आजकल हम शब्दों की तह तक नहीं जाते। जो जैसा दिखता है वैसा मान लेते हैं । मगर कभी शब्दों को टटोलिए , उनके मर्म तक जाइए तो कुछ-कुछ वैसा ही आनन्द आता है जैसे आप किसी बच्चे से घुलमिल कर बात कर रहे हों ।
कभी-कभी शब्दों के क़रीब जाने की यह कोशिश आपको एकदम नई जानकारी भरी दुनिया में ले जाती है जहां कोई दर्द कब का पड़ा सो रहा होता है या कोई आंसू अभी भी मुरझाए फूलों में अपनी नमी बचाए मिलता है।
तब शब्दों से मिलना ऐसे लगता है जैसे कोई औरत जो अब तक जैसी व्यवहृत रही है, उस से एकदम अलग दिखती-मिलती है जब आप सहृदयतापूर्वक उनका विश्वास जीत पाते हैं, उसे अपना राज़दार बना पाते हैं । शब्दों से इस नयी मुलाकात में जाति और देश और भाषा की दीवारें ऐसे ढहती मिलती हैं जैसे उन्हे फूंक-फांक के कांख-कूंख के खड़ा किया गया रहा हो।
शब्दों की तह में जाना सर्वदा एक अपरिचित दुनिया में जाना होता है जो अंततः बहुत प्रीतिकर लगती है।
वे खुरदुरे अदृश्य हाथ दिखने लगते हैं जिन्हों ने शब्दों में इतनी प्रीति, इतनी करुणा, और इतनी नफ़रत इतनी आग पिरो दी है कि आप उस शब्द के बनने के समय के परिवेश को भी चाहें तो समझ सकते हैं।
शब्दों की फ़स्ल कैसे बोई गयी होगी , कैसे पनपी, पकी, काटी गयी होगी, खलिहान तक लायी होगी ।
फिर उसका शोधन परिशोधन हुआ होगा।
इस बीच कुछ शब्द खेत में ही छूट गए होंगे। कुछ ढोए जाते समय रास्ते में गिर गए होंगे।
कुछ शब्द मलिकार के हक़ में आए होंगे, कुछ मजदूर के, कुछ चिड़िया-चुरुंग, चउओं के। कुछ शब्द ठसक वाले, कुछ पइया निकले होंगे।
शब्दों की दुनिया में घुसिए तो उनका भाईचारा और उनकी परस्पर निर्भरता, वैश्विक दृष्टि गढ़ती है ।
शब्द देश-देशांतर की यात्रा में ख़ुद को सुरक्षित रखते हुए परिवेश के अनुसार बदलते हैं ।
शब्द का इतिहास ही मत पढ़िए, उनके भूगोल तक जाइए तब आप पाएंगे कि शब्द का उच्चारण कैसे भौगोलिक , सामाजिक परिवर्तन से प्रभावित होता है ।
शब्दों का तात्कालिक या तत्कालीन ज़रूरतों से रिश्ता भी आपको दिखने लगेगा ।
अपनी भाषा में आयातित शब्द का आपकी सामाजिक परम्परा से भी अटूट सम्बन्ध दिखने लगेगा । शब्दों के गढ़न और व्यवहार की कहानी उजागर होगी ।
ध्वनि से शब्द कैसे बनाए गए, शब्द में ध्वनि कैसे पिरोई गई, तनहा शब्द में कैसे एक समूचा दृष्य भर दिया गया, ऐसे अद्भुत दृष्य खुलते हैं, जब आप शब्द से आत्मीय मुलाकात करते हैं।
शब्द ही शब्द का बीज और शब्द ही शब्द का फल।
शब्द से शब्द का पुरातन गठजोड़।
एक शानदार, मज़ेदार अनुभव।
कटुता विहीन इतिहास।
शाब्दिक अनुशासन। शाब्दिक सहेलीपन ।
और तो और शब्द अपने बिगड़ने, प्रदूषित होने की कहानी भी अकुंठ भाव से सुना जाते हैं। उनका सिर्फ़ एक ही आग्रह होता है , कृपया उन्हें बरतने के पीछे अपना लहजा, अपनी नीयत दुरुस्त रखिए ।
शब्द-योग करके देखें। अध्ययन की आत्मिक शांति मिलती है।
लेखक सम्मानित कवि और गज़लकार हैं ।
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शब्द-योग
आजकल हम शब्दों की तह तक नहीं जाते। जो जैसा दिखता है वैसा मान लेते हैं । मगर कभी शब्दों को टटोलिए , उनके मर्म तक जाइए तो कुछ-कुछ वैसा ही आनन्द आता है जैसे आप किसी बच्चे से घुलमिल कर बात कर रहे हों । कभी-कभी शब्दों के क़रीब जाने की यह कोशिश आपको […]