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 राही कल्पना के किले से नहीं हकीकत के घरों से चुनते थे कहानियाँ

राही मासूम रज़ा को याद करते हुए.. राही मासूम रज़ा की रचना दृष्टि का निर्माण उनके जीवनानुभवों के द्वारा हुआ है। ‘आधा गाँव‘ उपन्‍यास के संदर्भ में राही कहते हैं कि ‘जब तक आप किसी जमीन को, उस पर रहने वालों को जानेंगे नहीं, पहचानेंगे नहीं, उपन्‍यास कैसे लिख सकते हैं? मैं अपने लेखन में […]

राही मासूम रज़ा को याद करते हुए..

राही मासूम रज़ा की रचना दृष्टि का निर्माण उनके जीवनानुभवों के द्वारा हुआ है। ‘आधा गाँव‘ उपन्‍यास के संदर्भ में राही कहते हैं कि ‘जब तक आप किसी जमीन को, उस पर रहने वालों को जानेंगे नहीं, पहचानेंगे नहीं, उपन्‍यास कैसे लिख सकते हैं? मैं अपने लेखन में पूर्वी यू.पी. से बाहर निकला ही नहीं क्‍योंकि मैं वहाँ से बाहर की भाषा को जानता ही नहीं, तो अपने पात्रों से क्‍या बुलावाऊँगा? किसी स्‍थान विशेष की भाषा समझे बिना लोगों को, जीवन को नहीं समझा जा सकता।’[1]

राही मासूम रज़ा का जन्‍म 1 अगस्‍त 1927 को पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले गंगौली नामक गाँव में हुआ था। यह एक जमींदार परिवार था। इनके ‘पिता सैय्यद बशीर हुसैन आबिदी की गणना पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध वकीलों में होती थी। गंगौली बशीर साहब की जमींदारी का गाँव था ननिहाल उनकी रज़ा मुशीर हसन के यहाँ थी। इनके पिता ने गाजीपुर में गंगा के किनारे चौबीस कमरों का एक मकान बनवाया था जिसमें तीन बड़े-बड़े आँगन थे। इस संपन्‍नता और लाड़ प्‍यार में राही का जीवन बीता।’[2]

[bs-quote quote=”साझी संस्‍कृति के लगातार टूटने को लेकर राही परेशान रहा करते थे। वे अक्सर सवाल करते थे ‘क्‍या रसखान का नाम काटकर कृष्‍ण भक्ति काव्‍य का इतिहास लिखा जा सकता है?  क्‍या तुलसी की रामायण में आपको मुगल दरबार की झलकियाँ दिखाई नहीं देतीं ?…क्‍या आप जानते हैं कि महाकवि अमीर खुसरो की माँ राजपूतानी थीं?….हिंदुस्‍तान के मुसलमानों ने हिंदू संस्‍कृति और सभ्‍यता को अपने खूने दिल से सींचकर भारतीय संस्‍कृति और सभ्‍यता बनाने में बड़ा योगदान किया है।'[” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

 राही ने सीन 75  उपन्‍यास के समर्पण में लिखा था कि ‘मैं तीन माँओं का बेटा हूँ, नफीसा बेगम, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा।’[3] राही की माँ का देहांत जल्‍द हो जाने के कारण उनका लालन पालन दादी ने किया, जिन्‍हें वे दद्दा पुकारते थे। राही मासूम रज़ा का बचपन तथा उनका परिवार उनके उपन्‍यासों में बार-बार आता है। राही के बचपन का नाम सैय्यद मासूम रज़ा आबिदी था। ’18 वर्ष की उम्र में राही जब प्रगतिशील आंदोलन के हिस्‍सा बने तो आबिदी नाम का हिस्‍सा नहीं रहा। फिर वह जीवन भर राही मासूम रज़ा ही रहे।’[4]

गंगौली में राही मासूम रज़ा का घर दक्षिणी पट्टी में शिया सैय्यदों में सबसे बड़ा था। आधा गाँव उपन्‍यास  इसी उत्तर पट्टी और दक्षिण पट्टी को आधार बनाकर लिखा गया था। राही ने लिखा भी है कि ”यह कहानी आधे गाँव की है। और इस गाँव के जीते-जागते लोगों की भीड़ में मेरी कहानी के पात्र भी जैसे जिन्‍दा से हो गए हैं।”[5]

ग्‍यारह वर्ष की उम्र में राही को टी.बी. हो गई । भुवाली में पाँच साल इलाज चला क्‍योंकि टी.बी. उस समय एक असाध्‍य बीमारी थी । ‘1942 में राही गाजीपुर लौट आए और पढ़ाई में जुट गए। उनके चाचा उर्दू में शायरी करते थे। राही भी शायरी करने लगे और उन्‍होंने पहला ‘अखिल भारतीय मुशायरा’ मऊ में पढ़ा । राही की गिनती प्रगतिशील शायरों में होने लगी…जानलेवा बीमारी के बीच घर में रखी सारी किताबें पढ़ डालीं। गाजीपुर के पुस्‍तकालय में जो पुस्‍तकें उपलब्‍ध थीं वह मंगाई जाने लगीं ।…उनका दिल बहलाने के लिए और कहानी सुनाने के लिए कल्‍लू कक्‍का रखे गए । राही ने स्‍वीकार किया है कि कल्‍लू काका न होते तो मुझे कहानी की सही पकड़ कभी न आती ।’[6]

उनके आस-पास में फैली गरीबी-भुखमरी ने उन्‍हें कम्युनिस्ट पार्टी में काम करने के लिए प्रेरित किया। कम्युनिस्ट पार्टी के सम्‍पर्क में आते ही उनकी शायरी का तेवर विद्रोही हो गया। गाजीपुर के नगरपालिका अध्‍यक्ष पद के चुनाव में राही ने कांग्रेस प्रत्‍याशी अपने पिता के खिलाफ जाकर कम्‍युनिस्‍ट पार्टी के प्रत्‍याशी पब्‍बर राम को चुनाव जितवाया। ‘बाप बेटे की मुहब्‍बत सिद्धांतों के आगे हार गई ।…राही मासूम रज़ा के परिवार वालों ने 18 वर्ष का आयु में फैजाबाद की ‘मेहरबानो’ के साथ उनका विवाह  कर दिया। राही की इनसे कभी नहीं पटी और तीन साल बाद  दोनों परिवारों ने परस्‍पर सहमति से तलाक करवा दिया। राही ने दूसरा विवाह ‘श्रीमती नैय्यर जहाँ’ के साथ 1965 के अंत में किया ।’[7]

[bs-quote quote=”धर्म और राजनीति के विरुद्ध राही में गहरा आक्रोश था। राही मानते थे कि ‘आधुनिक भारत में यह तय करना मुश्किल है कि धर्म ज्‍यादा बड़ा व्‍यापार है या राजनीति। लेकिन दोनों व्‍यापारों में पैसा स्‍मगलिंग से ज्‍यादा है, इसलिए जिसे देखिए वही राजनीति और धर्म के धंधे में जाने को बेक़रार हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

राही 1963 में तिलिस्‍मे-होशरुबा पर शोध जमा कर चुके थे और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवसिर्टी में पढ़ा रहे थे । इस विवाह के कारण राही को विश्‍वविद्यालय से निकाल दिया गया। ‘उन दिनों प्रो. आले अहमद सुरूर उर्दू विभाग के अध्‍यक्ष थे। उनकी अध्‍यक्षता में चयन समिति आयोजित की गई। सर्व सम्‍मति से चयन समिति ने निर्णय दिया कि राही को साहित्‍य की समझ नहीं है, इसलिए उनकी नियुक्ति नहीं की जा सकती। विश्‍वविद्यालय के इतिहास में वे सबसे बड़ा मजाक था।’[8]

राही के लिए अलीगढ़ बेगाना हो गया और वह मुंबई चले गए। तब तक आधा गाँव छप चुका था। राही की जिन्‍दगी में दु:खद स्थितियाँ बहुत आईं । बीमारी से उनका पैर खराब हो चुका था । फिर अलीगढ़ से इस तरह की दुःखद स्थितियों में मुंबई जाना और वहाँ का संघर्ष राही को और भी मजबूत बना रहे थे ।

राही ने भारत विभाजन तथा उसके बाद की स्थितियों को देखा, भुगता और अपनी रचनाओं में अभिव्‍यक्ति दी। राही का पूरा जीवन सांप्रदायिकता, कठमुल्‍लापन तथा मुस्लिम अस्मिता जैसे प्रश्‍नों से संघर्ष करते हुए बीता। राही देश के बंटवारे के संदर्भ में कहते हैं कि ‘यह बँटवारा एकदम आस्वाभाविक था। अननैचुरल…गलती हमारे अपने लीडरों ने की । मानता हूँ जिन्ना अलग देश की माँग कर रहे थे। उनकी बात समझ में आती है। दरअसल ज्‍यादा बड़ा कसूर हमारे नेताओं का है जिन्‍होंने बार-बार इस बात को दोहराया कि वे इस देश का बँटवारा नहीं होने देंगे और फिर उन्‍होंने ही इस बँटवारे को मंजूर कर लिया ।’[9]

जमींदारी विघटन के बाद की स्थितियों पर राही कहते हैं कि ‘जमींदारी के साथ समाज का पूरा ढाँचा टूट गया। गंगौली का जमींदार गाजीपुर में पान की दुकान नहीं खोल सकता था। पर कराची में उसे कौन जानता है। इसलिए जब उससे गंगौली छूटी तो वह गंगौली से इतनी दूर चला गया जहाँ कोई काम करके जीने में उसे शर्म न आए। जमींदार गया तो उसके साथ जीने वाले भी गए कि उन्‍हें भी ठीक से जीना नहीं आता था। इन पाकिस्‍तान जाने वालों को मुसलमान कहना ठीक नहीं है।’[10]

धर्म और राजनीति के विरुद्ध राही में गहरा आक्रोश था। राही मानते थे कि ‘आधुनिक भारत में यह तय करना मुश्किल है कि धर्म ज्‍यादा बड़ा व्‍यापार है या राजनीति। लेकिन दोनों व्‍यापारों में पैसा स्‍मगलिंग से ज्‍यादा है, इसलिए जिसे देखिए वही राजनीति और धर्म के धंधे में जाने को बेक़रार हैं।’[11]

राही सांप्रदायिकता के खिलाफ लगातार संघर्ष करते रहे उन्‍होंने मुस्लिम की भारतीय अस्मिता पर सवाल खड़ा करने वालों को करारा जवाब दिया था वे लिखते हैं कि ‘जनसंघ का कहना है कि मुसलमान यहाँ के नहीं हैं। मेरी क्‍या मजाल की मैं झुठलाऊँ । मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाजीपुर का हूँ। गंगौली से मेरा संबंध अटूट है । वह एक गाँव ही नहीं। वह मेरा घर भी है ।…और मैं किसी को यह हक नहीं देता कि वह मुझसे यह कहे, राही! तुम गंगौली के नहीं हो।’[12]

साझी संस्‍कृति के लगातार टूटने को लेकर राही परेशान रहा करते थे। वे अक्सर सवाल करते थे ‘क्‍या रसखान का नाम काटकर कृष्‍ण भक्ति काव्‍य का इतिहास लिखा जा सकता है?  क्‍या तुलसी की रामायण में आपको मुगल दरबार की झलकियाँ दिखाई नहीं देतीं ?…क्‍या आप जानते हैं कि महाकवि अमीर खुसरो की माँ राजपूतानी थीं?….हिंदुस्‍तान के मुसलमानों ने हिंदू संस्‍कृति और सभ्‍यता को अपने खूने दिल से सींचकर भारतीय संस्‍कृति और सभ्‍यता बनाने में बड़ा योगदान किया है।’[13]

इस प्रकार राही यह मानते हैं कि भारतीय संस्‍कृति इकहरी नहीं है। राही की जीवन दृष्टि मात्र उनके स्‍वयं के जीवन अथवा पारिवारिक जीवन की ही परिधि में सीमित नहीं थी, राही के सरोकार युगद्रष्‍टा के थे। उन्‍होंने देश विभाजन तथा सांप्रदायिकता के कारणों की पड़ताल करते हुए उसे अपने रचनाओं में प्रस्‍तुत किया। वे मुस्लिम समाज के मध्‍यवर्ग और करीब-करीब उच्‍चवर्ग तथा अभिजात वर्ग की समस्‍याओं और जीवन शैली को अपनी रचनाओं में चित्रित करते हैं, क्‍योंकि राही का संबंध इसी वर्ग से था। वे इस वर्ग के चिंता तथा सरोकारों से अच्‍छी तरह परिचित थे।

राही उर्दू से हिंदी में आए थे साथ ही तिलिस्‍म-ए-होशरुबा पर शोध भी पूरा किया था, इसलिए इनकी रचनाओं पर इसका प्रभाव भी दिखता है। शानी ने राही की रचना दृष्टि के निर्माण प्रक्रिया के संदर्भ में लिखा है कि ‘आप तो उर्दू से हिंदी में आए थे- सिर्फ उर्दू जानते हुए नहीं, उसकी पूरी परंपरा को आत्‍मसात करते हुए। आपने मंटो का मर्म, इम्‍मत आपा का जर्फ, राजेन्‍द्र सिंह बेदी की विदग्‍धता और ‘कृश्‍नचंदर’ की भरमाने वाली भाषा को अच्‍छी तरह चीन्‍हते हुए अपनी एक नयी राह निकाली थी वरना आप राही कैसे होते?’[14]

राही कथा दृष्टि की यह विशेषता है कि वे प्‍लाट पहले से तय नहीं करते। राही खुद बताते हैं कि ‘मैं प्‍लाट में विश्‍वास नहीं करता। मेरी श्रद्धा मानवीय संवेदनाओं में है, इसलिए मेरे लेखन के केंद्र में मनुष्‍य है, कैरेक्‍टर है। यदि प्‍लाट भारी पड़ गया तो इस करेक्‍टर को विकास का मौका नहीं मिलेगा।’[15]

भाषा के सवाल पर राही का स्‍पष्‍ट मत था कि हिंदी और उर्दू दोनों एक ही भाषाएँ हैं ‘झगड़ा लिपियों को लेकर है और वह राजनीति की वजह से है ।’[16]

राही अपने प्रत्‍येक  उपन्‍यास के बीच में उपस्थित होकर कथा में लेखकीय हस्‍तक्षेप करते हैं। दरअसल जब कथाकार अपने लोगों को आधार बनाकर उनके सुख दु:ख को कथा सूत्र में पिरो रहा होता है तो उसे ऐसा करना पड़ता है। यह लेखक के जीवन तथा रचना में उपस्थित लोगों के जीवन की संपृक्‍तता को दिखाता है। आधा गाँव के बीच में भूमिका लिखते हुए राही कहते हैं कि ‘आप सोच रहे होंगे कि कहानी के बीच में यह भूमिका कैसी! मैं भी यही सोच रहा हूँ  लेकिन यह कोई कहानी नहीं है…जिन लोगों की बाते मैं कर रहा हूँ वह मेरा गाँव और मेरे लोग हैं ।’[17]

संदर्भ 

[1] राही मासूम रज़ा, कृतित्‍व और उपलब्धियाँ (सं.) एम. फीरोज खान, पृ. 102

[2] राही मासूम रज़ा, कुँवर पाल सिंह, पृ. 9

[3] ‘सीन 75’, ‘समर्पण’ से

[4] राही मासूम रज़ा, कुँवर पाल सिंह, पृ. 9

[5] आधुनिक हिंदी उपन्‍यास-1 (सं.) भीष्‍म साहनी , रामजी मिश्र, भगवती प्रसाद निदारिया, पृ. 450

[6] राही मासूम रज़ा, कुँवर पाल सिंह, पृ. 11

[7] . वही, पृ. 12

[8] . वही, पृ. 13

[9] राही मासूम रज़ा, कृतित्‍व और उपलब्धियाँ (सं.) एम. फीरोज खान, पृ. 92

[10] आधुनिक हिंदी उपन्‍यास-1 (सं.) भीष्‍म साहनी, रामजी मिश्र, भगवती प्रसाद निदारिया, पृ. 450

[11] अभिनव कदम (6-7) (सं.) जयप्रकाश धूमकेतु, पृ. 42

[12]आधा गाँव, राही मासूम रज़ा, पृ. 303

[13] अभिनव कदम (6-7) (सं.) जयप्रकाश धूमकेतु, पृ. 118

[14] नैना कभी न दीठ, शानी, पृ. 2

[15] राही मासूम रज़ा, कृतित्‍व और उपलब्धियाँ (सं.) एम. फीरोज खान, पृ. 102

[16] राही मासूम रज़ा, कृतित्‍व और उपलब्धियाँ (सं.) एम. फीरोज खान, पृ. 102

[17] आधा गाँव- राही मासूम रज़ा पृ.302

 

सुनील यादव प्रखर युवा आलोचक हैं ।

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