इतिहास का महत्व इस कारण ही है कि उससे सवाल पूछा जाय और जो इतिहास जवाब न दे सके, वह इतिहास की श्रेणी में नहीं आता। आज मौका है कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह से जुड़े इतिहास से कुछ सवाल पूछे जाएं। सवाल यही कि आखिर वे कौन से कारक थे, जिन्होंने करीब 23 साल के नौजवान को यह लिखने पर मजबूर किया कि मैं नास्तिक क्यों हूं। साथ ही सवाल यह भी कि उनके सामने जो मसले थे, उन मसलों का क्या हुआ? क्या उन मसलों के संबंध में भारतवासियों के विचार में कोई बदलाव आया है?
पहले तो यह कि खुद को नास्तिक बताने के संबंध में भगत सिंह ने कहा क्या है। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित पुस्तिका मैं नास्तिक क्यों हूं के पृष्ठ संख्या पर भगत सिंह लिखते हैं – ‘क्या आप मुझसे पूछते हैं कि इस दुनिया की और इंसान की उत्पत्ति कैसे हुई? ठीक है मैं बताता हूं। चार्ल्स डार्विन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है। उसे पढ़िए। सोहन स्वामी की पुस्तक कॉमन सेंस पढ़ें। इससे आपके सवाल का कुछ हद तक जवाब मिल जाएगा। दुनिया एवं इंसान की उत्पत्ति एक प्राकृतिक घटना है। तारामंडल की शक्ल में विभिन्न पदार्थों के आकस्मिक मिश्रण ने पृथ्वी को पैदा किया। कब? इतिहास से परामर्श करें।उसी प्रक्रिया ने जीव-जंतु पैदा किए और अंततोगत्वा इंसान बना। डार्विन की पुस्तक ओरिजिन ऑफ स्पेसीज पढ़ें और बाद में जो प्रगति हुई है वह प्रकृति के साथ इंसान के लगाताकर संघर्ष और उस पर विजय पाने के लिए उसकी कोशिशों के जरिए हुई। इस परिघटना की यह संक्षिप्त्तम संभव व्याख्या है।’ इतिहास का महत्व इस कारण ही है कि उससे सवाल पूछा जाय और जो इतिहास जवाब न दे सके, वह इतिहास की श्रेणी में नहीं आता। आज मौका है कि शहीद-ए-आजम भगत सिंह से जुड़े इतिहास से कुछ सवाल पूछे जाएं। सवाल यही कि आखिर वे कौन से कारक थे, जिन्होंने करीब 23 साल के नौजवान को यह लिखने पर मजबूर किया कि मैं नास्तिक क्यों हूं। साथ ही सवाल यह भी कि उनके सामने जो मसले थे, उन मसलों का क्या हुआ? क्या उन मसलों के संबंध में भारतवासियों के विचार में कोई बदलाव आया है?
[bs-quote quote=”भले ही हमारा मुल्क 15 अगस्त, 1947 को आजाद हो गया, लेकिन पूंजीवाद की बेड़ियां रोज-ब-रोज सख्त होती गई हैं। साथ ही धार्मिक रूढ़िवादिता का स्तर भी इस हद तक हो गया है कि मंदिर में पानी पीने गए एक अबोध बालक के साथ केवल इसलिए क्रूरता की जाती है क्योंकि वह किसी और धर्म का था। जिन मिथकों के महिमांडन से भगत सिंह ने इंकार किया था, उन मिथकों को नए सिरे से केवल स्थापित ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि उन्हें ही भारत का प्राचीन इतिहास बताया जा रहा है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
भगत सिंह की इसी व्याख्या से प्रारंभ किया जाना चाहिए। इस व्याख्या से यह तो स्पष्ट है कि भगत सिंह ईश्वर की परिकल्पना को खारिज करते थे। उसकी वजह क्या रही होगी? विचारणीय प्रश्न यह है। हमें यह याद रखना चाहिए कि यह वह समय था जब दुनिया पहले विश्व युद्ध का विध्वंस देख चुकी थी। इसका असर वैश्विक था। भारत में भी इसके खून के छींटे थे। वर्ष 1927 में दो महत्वपूर्ण परिघटनाएं घटित हुईं। एक तो यह कि एक अमेरिकी महिला पत्रकार कैथरीन मेयो ने मदर इंडिया किताब के जरिए भारतीय सामाजिक व्यवस्था में भेदभाव के सभी परतों को दुनिया के सामने रख दिया था। यह माना जा सकता है कि भगत सिंह ने भी उस किताब का अध्ययन जरूर किया होगा। वजह यह कि तब इस किताब को लेकर वर्चस्ववादी भारतीय समाज के पैरोकारों ने खूब बवाल काटा था। यहां तक कि लाला लाजपत राय को कैथरीन मेयो की किताब के खिलाफ जाकर अनहैप्पी इंडिया लिखना पड़ा। दूसरी महत्वपूर्ण घटना डाॅ. आंबेडकर के नेतृत्व में हुई महाड़ सत्याग्रह रही होगी, जिसने एक झटके में पूरे भारत को बता दिया कि सामाजिक व्यवस्था में भेदभाव की जड़ें इतनी गहरी हैं कि तालाब का पानी भी दलितों को मयस्सर नहीं और वह भी तब जब बंबई विधान परिषद ने पहले ही इसके लिए कानून बना दिया था कि सार्वजनिक जल स्रोतों का हर कोई उपयोग कर सकता है। फिर चाहे वह किसी भी जाति व वर्ग का हो। यह घटना 20 मार्च, 1927 को घटित हुई।
इन घटनाओं ने भगत सिंह के उपर प्रभाव जरूर डाला होगा। अपने लेख मैं नास्तिक क्यों हूं में एक जगह वे लिखते हैं – ‘जिस तरह मूर्ति पूजा और धर्म की संकीर्ण अवधारणा के विरूद्ध संघर्ष किया गया, उसी तरह भगवान के विरूद्ध भी समाज को संघर्ष करना होगा।’ उनके इस कथन से यह माना जा सकता है कि वे इससे सहमत थे कि मूर्ति पूजा जो कि असल में मिथकों की पूजा है और उसके संदर्भ में हिंदू धर्म के ग्रंथों में कोई ठोस बात नहीं है और ना ही उनके चरित्र इतने उज्जवल हैं कि उनका गौरवगान किया जाय।
[bs-quote quote=”जिस भेदभाव ने भगत सिंह को नास्तिक बनाया, वे सारे भेदभाव किन कारणों से बने हैं। यदि हम ऐसा करते हैं तो निश्चित तौर पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित सम्मान के साथ जीवन के अधिकार को सही मायनों में साकार करने की दिशा में एक कदम बढ़ा सकते हैं जो कि भगत सिंह का सपना था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
ईश्वर की अवधारणा को खारिज करते हुए भगत सिंह लिखते हैं कि ‘मैं पूछता हूं कि आपका सर्वशक्तिमान भगवान हर उस आदमी को उस वक्त क्यों नहीं रोकता जब वह कोई अपराध या पाप कर रहा होता है। ऐसा वह आसानी से कर सकता है। भगवान युद्ध छेड़ने वाले नेताओं को क्यों नहीं मार डालता या उनके युद्ध उन्माद को क्यों नहीं खत्म कर देता और इस तरह महायुद्ध ने मानवता के उपर जो कहर ढाया है उसे क्यों नहीं टाल देता? वह ब्रिटेन के लोगों के दिमाग में थोड़ी यह भावना क्यों नहीं पैदा कर देता है कि भारत को आजाद कर दें, जिससे तमाम मेहनतकश समुदाय को – बल्कि समूची मानवता को पूंजीवाद की गुलामी से छुटकारा मिल जाय?’
गौर तलब है कि ईश्वर को विवेचित करते समय भगत सिंह की चिंता के केंद्र में तमाम मेहनतकश समुदाय हैं। वे इस बात से अवगत थे कि पूंजीवाद जिसकाे बनाए रखने का एक आधार धर्म भी है, भारत के वंचित समुदायों के लिए किस हद तक खतरनाक है।
अब यदि वर्तमान को देखें तो हम पाते हैं कि समय के साथ भले ही हमारा मुल्क 15 अगस्त, 1947 को आजाद हो गया, लेकिन पूंजीवाद की बेड़ियां रोज-ब-रोज सख्त होती गई हैं। साथ ही धार्मिक रूढ़िवादिता का स्तर भी इस हद तक हो गया है कि मंदिर में पानी पीने गए एक अबोध बालक के साथ केवल इसलिए क्रूरता की जाती है क्योंकि वह किसी और धर्म का था। जिन मिथकों के महिमांडन से भगत सिंह ने इंकार किया था, उन मिथकों को नए सिरे से केवल स्थापित ही नहीं किया जा रहा है, बल्कि उन्हें ही भारत का प्राचीन इतिहास बताया जा रहा है। हद तो यह कि इसके लिए इतिहास के सारे मानदंडों को ही बदल दिया गया है।
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ऐसे में सवाल तो उठता ही है कि क्या हम भारत के लोग भगत सिंह के विचारों का इंच मात्र भी विस्तारित कर पाए हैं? यदि नहीं तो हमें यह देखना होगा कि जिस भेदभाव ने भगत सिंह को नास्तिक बनाया, वे सारे भेदभाव किन कारणों से बने हैं। यदि हम ऐसा करते हैं तो निश्चित तौर पर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में वर्णित सम्मान के साथ जीवन के अधिकार को सही मायनों में साकार करने की दिशा में एक कदम बढ़ा सकते हैं जो कि भगत सिंह का सपना था। वही सपना, जिसके लिए 24 साल का नौजवान अपने साथियों राजगुरू और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते झूल गया।
नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।
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