महीने की मोहलत दी थी और अवैध निर्माण पर कार्रवाई न करने पर एक करोड़ का जुर्माना लगाने की भी चेतावनी दी थी।

मजेदार बात तो यह है कि बनारस के अधिकारियों ने तत्कालीन एनजीटी के सदस्यों के आदेश को मानने की बजाय उनके आदेश का तोड़ निकाल डाला। वाराणसी के राजस्व विभाग ने एनजीटी को जो रिपोर्ट भेजी, उसमें 1883 के बंदोबस्ती नक्शे का हवाला देते हुए अस्सी नदी को नाला करार दे दिया गया। उस नक्शे के आधार पर इसको नदी नहीं बल्कि नाला घोषित कर दिया गया। तत्कालीन अधिकारियों ने कागजों में यह भी दिखा दिया कि अस्सी नाले के किनारे किसी भी प्रकार का कोई अतिक्रमण ही नहीं है।

भू-राजस्व अभिलेख में अस्सी नदी को नाला कहे जाने पर नाराजगी जताते हुए प्रोफेसर विश्वंभरनाथ मिश्र कहते हैं- ‘मैं तो इसे नदी ही कहूँगा। यह वास्तव में नदी ही है। आज इसमें गंदा पानी गिरना बंद हो जाय। रेलवे का गंदा पानी न आने पाये और अवैध कब्जों से इसे मुक्ति मिल जाय तो अस्सी नदी अपने पुराने स्वरूप में लौट आयेगी।’ सुनने में आया है कि एन जी टी फिर से सख्ती पर उतरा है। लेकिन आगे क्या होगा यह कहना मुश्किल है।

प्रो. बीडी त्रिपाठी

नदी और नाले में क्या अंतर होता है इस सवाल के जवाब में बीएचयू के महामना मालवीय गंगा रिसर्च सेंटर के चेयरमैन और जाने-माने पर्यावरणविद प्रो. बीडी त्रिपाठी कहते हैं- ‘नदी के स्वरूप में भूमिगत जल का रिसाव होता है। नदी के दोनों तरफ की ओर सतह का ढाल होता है, जिसमें भूमिगत जल निकलता रहता है। वहीं नाले का स्तर ऊपर होता है।’

क्या राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) एक दिखाऊ संस्थान भर है

18 अक्तूबर 2010 को एनजीटी अधिनियम 2010 के तहत पर्यावरण संरक्षण, वन संरक्षण, प्राकृतिक संसाधनों सहित पर्यावरण से संबन्धित किसी भी कानूनी अधिकार के प्रवर्तन, दुष्प्रभावित व्यक्ति अथवा संपत्ति के लिए और क्षतिपूर्ति प्रदान करने एवं इससे जुड़े मामले के प्रभावशाली एवं त्वरित निपटारे के लिए एनजीटी की स्थापना की गयी थी। सरल भाषा में इसे पर्यावरण अदालत कहा जाता है, जिसके पास हाईकोर्ट जैसी शक्तियाँ प्राप्त हैं। अंतर इतना है कि हाईकोर्ट को शक्तियां संविधान से प्राप्त हैं, और एनजीटी को इसके लिए बनाए गए अधिनियम से। 18 अक्तूबर 2010 को जस्टिस लोकेश्वर सिंह पंटा को इसका पहला अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

एक तरह से देखा जाय तो आज अधिकारी भी बीजेपी सरकार के पदचिन्हों पर चलते हुए नजर आ रहे हैं। जैसा कि एनजीटी की यूपी सालिड वेस्ट मैनेजमेंट मानिटिरिंग कमेटी के अधिकारियों के आदेश के मामले में हुआ उसे देखकर भी यही कहा जा सकता है। नाले की सफाई, वृक्षारोपण, अवैध निर्माण के ध्वस्तिकरण जैसे मामलों के निस्तारण की बजाय वाराणसी जिला प्रशासन ने 1883 के भू- बंदोबस्ती नक्शे के आधार पर अस्सी को नदी से नाला बना दिया।

बहरहाल जो भी हो अस्सी नदी का नाले के रूप में तब्दील होना किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं माना जा सकता। जैसा की प्रो बी.डी.त्रिपाठी कहते हैं- ‘आज जब अस्सी नदी नाले के रूप में तब्दील हो चुकी है और इसमें सिर्फ सीवर, फैक्ट्री और रेलवे के कारख़ानों का ही पानी आ रहा है तो जाहिर सी बात है यह नाला बड़ी बीमारियों को न्योता दे रहा है।’

दूसरी तरफ प्रोफेसर विश्वंभरनाथ मिश्र सुझाव देते हुए कहते हैं-  ‘अवैध निर्माण को तोड़ते हुए नदी की गंदगी को साफ करने का शासन को प्रयास करना चाहिए, जिससे उसका बरसात के दिनों में फ्लो बना रहे। इससे ग्राउंड वाटर लेवल भी ठीक बना रहेगा और लोग बीमारियों से भी दूर रहेंगे ।’ लेकिन इस पूरे मामले पर जब नगर आयुक्त शिपू गिरी से बात करने की कोशिश की गई तो उन्होंने यह कहते हुए फोने काट दिया कि आप मेरे पीआरओ से बात कर लीजिए।

जो लोग अस्सी नदी के किनारे बसे हुये हैं

मेरी गाड़ी रवींद्रपुरी कालोनी से होते हुए अस्सी नदी पर बने पुल को पार कर कबाड़ी वाले की दुकान के सामने रुकी। मैंने अस्सी नदी के नाले के पास हो रहे अतिक्रमण को घूम- घूम कर देखना शुरू किया, तभी वहाँ एक व्यक्ति आया और उसने अपना नाम पूछने पर नंदलाल गुप्ता बताया। मुझसे बोला – ‘क्या आप सर्वे वाले हैं ?’ मैंने बताया मैं प्रेस से हूँ और अस्सी नदी के किनारे हो रहे अवैध निर्माण पर एक स्टोरी लिख रहा हूँ। उसने तपाक से पूछा – ‘क्या नदी के किनारे बने मकानों को सरकार तोड़ देगी?’ मैंने कहा, ये तो सरकार ही फैसला करेगी कि क्या करना है और क्या नहीं? क्या आपका भी मकान अस्सी नदी से एकदम सटा हुआ है? मेरे सवाल के जवाब में नंदलाल गुप्ता ने बताया कि- ‘मेरा मकान लंका से रवींद्रपुरी कालोनी की तरफ चलने पर अस्सी नदी पर बने नाले के बाईं ओर अस्सी नदी की धारा के सबसे करीब वाला है।’ नदी से इतना सटाकर मकान बनवाने की अपनी मजबूरी को बताते हुए नंदलाल कहते हैं – ‘मजबूरियाँ इंसान से जो न करा दे। भइया, अगर आज हमारे पास इतना पैसा होता तो क्या हम अच्छी जगह पर मकान बनाकर नहीं रहते? क्या जरूरत थी, तब हमें यहाँ सड़े-गले गंदे पानी के आसपास रहने की।’

नंदलाल गुप्ता

‘आप नदी के इतने पास में मकान बनवाए हैं, क्या यह अवैध नहीं है?’ इस प्रश्न के जवाब में नंदलाल गुप्ता के भाई कैलास गुप्ता कहते हैं – ‘आज हमसे सरकार पानी का टैक्स, हाउस टैक्स और बिजली का बिल ले रही है, फिर सरकार हमें या हमारे घर को अवैध कैसे कह सकती है। अगर हम अवैध कब्जा कर रहे थे तो सरकार को हमें उसी समय भगा देना चाहिए था। लेकिन ये जमीन हमने मौर्या जी से 2005 के आसपास खरीदी है। उस समय यह जमीन हमें बहुत ही सस्ते दाम में मिल गयी थी। तब से इस जमीन पर हम टीन की छत डालकर रह रहे हैं। और तभी से हम अपने मकान का गृहकर, जलकर और बिजली का बिल जमा कर रहे हैं। नंदलाल ने ऑनलाइन जमा किए गए बिजली बिल की फोटो भी शेयर की।  वे कहते हैं कि ‘कबाड़ की दुकान जो हमने 2012 में शुरू की थी, यह आज भी चल रही है,जैसा कि आप देख भी रहे हैं, इसी से हम लोगों का जीवनयापन चल रहा है।’

‘अगर सरकार ने आपके मकान को नदी से कब्जा हटाने के लिए तुड़वा दिया, तो आप क्या करेंगे ?’ सवाल का जवाब देते हुए नंदलाल कहते – ‘अगर ऐसा हुआ तो मै तो जीते जी मर जाऊंगा। फिर तो हम अनाथ हो जाएंगे। मेरे बाल-बच्चे सड़क पर आ जाएंगे। मेरे बच्चों का भविष्य ही चौपट हो जाएगा। लेकिन मै हार नहीं मानूँगा और सरकार से अंत तक लड़ने की कोशिश करूंगा। ऐसे में हम लोगों के साथ अगर सरकार कुछ भी ऊंच-नीच करेगी तो हम लोगों का जीवन चलना मुश्किल हो जाएगा।’ फिर नंदलाल सवाल दागने वाले अंदाज में कहते हैं – ‘आप पूरे बनारस में घूम लीजिए अगर आपको हर सौ-दो सौ मीटर पर अवैध कब्जा न दिख जाय तो फिर कहिए।’

नगर निगम द्वारा जारी मकान टैक्स की रसीद

नंदलाल के भाई कैलास निराशा भरे लहजे में कहते हैं – ‘अगर सरकार मन ही बना लेगी तो हम लोग सरकार से कितना लड़ेंगे। लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि अगर सरकार हमें यहाँ से उजाड़े तो आस-पास ही हमारे लिए घर कि व्यवस्था भी कर दे। जैसा कि विश्वनाथ कॉरीडोर के मामले में देखने को मिला। सरकार ने वहाँ के सारे मकानों को तोड़ दिया और कोई कुछ नहीं कर पाया।’ हालांकि सरकार ने यह काम विकास के लिए किया लेकिन सरकार के इस कदम से बनारस का मूल ढाँचा ही बदल गया। और सरकार ने जिन लोगों का मकान तोड़ा उनको पैसे भी इतने दिये कि वो अपना कहीं घर बना सके। हमारे बारे में भी सरकार इस तरह से सोचे तो हमारा जीवन भी चलता रहेगा।’

वहीं दूसरी तरफ इसी इलाके के रामनरेश चौरसिया की चिंताएँ भी नंदलाल से ही मिलती-जुलती हैं। इनका मकान अस्सी नदी की धारा से 20-25 मीटर की दूरी पर है। ये बताते हैं –’अभी दो ढाई महीने पहले सर्वे की टीम आई थी और वे लोग कह गए कि आपका मकान अगर टूटा तो एक से डेढ़ मीटर ही टूटेगा।’ वह आगे कहते हैं – ‘अगर एक से डेढ़ मीटर भी मेरा मकान टूट गया तो फिर बचेगा ही कितना?’ चौरसियाजी आगे बताते हैं कि ‘मौर्या जी से मैंने 30-35 वर्ष पूर्व रजिस्ट्री करवाई और नगर निगम से नहीं बल्कि, उस समय मेरा कचहरी से दाखिल खारिज हुआ है। उसके बाद से मैं करकट डालकर परिवार सहित रहने लगा। मेरी दुर्गाकुंड के पास पान की दुकान है और उसी से मेरा जीवनयापन चलता है।’

रामनरेश चौरसिया

रामनरेश चौरसिया सवाल पूछने वाले अंदाज में कहते हैं -‘मेरा यह मकान जवाहर योजना के तहत बना है, जिसमें सरकार ने 23 हजार रुपये लगाकर दो कमरों के अलावा एक किचन, नहाने धोने और शौच के लिए एक रूम बनता था, बना। एक सरकार थी जिसने बसाया और अब दूसरी सरकार उजाड़ने पर आमदा है। आप ही बताइए अगर सरकार हमारा घर गिरा देगी तो हम कहाँ जाएंगे? आज मेरे बच्चों के भी बच्चे हो गए हैं। 15-16 लोगों का मेरा परिवार मकान गिराए जाने की स्थिति में कहां जाएंगे।’

वहीं दरवाजे के पास खड़ी रामनरेश की पत्नी कहती हैं – ‘हमार त  चार पतोह बानी बेटवा। बतावा अगर हमार घर गिर गल त हमार बाल बच्चा, पतोह और चार बेटे कहाँ जइहन। बेटवा भगवान से प्रार्थना करा की हमार घर बच जाय।’ (मेरी चार बहुएँ हैं बेटा। आप बताइये अगर मेरा घर गिर गया तो मेरे बच्चे, बहुएँ और चार बेटे कहाँ जाएंगे)

अस्सी नदी पुलिया के पास दुकान चलाने वाले दुर्गा यादव कहते हैं- ‘आज बनारस में अवैध निर्माण करना जैसे एक फैशन बन गया है। आदमी चाहे छोटा हो या बड़ा सभी लोग बस इसी फिराक में लगे रहते हैं कि कुछ कब्जा कर लिया जाय। जब तक उस पर कब्जा है, तब तक ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं।’  दुर्गा यादव उदाहरण देते हुए बताते हैं कि – ‘शीतलदास अखाड़ा मठ पहले अखाड़ा कहा जाता था, क्योंकि तब बाबा गूदड़ अपने शिष्यों के साथ यहाँ रहते थे, बाद में चलकर इन्हीं के शिष्यों के परिवार के लोगों ने आज इस पर कब्जा कर लिया है।  मठ में गाड़ी पार्किंग की व्यवस्था है। वहाँ गाड़ी खड़ा करने वाले लोगों से वसूली होती है। 50-60 रुपये प्रति गाड़ी किराया है।’ अस्सी निवासी जितेंद्र त्रिपाठी कहते है – ‘बनारस में अवैध कब्जे की बात ही मत करिए, क्योंकि यहाँ पर हर दस कदम पर आपको अवैध कब्जा दिख जाएगा। अस्सी नदी को ही देखिये। अवैध कब्जे का शिकार होकर आज नाले में तब्दील हो चुकी है।’

अस्सी नदी के किनारे के अवैध निर्माण कि वास्तविक स्थिति से रूबरू कराते हुए जन कल्याण मंगल दल सामाजिक संस्था के अध्यक्ष एसएन सिंह कहते हैं – ‘आज यह अस्सी नदी का पुल देख रहे हैं। उस पुल के बगल में शराब की दुकान है उस दुकान के लोग इस नदी को लगातार पाटने की कोशिश कर रहे हैं। इस दुकान से निकलने वाले कूड़े से नदी को भाठा जा रहा है।’

एसएन सिंह

एसएन सिंह आगे कहते हैं कि- ‘आज भाजपा की सरकार स्वच्छता पर बहुत ध्यान दे रही है लेकिन सरकार की यह स्वच्छता सिर्फ प्रमुख सड़कों पर ही दिखाई देता है। बनारस की गलियों में निकल जाइए या अस्सी और वरुणा नदियों के पास चले जाइए तो वहाँ पर आपको बजबजाते कूड़े का ढेर मिल जाएगा। अस्सी नदी जो आज खत्म होने के कगार पर है, उसमें इन सबका भी बहुत योगदान है। अगर मैं सच कहूँ तो अस्सी नदी जो आज नाले में तब्दील हो गयी है, एक तरह से देखा जाय तो इसकी बदहाली में यहाँ के स्थानीय नेताओं, वीडीए और नगर निगम के अफसर भी जिम्मेदार हैं। किसी भूमि पर किसी भी प्रकार का कब्जा होता है तो इन अफसरों की मिली-भगत से ही।

बहरहाल, जो भी लेकिन एक बात तो मानना ही पड़ेगा कि अस्सी नदी अपने मूल उद्गम स्थल कंदवा से ही अवैध निर्माण का शिकार होती है। जैसा कि एसएन सिंह कहते हैं- ‘अस्सी नदी तो कंदवा से अवैध निर्माण का शिकार हो जाती है और संकट मोचन मंदिर तक उसका कहीं कोई पता नहीं चलता, क्योंकि लोगों ने नदी के ऊपर ही मकान बनवा लिया है। 8 से 10 किलोमीटर की महज दूरी वाली इस नदी को भी अगर हम नहीं बचा पा रहे हैं तो यह हमारे लिए शर्म की बात है। लोग बताते है कि गोदौलिया पर भी गोदावरी नामक कोई एक नदी पहले बहा करती थी, जिसके पटने के बाद आज उसी के ऊपर गोदौलिया बसा है। ऐसे में अस्सी नदी को नहीं बचाया गया तो हमारी आगे आने वाली पीढ़ियाँ जान ही नहीं पाएँगी कि अस्सी भी कोई नदी थी।’

इसी तरह से मनमाने ढंग से अस्सी के किनारे अवैध निर्माण होता गया और घरों के सीवर का पानी यूं ही नदी में गिरता रहा तो एक दिन हम भीषण त्रासदी के दौर से भी गुजर सकते हैं, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता।

राहुल यादव गाँव के लोग डॉट कॉम के उप-संपादक हैं