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एक बुरी खबर है, अपना राजू नहीं रहा!

राजू। इसी नाम से हम उन्हें पुकारा करते थे।  न राजू जी, न ही पाण्डेय जी। पता नहीं क्यों यही सम्बोधन बहुत अपना सा लगता था। शायद रायगढ़ में भी मेरे जानने और पहचनाने वाले उन्हें इसी नाम से पुकारते रहे हैं। 30 अक्टूबर को मैं, रामजी, गोकुल और संतोष शांति सद्भावना यात्रा में शामिल […]

राजू। इसी नाम से हम उन्हें पुकारा करते थे।  न राजू जी, न ही पाण्डेय जी। पता नहीं क्यों यही सम्बोधन बहुत अपना सा लगता था। शायद रायगढ़ में भी मेरे जानने और पहचनाने वाले उन्हें इसी नाम से पुकारते रहे हैं। 30 अक्टूबर को मैं, रामजी, गोकुल और संतोष शांति सद्भावना यात्रा में शामिल होने मिर्ज़ामुराद की ओर जा रहे थे। 8.30 बजे के लगभग शहरोज़, जो कॉलेज के दिनों में मेरा सहपाठी था, ने फोन किया और बिना किसी औपचारिकता के रूँधे गले से कहा – ‘एक बुरी खबर है, अपना राजू नहीं रहा।’ सुनकर पहले तो मैंने चीखकर कहा – क्या …. अरे। और फिर मैं रो पड़ी। लगा सारी दुनिया किसी ने उठाकर फेंक दी है। कुछ समझ नहीं आया। कुछ देर बाद मैंने सोमू को फोन किया तब उसने भी कहा कि यह सच है। यह कितना भयानक सच था हमारे लिए। हमारी योजना थी कि इस बार जब रायगढ़ जाएंगे तो राजू के ऊपर एक कार्यक्रम रखेंगे। उनके लेखन पर बात करेंगे। एकबारगी सब बिखर गया। मैं बस यही सोचती रही कि अब कौन राजू के पिता की देखभाल करेगा। उन्हें अखबार और किताब पढ़कर सुनाएगा। कौन उनका डायपर बदलेगा। और राजू ने तो वादा किया था कि जल्दी बनारस आएंगे और हमलोगों के साथ कम से कम हफ़्तेभर रहेंगे!

कल पूरा दिन उन्हें और उनकी बातों को याद करते गुजर गया। अब न उनका फोन आएगा, न ही सलाह का कोई खर्रा मिलेगा, न ही सत्ता और राजनीति पर व्यंग्य करती कोई बात होगी। रात में भी तीन-चार बार नींद खुलने पर यही ध्यान आया कि अब रायगढ़ जाने पर राजू कभी नहीं मिलेंगे। जब रायगढ़ पहुँचती और उन्हें खबर करती दो बार तो मिलना होता ही था। वही समय निकाल कर सुबह 10-11 बजे पहुँच जाते थे और डेढ़-दो घंटे से कम नहीं बैठते और हर तरह की बात बतिया जाते। रायगढ़ के चप्पे-चप्पे से और रायगढ़ के लोगों की नस-नस से वाकिफ थे राजू। हर किसी की व्यक्तिगत राजनीति और चालाकी अच्छी तरह समझते थे। उनके लेखन का हर कोई कायल था। वे कभी यह नहीं सोचते थे बड़े और नामी अख़बारों में ही छपना है बल्कि स्थानीय स्तर के सभी अख़बारों में भी लगातार लिखते और छपते थे।

मैं अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित जो भी नई किताब ले जाती उसे लेते और तुरंत भुगतान भी करते। घनिष्ठ मित्र होने के नाते भी कभी उन्होंने मुफ़्त किताब नहीं ली बल्कि मैं ही उन्हें कहती कि रहने दीजिए। मेरी तरफ से भेंट हैं। तब तुरंत कहते कि ‘प्रकाशन चलाना कितना मुश्किल है, मुझे पता है। आप कभी भी किसी को ऐसे किताब मत दिया करें। मुफ़्त देने पर किताब का महत्व नहीं रह जाता है और लोग किताब पढ़ते भी नहीं हैं।’

राजू पाण्डेय से आमने-सामने का परिचय मात्र सात सालों का है। हालांकि उनका नाम और चर्चा तो लगभग 20-22 वर्ष पहले से सुन रही थी। रंगकर्म में मेरी मार्गदर्शक और मित्र उषा आठले(दीदी) और अजय आठले (भैया) से। उस समय उनकी उम्र 28-30 की रही। इप्टा की बैठक या रिहर्सल के दौरान हमलोग राजू पाण्डेय के लेखों के साथ-साथ उनकी सक्रियता और वैचारिक समझ की चर्चा हमेशा किया करते थे और अन्य लोगों को उनके लेखों को पढ़ने के लिए भी प्रेरित करते थे। हाँ, हम एक-दूसरे को अच्छे से जानते थे क्योंकि हम एक ही शहर से थे और अपने-अपने क्षेत्र में सक्रिय भी थे। परिचय होने के बाद उन्होंने अनेक नाटकों की चर्चा मुझसे की, जो हमने रायगढ़ में तैयार किए थे और खेले थे।

अभी 9 अक्टूबर 2022 को रायपुर में आयोजित कार्यक्रम में राजू पाण्डेय मुख्य वक्ता थे

राजू पाण्डेय से पहली मुलाकात 2017 में हुई थी। जब गाँव के लोग पत्रिका का प्रकाशन शुरू हो चुका था। पहली बार घर आए थे, तब पिताजी जीवित थे। उनसे राजू पाण्डेय का परिचय कराया तो रिएक्ट करते हुए तुरंत कहा – ‘इसके पहले तो मैंने इन्हें कभी देखा नहीं।’ मैं झेंपी। जाते हुए मैंने उनसे अफसोस जताया तो उन्होंने कहा ‘मुझे बुरा नहीं लगा, बुढ़ापे में ऐसा होता है।’ उसके बाद घर आने पर ऐसा नहीं हुआ। और वे लगातार घर आते-जाते रहे।

वे स्वभाव से बहुत सहज और सरल थे। लेकिन बेहद जिद्दी और जुनूनी। वे कभी अपने नाम या शोहरत के लिए न तो लिखे, न ही छपे। बल्कि पाठकों की प्रतिक्रिया मिलने पर आल्हादित हो जाते और हर किसी को व्यक्तिगत शुक्रिया कहते। अपनी पहचान को हमेशा सामने आने से बचाना चाहते थे। उन्होंने कई बार बताया कि उनके सामने ही उनके लिखे लेखों की तारीफ होती है या कोई नाराजगी जाहिर करता है तो वे भी अपना परिचय छुपाते हुए उनकी ‘हाँ में हाँ’ मिलाते हुए मजे लेते। अनेक सम्मानों से सम्मानित होने के बाद भी बातचीत या मिलने पर कभी यह एहसास नहीं कराते कि वे बहुत बड़े लेखक है। हमेशा  धैर्य से सबको ऐसे सुनते कि सामने वाला कोई नई जानकारी दे रहा है। उनके लेख देश भर के जनप्रतिरोध के लिए प्रतिष्ठित अखबारों, वेबसाइटों पर छपते और पढ़े जाते। सैकड़ों बार संघी या मोदी भक्त उन्हें फोन करते, उनके साथ गाली-गलौच करते, अपशब्द कहते। शुरुआत में तो नहीं लेकिन दो-तीन घटनाओं के बाद किसी भी अनजान नंबर से फोन आने पर कॉल रिकॉर्डिंग कर लेते।

राजू पाण्डेय

यह तो बाहर के लोगों की बात हुई। लेकिन घर पर भी उन पर दबाव बनाया जाता कि सत्ता के विरोध में कोई लेख राजू न लिखें। अनेक बार इस बात को लेकर उनके घर में तनाव हो जाता और बहस हो जाती। वे बहुत परेशान हो जाते और मुझसे कहते कि मेरे ही घर में मेरे खिलाफ षड्यन्त्र हो रहा है। उनका लिखना-पढ़ना बंद होना उन्हें परेशान और अधिक बीमार कर देता। उनके परिवार में उनके अलावा पिताजी और उनके एकमात्र बड़े भाई हेमचंद पाण्डेय ही हैं। हालांकि उनके पिता और भाई दोनों जाने-माने मार्क्सवादी और गाँधीवादी चिंतक तथा हमेशा पढ़ने-लिखने में सक्रिय रहे हैं। पूरा परिवार पढ़ने-लिखने और वैचारिक चिंतन के लिए पहचाना जाता रहा है। एक बार उन्होंने मुझे मेसेज कर बताया कि डोभाल पर लिखा एक लेख प्रकाशित होने के बाद उनके बड़े भाई ने पिताजी से शिकायत की कि राजू जैसा लिख रहा है,उसे पकड़कर जेल में बंद कर दिया जाएगा। पिताजी ने घबराकर राजू पाण्डेय की अच्छी खबर ली और ताकीद की कि ऐसा कोई लेख नहीं लिखना।बिलासपुर में रहने वाले बड़े भाई (अब रायगढ़ में ही रहते हैं) जो अब आज की सत्ता की विचारधारा से ताल्लुक रखते हैं, राजू के लेखों से सहमत नहीं होते थे, कई बार पिताजी ईश्वरीयशरण पाण्डेय को फोन कर राजू के लेखों की शिकायत करते।

इस बात से वे बहुत चिढ़ जाते और नाराज हो जाते। 2014 के बाद खुलकर बोलने-लिखने वालों के लिए देश में जैसा माहौल बना शायद यही वजह रही होगी उन्हें इस तरह के विषयों पर लिखने से रोकने के लिए। उसके बाद उन्होंने बताया कि वे छिपकर लिखते और अपने कागज-पत्र ज्यादा सहेजकर रखते हैं ताकि किसी के हाथ न पड़े। यहाँ तक कि उनकी प्रकाशित किताब मुझे तुम जैसा नहीं बनना के बारे में लगभग साल भर तक अपने बड़े भाई को नहीं बताया। बाद में कभी बताया हो तो नहीं मालूम।

सम्मान ग्रहण करते हुए राजू पाण्डेय

लिखने-पढ़ने की ललक इतनी थी कि पगलाये रहते थे। कोई भी विषय या मुद्दा हो उसे पूरी तरह खंगाल लेते तब अपनी राय बनाते। घर पर हर विषय की हिन्दी-अंग्रेजी की ढेरों किताबें हैं लेकिन उसके बाद भी इंटरनेट पर जरूरत के विषयों को खंगाल कर उनका प्रिन्ट आउट घर पर ही निकालते और अध्ययन करते। जब तक पिताजी स्वस्थ्य रहे  उनसे उस पर विमर्श करते। पिताजी से उनकी बहुत जमती थी। पिताजी को पढ़ने में दिक्कत होने पर उन्हें अखबार के साथ अन्य चीजें पढ़कर सुनाते और राय लेते, बहस करते। यहाँ तक कि शुरू में अपने लेखों को पढ़कर भी सुनाते थे। उन्हें देश-दुनिया की बहुत चिंता थी। बातचीत और मैसेज में अक्सर बोलते बतियाते थे।पारिवारिक माहौल में अशान्ति होने की वजह से होनहार होने के बावजूद वे घर से दूर होते चले गए और भटक गए। उन्होंने खुद बताया कि इन्हीं वजहों से उनका शरीर बीमारी का घर बन चुका था। वे संभले और अपने को लिखने-पढ़ने में खपा दिया लेकिन अक्सर अफसोस करते कि यदि सब सही रहता तो मैं भी भटकता नहीं। इसी कारण परिवार नाम की संस्था से उनका विश्वास खत्म हो गया था।

बीमारी की वजह से वीआरएस लेने के बाद अपनी बीमारी का इलाज करवाया और खुद के साथ अपने उम्रदराज पिता की देखभाल की। उन्हें कई तरह की दिक्कतें थीं, जिनमें एक बड़ी दिक्कत पैंक्रियाज में थी जिसे उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के माध्यम से काबू किया। आँखों में भी तकलीफ थी। हाइपर शुगर थी। गर्दन  में तकलीफ थी। दवा का काम्बिनैशन करते-करते थक जाते। कई बार जब उनसे हालचाल पूछती – ‘कैसे हैं आप?’ तुरंत जवाब आता – ‘लिख रहा हूँ इसलिए बचा हुआ हूँ।’ सुनकर सुकून होता कि चलो लिखते हुए उन्हें ऑक्सीजन मिलती है। शुरुआत में उन्होंने कविताएँ भी लिखी। प्रसिद्ध अमेरिकी कवियत्री एमिली डिकिन्सन पर तो पीएचडी ही की थी।

कई बार लिखते कि खुद की बीमारी, बाबूजी की देखभाल और एक महिला की तरह घर का पूरा काम करते हुए बहुत थक जाता हूँ। कोरोना काल में ही सभी सहायक आने बंद हो गए। उसके बाद वे ही घर पर साफ-सफाई, खाना-पकाना करते थे। तब महसूस करते और कहते कि अब समझ आता है कि घर पर महिलाओं को कितना काम करना पड़ता है। कोई पुरुष नहीं समझ सकता। वे खुद साफ-सफाई और करीने से काम करने की आदी थे। इसीलिए किचन में बहुत व्यवस्थित ढंग से काम करते और उसमें समय बहुत लगता। नब्बे वर्ष से ज्यादा उम्र के उनके पिताजी एक बच्चे की तरह  हो गए हैं और वैसे ही उनकी देखभाल करना होती है। जब तक अकेले थे तब तो रात को भी जागना होता था, लेकिन बड़े भाई के घर पर आ जाने से रात की पाली बांध लिए थे। रात 10-11 से 3-4 बजे तक वे सोते और उसके बाद उठकर अपना काम निपटाते और इसी बीच लगातार लेख लिखने का काम खींचतान कर पूरा करते।

दिसंबर की बात है। अल्पसंख्यक अधिकार दिवस पर जटिल है असमानता का विमर्श अनेक जगह प्रकाशित हुआ। उसे पढ़कर आजमगढ़ के सबसे उम्रदराज और लंबे समय तक विधायक आलमबदी ने उन्हें फोन कर कहा था कि इतनी बेबाकी से तो कोई मुसलमान भी नहीं लिख सकता। वे इस लेख का पैम्फ़लेट छपवाकर बँटवाना चाहते हैं।  इस बात का तो नहीं पता कि उन्होंने यह काम किया या नहीं लेकिन बहुत से लोग उनके लेख पढ़कर प्रतिक्रिया जरूर देते थे और यही उन्हें प्रेरित भी करता था। उनका कहना था कि समस्या समझेंगे नहीं तो असमानता मिटेगी कैसे। जाति और लिंग तो यहाँ मूल फैक्टर है। केवल तारीफ के फोन ही नहीं बल्कि धमकी भरे फोन भी आए। उन्हें मैं बहादुरनारायण कहती तो हँसते हुए लिखते –बहादुर नहीं हूँ। दूरी के कारण मार खाने से बचा हुआ हूँ।

राजू पाण्डेय का यह भी पढ़िए 
जटिल है असमानता का विमर्श

साल भर पहले उन्होंने बाबूजी और अपनी किताबों का एक वाचनालय बनाने की इच्छा ज़ाहिर की थी। और कहा इस काम को मैं तुरंत कर देना चाहता हूँ, क्योंकि ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं। कुछ लोगों को शायद उन्होंने कहा भी था। किसी को क्या पता था कि हम जो योजनाएं बनाते हैं, उसे पूरा करने के लिए रहेंगे भी या नहीं।

मोदी के अंधभक्तों की ओर से आए वीडियो और फोटो अक्सर मुझे भेजते और दुखी होकर वैचारिक लेखन बंद कर कहते कि लुगदी साहित्य का जो विशद अध्ययन मैंने किया है वह अब गुलशन नंदानुमा कोई उपन्यास या कोई क्राइम थ्रिलर लिखने में काम आएगा। बीच-बीच में इतने निराश हो जाते कि खुद को खत्म कर लेने का बात कहते या मेसेज करते। ऐसा दो-तीन बार हुआ। रामजी और मैंने तुरंत फोन कर उन्हें समझाया और डांटा भी। वे हँसते हुए मुझे चिढ़ाते हुए कहते आपकी डांट से बहुत घबराता हूँ। मैं भी मजे लेती। बाद में बड़े भावुक होकर मेसेज करते कि आप लोग कितना स्नेह करते हैं। सच तो यही है कि हम उन्हें बहुत स्नेह करते थे और वे भी। वे ध्यान भी बहुत रखते थे। मुझे लगता है उनमें एक गहरा मृत्युबोध था। किसी की कॉल मिस हो जाने पर तुरंत घबराकर मेसेज करते। उन्हें लगता कि फोन नहीं उठाया, लगता है कोई बात हो गई।

कभी हम तनिक सी भी तबीयत सही नहीं होने की बात करते तो तुरंत दवा बताते। वे मेडिसिन के अच्छे जानकार थे, क्योंकि अपनी बीमारी को लेकर उन्होंने दवा के बारे में बहुत पढ़ा था। राजू एक व्यक्तित्व की कई परतें थीं। रामजी हमेशा उनके स्वास्थ्य और शारीरिक ढाँचे को लेकर चिंतित रहते। मुझे भी लगता कि काश वे थोड़ा स्वस्थ रहते तो कुछ और बात होती। लेकिन राजू इन परेशानियों से ऊपर एक खिलंदड़ा और मज़ाकिया स्वभाव भी रखते थे। एक दिन मैंने पूछा कि क्या कर रहे हैं तो लिखा कागज़ी गोले दाग रहा हूँ। एक दिन 12 मई 2020 को लिखा – आपके प्रेरणास्रोत जननायक परम आदरणीय जी राष्ट्र को आज रात्रि 8 बजे संबोधित करेंगे। रोमांच के मारे मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए हैं। आह! हम भटकते लोगों को रास्ता वही तो दिखाएंगे। बोलिए नमो नमो!! उफ़, यह घड़ी इतनी धीमी क्यों चल रही है।

लेकिन वे जिन परेशानियों से जूझ रहे थे वे मुसलसल बनी हुई थीं। वे लगातार थक रहे थे लेकिन निर्विकल्प थे। हालचाल पूछने पर निराशा में कहते यह जीना भी कोई जीना है टाइप की ज़िंदगी है। बस चल रहा है। कभी-कभी लगता है देह त्याग करने का समय आ गया है। लेकिन असल में राजू बहुत बेचैन थे। उन्हें अपनी इस बेचैनी से निज़ात पाने का एकमात्र रास्ता लेखन दिखता था और यह उन्होंने मृत्यु के दो दिन पहले तक जारी रखा। एक शाम पहले वे अपने दोस्तों से दुनिया भर के विषयों पर बात कर आए थे।

अगोरा प्रकाशन से प्रकाशित राजू पाण्डेय की किताब हमें तुम जैसा नहीं बनना

अगोरा प्रकाशन से आई उनकी पहली किताब तुम जैसा नहीं बनना। इसकी भी कहानी है। लेख लगातार वे भेजते रहते थे पढ़ने के लिए क्योंकि उन दिनों हमारी वेबसाइट नहीं थी। एक दिन रामजी ने ही कहा कि क्यों न इन लेखों को संग्रहीत कर राजू की एक किताब छाप दी जाए। मैंने उनसे जिक्र किया। उन्होंने साफ मना कर दिया। कहा – ‘मुझे कौन पहचानता है और कौन पढ़ेगा मेरे लेख? वैसे भी लोग आज कल कम पढ़ते हैं। और मेरी ऐसी आदत भी नहीं कि छपने के बाद झोले में किताब रख सबको बांटता फिरूँ। कोई फायदा नहीं।’ बात आई गई हो गई। रायगढ़ जाने पर उनसे मुलाकात हुई। तब मैंने उन्हें फिर कहा तब भी वे टाले लेकिन कई बार बोलने और झगड़े के बाद उनसे मैंने कहा कि चुपचाप आप मेल कर दीजिए सारे लेख। फिर हम देखेंगे क्या करना। उन्होंने लगभग दो किताबों का मैटर हमें भेजा। आने के बाद तीन-चार माह हम भी किसी दूसरे काम में उलझे रहे। उन्होंने कभी नहीं पूछा कि लेखों का क्या कर रहे हैं। भेजा और भूल गए। तीन-चार माह बाद उनके लेख खोले गए लेकिन सभी अलग-अलग मुद्दों में से स्त्री विमर्श वाले लेखों को छाँटकर एक किताब बनाई और नाम रखा – तुम जैसा नहीं बनना

राजू के लेखन की रेंज बहुत है। समकालीन जीवन को प्रभावित करने वाला कोई भी मुद्दा उनसे छूटता नहीं था। लेकिन किताब को लेकर इतने उदासीन थे कि 800 शब्द की भूमिका लिखने में 80 दिन लगा दिए, और जब उन्हें बहुत फोन किया और नाराजगी ज़ाहिर की। अंत में तो व्हाट्सअप पर उलटी भाषा में उन्हें लिखा गया। तब जाकर उन्हें कुछ समझ आया और लिखकर भेजे। किताब छपकर आने के बाद उनकी खुशी देखने लायक थी। हम दोनों को बहुत अच्छा लगा। अक्सर उनके जीवन की अनिश्चितता को लेकर हम सशंकित रहते थे इसीलिए उनका काम जल्द से जल्द करना चाहते थे।लेकिन उनकी किताब पर एक शानदार विमोचन का कार्यक्रम रायगढ़ में करना चाहे थे, वह नहीं कर पाए, जिसका अफसोस हमेशा रहेगा।

इधर 21,22 और 23 अक्टूबर को लगातार तीन दिन बातचीत हुई। बीमारी और काम की थकान को लेकर लगातार परेशान थे। लेकिन गांधी और सावरकर पर एक किताब तैयार करने में लगे हुए थे। मुझसे बात किए और पूछा कि क्या आप लोग इसे प्रकाशित करेंगे। मैंने कहा भेजिए जल्दी। लेकिन कोई एक अध्याय अधूरा था। जिस पर तुरंत लगकर लिखने की बात कही। हालांकि इसके पहले भी इस किताब को लेकर रामजी ने उन्हें कहा था कि जल्दी लिखकर दीजिए हमें, यहाँ से छाप देंगे। एक किताब आ जाने से उनमें एक उत्साह आ गया था। एक अध्याय में फिनिशिंग देना था, जिसे ठीक करने में वे तुरंत लग गए थे। इसीलिए इन 5-6 दिन मैंने कोई फोन नहीं किया, हाँ दिवाली के दिन उनका मैसेज जरूर आया था।

यह तो बहुत अच्छा हुआ कि पिछली बार मार्च में घर जाने पर गाँव के लोग यूट्यूब चैनल के लिए उनसे बातचीत की। बहुत उत्साहित थे। नफरत के प्रचारकों ने सत्ता पर कब्जा कर लिया है विषय पर उनसे बातचीत की। वे बहुत से मुद्दों पर बात करना चाहते थे। लेकिन समय कम था और अगली बार के लिए भी कुछ छोड़ना था, यह सोचकर रह गई। और बात रह ही गई।

यह भी देखिये –

जीवन जीने की जीवटता ही थी कि निराश होने के बाद भी अपने रुचि के काम के प्रति कभी बेईमान नहीं रहे। आलोचना करने में उस्ताद थे लेकिन खुद की आलोचना भी तटस्थ रहते हुए निर्ममता से करते। घूमने की ललक हमेशा रही लेकिन खुद के साथ पिताजी की देखरेख उन्हें रोक देती थी। खाने के शौकीन लेकिन बीमारी ने परहेज में बांध दिया था। मार्च में जब मुझसे मिलने आए तो बाहर आँगन में घर पर बनी रखिया बड़ी (कहंरौरी) सूख रही थी, जिसके बारे में मुझसे पूछा। मैंने पूछा ले जाएंगे। तुरंत कहा ‘हाँ दे दीजिए। बरसों हो गए घर की बनी बड़ी खाए। बाजार वाले में घर जैसा स्वाद कहाँ होता है।’ मैंने उन्हें दिया। और बनाने के बाद उन्होंने तस्वीर भेजी – जिसमें लिखा था – ‘मास्टर शेफ आरपी द्वारा बनाई जा रही आलू बड़ी की एक्सक्लूसिव तस्वीर।

मेरे द्वारा किसी भी काम करने की सूचना उन्हें मिल भर जाए तो खुद फोन कर दस निर्देश दे देते और मदद करते। साथ ही जो काम किया उसका सही विश्लेषण करते। रामजी के बाद वे एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो आलोचना करते। उत्साह तो बढ़ाते ही। दो आलोचकों में से एक चला गया। पता नहीं और किसी से अपनी व्यक्तिगत परेशानियों, जीवन और भूतकाल के बारे में कोई बात शेयर करते थे या नहीं लेकिन मुझसे बहुत सी बातें उन्होंने साझा की थी।

उनकी किताब आने के बाद मैंने भोर में चार बजे उन्हें उसका अमेजॉन लिंक भेजा। वे जाग रहे थे और कहा ‘अदरक वाली चाय पी रहा हूँ और पत्ता गोभी काटने की तैयारी कर रहा हूँ।’ फिर बोले – जल्दी ही झाड़ू-पोंछा भी करना है। किताब पर तो पता नहीं, लेकिन झाड़ू मारने के लिए कोई पुरस्कार हो तो जरूर जीत जाऊंगा।’

पता नहीं क्यों, लगता है कि राजू का कोई मैसेज आएगा। लगता है अभी फोन आएगा। लगता है कि अभी रायगढ़ और बनारस में राजू की किताब पर कार्यक्रम कराना है। लगता है राजू ने वह मौका छीन लिया है कि हम कुछ ऐसा कर पाते और उन्हें थोड़ी खुशी मिलती!

अपर्णा रंगकर्मी और गाँव के लोग की कार्यकारी संपादक हैं।

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