2020 के चुनाव का क्रमिक विश्लेषण – भाग 2
योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरों को तरजीह देने का आरोप लगाया जाता रहा है और यह दावा किया गया था कि ब्राह्मणों को दरकिनार किया जा रहा था। इस चुनाव में इस आरोप का मुलम्मा उतर गया है। 2022 के विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण विधायकों की संख्या 51 है जो की किसी भी जाति से अधिक है। आबादी में ब्राह्मणों के प्रतिशत के हिसाब से कई गुना अधिक और योगी के ठाकुरवाद का प्रतिनिधित्व रिफलेक्ट करने वाली से भी अधिक। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि ब्राह्मणों ने लगातार इस बात का शोर मचाया कि योगी ठाकुरवादी हैं। जबकि योगी के पिछले कार्यकाल में मंत्रालय और नौकरशाही में ब्राह्मणों की उपस्थिति पर्याप्त और शायद सबसे अधिक थी। इसके बावजूद योगी को ब्राह्मणवादी नहीं कहा गया। इसी बात को नैरेटिव बनाकर सपा-बसपा ने ब्राह्मण कार्ड खेलने का हास्यास्पद प्रयास किया और मुंह की खाई।
[bs-quote quote=”समाजवादी पार्टी और बसपा का व्यापक ब्राह्मण-प्रतियोगिता कार्यक्रम बुरी तरह विफल रहा क्योंकि इस समय सभी सवर्ण समुदाय भाजपा के साथ बेहद सहज हैं। इसलिए योगी आदित्यनाथ पर ब्राह्मण विरोधी आरोप सपाट हो गया और ऐसा लग रहा है कि विपक्ष को अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने से भ्रमित और वंचित करने के लिए ही इसे बनाया गया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दूसरी बात, योगी के करीबी मीडिया सलाहकार ब्राह्मण और बनिया दोनों थे। योगी के ठाकुरवाद को निशाना बनाने के लिए लखनऊ और दिल्ली में कुछ ‘विशेषज्ञों’ ने यह अभियान शुरू किया कि ब्राह्मणों में ‘प्रबल’ योगी विरोधी भावना है। बसपा और सपा दोनों इसमें कूद पड़े और ‘ब्राह्मण’ समुदाय का समर्थन पाने के लिए सभाओं का आयोजन करने लगे। ब्राह्मण वोटों को आकर्षित करने के अपने उत्साह में, सभी दलों ने बड़े पैमाने पर भाजपा को वोट देने वाले ब्राह्मणों को ‘शांत’ करने के लिए सीमा से बाहर जाकर उनकी सहानुभूति बटोरने का प्रयास किया। ब्राह्मण विरोधी भावना पैदा करने के प्रयास ने योगी आदित्यनाथ की भी मदद की, जिन्होंने एक राष्ट्रीय चैनल को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि उन्हें ‘क्षत्रिय’ के रूप में पैदा होने पर गर्व है। कई राजनीतिक टिप्पणीकारों और विशेषज्ञों को इसके बारे में बुरा लगा लेकिन पहचान की राजनीति में योगी खुद को इस वास्तविकता से दूर नहीं कर सकते कि अगर वह अपना ‘मूल निर्वाचन’ क्षेत्र खो देते हैं तो वह कहीं नहीं हैं।
बीजेपी ने 68 ब्राह्मणों और 67 राजपूतों को टिकट दिया. बनियों को 31 मिले। सबसे बड़ा हिस्सा कुर्मी, कुशवाहा, शाक्य और लोध जैसे ओबीसी के लिए था। दलितों में, इसने जाटवों और पासियों दोनों को 30% सीटें दीं। अब नतीजे आ गए हैं और कोई भी देख सकता है कि बीजेपी का जुआ कैसा रहा? भाजपा से चुने गए ब्राह्मणों की कुल संख्या 46 है, जबकि सपा के खाते में ब्राह्मणों को 5 सीटें मिलीं। ठाकुरों को, भाजपा में 43, सपा में 4 और बसपा में 1 सीट यानि कुल 47 सीटें जो ब्राह्मणों से चार कम हैं। 27 कुर्मी, 19 जाटव, 18 पासी और 3 यादव भाजपा के टिकट पर चुने गए। जाहिर है, समाजवादी पार्टी और बसपा का व्यापक ब्राह्मण-प्रतियोगिता कार्यक्रम बुरी तरह विफल रहा क्योंकि इस समय सभी सवर्ण समुदाय भाजपा के साथ बेहद सहज हैं। इसलिए योगी आदित्यनाथ पर ब्राह्मण विरोधी आरोप सपाट हो गया और ऐसा लग रहा है कि विपक्ष को अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाने से भ्रमित और वंचित करने के लिए ही इसे बनाया गया था।
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उनकी लगातार मुस्लिम विरोधी बयानबाजी से कोई खास मदद नहीं मिली लेकिन इस बात को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश में चीजें अभी भी ध्रुवीकरण की शिकार हैं और इसने काम भी किया। यह बेहद चिंताजनक घटना है। योगी आदित्यनाथ को भी गलत फायदा हुआ।
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इस पूरे परिदृश्य को ठीक से समझने की जरूरत है। इस बार की उत्तर प्रदेश विधानसभा में जतियों की उपस्थिति को देखिये तब समझ में आएगा कि ब्राह्मणों के ऊपर अन्य का अरण्यरोदन वास्तव में क्या है। जिनके ऊपर हमले हुये, एनकाउंटर हुये और जो हाशिये पर धकेले गए वे वास्तव प्रतिनिधित्व में बहुत पीछे चले गए लेकिन जिन्होंने रोना-गाना और शोर मचाना जारी रखा आज वे विधानसभा में सबसे अधिक मौजूद हैं। विडम्बना यह भी है कि सपा-बसपा जैसी पार्टियों को यह भी समझ नहीं आता कि दलित-पिछड़ों के भरोसे पर ब्राह्मणों पर अन्याय की बात करने के बावजूद किसी एक ब्राह्मण ने योगी सरकार द्वारा दलित-पिछड़ों पर किए जाने का विरोध तो दूर, ज़िक्र तक नहीं किया।
विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक हैं।
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