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काक चेष्टा भंगिमाओं की मोरपंखी कहानियाँ

बिसराम बेदिया मरता नहीं है, मरकर जीवित हो जाता है, सोगराम बेदिया के रूप में। सोगराम में आ जाती है बिसराम की आत्मा….। जैसे बिसराम में छटपटाती है आलसाराम की आत्मा और आलसाराम में  बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू की आत्मा मौजूद रहती है। वह हुंडरु से लेकर दशम तक हो हो… हूल, हूल करके दौड़ता है, […]

बिसराम बेदिया मरता नहीं है, मरकर जीवित हो जाता है, सोगराम बेदिया के रूप में। सोगराम में आ जाती है बिसराम की आत्मा….। जैसे बिसराम में छटपटाती है आलसाराम की आत्मा और आलसाराम में  बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू की आत्मा मौजूद रहती है। वह हुंडरु से लेकर दशम तक हो हो… हूल, हूल करके दौड़ता है, अपने जल-जंगल और जमीन को बचाने के लिए, पत्थरों पर अपने अधिकार की मुनादी करता है। वह अपने सामने अपने पुरखों की पहचान, परंपरा और जीवनाधार को लूटते, उजड़ते नहीं देखना चाहता है। लेकिन सोगराम के बाद जल, जंगल, जमीन और अपनी परंपरा के प्रति यह प्रेम, यह पहचान, यह संघर्ष, यह हूल कब तक चलेगा, यह कहना मुश्किल है। कहते हैं, आदिवासियों से उसका जंगल छीन लो, उनके पहाड़, उनके देवी-देवता, विश्वास, परंपरा छीन लो तो आदिवासी अपने आप खत्म हो जाएंगे। आज उनके जीवन के ये सभी आधार छीने जा रहे हैं, कुछ प्रत्यक्ष कुछ अप्रत्यक्ष। प्रश्न है कि सोगराम या उस जैसे लोग कब तक इसके विरुद्ध लड़ पाएंगे, कब तक इन्हें बांस-बल्ली घेरकर, पत्थलगड़ी कर बचा पाएंगे? कमलेश के नवीन कहानी संग्रह पत्थलगड़ी की इसी शीर्षक की  कहानी इस विषय की बहुत ही मार्मिक एवं भावनात्मक एवं विमर्शमूलक प्रस्तुति करती है। यह कहानी न केवल वर्तमान में आदिवासियों के ऊपर उत्पन्न खतरे के प्रति आगाह करती है बल्कि आने वाले समय में आदिवासियत के विनाश के प्रति भी सचेत करती है।

कमलेश के पहले कहानी संग्रह दक्खिन टोला के बाद उनका दूसरा संग्रह पत्थलगड़ी हाल ही में प्रकाशित होकर आया है। अपने पहले संग्रह की कहानियों से ही कमलेश ने अपने तेवर स्पष्ट कर दिए थे एवं एक कथाकार के रूप में स्वयं को सुस्थापित भी कर लिया था। प्रस्तुत संकलन में कुल दस कहानियाँ संकलित की गयी हैं, जिनमें कम से कम तीन कहानियाँ, झारखंड की पृष्ठभूमि में रची गयी हैं।

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कमलेश एक पत्रकार हैं और फिलहाल राँची में एक अखबार के समाचार संपादक हैं। घटनाओं को देखने की जो दृष्टि उनके पास हैं वह अक्सर चकित करती है। अपनी कहानियों के पात्रों की भाषा, प्रतिक्रिया, उनके व्यवहार, विचार, परंपरा, शोषण, प्रतिरोध और अन्याय सबका बहुत ही सूक्ष्म अवलोकन कमलेश करते हैं और उनकी कहानियों में ये उत्कृष्ट शिल्पगत विशेषताओं के साथ दर्ज होते हैं। झारखंड पृष्ठभूमि की कहानियों, खिड़की, पत्थलगड़ी और भाई में कमलेश के इन गझिन ओब्जर्वेशन को देखा जा सकता है। उनकी कहानियों में लोक जहाँ अपने विविधवर्णी रूप में उपस्थित होता है वहीं उनका वैचारिक ताप भी प्रखरता से अनुभव होता है।

कमलेश की कहानियों की गत्यात्मकता, कथ्य  की सरलता पर सम्मोहन की हद तक की रोचकता पाठकों को बांधती है। कमलेश जो भी विषय उठाते हैं, जो  पात्र गढ़ते हैं, जो कथ्य रचते हैं, वे कभी भी उनके लेखकीय दायित्व और उद्देश्य की सीमा का उल्लंघन नहीं करते हैं। कमलेश अपने पात्रों के साथ भावनात्मक रूप से जुडते हैं एवं भावनाओं की इस तरलता को हम उनकी कहानियों में अनुभव कर पाते हैं।

यूँ तो संकलन की कहानियाँ वैविध्यपूर्ण है, पर सभी कहानियों का अंतरलोक पाठकों को किसी जादुई यथार्थ के बजाए समाज की रोज की घटनाओं, जिसे हम अक्सर अखबारों में पढ़कर नजरंदाज कर देते हैं की कठोर सच्चाई से जोड़ता है। ये कहानियाँ अमूर्तन के ढांचे पर खोखला संसार नहीं रचती है, बल्कि साधारण और रोज़मर्रा की घटनाओं में असाधारण तत्वों का चुनाव करती है एवं यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़ी होती हैं।

संकलन की पहली कहानी अघोरी अपनी अद्भुत गत्यात्मकता के लिए अलग से रेखांकित की जा सकती है। इस कहानी के आरंभ में बक्सर जिले के एक छोटे से बरुना  स्टेशन का जो दृश्यचित्रण है, वह कहानी की ऐसी बुनियाद रखता है, जिसपर खड़े होकर पाठक लौटने की सोचता भी नहीं है बल्कि पंक्ति दर पंक्ति आगे बढ़ती कहानी के आकर्षण से बंधा रहता है। एक अत्यंत क्रोधी स्वभाव के विख्यात अघोरी के जीवन का जब सच सामने आता है तो पाठक का मन अघोरी के प्रति द्रवित हो उठता है। पत्थर मारने वाला और गलियाँ देने वाला अघोरी भीतर से कितना टूटा, बिखरा और अकेला है! इस कहानी के अंत तक क्लाइमैक्स को कहानीकार जिस तरह पकड़कर रखते हैं एवं पाठक के लिए हर पल कुछ नया मोड़ सामने आने की संभावना बनी रहती है, वह इस कहानी को विशिष्ट बनाती है।

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इस संकलन की चार कहानियाँ पत्थलगड़ी, बाबा साहब की बांह, खिड़की एवं भाई विमर्शमूलक कहानियाँ होती  हैं। लेकिन यह कमलेश के लेखन की विशेषता ही कहेंगे कि किसी विशिष्ट विमर्श को अभीष्ट कर रची गयी कहानियों में भी विमर्श कभी कथ्य पर हावी नहीं होता एवं लेखक की वैचारिकी  कहानी को हाइजैक नहीं करती है, जैसा कि विमर्शवादी कहानियों में अक्सर देखा जाता है। खिड़की कहानी, झारखंड के आदिवासी परिवेश में पोलिसिया दमन की एक बेहतरीन कहानी है। थाने की वह खिड़की जिससे जिससे सुभरन मुंडा उचक-उचक कर बाहर अपनी स्त्री को देखने की कोशिश करता है, एक प्रतीक बन कर उभरता है। वह खिड़की महज एक खिड़की नहीं जिससे, हवा और रोशनी आती है बल्कि स्वतंत्रता का द्योतक है, जिससे सुभरन मुंडा अपनी आजादी के सपने देखता है।

कमलेश अपनी कहानियों में लोकजीवन के कलात्मक एवं सरस पक्ष को भी प्रदर्शित करते हैं साथ ही लोक से जुड़े लाज यानि लोकलाज की प्रचलित प्रतिगामी प्रवृतियों के कारण लोक कलाकारों की बेबसी, बेचैनी, उनकी पीड़ा और जीने के संघर्ष की दारुण गाथा  को भी मार्मिक रूप से सामने लाते हैं। कमलश भोजपुरी भाषा-भाषी क्षेत्रों में प्रचलित लौंडा नाच और इससे जुड़े कलाकारों, परंपराओं की गहरी समझ रखते हैं और इनके प्रति संवेदनशील भी है। लौंडा नाच करने वाले आदमियों की मानसिक दशा, समाज का उसके प्रति रवैया, उनके संघर्ष और द्वन्द्व का जैसा चित्रण कमलेश करते हैं, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता है। इस संग्रह की कहानी प्रेम अगिन में इसी विषय वस्तु को केंद्रगत रखकर रची गयी है। इसके पहले भी इस विषय पर हम कमलेश की कहानी अचरा पर लौंडा नाच पढ़ चुके हैं, जो अपनी तरह की अनूठी कहानी थी।

लाल कोट और  रिजल्ट सहज मानवीय संवेदनाओं की कहानियाँ हैं। लाल कोट में एक पचास वर्षीय व्यक्ति एक युवा लड़की के प्रति जब आकर्षित होता है तो उस लड़की की हर गतिविधि का प्रयोजन उसे अपने इर्द-गिर्द ही घूमता प्रतीत होता है। जीवन की नीरसता, अनुत्साह अचानक प्रेम के वशीभूत आनंद और उत्साह में परिणत हो जाता है, लेकिन जब सच्चाई पता चलती है तो…!!! सच्चाई पता चलने पर भी पाठक ठगा महसूस नहीं करता बल्कि उस व्यक्ति के प्रति करुणा से भर जाता है, और उस व्यक्ति के कृत्य को सहज मानवीय स्वीकृति मिल जाती है। इसी तरह रिजल्ट कहानी में एक रिटायर्ड व्यक्ति जब अपने जीवन के अकेलेपन से, परिवार की उपेक्षा से  ऊब जाता है तो एक औरत से ब्याह करने का निर्णय लेता है, जिसपर उसके पुत्र एवं पुत्रवधू उसका परित्याग कर देते हैं। उसकी लाख कोशिशों के बावजूद उससे कोई संबंध नहीं रखते। लेकिन इसके बावजूद जब उस वृद्ध को पता चलता है कि उसके पोते का रिजल्ट आने वाला है, तो वह रिजल्ट जानने के लिए व्यग्र हो उठता है। लाल कोट और रिजल्ट कोई ऐसी कहानी नहीं जो बिल्कुल किसी सर्वथा नवीन या अपरिचित बुनियाद पर रची गयी हो बल्कि समाज में ऐसे कई उद्धरण हम अक्सर देखते हैं, लेकिन इन कहानियों को कहानीकार जिस तरह से बरतता है, जिस तरह कहानी का पाठक के साथ कनेक्ट बनता है, वह इन्हें विशिष्ट बना देता है और पाठक के मन-मस्तिष्क पर इसकी लंबी छाप रहती है।

संकलन की कहानी बोक्का का प्रारंभ तो एक नैसर्गिक, युवा मन के स्वाभाविक प्रेमाकर्षण से होती है लेकिन आगे बढ़ती हुई कहानी भारतीय समाज की फूहड़ विडंबनाओं का बहुत ही खूबसूरत चित्रण करती है। जाति और धर्म के झगड़े, इनके शोषण से समाज को बचाने की बातें करने वाले, जीवन पर्यंत इसी की राजनीति करने वाले, क्रांति-क्रांति का जाप करने वाले, परिवर्तन का आह्वान करने वाले, कौमुनिस्ट तिवारीजी की अपनी बेटीकी जब बात आती है तो कैसे अपनी सारी प्रगतीशीलता के पाखंड का आवरण उतार फेंकते हैं और समाज की जड़ता के फंदे में अपनी बेटी के प्रेमी का गला घोंट देते हैं, यह कहानी बड़े ही रोचक एवं मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती है। कहानी में वर्णित तिवारीजी का आचरण और उनका कृत्य कोई अस्वाभाविक घटना नहीं, बल्कि समाज की वास्तविकता ही है, जिसके कथ्य, पात्रों एवं कथोपकथन को कहानीकार ने  समाज के बीच से बड़ी खूबसूरती से उठाया है। इस कहानी के माध्यम से कहानीकार समाज, राजनीति और साहित्य के एक बड़े एवं कड़वे सत्य को निरावृत कर देते हैं।

हाल के दिनों में हमने देखा है कि देश के बैंकों से बड़ी कंपनियां हजारों-करोड़ रुपये के कर्ज लेकर चंपत हो जा रही हैं। उनसे किसी भी रूप में इन ऋणों की वसूली संभव नहीं होती है। लोन लेने वाले विदेशों में जा बैठते हैं। देश की जनता उनके कृत्य पर अचंभित रहती है और सरकारी मशीनरियाँ किंकर्तव्यविमूढ़। लेकिन छोटे-छोटे लोन की वसूली बैंक बहुत ही कड़ाई से करती है। वसूली के लिए बैंक के कर्मचारी लोन लेने वालों के घर तक पहुँच जाते हैं एवं उन्हें सामाजिक अपमान और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। कई जगह तो वसूली के लिए अपराधियों का भी सहयोग लेने की बात सामने आती है। इस संकलन की कहानी कर्ज पलामू के एक सीमांत किसान के कर्ज के जाल में फँसने की एक ऐसी ही मार्मिक कहानी है, जिसे पढ़कर व्यवस्था के प्रति गुस्सा तो आता ही है, कुछ नहीं कर पाने की अपनी बेबसी और लाचारगी पर रंज भी होता है। इस कहानी में कहानीकार जो दृश्य उत्पन्न करते हैं, बैंककर्मी तिवारीजी के डाल्टेनगंज से बरियारपुर गाँव तक पहुँचने का फ्रेम दर फ्रेम जो चित्रण है एवं कहानी जिस तरह आगे बढ़ती है वह इस कहानी को विशिष्ट बनाता है एवं कहानी मन पर देर तक प्रभाव डालती है।

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कमलेश का यह संकलन अपनी कहानियों की सहज भाषा, लोकरंग के नैसर्गिक चित्रण, वैचारिक ताप, साधारण में असाधारण ढूंढ लेने की कला, उत्कृष्ट कथ्य, प्रवाह एवं रोचकता के कारण एक अवश्य पठनीय संकलन है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि यह संकलन हिंदी कथा साहित्य में उन्हें उनका उपयुक्त स्थान प्रदान करेगा एवं पत्थलगड़ी आंदोलन जो झारखंड में आदिवासियों के अधिकारों के बचाव के प्रतीक के रूप में उभरा था लेकिन लघुजीवी रहा, इस संकलन के शीर्षक की वजह से याद किया जाएगा।

संकलन सेतु प्रकाशन से प्रकाशित है, कुल 190 पृष्ठों की इस पुस्तक की कागज की गुणवत्ता एवं प्रिंटिंग प्रशंसनीय है।

नीरज नीर राँची निवासी  समालोचक हैं। 

पुस्तक का नाम : पत्थलगड़ी और अन्य कहानियाँ

मूल्य : 250 रुपये

प्रकाशक : सेतु प्रकाशन

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