सवर्ण आरक्षण पर फैसले से आहत होने की बजाय वंचना के खिलाफ समग्र संघर्ष की जरूरत है

एचएल दुसाध

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सवर्ण आरक्षण पर हिंदू जजों के अन्यायपूर्ण फैसले से ढेरों बहुजन बुद्धिजीवी आहत व विस्मित हैं, पर मैं नहीं! यही नहीं सदियों से आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक इत्यादि विविध क्षेत्रों में हिंदुओं अर्थात् सवर्णों ने शुद्रातिशूद्रों और महिलाओं के खिलाफ एक से बढ़कर एक अन्याय का जो अध्याय रचा है, उनसे भी विस्मित नहीं होता, क्योंकि मैं इनकी समस्त गतिविधियों को मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के नज़रिए से देखता हूं। वास्तव में मानव ही नहीं, प्राणी मात्र में जो सतत संघर्ष चलता रहा है, उसे यदि मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के नजरिए से देखें तो जानवरों द्वारा जानवरों का भक्षण, मानव जाति द्वारा उपभोग के साधनों पर कब्जे के लिए किये गए हर कृत्य में मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत की क्रियाशीलता नजर आएगी। वर्ग-संघर्ष की व्याख्या के क्रम में मार्क्स द्वारा कही गई यह बात हर पढ़े-लिखे व्यक्ति के जेहन में होगी कि दुनिया का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है: एक वर्ग वह है जिसका उत्पादन के साधनों (दुसाध के शब्दों शक्ति के स्रोतों) पर कब्जा है, दूसरा वह है जो इससे वंचित व बहिष्कृत (exclude) है। इन दोनों में दुनिया में सर्वत्र ही सतत संघर्ष चलते रहता है। प्रभुत्वशाली वर्ग अपने प्रभुत्व (Dominance) को बनाए रखने के लिए राज्य का इस्तेमाल करता है।

वास्तव में मानव मानव के मध्य सारा संघर्ष conflict उपभोग (जीविकोपार्जन) के साधनों पर कब्जे के लिए, इस बात को दुनिया के तमाम प्रभुत्वशाली वर्गों में जिसने सर्वाधिक आत्मसात किया: वह हिंदू अर्थात सवर्ण रहे। इसलिए सवर्णों ने उपभोग के साधनों: शक्ति के स्रोतों पर कब्जा जमाने के लिए जिस तरह नैतिक और अनैतिक रास्तों का अवलंबन किया, वैसा कोई अन्य प्रभुत्वशाली वर्ग नहीं कर पाया। इस कारण भारत का सवर्ण समुदाय एक ऐसे विरल प्रभु वर्ग में विकसित हुआ है, जिसमें जियो और जीने दो की भावना न्यूनतम स्तर की रही।

मोदी ने सत्ता में आने के बाद मंदिर आंदोलन से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार कायम करने और आरक्षण पर निर्भर वर्ग शत्रु: बहुजनों को फिनिश करने में किया है। इसीलिए उन्होंने देश की उन तमाम संस्थाओं को निजी क्षेत्र के जरिए अल्पजन सवर्णों के हाथ में देने के लिए सर्वशक्ति लगाया जहां उनके वर्ग शत्रुओं आरक्षण मिलता रहा।

वर्ग संघर्ष की विरल सोच के कारण ही स्वाधीन भारत के सवर्ण शासक डॉक्टर आंबेडकर की कड़ी चेतावनी के बावजूद भारत से मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या: आर्थिक और सामाजिक विषमता के उत्खात में कोई रुचि नहीं लिए।क्योंकि इसके लिए सवर्ण, एससी/ एसटी, ओबीसी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्त्री-पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों का वाजिब बंटवारा करना पड़ता और ऐसा करने पर सवर्णों का उपभोग के साधनों पर एकाधिकार नहीं हो पाता। यह वर्ग सिर्फ अपने एकाधिकार का आकांक्षी रहा है, इसलिए जब 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट के जरिए सरकारी नौकरियों में एकाधिकार टूटने की आशंका दिखी, इसका हर तबका: छात्र और उनके अभिभावक, हरि भजन में निमग्न साधु-संत, राष्ट्र के विचार-निर्माण में लगे लेखक-पत्रकार और धन्ना सेठों के साथ इनके तमाम राजनीतिक दलों ने जिस रवैए का परिचय दिया, दुनिया के इतिहास में उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है!

लोग भूले नहीं होंगे कि मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही भारत के ज्ञात इतिहास में एक अभिनव स्थिति पैदा हो गई। क्योंकि इससे सदियों से शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार जमाए विशेषाधिकारयुक्त सवर्णों का वर्चस्व टूटने की स्थिति पैदा हो गई। इस रिपोर्ट ने जहां जन्मजात सुविधाभोगी सवर्णों को सरकारी नौकरियों में 27% अवसरों से वंचित कर दिया, वहीं इससे दलित, आदिवासी, पिछड़ों और इनसे धर्मांतरित तबकों में जाति चेतना का ऐसा लंबवत विकास हुआ कि सवर्ण राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील हो गए। कुल मिलाकर मंडल से एक ऐसी स्थिति का उद्भव हुआ, जिससे वंचित वर्गों की स्थिति अभूतपूर्व रूप से बेहतर होने के आसार पैदा हो गए। ऐसा होते ही सवर्ण वर्ग के बुद्धिजीवी, मीडिया, साधु-संत, छात्र और उनके अभिभावक और दौलतमंदों सहित तमाम सवर्णवादी राजनीतिक दल अपना कर्तव्य स्थिर कर लिए और आरक्षण के खात्मे में जुट गए। इसके पीछे सिर्फ एक ही कारण था- वर्ग संघर्ष के सोच की क्रियाशीलता!

अपने वर्गीय सोच के हाथों विवश होकर सवर्ण छात्र जहां आत्मदाह से लेकर संपदा दाह में जुट गए, वहीं राष्ट्र के विचारों का निर्माण करने वाले  तमाम लेखक पत्रकार आरक्षण के विरुद्ध फिजा बनाने में कलम तोड़ने लगे। लेकिन वर्ग संघर्ष में वर्ग शत्रुओं को नेस्तनाबूद करने के लिए साधु-संतों ने जिस भयावह वर्गीय चेतना की मिसाल पेश की, वह मानव सभ्यता के इतिहास की सबसे विरल घटनाओं में दर्ज हो गया।

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भारतीय साधु-संत सदियों से जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य में विश्वास करते हुए जागतिक समस्यायों से निर्लिप्त रहे। इसलिए हजारों वर्षों तक मुस्लिम शासन में चली हिंदुओं की गुलामी के खिलाफ मुखर होने के बजाय वे हरि भजन में निमग्न रहे। बेशक अंग्रेज भारत में जन्मे स्वामी दयानंद, विवेकानंद, ऋषि अरविंद जैसे हिंदू शख्सियतों ने ईश्वर भक्ति से ध्यान हटाकर देशभक्ति अर्थात हिंदुओं को गुलामी से मुक्त करने में कुछ ऊर्जा लगाकर अपवाद घटित किया। पर, सहस्रों साल से शंकराचार्य, रामानुज स्वामी, तुलसी और सूरदास, रामदास कठिया बाबा, गंभीरनाथ, भोलानंद गिरी, तैलंग स्वामी इत्यादि जैसे स्टार साधक व उनके अनुसरणकारी सारी समस्यायों से निलिप्त होकर हरि भजन में लगे रहे। किंतु 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होते ही इनकी तंद्रा टूट गई और गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के नाम पर ये संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा के साथ हो लिए, जो आरक्षण के खात्मे के लिए राम मंदिर का आंदोलन छेड़ी थी।

मंडल उत्तरकाल में साधु-संतों ने अपने स्व वर्ण ‘सवर्णों’ के हित में जो राजनीति खेली, उसकी मिसाल संपूर्ण इतिहास में मिलनी मुश्किल है! ऐसा इसलिए कि हिन्दुओं अर्थात सवर्णों में वर्गीय चेतना दूसरी नस्लों से कहीं ज्यादा है। इस चेतना के हाथों मजबूर होकर वे समय-समय पर ईश्वर भक्ति से ध्यान हटाकर गुलामी के प्रतीकों के मुक्ति के आंदोलन में कूदते रहते हैं। अगर साधु-संतों ने सवर्ण हित में जगत मिथ्या, ब्रह्म सत्य की थियरी का मजाक उड़ाया है तो न्यायायिक सेवा पर काबिज सवर्णों ने बार-बार स्व वर्णीय हित में सामाजिक न्याय का गला घोंटा है, जिसका नया दृष्टांत सवर्ण आरक्षण है।

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मोदी ने सत्ता में आने के बाद मंदिर आंदोलन से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ सवर्णों का शक्ति के स्रोतों पर एकाधिकार कायम करने और आरक्षण पर निर्भर वर्ग शत्रु: बहुजनों को फिनिश करने में किया है। इसीलिए उन्होंने देश की उन तमाम संस्थाओं को निजी क्षेत्र के जरिए अल्पजन सवर्णों के हाथ में देने के लिए सर्वशक्ति लगाया जहां उनके वर्ग शत्रुओं आरक्षण मिलता रहा। मोदी की तरह देश बेचने जैसा जघन्य काम विश्व में किसी भी शासक ने अंजाम नहीं दिया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सवर्णों जैसी निर्मम वर्ग चेतना किसी कौम में पैदा ही नहीं हुई। इस कारण ही उन्होंने संविधान का मखौल उड़ाते हुए 2019 के जनवरी में महज एक सप्ताह के भीतर EWS के नाम पर सवर्णों को 10% आरक्षण दे दिया।

यह लोकतंत्र के इतिहास में राजसत्ता के जघन्यतम इस्तेमाल का विरल दृष्टांत था, जिसके खिलाफ सवर्णों का बुद्धिजीवी वर्ग कभी मुखर नहीं हुआ। कोई और देश होता तो वहां के प्रभु वर्ग के लेखक-पत्रकार मोदी सरकार की आलोचना में जमीन-आसमान एक कर देता पर, भारत के प्रभु वर्ग का कलमकार खामोश रहा, क्योंकि इसमें स्व वर्णीय/ वर्गीय चेतना इतनी प्रबल है कि निज वर्ण हित में देश हित और मानवता की बलि देने में इसे रत्ती भर भी विवेक दंश नहीं होता। भारत के बौद्धिक वर्ग के इसी चरित्र का अनुसरण  करते हुए न्यायतंत्र पर काबिज लोगों ने मोदी के फैसले पर समर्थन को मोहर लगा दिया है। अब इस फैसले के खिलाफ वंचित बहुजन समाज के कुछ लोग कोर्ट में जाने का मन बना रहे हैं।

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सवर्ण आरक्षण के फैसले के खिलाफ फिर से कोर्ट का शरणागत होने का मन बनाने वालों की एक बड़ी त्रासदी यह रही कि आदर्श आंबेडकरवावादी बनने के चक्कर में इन्होंने इतिहास को मार्क्स के वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखा ही नहीं। उन्हें लगता है इस नजरिए से भारत के इतिहास को देखने से वे शुद्ध आम्बेडकरवादी नहीं रह जायेंगे। इसलिए उन्होंने स्वाधीन भारत में शासकों की गतिविधियों को वर्ग संघर्ष के नजरिए से देखने का कष्ट ही नहीं उठाया: अगर उठाया होता आज़ाद भारत का इतिहास भिन्न होता! उनके इस भोलेपन का लाभ उठकर भारत का जन्मजात प्रभु वर्ग अपने वर्ग शत्रुओं को प्रायः फिनिश कर चुका है। ऐसे में  शेष होने के कगार पर पहुंचे बहुजन समाज को जिन्हें बचाने को चिंता है, वे यूनिवर्सल रिजर्वेशन अर्थात सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई लड़ने के लिए यूनीवर्सल रिजर्वेशन फ्रंट निर्माण की बात सोचें, जिसके दायरे में होगा भारत के विविध समाजों के स्त्री पुरुषों के संख्यानुपात में  सेना, न्यायिक व पुलिस सेवा के साथ सरकारी और निजी क्षेत्र की समस्त नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म मीडिया, पौरोहित्य, शिक्षण संस्थानों के प्रवेश, अध्यापन इत्यादि सहित ए-टू-जेड हर क्षेत्र! इस लड़ाई का यह एजेंडा हो कि अवसरों और संसाधनों के बंटवारे में पहला अवसर सर्वाधिक वंचित दलित/ आदिवासी महिलाओं और शेष अवसर सर्वाधिक संपन्न सवर्ण पुरुषों को उनकी संख्यानुपात में मिले!

लेखक बहुजन डाइवर्सिटी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।

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