पूंजीवाद की चौंधियाने वाली रौशनी के बरक्स दुनिया के तमाम हिस्सों में अभी भी इतनी भयावह काली रात है जहां भोर और सूरज की रौशनी उम्मीद नहीं भय पैदा करती है। यह जाति व्यवस्था के सबसे क्रूर व्यवहारों से सृजित सामाजिक संरचना का चरम परिणाम है। यहाँ एक जाति-समुदाय दिन में दिखाई देने का अधिकार ही नहीं रखता। गाँव का कोई भी अन्य व्यक्ति उसे गालियां देकर और दुत्कार कर अंधेरे में छिपने को विवश कर सकता है लेकिन प्रभु-जातियों के पुरुष इस समुदाय की स्त्रियों से बलात्कार कर सकते हैं।
तमिल भाषा में बनी लीना मनीमेकलाई की फिल्म मदाथी : द अनफेयरी टेल को देखकर यह यकीन करना मुश्किल है कि भारत में एक मानव-जाति ऐसी भी है। यह फिल्म इसी जाति की एक युवा होती लड़की योसाना पर केन्द्रित है जो गुलामी और न पहचाने जाने के अँधेरे से आजादी के उजाले में जाने के कोशिश और इच्छा करती है और उसकी इस इच्छा का दुष्परिणाम हुआ कि सामंतवादी और ब्राह्मणवादी सोच ने उसे कुचल दिया।
यह फिल्म योसाना की कहानी के साथ-साथ उस unseeables caste के लोगों की जिंदगी से रूबरू कराती है, जिसे नरक कहा जाना सौ प्रतिशत सही होगा। हम छुआछूत, ऊँच-नीच के माध्यम से अपमानित किये जाने की घटना आये दिन सुनते, देखते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन इसी धरती पर unseeable कास्ट के लोग भी हैं यह हमारी चेतना से बाहर की बात है।”
इस फिल्म में बलात्कार के दो दृश्य हैं। एक में योसाना की माँ से गाँव का दबंग बलात्कार करता है और धमकाते हुए चिल्लाकर कहता है कि तेरा पति मेरा कुछ नहीं कर सकता। मैं उसे मार डालूँगा। दूसरी बार बलात्कार योसाना का होता है और वह मर जाती है। इससे पता चलता है कि स्त्री के विरुद्ध यह अपराध करना और बेदाग बच जाना उस समाज के लिए कितना सहज है। यहाँ भारतीय संविधान में मनुष्य को मिला जीने का मौलिक अधिकार और कानून-व्यवस्था-न्याय सब कागज़ पर लिखी इबारतें रह जाती हैं।
आइये कुछ फिल्म की बातें करें
यह फिल्म वास्तव में तमिलनाडु की पुथिरै वन्नार जाति की कहानी पर आधारित है जो धोबी का काम करती है। इस जाति को गाँव के लोगों के सामने जाने की इजाज़त नहीं है। इनके श्रम से सबके कपड़े साफ होते हैं लेकिन सरेआम इनका दिखना एक अपराध है। रात के अँधेरे में जब सारा गाँव खाकर सो जाता है और किसी के सामने पड़ने का अंदेशा नहीं रह जाता उस समय ही यह जाती अपने घरों से बाहर निकलती है और जल्दी ही अपने सभी काम निपटा कर जंगल में ओझल हो जाती है।
मदाथी: अ अनफेयरी टेल धोबी जाति के एक ऐसे परिवार की कहानी है जो गाँव से बाहर रहने के साथ unseeable भी है। वह गाँव के नियमों के अनुसार बाहर ही अपना सारा जीवन गुजारने को अभिशप्त है और गाँव में किसी दूसरे समाज के बीच कभी नहीं जा सकता। वह रात में ही कपड़े धोने का अपना सारा काम निपटा लेता हैं। फिल्म के कई दृश्यों में चाँदनी रात में योसाना की माँ कपड़े धोती हुई दिखती है।
फिल्म के शुरुआती दृश्य में ही मुँह-अँधेरे में योसाना अपनी माँ के साथ घर लौट रही है। सिर पर कपड़ों का गट्ठर लिए उसकी मां घर वापसी के लिए हड़बड़ाती है और मस्ती में रास्ता नापती योसाना पर नाराज़ होती है ताकि उन दोनों को कोई देख न ले। इसी बीच रास्ते में किसी के आने की आहट सुन वे दोनों गठरी उतारकर पेड़ के पीछे छिप जाती हैं। वह गाँव का ही एक आदमी होता है जिसके कौन है पूछने पर योसाना की मां ‘मालिक’ संबोधन से जवाब देती है। इस पर वह उसको अपशब्द बोल अपमानित करता है।
ध्यान देने वाली बात है कि वह आदमी भी अपनी साइकिल पर लकड़ी का गटठर बाँधे हुए जा रहा है यानी वह भी एक मजदूर से ज्यादा की हैसियत वाला नहीं दिख रहा है लेकिन फिर भी मालिक है। इससे पता चलता है कि वहाँ के ग्रामीण जाति-पदानुक्रम में पुथिरै वन्नार जाति सबसे निचले पायदान पर है। जाति-व्यवस्था की स्वाभाविक विशेषताओं के चलते सबसे निचले सोपान पर रहनेवाली जाति अपने से ऊपर की सभी जतियों द्वारा उत्पीड़ित होती है। इसी कारण इलाके का मजदूर भी छोटी जाति के लोगों को अपमानित करने से नहीं चूकता, भले अपने मालिक से खुद लात-गाली खाए।
इस उत्पीड़क व्यवस्था के बरक्स योसाना की ज़िंदगी की अक्षत खूबसूरती, अल्हड़पन और निर्दोषिता उसे एक इंसान के रूप में विकसित कर रही है। फिल्म के उसी दृश्य की अगली कड़ी में योसाना अपनी माँ को पेड़ के पीछे छिपी छोड़कर सिर पर गट्ठर उठाती हुई निर्भीक घर की ओर जाती दिखती है। उसे समाज और उसकी मान्यताओं की न तो कोई परवाह है न भय है।
“कपड़े धोते हुए पानी का लाल होना इस बात की इंगित कर रहा है कि हजारों वर्षों से वे दूसरों की गंदगी धो रहे हैं और समाज उनके दम पर सुविधा का सुख भोग कर रहा है। दूसरी ओर अस्पृश्य समाज को प्रताड़ित कर उसका खून निचोड़ ले रहा है। जो दुनिया का नरक साफ़ कर रहे हैं, उन्हें ही नरक का द्वार मानकर अशुद्ध मान रहा है। यह भी अदृश्य जाति के शोषण का तरीका है। कैसे दलित-शूद्रों को दबाया जाए और उन्हें प्रताड़ित किया जाये इसका उपाय हमेशा से ही ब्राह्मणवादी समाज ने अपने स्मृति और पुराणों में लिख रखा है । धर्म और भगवान का डर दिखाकर कोई भी नियम उनपर लादा जा सकता है।”
योसाना किशोरावस्था में प्रवेश कर रही है। उसके सामने जंगली पक्षियों और फूलों की एक खूबसूरत दुनिया है। वह बेलौस जीना चाहती है। अभी-अभी उसके भीतर विपरीत लिंगी आकर्षण पैदा होना शुरू हुआ है। वह दिन के उजाले में हर जगह जाना चाहती है लेकिन अपने निर्भीक स्वभाव के बावजूद अपने समाज पर थोपी हुई मान्यताओं के कारण दिन में हर जगह घूमने की वर्जना के चलते वह अपने आस-पास के संसार को छिपकर देखती है। नदी में नंगे नहाते ग्रामीण युवक को वह ऐसे ही देखती है।
वह मन ही मन उस युवक से प्रेम करती है। वह गाँव की किसी अछूत जाति का लड़का है। जब वह नदी में नहाने आता है तो योसाना उसे छिपछिपकर देखती है। लेकिन इस प्रेम की परिणति बहुत भयानक होती है। मदाथी देवी की स्थापना की रात वह यु़वक और उसके दोस्त शराब पीते हैं। इस दौरान उनमें से एक की नज़र योसाना पर पड़ जाती है। नशे में धुत्त सभी युवक उसके साथ बलात्कार करते हैं जिनमें वह लड़का भी शामिल है। अंततः वह मर जाती है।
इस प्रकार जातिवाद की रात में धकेल दी गई एक लड़की को आज़ादी और प्रेम की चाह में अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। यह एक ऐसे सामाजिक यथार्थ का फिल्मांकन है जिसकी तरफ लोकतन्त्र की वकालत करनेवाले लोगों का ध्यान नहीं जाता या वे उतना ही लोकतन्त्र पसंद करते हैं जितने से उनको कोई परेशानी न हो।
आदिकाल से समाज का सबसे यही कामचोर तबका रहा है। फिल्म को देखते हुए एक सवाल मन में उठा कि हर बार देवी या देवता किसी गरीब या निचले तबके के स्त्री या पुरुष के ऊपर ही सवार होता है और दूसरों को उनकी समस्याओं से परिचित करवाता है जबकि खुद की समस्या के बारे में उसे नहीं मालूम होता है। यह सब एक ऐसी विडम्बना रचता है जिसमें भारतीय समाज परत-दर-परत लिथड़ा है।”
योसाना के साथ ही पूरे समाज की त्रासद और तकलीफदेह ज़िंदगी की कहानी
यह फिल्म योसाना की कहानी के साथ-साथ उस अदृश्य जाति के लोगों की जिंदगी से रूबरू कराती है, जिसे नरक कहा जाना सौ प्रतिशत सही होगा। हम छुआछूत, ऊँच-नीच के माध्यम से अपमानित किये जाने की घटना आये दिन सुनते, देखते और पढ़ते रहते हैं, लेकिन इसी धरती पर unseeable कास्ट के लोग भी हैं यह हमारी चेतना से बाहर की बात है।
यह देख-सुनकर मैं एकदम से सन्न रह गई। पहले तो लगा कि शायद यह कहानी ही है लेकिन गूगल में खोजने पर मिला कि तमिलनाडु में रहने वाली पुथिरै वन्नार जाति वास्तव में अदृश्य हैं जिसे लोगों के सामने आने की सख्त मनाही है। विचित्र है कि इन्हें समाज के सामने नहीं आना है, छुपकर रहना है लेकिन काम ऊँची जाति के लोगों के जन्म और मृत्यु के कपड़े धोना है।
सवाल यह भी है कि जब ये इतने अशुद्ध और अछूत हैं तो फिर इनके द्वारा धोये कपड़े तथाकथित शुद्ध लोग कैसे पहन लेते हैं? सिर्फ पहनने-बिछाने के कपड़े ही नही बल्कि ऊँची जाति की महिलाओं के माहवारी के कपड़े भी इन्हें ही धोना होता है। यह बहुत ही घृणित और वीभत्स प्रथा है, जहाँ लोग खुद की गंदगी साफ़ करने में घिनाते हैं, वहीं ये लोग दूसरों का नरक धो रहे है। महिलायें अपनी माहवारी के कपड़े दूसरों से धुलवाती हैं।
मुझे तो फिल्म देखते हुए यह ख्याल आया कि महिलाएं कैसे माहवारी का कपड़ा पहुंचाने के लिए घर के नौकर को देती होंगी? वे क्या नौकरों को बताती होंगी कि इसमें माहवारी के कपड़े हैं? या फिर उस काम के लिए अलग से ही कोई नौकर रखा जाता होगा जिसे पूछने या बताने की जरूरत नहीं पड़ती होगी? नदी में माहवारी के कपड़े धोते समय लाल होते पानी को देखते ही योसाना की उस महिला को कोसते हुए गालियां देती हैं। उसके चेहरे पर गुस्सा और घिन के भाव दीखते हैं।
कपड़े धोते हुए पानी का लाल होना इस बात की इंगित कर रहा है कि हजारों वर्षों से वे दूसरों की गंदगी धो रहे हैं और समाज उनके दम पर सुविधा का सुख भोग कर रहा है। दूसरी ओर अस्पृश्य समाज को प्रताड़ित कर उसका खून निचोड़ ले रहा है। जो दुनिया का नरक साफ़ कर रहे हैं, उन्हें ही नरक का द्वार मानकर अशुद्ध मान रहा है। यह भी अदृश्य जाति के शोषण का तरीका है। कैसे दलित-शूद्रों को दबाया जाए और उन्हें प्रताड़ित किया जाये इसका उपाय हमेशा से ही ब्राह्मणवादी समाज ने अपने स्मृति और पुराणों में लिख रखा है । धर्म और भगवान का डर दिखाकर कोई भी नियम उनपर लादा जा सकता है।
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फिल्म ने धर्मसत्ता के आवरण को नोच दिया है
तमिलनाडु में प्रचलित मदाथी देवी की लोककथा को केन्द्र में रखकर एक नवब्याहता दंपत्ति को कहानी सुनाते हुए इसे फिल्माया गया है। वैसे भी देवी-देवताओं को लेकर हजारों लोककथाएं प्रचलित हैं। अंधविश्वास के चलते समाज के लोग, खासकर निचले तबके और छोटी जाति के लोग उसे ज़िन्दगी का हिस्सा बना लेते हैं। कभी उस प्रचलित लोककथा के संबंध में कोई तर्क करने की हिम्मत नहीं करता है।
हमारे देश के उत्सवधर्मी लोग कुप्रथाओं को भी नियम मानते हुए सब कुछ सहजता के साथ अपनाते हैं। जिंदगी के जुए में जुते थके हुये लोग चमत्कार की उम्मीद पाले जीवन गुजार देते हैं। फिल्म में योसाना का दादा घर छोड़कर साधु हो गया है। वह अपने ऊपर लादी गई कुरीतियों के खिलाफ नहीं सोचता और न ही उसका विरोध कर पाता है लेकिन अपनी मुक्ति के लिए घर छोड़ देता है।
एक महिला के ऊपर आई देवी मदाथी देवी का मंदिर बनाने का आदेश देती है और उपस्थित भक्त और पुजारी उसका समर्थन करते हुए 15 दिनों में ही आपसी सहयोग से उस मंदिर को तैयार करने के सहमति देते हैं। लेकिन इसके पीछे श्रद्धा या आस्था नहीं बल्कि भ्रष्टाचार है। भष्टाचार की नींव में मंदिर का पुजारी है क्योंकि वह अच्छे से जानता है कि चढ़ावा या पैसा भगवान के नहीं, बल्कि उसके ही पास आयेगा।
“निश्चित रूप से ऐसी स्त्री से बलात्कार करने पर बलात्कारी व्यक्ति को बचने के सामाजिक अवसर अधिक होते हैं। वह जनता है कि इसकी शिकायत दूर तक नहीं जाएगी और इसे आसानी से उत्पीड़ित किया जा सकता है। आमतौर पर ऐसे मामलों में स्त्रियों की शिकायतें मुश्किल से दर्ज हो पाती हैं। इसके साथ ही बलात्कारी पुरुष को मालूम होता यदि पीड़ित स्त्री शिकायत करेगी तो उल्टे उसे ही दण्डित किया जायेगा। इसके साथ ही स्त्री को अपने घर में भी अपमानित और प्रताड़ित होने का भय होता है।”
आदिकाल से समाज का सबसे यही कामचोर तबका रहा है। फिल्म को देखते हुए एक सवाल मन में उठा कि हर बार देवी या देवता किसी गरीब या निचले तबके के स्त्री या पुरुष के ऊपर ही सवार होता है और दूसरों को उनकी समस्याओं से परिचित करवाता है जबकि खुद की समस्या के बारे में उसे नहीं मालूम होता है। यह सब एक ऐसी विडम्बना रचता है जिसमें भारतीय समाज परत-दर-परत लिथड़ा है।
अधिकार और विरोध को कुचलने के लिए दिखने को अपराध बना देना
समाज में खुलकर जीने और आनंद लेने का अधिकार केवल ऊँची जाति के पुरुषों को है। स्त्रियां तो वैसे भी इंसान की श्रेणी में उस तरह शामिल नहीं हैं जैसे पुरुष। तब योसाना और उसके परिवार, जिसका दिखना ही पूरी तरह से वर्जित हैं कैसे आम जीवन जी पाते।
योसाना जो बहुत ही बिन्दासी से आम जीवन जीना चाहती है और जीवन को समझने की ललक रखती है। अक्सर जंगल से सटे गाँव के पास छिपछिपकर उन सामान्य से दिखने वाले लोगों को देखने और उनकी ही तरह जीने की उत्सुकता रखती है। इस बात को लेकर उसकी मां बहुत चिंतित रहती है। उसे समझाती और डांटती है। क्योंकि उस जाति में पैदा हुई लड़कियों को जन्म लेने के साथ ही मार डालने की परम्परा है। लड़के की चाहत के लिए नहीं बल्कि गाँव के बनाए गये नियमों और लड़कों की गलत नज़रों से बचाने के लिए।
लड़की का पैदा होना हर माँ-बाप को चिंतित करता है क्योंकि समाज के लाख सभ्य घोषित हो जाने के बाद भी बर्बरता पुरुषों के भीतर बची रहती है और यही कारण है हमारे देश में स्त्रियों को सामाजिक सुरक्षा तो बिलकुल भी नहीं है। फिर इस अदृश्य जाति का तो समाज ही नहीं है तो सामाजिक सुरक्षा का सवाल ही नहीं उठता ।
हम जितने आधुनिक हो रहे हैं तकनीकी रूप से सोच और व्यवहार में उतने ही गर्त में जा रहे हैं। पूरे देश में ब्राह्मणवाद, मनुवाद और जातिवाद के कारण अनेक भयानक घटनाएं होती रहती हैं। अगर दलित जाति के हैं तो गाँव के बीच से चप्पल पहनकर नहीं जा सकते, छोटी जाति के हैं तो शादी में घोड़ी पर सवार होकर बारात नहीं निकाल सकते। अपने मालिक के सामने कुर्सी या खाट पर नहीं बैठ सकते, उनका स्थान नीचे ज़मीन पर ही है। इन सब घटनाओं से हम सभी आये दिन रूबरू होते रहते हैं।
आज़ादी और प्रेम की चाह में कुचल दी गई युवती की दर्दनाक कहानी
फिल्म में योसाना ही बहुत ही उर्जावान है और प्रकृति में हमेशा कुछ नया खोजने के लिए उत्साहित रहती है। वह हमेशा नई-नई जगहों पर पहुँच कर आनंद लेती है। जंगल में रहने वाले जानवरों से उसका दोस्ताना व्यवहार उसके जीवन का आधार है। जानवर, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी यही सब उसके अकेलेपन के साथी होते हैं। उसके अकेलेपन की बेचैनी को जानवरों के साथ खेलकर बांटती है। रोजाना की यही उसकी दिनचर्या है। नदी में नहाना और तैरना उसका प्रिय शगल है।
मां उसके इस खुले व्यवहार से हमेशा चिन्तित और डरी हुई दिखाई देती है। उसे हमेशा सतर्क करती है क्योंकि गाँव के लोगों ने उसे देख लिया तो दण्डित होने से कोई नहीं रोक सकेगा। उसे भी अँधेरे में काम करना पड़ता था। एक रोज दिन में जब नदी में नहाती होती है तब गाँव का एक युवक, जो चरवाहा है, वहीं आकर नहाता है । उसे देखकर वह उसकी ओर एकतरफा आकर्षित होती है और उसके बाद हमेशा उसे मन में चाहती है।
वह उसकी एक झलक पाने के लिए अनेक जोखिम उठती है। यही जोखिम उसके गैंगरेप का कारण बनता है, जिसके बाद उसकी मौत हो जाती है। विडम्बना यह है कि गैंगरेप में वह लड़का भी होता है जिसे वह एकतरफा पसंद करती है। इस चाह का खतरनाक परिणाम ऐसा है कि जैसे ही वह उसकी तरफ आता दीखता है उसकी आँखों में पूरे संसार का दर्द और डर दिखाई देता है।
हिन्दू जाति-व्यवस्था के दलित और स्त्री विरोधी षड्यंत्र
कितनी भयानक और विचित्र बात है कि आधुनिक समय में भी समाज का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जहां सामंतवाद और ब्राह्मणवाद के तय किये गए मानकों को दलित और शूद्र जातियों के ऊपर थोपने की कोशिश की जाती है। ये उत्पादन की पुरानी व्यवस्था और बेगार तथा जजमानी के माध्यम से उनके श्रम को हड़पने के सामाजिक षड्यंत्र हैं। वास्तव में दलित-शूद्र ही वर्चस्वशाली जातियों को बेहतर जीवन देने के लिए सारी सुविधा मुहैय्या कराते हैं। मेहनत और उत्पादन के किसी क्षेत्र में इनका योगदान बेमिसाल है लेकिन उन्हें ब्राह्मणवाद ने समाज से अलग-थलग कर दिया है।
हम अपने जीवन में आये दिन सुनते हैं कि दलितों और शूद्रों द्वारा समानता के व्यवहार की अपेक्षा पर उन्हें भयानक अपमान और प्रताड़ना मिलती है। अपमान के रूप में मां-बहन की गालियां तो बहुत सहज हैं। इसके अलावा मारपीट कर जान से मार डालना और स्त्रियों के साथ बलात्कार बहुत ही आम घटना हो गई है। एक स्त्री होने के नाते इस बात को कहने में बहुत कष्ट हो रहा है लेकिन सच यही है।
फिल्म में भी योसाना की मां के साथ गाँव का वही आदमी बलात्कार करता है जिसने दिन शुरुआत में बाहर निकलने पर उसे गालियां और धमकी दी थी। बलात्कार के समय मना करने और विरोध करने पर वह उसके पति को जान से मार डालने की धमकी देता है। कितनी अजीब बात है कि सुचिता का पाखंड करने वाले समाज के पुरुष अछूत स्त्री के साथ बलात्कार करने और संबंध बनाने में तथाकथित शुद्धता का ध्यान नहीं रखते। जिस जाति को अनसीन और नीची जाति का माना गया है, उसके साथ इस तरह के अपराध लगातार क्यों होते हैं।
निश्चित रूप से ऐसी स्त्री से बलात्कार करने पर बलात्कारी व्यक्ति को बचने के सामाजिक अवसर अधिक होते हैं। वह जनता है कि इसकी शिकायत दूर तक नहीं जाएगी और इसे आसानी से उत्पीड़ित किया जा सकता है। आमतौर पर ऐसे मामलों में स्त्रियों की शिकायतें मुश्किल से दर्ज हो पाती हैं। इसके साथ ही बलात्कारी पुरुष को मालूम होता यदि पीड़ित स्त्री शिकायत करेगी तो उल्टे उसे ही दण्डित किया जायेगा। इसके साथ ही स्त्री को अपने घर में भी अपमानित और प्रताड़ित होने का भय होता है। इसीलिए योसाना की माँ चुप रहती है और तालाब में कपड़े धोते हुए पूरा गुस्सा कपड़े पर निकालती है जो फटने की स्थिति में पहुँच जाता है। यह बहुत मार्मिक और हृदयविदारक दृश्य है।
पुरुषसत्ता अपने पाप छिपाने के लिए स्त्री को देवी बनाती है
ऐसा देवदासी प्रथा और जोगिन प्रथा में भी होता है जहाँ छोटी जाति की बच्चियों को देवदासी बनाकर मंदिर के भगवान से शादी कराने का ढकोसला किया जाता है जबकि वास्तव में देवदासी उस मंदिर के पुजारी और प्रबंधन से जुड़े लोगों द्वारा शारीरिक शोषण का सामाजिक लाइसेंस होता है। सरकार द्वारा देवदासी प्रथा विवरण अधिनियम बना दिए जाने के बाद भी यह प्रथा दक्षिण भारत में अब भी प्रचलित है।
मदाथी देवी के मंदिर की स्थापना पर होने वाले उत्सव में महिलायें ही देवी की शक्ति का वर्णन अपने गाने में कर रही हैं। दूसरी तरफ देवी के इस शौर्य और सौन्दर्य के गाने की बीच योसाना का गैंगरेप होता है। गैंगरेप से सन्नाटे में चीख और मंदिर में गाये जाने वाले गीत के बोल का कंट्रास्ट मन को विचलित कर देता है।
“लड़की का पैदा होना हर माँ-बाप को चिंतित करता है क्योंकि समाज के लाख सभ्य घोषित हो जाने के बाद भी बर्बरता पुरुषों के भीतर बची रहती है और यही कारण है हमारे देश में स्त्रियों को सामाजिक सुरक्षा तो बिलकुल भी नहीं है। फिर इस अदृश्य जाति का तो समाज ही नहीं है तो सामाजिक सुरक्षा का सवाल ही नहीं उठता ।”
सच कहूँ तो यदि इस त्रासदी को महसूस करने वाला कोई भक्त होगा तो उसे इस कंट्रास्ट को देख-सुनकर देवी-देवता से वितृष्णा हो जायेगी। लेकिन वह शायद इस सबको धर्म की चादर में लपेटकर शांत रह जाएगा। ऐसा हर जगह होता है । जितनी देवियाँ हैं सबकी कहानी के पीछे पुरुषों के अपराध छिपे हैं।
फिल्म में दिखता है कि उसके बाद तबाही वाली भयंकर बारिश के बीच पूरा गाँव-तहस-नहस हो जाता है। केवल मंदिर की मूर्ति को छोड़कर, लेकिन उस मूर्ति पर मदाथी का चेहरा न होकर योसाना का चेहरा हो जाता है। यह साजिश भी समाज के अपराध के बचाव के लिए है क्योंकि समाज में जितनी भी स्त्रियाँ सताई गईं हैं बाद में उन्हें देवी का दर्जा देकर बाकायदा पूजा गया है।
भले यह मिथक हों लेकिन स्त्री प्रताड़ना से कौन इन्कार कर सकता है? सरस्वती, जिसका रेप उसके बाप ब्रह्मा द्वारा किया गया। सीता जिसे अग्नि परीक्षा देने की बाद धोबी का कथन सुन गर्भवती स्थिति में जंगल में छोड़ दिया गया, इंद्र द्वारा अहिल्या का रेप कर उसे पत्थर बना दिया गया।
बाद में इन सबको देवी स्वरूप में स्थापित किया गया। 1987 में दिवराला में 18 वर्ष की रूपकुंवर को सती बनाकर जला देने के बाद उसका मंदिर बनाकर देवी मान लिया गया। गैंगरेप के बाद मर जाने पर योसाना के माता-पिता द्वारा सवाल उठाने पर गाँव का पूरा समाज एक सुर में अपने अपराधी बेटों को बचाते हुए योसाना को ही दोषी ठहराता है। लेकिन मिथक प्रचलित कर दिया गया कि योसाना देवी मदाथी में बदल गई।
लेकिन इस लोककथा में देवी की शक्ति का चमत्कार दिखाया गया है कि उस गाँव के सभी लोग अंधे हो गए। वास्तव में संविधान द्वारा सजा तो नहीं ही मिली होगी लेकिन प्राकृतिक रूप से अपराधियों को सजा मिली, यह दिखाने लिए ऐसी लोककथाएँ गढ़ दी गईं।
सामंतवादी-ब्राह्मणवादी समाज का यही असली चेहरा है। दलित-पिछड़ी जातियों की लड़कियों के साथ बलात्कार को तो यहाँ ऊँची जाति के पुरुषों का साहसिक काम समझा जाता है। यह बहुत ही डरावना और असहनीय जीवन है।
मदाथी: अ अनफेयरी टेल नाम शायद इसीलिए रखा गया है कि इसमें परियों के सुंदर और रंगीन जीवन की काल्पनिक कहानी नहीं है बल्कि एक ऐसी बच्ची के जीवन का त्रासदीपूर्ण कहानी है जिसका जीवन अनफेयरी है। फिल्म में अनेक ऐसे दृश्य हैं जो स्वतंत्र रूप से अलग-अलग कहानियाँ कहते हैं।
इस फिल्म का निर्देशन लीना मनिमेकलाई ने किया है जो एक सामाजिक कार्यकर्ता और वृत्तचित्रकार हैं और इस फिल्म को बनाने से पहले अनेक वर्षों तक पुथिरे वन्नार जाति के लोगों के बीच रही हैं। यह फिल्म तमिल ओटीटी प्लेटफार्म नीस्ट्रीम पर उपलब्ध है।
बहुत ही यथार्थ विश्लेषण
समाज की कुरीतियों को उजागर करती हुई और एक एक शब्द उस दर्दनाक भयावहता को कुरेदते देते हुए
महिलाओं के प्रति अपराध का समाज शास्त्रीय विश्लेषण वाया सिनेमा।
सच में मस्तिष्क को झकझोर देने वाला लेख।
मैम मुवी का हिंदी में ट्रांसलेठ लिंक हो तो यहाँ भेज दीजिए।
जाति आधारित व्यवस्था ने समाज को अपूर्तनिय क्षति पहुंचाई है।
विचारोत्तेजक। सरल व सीधी भाषा में बात कही गयी है। समीक्षा फिल्म देखने के लिए प्रेरित करती है। हिन्दू धर्म के प्रति घनघोर घृणा भी पैदा करती है।
बेहद अमानवीय
बेहतरीन, बहुत ही सटीक समीक्षा।
भारतीय समाज में दलित, आदिवासी और स्त्री वर्ग के साथ क्रूरतम और अमानवीय बर्ताव की जो बेहद लम्बी श्रृंखला रही है और अपने थोड़े बहुत परिवर्तित रुप में जघन्यता के साथ आज की कायम है,फिल्म की इस समीक्षा के माध्यम से बहुत ही विश्लेषणात्मक ढंग से रखा है आपने।बेहद महत्वपूर्ण और सारगर्भित लेख के हार्दिक बधाई और धन्यवाद भी।
हिन्दू (चोर)समाज मे ही यह सब होता है । इस धर्म के शर्मनाक रीति रिवाज व धार्मिक बंधन कई बार इस धर्म की मनुष्यों के लियेअभिशाप की पराकाष्ठा को पीछे छोड़ देते है।
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बहुत ही संवेदनशील फिल्म का उतनी ही संवेदना के साथ समीक्षा की गई है. अपर्णा जी की सशक्त कलम को सलाम.
बेहतरीन समीक्षा
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