जम्मू-कश्मीर के दलित-बहुजनों की फिक्र, डायरी (3 जून, 2022) 

नवल किशोर कुमार

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निष्पक्षता मुमकिन नहीं है। अब तक यही मानता आया हूं। बहुत हुआ तो कोई आदमी बहुत हद तक निरपेक्ष बने रहने की कोशिशें कर सकता है। यह भी मुमकिन है कि किसी एक मुद्दे पर कोई आदमी निष्पक्ष हो भी जाय, लेकिन मुझे लगता है कि उसमें भी कोई ना कोई तत्व जरूर होगा जो उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए। वजह यही कि निष्पक्षता मुमकिन नहीं है। इसे ऐसे समझें कि समाज एक सजीव संगठन होता है और इसमें निर्वात होने का गुण नहीं होता। लेकिन एक इंसान होने का मतलब यही है कि हम उसके पक्ष में खड़े हों, जो कमजोर हों और उत्पीड़ित हों।
मैं तो अपनी बात करता हूं। मैं जम्मू-कश्मीर के निवासियों के पक्ष में तब भी था जब भारत सरकार ने जबरन इस प्रांत से विशेषाधिकार छीन लिया और एक संपूर्ण राज्य को दो अलग-अलग केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया। इसके लिए जम्मू-कश्मीर के चप्पे को भारत सरकार ने सेना की छावनी में तब्दील कर दिया था। हर गली के चौराहे पर पुलिस व फौज की बंदूकें थीं। हर सड़क पर कंटीले तार बिछा दिये गये थे। टेलीफोन सेवा बंद कर दी गयी थी। मुझे नहीं पता कि भारतीय हुकूमत ने तब यह सोचा था या नहीं कि जब लाखों लोग अपने-अपने घरों में नजरबंद कर दिए जाएंगे तब वे खाएंगे क्या? लाखों बच्चे जो खेलना चाहते होंगे, वे खेलेंगे कैसे और लाखों युवा जिनके पास भविष्य के लिए कुछ सपने होंगे कि वे किसी प्रतियोगिता परीक्षा में भाग लेंगे और कोई ना कोई नौकरी हासिल करेंगे, उनका क्या होगा?
और जब यह सब वहां हो रहा था हम शेष भारत के लोग अपनी आंखों से यह देख रहे थे। हम कुछ कर भी नहीं सकते थे। आज भी कुछ नहीं कर सकते। वजह यह कि भले ही देश में विरोध करने की आजादी है, लेकिन व्यक्तिगत स्तर के विरोधों से कोई बात न पहले कभी बनी है और ना भविष्य में कभी बनेगी। विरोध तभी कारगर होता है जब वह संगठित होता है और उसमें जनसहभागिता होती है। आप फ्रांस की क्रांति को ही देखें। तब जो विरोध फ्रांस के नागरिकों ने किया था वह बेशक स्वत:स्फूर्त था लेकिन उसमें संगठित होने का गुण था और जनभागीदारी की भावना निहित थी।

हर गली के चौराहे पर पुलिस व फौज की बंदूकें थीं। हर सड़क पर कंटीले तार बिछा दिये गये थे। टेलीफोन सेवा बंद कर दी गयी थी। मुझे नहीं पता कि भारतीय हुकूमत ने तब यह सोचा था या नहीं कि जब लाखों लोग अपने-अपने घरों में नजरबंद कर दिए जाएंगे तब वे खाएंगे क्या? लाखों बच्चे जो खेलना चाहते होंगे, वे खेलेंगे कैसे और लाखों युवा जिनके पास भविष्य के लिए कुछ सपने होंगे कि वे किसी प्रतियोगिता परीक्षा में भाग लेंगे और कोई ना कोई नौकरी हासिल करेंगे, उनका क्या होगा?

अभी पिछले ही साल जब पटना में अपने घर पर था तो मेरी बेटी ने पूछा कि मैं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को किस तरह देखता हूं। उसका सवाल थोड़ा अलग था। वह शायद मुझसे यह जानना चाहती थी कि स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास क्या है। कोई सवाल उसके पाठ्यपुस्तक का रहा होगा, जिससे वह सहमत नहीं होगी।
खैर, मैंने जब उसे कहा कि यह जो शब्द है स्वतंत्रता संग्राम एकदम सटीक शब्द है। यह आंदोलन अथवा विरोध नहीं था। मेरा जवाब सुनकर वह चौंकी तो उसके पूरक सवालों का जवाब देते हुए मैंने यही कहा कि भारतीयों ने कभी भी संगठित होकर अंग्रेजों का विरोध किया ही नहीं था। इसपर उसने 1857 के गदर का संदर्भ दिया तो मैंने उसे समझाया कि बेशक वह संगठित हमला था लेकिन ना तो वह विरोध और ना ही उसमें जनभागीदारी थी। इसलिए अंग्रेज उसका दमन आसानी से कर सके। बाद में जो कुछ हुआ वह राजनीतिक गतिविधियां थीं। गांधी की राजनीति अलग थी। डॉ. आंबेडकर की राजनीति अलग थी। वैसे ही जिन्ना की राजनीति अलग थी। सब राजनीति कर रहे थे। विरोध कोई नहीं कर रहा था। इस दौरान विरोध के कुछ संकेत उस वक्त अवश्य मिले जब 1942 में गांधी ने ‘करो या मरो’ का नारा दिया था। लेकिन यह एक तथाकथित अहिंसावादी की हार थी।
बहरहाल, उस वक्त अपनी बेटी को दिये जवाब को आज उद्धृत इसलिए कर रहा हूं क्योंकि आज जम्मू-कश्मीर के बारे में तमाम खबरें आ रही हैं कि वहां से कश्मीरी पंडित पलायन कर रहे हैं। यह भारतीय हुकूमत की विफलता का परिणाम है कि आजतक वह घाटी के रहवासियों को सुरक्षा प्रदान करने में नाकाम रही है। और मेरा तो यह मानना है कि यह सब 2024 के चुनावी जंग को जीतने की रणनीति के तहत किया जा रहा है। भाजपा हिंदू-मुसलमान की नफरत आधारित राजनीति को जिंदा रखना चाहती है। यह कोई भी सोच सकता है कि आज से करीब छह महीने पहले घाटी में इस तरह के हालात क्यों नहीं थे?
तो मैं यह मानता हूं कि सभी घटनाओं के पीछे राजनीति है। कल वहां कुलगाम में एक बिहारी मजदूर और एक स्थानीय निवासी जो कि बैंक अधिकारी था, उसकी हत्या कर दी गयी। करीब डेढ़ सौ कश्मीरी ब्राह्मण परिवारों ने सामूहिक रूप से पलायन किया है।

वे तमाम ऐसे काम नहीं करते हैं जिसमें श्रम शामिल होता है। भारतीय समाज चूंकि वर्णाश्रम को मानता है तो ब्राह्मणों के लिए अन्यों का होना अनिवार्य है। मेरे कहने का मतलब यह कि यदि घाटी में ब्राह्मण होंगे तो वहां धोबी भी होंगे, चमार भी होंगे, बनिए भी होंगे, यादव भी हाेंगे, खेती-बड़ी करनेवाले कुशवाहा-कुर्मी समाज के लोग भी होंगे। आखिर इन लोगों का क्या हाल रहा होगा 1990 के दशक में और अभी वे किस तरह के हालात में जी रहे होंगे?

 

बहरहाल, मैं यह सोच रहा हूं कि कश्मीरी ब्राह्मण तो अपना घर-बार छोड़कर भाग रहे हैं। लेकिन दलित-बहुजनों की क्या स्थिति होगी? इसके पहले भी जब 1990 के दशक में वहां के ब्राह्मणों ने पलायन किया था तब दलित-बहुजन क्यों नहीं भागे होंगे? कोई तो वजह होगी?
इसको ऐसे भी समझिए कि ब्राह्मण मूल रूप से परजीवी होते हैं। वे खेती नहीं करते। वे जूते नहीं गांठते। वे सड़कों पर सफाई नहीं करते। वे अपने गंदे कपड़े साफ नहीं करते। वे तमाम ऐसे काम नहीं करते हैं जिसमें श्रम शामिल होता है। भारतीय समाज चूंकि वर्णाश्रम को मानता है तो ब्राह्मणों के लिए अन्यों का होना अनिवार्य है। मेरे कहने का मतलब यह कि यदि घाटी में ब्राह्मण होंगे तो वहां धोबी भी होंगे, चमार भी होंगे, बनिए भी होंगे, यादव भी हाेंगे, खेती-बड़ी करनेवाले कुशवाहा-कुर्मी समाज के लोग भी होंगे। आखिर इन लोगों का क्या हाल रहा होगा 1990 के दशक में और अभी वे किस तरह के हालात में जी रहे होंगे?
जम्मू-कश्मीर के दलित-बहुजनों के बारे में जानने-समझने मैं 2019 में जम्मू गया था। वहां एक दिन मैं उनके प्रतिनिधियों के बीच भी रहा था। और एक स्वर में सभी ने धारा 370 और 35ए को हटाने का विरोध किया था। उनके स्वर में एक खास तरह का विश्वास था। ऐसा इसलिए कि वे सभी श्रमण परंपरावाले थे। ब्राह्मण परंपरावाले नहीं।
इस साल अगर मौका मिला तो फिर जाऊंगा। कल ही जम्मू के कुछ साथियों से बातें हुई हैं। कुछ और चीजें स्पष्ट हो जाएं तो जाने के पहले मेरे पास कुछ ठोस जानकारियां होंगी।

नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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