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क्या यादवों में वैज्ञानिक सोच पैदा करना पत्थर पर दूब उगाने जैसा है?

इस लेख को आरंभ करने से पहले कुछ प्रामाणिक संदर्भ देना उचित होगा। 26 जनवरी, 1950 के दिन संविधान लागू हुआ था। उसी दिन से भारतीय मानस में प्रचलित आस्था-विश्वास की काल्पनिक परम्पराओं, ढोंग, पाखंड, ऊंच-नीच, छुआछूत की भावनाओं को समाप्त करने के लिए संविधान में प्रावधान दिए गए हैं। संविधान का अनुच्छेद 13 कहता […]

इस लेख को आरंभ करने से पहले कुछ प्रामाणिक संदर्भ देना उचित होगा।

26 जनवरी, 1950 के दिन संविधान लागू हुआ था। उसी दिन से भारतीय मानस में प्रचलित आस्था-विश्वास की काल्पनिक परम्पराओं, ढोंग, पाखंड, ऊंच-नीच, छुआछूत की भावनाओं को समाप्त करने के लिए संविधान में प्रावधान दिए गए हैं।

संविधान का अनुच्छेद 13 कहता है कि आज तक जो भी आस्था-विश्वास की परम्पराएँ, तीज-त्योहार, रीति-रिवाज़ आदि प्रचलित हो रही हैं, यदि वे झूठ-फरेब, कल्पना, छुआछूत या ऊंच-नीच की भावनाओं से प्रेरित हैं, तो आज के बाद ऐसी सभी मान्यताएँ ध्वस्त कर दी जाती हैं। यदि कोई इसका अनुसरण करता है या करवाता है तो उसे कानूनी अपराध मानते हुए सजा का पात्र समझा जाएगा। इस कानून पर आज तक सभी सरकारें आंख बंद किए हुए हैं। यही नहीं, इसे मिटाने की बात छोड़िए, इसको बढ़ावा देने में सभी सरकारी मशीनरियों का दुरुपयोग किया जा रहा है।

संविधान का अनुच्छेद 51AH, कहता है कि सभी राज्य सरकारों, या केन्द्र सरकार या उसके प्रबुद्ध नागरिकों की जिम्मेदारी बनती है कि आज के बाद सभी नागरिकों में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति पैदा करना है।

लेकिन समता, समानता और बंधुत्व पर आधारित संविधान रहते देश में क्या हो रहा है यहां बताने की जरूरत नहीं हैं।

अब लेख के मुद्दे की बात करते हैं।

[bs-quote quote=”कंस बड़ा धैर्यवान था कि आठवां बच्चा पैदा होने तक इंतजार किया। मेरा आकलन है कि वह बहुत बड़ा मूर्ख था।  जब वह जानता था कि देवकी के आठवें बच्चे से उसका अंत होने वाला है। तो अगर समझदार होता तो उसी समय किसी कारण से बहन की हत्या कर सकता था लेकिन उसने दोनों को जेल की एक कोठरी में क्यों रखा? अलग-अलग जेलों में डाल दिया होता। बच्चा ही पैदा नहीं होता। ब्राह्मणों द्वारा फैलाये गए इस किस्से का निहितार्थ क्या है?” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

26 अक्टूबर, 2022 को अखिल भारतीय यादव महासभा और अखिल भारतीय यदुवंशी महासभा के संयुक्त गोवर्द्धन पूजा महोत्सव का आयोजन वर्सोवा वेलफेयर ट्रस्ट स्कूल के सभागार में किया गया था। सभा स्थल पर लगे बैनर के अनुसार किलाचंद यादव इन दोनों महसभाओं के मुम्बई प्रदेश के अध्यक्ष हैं।

हमजोली पुराने मित्र किलाचंद ने मुझे भी टेलीफोनिक कॉल करते हुए  निमंत्रण दिया। मैंने सवाल किया था कि ‘मुझे क्यों बुला रहे हो? और यह भी कहा था कि अब मैं भीड़ का हिस्सा बनकर ‘कुछ सुनने’ के लिए नहीं, लोगों को कुछ सुनाने के लिए देशभर में जाता रहता हूं।’ उनका जवाब था- ‘मैं जानता हूं, आप आइए, आपको मौका जरूर मिलेगा। मैं यह जानकार खुश हुआ कि लगता है मुम्बई के यादव समाज में भी कुछ बदलाव आ रहा है। मैंने कहा- ‘ठीक है, मैं जरूर आऊंगा।’

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पांच बजे शाम से प्रोग्राम शुरू होने वाला था। पूजा-पाठ से मेरा कोई लगाव नहीं था, इसलिए मैं जान-बूझकर करीब 6 बजे के आसपास पहुँचा तो पूजा के बाद हरे कृष्णा मंडली का कीर्तन-भजन मोहक संगीत के साथ चल रहा था। मैंने अनुभव किया कि 99% गोवर्द्धन पूजा में सिर्फ पूर्वांचल का यादव समाज ही आया हुआ था। विचित्र है न कि महाराष्ट्र की धरती पर गोवर्द्धन पूजा में स्थानीय अहीर समाज ही नहीं है। क्या श्रीकृष्ण भगवान सिर्फ कुछ यादव समुदाय के ही हैं? यदि ऐसा है तो क्या वह भगवान हो सकते हैं?

जो भी आगंतुक आते, उनके लिए पहले कृष्ण भगवान के दर्शन, पूजा-अर्चना, फिर आरती तथा उसके बाद दान-दक्षिणा का प्रावधान किया गया था। दर्शकों के बीच में पूजा का प्रसाद भी बंट रहा था। मैंने प्रसाद लेने से इनकार कर दिया। इस पर हमारे बाज़ू में बैठे साथी ने सवाल किया कि ‘प्रसाद न लेकर आप अनिष्ट को क्यों बुला रहे हैं?’ जिस पर मैंने जवाब दिया कि ‘हमारे पूर्वज हजारों सालों से प्रसाद ग्रहण करते-करते कंगाल ही बने रहे और प्रसाद ग्रहण के कारण ही अंधविश्वासी और पाखंडी बनते चले आ रहे हैं और इसी कारण बुद्धि की तर्कशीलता शिथिल होती चली गई।’

नाम नहीं मालूम, लेकिन पहनावे से आधुनिक चुन्नीधारी-तिलकधारी एक सज्जन हाल में मौजूद सभी लोगों को एक-एक कर तिलक लगाते चले जा रहे थे। मैंने देखा कि कुछ लोग नीचे झुककर, पैर छूकर तिलक लगाने वाले का आशीर्वाद ले रहे थे। यदि आपने तिलक लगाने वाले का पैर छूकर आशीर्वाद नहीं लिया तो यह वैदिक धर्म के अनुसार बहुत बड़ा अपराध और पाप माना गया है। हमें ऐसा लगता है कि बहुत से लोग यह जान गए थे कि तिलक लगाने वाला यादव है, इसलिए उससे तिलक तो लगवा लेते थे, लेकिन परम्परागत ब्राह्मणी आशीर्वाद नहीं लेते थे।

मेरा भी नम्बर आया लेकिन मैंने नहीं लगवाया। बाजू वाले एक बुजुर्ग से पूछा, ‘क्या आप ऐसा तिलक घर में भी पूजा के बाद लगाते या लगवाते हैं?’ उनका कहना था, ‘नहीं! कभी नहीं। पहली बार ऐसा तिलक लगवाया है।’ मैंने सवाल किया- ‘फिर आज क्यों लगवाए? आपने यह सवाल क्यों नहीं किया कि यह तिलक किस पदार्थ का बना हुआ है? कभी भी नहीं लगाया है तो कहीं मुझे नुकसान तो नहीं पहुंचाएगा? आखिर क्यों तिलक लगा रहे हो? इससे क्या फायदा होगा? नहीं लगाया तो क्या नुकसान हो जाएगा? मान लीजिए आज कोई तिलक लगा रहा है, कल कोई टिकुली लगाएगा, हांथ में कलावा धागा बांधेगा, जनेऊ पहनाएगा, सनातनी धोती-कुर्ता पहनने को मजबूर करेगा, या फिर कोई आपके चुन्नी नहीं है तो नकली चुन्नी सर पर चिपका देगा तो क्या आप पूछने या जानने तक की सामर्थ्य रखते हैं या नहीं?’

बेचारे सिर्फ हां में हां मिलाते रहे, लेकिन कुछ भी जवाब नहीं दे पाए। बेचारा गुलाम!

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करीब-करीब आमंत्रित सभी मेहमान आ गए। हाल खचाखच भर गया। मंच पर हरे कृष्णा की भक्ति के संगीत के साथ-साथ कुछ लोग माइक पर कुछ उद्घोषणा और जयकारे लगाते चले जा रहे थे। मैं समय की बर्बादी और ऐसे माहौल से बोर हो रहा था। मैंने अपने बाजू वाले साथी से कहा, ‘इससे अच्छा होता, जुहू के हरे कृष्णा मंदिर में जाकर बैठ जाते।’

समय सात पार होने लगा। मुझे डाउट होने लगा कि यादवों की हर सभा में बिरहा-संगीत मनोरंजन के बाद अंत के एक आधे घंटे में सभी वक्ताओं को समय की कीमत की हिदायत देते हुए, तीन-तीन मिनट का समय दिया जाता रहा है। और फिर पीछे से अंगुली करना शुरू कर देते हैं। लेकिन इतने कम वक्त में कोई वक्ता क्या बोल पाएगा? तो लोग सबसे आसान तरीका निकालकर आयोजक की खुशामद या फिर कुछ नेताओं के गुणगान करके भाषण खत्म करना उचित समझते हैं।

समय का अभाव देखते हुए, किलाचंद यादव को सिर्फ पांच मिनट के भाषण देने के लिए फिर से रिमाइंड भी कराया और कहा भी कि यह गाना बजाना बन्द कर नेताओं का भाषण शुरू कराइए।

खैर, देर आए दुरुस्त आए। करीब 7.30 बजे किलाचंद ने संस्कृत में डाक्टरी की पढ़ाई करने वाले विश्व के पहले एमडी प्रकांड और विश्वविख्यात विद्वान यादवजी को भाषण देने के लिए बुलाया।

उनके भाषण में कहीं भी किसी रोग या रोगी के निदान के बारे में किसी डाक्टरी ज्ञान का एक शब्द भी नहीं था। उन्होंने महाभारत और गीता का ज्ञान पिलाना शुरू किया। उन्होंने बीच-बीच में संस्कृत के श्लोक सुनाते हुए वेदों में रक्षित विज्ञान, मंत्रों में निहित पूरी सृष्टि को संचालित करने की ताकत, ग्रहों और नक्षत्रों की दिशा व दशा बदलने की ताकत का धाराप्रवाह बखान किया। कई यादव इतने लहलोट थे कि रह-रहकर तालियाँ पीट उठते। उन्होंने यह भी बताया कि सबकुछ पुराणों और वेदों में है। हमारे सनातनी ज्ञान को विदेशी लोगों ने चुराया है। 45 मिनट तक बकवास चलता रहा और किलाचंद यादव उनके बाज़ू में कुर्सी पर बैठकर आनन्द ले रहे थे। उनके अंदर कोई भी हलचल न देखते हुए मैं खुद जगदीश भूषण के पास गया और अनुरोध किया कि इस पगले का भाषण बन्द करवाइए। इसे बहुत से लोग नहीं सुनना चाहते हैं। बाला यादव तथा और कई लोगों ने आकर मुझसे कहा कि सिंह साहब आप इसका जवाब जरूर दीजिये।

बेचारे जगदीश भूषण उठकर मंच पर गये। पहले तो किलाचंद को उन्होंने हिदायत दी। लेकिन लगता है उनसे कोई रिस्पांस नहीं मिला। फिर उसके पास गये। झल्लाकर कुछ जवाब दिया, फिर पीछे हट गए। उसकी आवाज को डिस्टर्ब करने या उसे आगाह करने के लिए दूसरा कोई माइक ढूंढ़ने लगे, जिसमें आवाज आती हो लेकिन कोई ऐसा माइक नहीं मिला। लगता है भजन मंडली ने सभी का स्विच आफ कर दिया था।

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करीब दस मिनट के बाद फिर उनके पास गये। उन पर झल्लाते हुए उनकी बेइज्जती करते हुए कहा कि मैं एक ही शर्त पर माइक दूंगा कि,  कोई दूसरा इसी प्वाइंट पर, इसी विषय पर, इसको आगे बढ़ाते हुए भाषण देगा। जगदीश भूषण की बेइज्जती और उनकी लाचारी पर नीचे बैठे कुछ लोग हंस रहे थे। बड़ी जद्दोजहद के बाद करीब 8.30 पर माइक छीनने में वे सफल हो गए।

अब तक सभी वक्ताओं का पूरा समय खुद हड़प लेना, समय के लिए टोकने, भाषण समाप्त करने के अनुरोध को सार्वजनिक रूप से स्टेज पर न मानना, इस अनुरोध पर झल्लाना, सामने वाले को बेइज्जत करना आदि-आदि चलता रहा। क्या इस विद्वान के व्यवहार में कहीं भी इन्सानियत और मानवता की झलक दिखाई देती है। ऐसे स्वभाव वालों को ही निर्लज्ज, बेहया, सनकी, स्वार्थी, कपटी, बेइमान, मौकापरस्त आदि अलंकारों से सुशोभित किया जाता रहा है।

आपको बता देना चाहता हूं कि कोई भी अतिथि या वक्ता मंच पर नहीं था। जहां तक जानकारी है, अतिथियों में अखिल भारतीय यादव महासभा के महाराष्ट्र के प्रभारी सचिन अहीर, गुजरात प्रदेश के अहीर समाज के अध्यक्ष, समाजवादी पार्टी के मुम्बई प्रदेश के अध्यक्ष राजबहादुर यादव, शिवसेना मुम्बई प्रदेश के प्रभारी तथा और भी कई जाने-माने नेता मौजूद थे। जिन्हें राशन (खाना-पीना) नहीं दोगे चल जाएगा, लेकिन भाषण जरूर होना चाहिए। यह नेताओं के लिए चरितार्थ भी है।

थोथी बौद्धिकता का बालुई किला 

अब दूसरे नम्बर पर भाषण देने के लिए खुद सभा के संयोजक किलाचंद यादव आए, जो खुद 10 मिनट तक खड़े होकर भाषण नहीं दे सकते हैं। वे कुर्सी पर बैठकर भाषण देने लगे। वीडियो भी बनने लगा। उन्होंने अपने ही गुरु प्रख्यात विद्वान जो ज्ञान पिला गये थे, के विपरित यादव समाज की बुराइयों का अंबार लगा दिया। संक्षेप में कहूं तो उनका कहना था कि ‘कम संख्या में होने पर भी, पंजाबी सरदारों की उपलब्धि, जैनियों की उपलब्धि आदि और दूसरे समुदायों और जातियों की उपलब्धि बहुत ज्यादा हैं लेकिन यादवों की संख्या करीब 20-25 करोड़ होते हुए हम आज कहा खड़े हैं?’

उनका भाषण सुनकर हंसी आ रही थी कि एक तरफ तो यादव समाज को धार्मिक ढोंग-पाखंड, अंधश्रद्धा का पाठ पढ़ाकर, बच्चों को कूपमण्डूक बनाकर, कांवड़ ढोने को मजबूर कर धार्मिक बना रहे हैं और दूसरी तरफ उनमें वैज्ञानिक सोच न पनपने, डाक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, कलक्टर, डीएम न बनने पर समाज के उन्हीं बच्चों को दोषी ठहरा रहे हैं। विचित्र दोगलापन है। दूसरे समुदाय से तुलना करने का और क्या तुक है? किलाचंद का भी भाषण चलता रहा। उसके बीच में उद्घोषणा होने लगी कि प्रसाद तैयार है। कोई भी बिना प्रसाद लिए नहीं जाएगा। मैंने सवाल किया कि एक बार प्रसाद तो मिल चुका है तो फिर से दुबारा प्रसाद लेने का क्या औचित्य है? पता चला कृष्ण भक्त यादव लोग अब लंच, डिनर या भोजन को भी प्रसाद से ही संबोधन करते हैं।

किलाचंद का भाषण करीब नौ बजे के आसपास खत्म हुआ और नौ बजे तक ही हाल भी खाली करना था। तभी उनको सभी गणमान्य मेहमानों का स्वागत करने का ख्याल आया। अब प्रसाद ग्रहण के साथ-साथ स्वागत समारोह शुरू हो गया। जो करीब दस बजे तक चला। समारोह के शिष्टाचार की विडंबना देखिए कि न अध्यक्षीय भाषण हुआ और न ही किसी के प्रति आभार व्यक्त किया गया।

स्वागत के लिए मेरा भी नाम पुकारा गया और जब किलाचंद मेरे पास आए तब मैंने अपना स्वागत करवाने से मना कर दिया और किलाचंद से कहा भी कि- ‘एक भिखारी ब्राह्मण पूरे संपन्न राजपरिवार तथा उसके मुखिया राजा श्रीकृष्ण भगवान को मूर्ख बनाने में सफल हो गया था। उनसे अपना पैर भी धुलवाया और राजपाट का तीन हिस्सा भी भीख में ले लिया। कृष्ण भगवान को इतना भी ज्ञान नहीं था कि एक भिखारी राजपाट कैसे चलाएगा? ठीक है, चलो मान लेता हूं कि भिखारी सुदामा आपका लंगोटिया यार था तो कहीं राजघराने में उसके लायक काम दे दिए होते। उसकी दयनीय हालत पर आपको इतना रोने-बिलखने और इतना आंसू बहाने की क्या जरूरत थी कि उन आंसुओं से उसका पैर धुल गया। एक खुशहाल प्रजा के राजा और ऊपर से भगवान को यह कत्तई शोभा नहीं देता है। यह करतूत पूरे विश्व में जगहंसाई की एक मिसाल बन गई है। कुछ भी हो, साबित तो यही होता है कि एक भिखारी कृष्ण भगवान को बेवकूफ बनाने में सफल हो गया और आज आप भी हम सभी को बेवकूफ बनाने में सफल हो गए।’

यही नहीं, किलाचंद अपने भाषण से गोपियों के नग्न स्नान करते समय उनके वस्त्रों की चोरी करने के लाजिक को भी सही साबित करने में सफ़ल हो गये। उनका कहना था कि निर्लज्ज, निरंकुश गोपियां, मां-बाप या भाइयों के खुले तालाबों में नंगी नहाने के लिए, मना करने पर भी नहीं मानती थीं। लेकिन कृष्ण भगवान ने उनके कपड़े चुराकर एक शर्त पर वापस किया कि बचन दो कि आज के बाद इस तरह से नंगी स्नान नहीं करोगी।

वाह रे! अपनी बात मनवाने और अनुशासन में रखने का बेहतरीन लाजिक! सलाम है आपको।

आगे उनका कहना था कि कंस बड़ा धैर्यवान था कि आठवां बच्चा पैदा होने तक इंतजार किया। मेरा आकलन है कि वह बहुत बड़ा मूर्ख था।  जब वह जानता था कि देवकी के आठवें बच्चे से उसका अंत होने वाला है। तो अगर समझदार होता तो उसी समय किसी कारण से बहन की हत्या कर सकता था लेकिन उसने दोनों को जेल की एक कोठरी में क्यों रखा? अलग-अलग जेलों में डाल दिया होता। बच्चा ही पैदा नहीं होता। ब्राह्मणों द्वारा फैलाये गए इस किस्से का निहितार्थ क्या है? किलाचंद का बौद्धिक किला ढह गया लेकिन उचित कारण नहीं बता पाये।

आगे भाषण में उन्होंने कहा कि कृष्ण भगवान ने बाल्यावस्था में ही कई दुश्मनों की हत्या कर दी। मैंने वहां उस समय यही सोचा कि ज्यादा हत्या करना ही भगवान बनने का लक्षण है तो दाऊद को भी या फिलहाल पुतिन को भगवान घोषित कर देना चाहिए।

पूरा विवरण बहुत लम्बा हो जाएगा, इसलिए संक्षेप में बता देना चाहता हूं कि, कृष्ण का जवानी में राधा से प्यार और रुक्मिणी से शादी,  पांडवों का जुआ खेलना, बीवी को भी जुआ में दाँव पर लगा देना, जुआ में बीवी को हारने और फिर द्रौपदी के चीरहरण को भी किलाचंंद ने बहुत सफाई से गौरवान्वित कराया। ऐसा लगता है सभी भारतवासियों को ऐसे आदर्श का अनुसरण करना चाहिए।

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विश्व के सभी ज्ञान वेदों में समाहित है। वेद पुराणों में विज्ञान का दर्शन है। महाभारत के संजय की दूरदृष्टि यानी महाभारतकाल में टेलीविजन था। गणेशजी की प्लास्टिक सर्जरी हुई थी। पुष्पक विमान था, आदि-आदि।

यह जानकर बड़ा दुःख होता है कि पश्चिमी सभ्यता वालों ने ऐसे सारे ज्ञानों की चोरी कर लिया। और यहाँ से चुरा कर कहाँ से कहाँ पहुँच गए। इन मूर्खों को यह भी पता नहीं है कि भारत में आज भी अच्छे-तगड़े बुद्धिमानों को पढ़ने से रोका जा रहा है और वहीं विदेशियों में ज्ञान देने की छटपटाहट देखिए कि 100-200 साल पहले अंधों और बहरों को भी पढ़ाने के लिए एक नई भाषा का आविष्कार तक कर दिया।

अरे, मूर्खाधिराज! जब उस समय इतना ज्ञान का भंडार था तो इन मूर्खों को लैट्रिन बनाने का ज्ञान क्यों नहीं हुआ? अपना संडास किसी दूसरे के सिर पर ढुलवाने के लिए उन परजीवियों ने हलालखोर जाति बना दिया।

बैलगाड़ी बनाने का सहूर नहीं था! अपने को ढोने के लिए डोली ढोने वाली जाति बना दिया। जानवरों को सवारी का साधन बना लिया। अपना कपड़ा धोने के लिए धोबी जाति बना दिया लेकिन वाशिंग मशीन क्यों नहीं बनाया? कुंए से बैलों द्वारा रहट पद्धति से पानी निकालने तक का ज्ञान नहीं हुआ। गधों ने इसके लिए कहार जाति बना दिया।

बस करता हूँ। लिस्ट लम्बी हो जाएगी।

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शास्त्रों के ज्ञान की बानगी देखिये 

लिखा गया है कि हनुमानजी सूर्य को फल समझकर निगल गये, लेकिन आगे नहीं लिखा मिलता है कि हनुमान उस फल को पचा लिए या उल्टी कर दिए। औरतें पहले खीर खाकर बच्चे उत्पन्न करती थीं। गणेश तो अपनी मां के नहाते समय उससे निकले मैल से ही पैदा हो गए। बाप को पता नहीं बेटा पैदा हो गया। पैदा होते ही मां की पहरेदारी करने लगा। बाप-बेटे एक दूसरे को पहचाने तक नहीं। बाप ने ही बेटे की गर्दन काट दी और फिर हाथी की मूँड़ी काटकर अभी-अभी पैदा हुए मूँड़ीविहीन बच्चे की सर्जरी कर जोड़ते हुए उसे जिंदा कर दिया। बच्चे की कटी हुई मूँड़ी और मूँड़ीविहीन हाथी का क्या हुआ। आगे कोई खबर नहीं।

कोई पसीने से पैदा हो रहा था। कोई मगरमच्छ के पेट से पैदा हुआ है। कोई मछली के पेट से पैदा हुआ है तो कोई सूर्य के वरदान से पैदा हो गया। इस तरह इन्सान के पैदा होने की बहुत ही विचित्र और कपोल-कल्पित कहानियां सिर्फ भारत में ही मिलती रहती हैं। अब ऐसी पैदाइश पूरी तरह बन्द हो गई है। पता नहीं किसने नसबंदी कर दी है।

अभी आगे शास्त्रों में ज्ञान का भंडार है। पृथ्वी अचल है। कछुए के पीठ पर टिकी हुई है। चांद समुद्र से निकला है। उसे राहू लगता है। उस पर काला धब्बा उसका विष है। सूर्य रथ के साथ चलता है। थक जाता है तो आराम करता है। कभी-कभी रास्ता भी भटक जाता है। अयोध्या में भगवान राम के जन्म के कौतूहल को एक महीने तक देखते रह गए।

कौतुक देखि भुलाय पतंगा,

रथ समेत रवि थाकेऊ,

कमठ सेष रम घर बहुधा के ,

विश्व भार भर अचल छमा सी। 

यादव बंधुओ! विचार आपको करना है कि आने वाले अपने प्यारे-दुलारे बच्चों के दिमाग में पाखंडी धार्मिकता ठूंसना है या प्रगतिशील वैज्ञानिक सोच पैदा करना है। यह आप पर निर्भर करता है।

समझने वालों के लिए इशारा काफी है…

शूद्र उपाधि लगाने और शूद्र मिशन के बारे में

गर्व से कहो हम शूद्र हैं… से कुछ लोगों को एलर्जी है और वे मुझे बुरा-भला कहते भी रहते हैं। हमारी यह मानसिकता किसी भी कीमत पर बदलने वाली नहीं है। यह बड़े त्याग तपस्या, बलिदान, अनुभव और अद्वितीय ज्ञान हासिल होने के बाद ही विकसित हुई है। इस मिशन की तीन मुख्य अवधारणाएँ हैं। उनके बारे में यहां संक्षेप में बता देना उचित समझता हूं। धारण करना या नहीं करना आप पर निर्भर है।

  1.  जो इन्सान धार्मिक मान्यता से, जाति के कारण अपने आपको उच्च और दूसरे को नीचा समझता है, उसे मैं इन्सान ही नहीं समझता हूं। वह मानवता के लिए कलंक है और सामाजिक अपराधी भी है।
  2.  जो देवी-देवता और भगवान इन्सान के छूने या देखने मात्र से अपवित्र होते थे, आज भी हो रहे हैं, ऐसे लोग भगवान क्या इन्सान भी नहीं हो सकते। ऐसे भगवानों को अपने घरों में रखना और उनकी पूजा करना अपराध मानता हूं।
  3. जिस धर्म ने, व्यवस्था या परंपरा ने हमारे बाप-दादा, परदादा को सदियों से नीच, दुष्ट, पापी समझा, आज भी ब्राह्मण अपने से हमें नीच समझता है और पता नहीं कब तक ऐसा ही समझता रहेगा। उसको मैं सिरे से नकारता हूँ। एक सवाल है कि यदि तुम अपने बराबर नहीं समझोगे तो हमारा तुम्हारा क्या सामाजिक संबंध है? नहीं समझोगे तो मैं ऐसी व्यवस्था, परम्परा या धर्म को नकारता हूं। धन्यवाद!

आपके समान दर्द का हमदर्द साथी!

गूगल@ शूद्र शिवशंकर सिंह यादव

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8 COMMENTS
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