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सामाजिक सरोकार के झंझावात में उलझीं विधवा स्त्रियाँ

पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में औरत का अस्तित्व उसके पति के कारण है। उसका मान-सम्मान, इज्जत, सजना-संवरना, समाज में उसकी हैसियत सभी कुछ पति से जोड़ा गया है। एक औरत का इस समाज में कोई अपना अस्तित्व नहीं है। औरत इस पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखी जाती रही है। […]

पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में औरत का अस्तित्व उसके पति के कारण है। उसका मान-सम्मान, इज्जत, सजना-संवरना, समाज में उसकी हैसियत सभी कुछ पति से जोड़ा गया है। एक औरत का इस समाज में कोई अपना अस्तित्व नहीं है। औरत इस पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में एक उपभोग की वस्तु के रूप में देखी जाती रही है। वह एक ‘मानव’ के रूप में स्वीकार नहीं की गयी है। इसी कारण जब ‘पति’ (मालिक) की मृत्यु हो जाती है तो पत्नी रूपी दासी का अस्तित्व मिटा दिया जाता है। धर्म के नाम पर चित्र-विचित्र कुरीतियों की मनगढ़ंत कहानियों के माध्यम से महिमामंडन कर विधवा स्त्री के जीवन को बदतर बना दिया जाता है। अमूमन, हर राज्य में उच्चवर्ण में अलग-अलग परम्पराएँ विधवा स्त्रियों के लिए प्रचलन में हैं। सिंध प्रांत में जब कोई औरत विधवा होती है तो उसे दुल्हन की तरह सजाकर, उसके मुँह को लाल कपड़े से कसकर बाँधकर, उसे एक अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया जाता है, जहाँ उसे न हवा मिलती है न खाना-पानी। घुट-घुट कर वह दम तोड़ देती है। इसी तरह उत्तर भारत में विधवा स्त्री को तेरहवें दिन दुल्हन की तरह सजाया जाता है। फिर, कई विधवा औरतें आकर उसकी चूड़ियाँ तोड़ती हैं, बाल काटती हैं, सिंदूर धुलती हैं, उसकी चुनरी उतारकर उसे सफेद साड़ी पहनाती हैं। हांड़-मांस की एक हँसती-खेलती औरत जीते जी मुर्दा बना दी जाती है। वह आजीवन यह त्रासद अपसगुन जीने के लिए अभिशप्त होती है।

मुझे आज भी याद है, जब हम लोग उत्तर प्रदेश, इटावा के एक गाँव में रहते थे। हमारी एक सहेली की 12 वर्ष की उम्र में शादी हो गयी थी, हमारी उम्र उससे थोड़ी कम थी। एक दिन साथ खेलते समय, उसके घरवाले उसे उठाकर घर ले गये और उसकी चूड़ियाँ तोड़ दी गयीं, सिंदूर धो दिया गया, उसे बदसूरत बना दिया गया। वह पति, जिससे हमारी सहेली की कभी मुलाकात तक नहीं हुई थी, अभी उसका गौना होना बाकी था। हम सहेलियों ने सोचा कि इन लोगों ने हमारी इस सहेली को बिगाड़कर बदसूरत कर दिया है। हमारे बालमन में यह बात आयी कि हम उसे पहले जैसा ही सुंदर बना देंगे। सभी सहेलियों ने पैसा जमा किया और उसे फिर से चूडियाँ पहना दिया, बिन्दी-टिकुली लगा दिया। फीता लगाकर उसके बाल बाँध दिये। तब हमें यह नहीं पता था कि हम परम्परा तोड़ रहे हैं, या कि किसी प्रथा के विरुद्ध आंदोलन कर रहे हैं। हम बच्चियों ने अपनी सहेली को, जिसे उसके घर वालों ने बिगाड़ दिया था, बस उसे सुधार देने भर का जतन किया था। अब घर के लोगों और पड़ोसियों ने सोचा कि बच्चियों ने ऐसा किया है, तो शायद इसमें भगवान का कोई इशारा हो, उन्होंने उसे वैसे ही रहने दिया और उसकी पढ़ाई जारी रखी। आज हमारी वह सहेली एक स्कूल की प्राचार्या है। अनजाने में किये गये हमारे उस प्रयास से उसकी ज़िंदगी बदल गयी। सोचती हूँ यदि, समाज के सभी लोग इस कुप्रथा के विरुद्ध लड़ने का प्रयास करें, तो शायद समाज से यह कुप्रथा समाप्त हो जाय। मैंने यह लेख लिखने का निर्णय अपनी उसी सहेली की याद में किया है।

[bs-quote quote=”उत्तराधिकार एवं पुत्राधिकार के अंतर्संबंधों के आधार पर वैधव्य के जेंडर पक्ष को और करीब से देखा समझा जा सकता है। यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि पत्नी का सम्मान, उसकी प्रतिष्ठा और उसके अधिकार पति के संरक्षण और उपस्थिति तक ही सीमित हैं। ऐसे कई पहलू देखे जा सकते हैं और इन सबकी अपनी राजनीति और आर्थिकी है। आज के आलोक में विधवा स्त्रियों के सामाजिक सरोकारों का अध्ययन करते हुए न सिर्फ इसके सामाजिक-सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पहलुओं को देखना जरूरी है, बल्कि इनकी राजनीति और आर्थिकी को भी समझना होगा।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

23 जून, 2018 को अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस के मौके पर बोलते हुए भारत के उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडू ने कहा “वैधव्य संभवत: किसी व्यक्ति के जीवन में सबसे दु:खद अवस्था है, फिर चाहे वह पुरुष हो या महिला।” क्या यह बात हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक एवं व्यवाहारिक धरातल पर इतनी ही उचित दिखती है? अतीत से होते हुए मौजूदा दौर तक की यात्रा के किसी भी पड़ाव पर जब-जब हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे तो निश्चित तौर पर इसका जवाब ‘नहीं’ में ही होगा। गौरतलब है कि, भारत सहित दुनिया भर के सामाजिक-सांस्कृतिक-धार्मिक और ज्ञान उत्पादन की पद्धतियों एवं परंपराओं में स्त्री-पुरुष गैर-बराबरी की सिलवटें मौजूद रही हैं, जो आज भी बदस्तूर जारी हैं। हालाँकि, स्थितियाँ पहले से बेहतर हो रही हैं लेकिन कुछ मुद्दों पर ये लिंग आधारित जटिलताएँ सांस्कृतिक रीतियों-मान्यताओं के जरिए लोक चेतना में बहुत गहरे तक समा चुकी हैं और जिनकी कीमत आज भी महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक चुनौतीपूर्ण ढंग से चुकानी पड़ रही है।

भारतीय समाज में महिलाओं के लिए वैधव्य, एक बड़ी त्रासदी के रूप में देखा जाता रहा है। महिलाओं की निजी एवं सार्वजनिक जिन्दगी की खाँचेबंदियों को धार्मिक हलकों के जरिए पुरुषवादी सत्ता-संरचना ने अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति हेतु तय कर रखा है, जो मान-सम्मान, इज्जत, आदर्श एवं परंपराओं के नाम पर पीढ़ी दर पीढ़ी पुष्पित-पल्लवित होती आयी हैं। सती प्रथा के बाद विधवाओं के विरुद्ध होने वाली धर्म आधारित सामाजिक वंचनाएँ महिलाओं के लिए, 19वीं सदी के पहले से लेकर आज तक अमानवीय और निंदनीय है। भले ही आज पहले जैसी स्थितियाँ नहीं हैं। बावजूद इसके उत्तर भारत के कुछ धार्मिक स्थलों जैसे मथुरा एवं बनारस (वाराणसी) में ये महिलाएं बड़ी संख्या में दयनीय स्थितियों में गुजर-बसर कर रही हैं। ऐतिहासिक संदर्भों में जाएँ तो स्पष्ट पता चलता है कि चातुर्वर्णीय हिन्दू सामाजिक संरचना में उच्चवर्णीय महिलाओं को वैधव्य की त्रासदी अपेक्षाकृत अधिक झेलनी पड़ी है। दरअसल, यहाँ महिलाओं के लिए अधिक कठोर नियम-कायदे रहे हैं। लूंबा फाउण्डेशन रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में विधवा महिलाओं की संख्या  2010 में 245 मिलियन थी, जिसमें 2015 तक 9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। ये वे महिलाएँ हैं, जिन्होंने दोबारा विवाह नहीं किया। यह कोई मामूली संख्या नहीं है। बतौर सामाजिक मान्यता भारत में विधवा महिलाओं को पति की मृत्यु का जिम्मेदार माना जाता है और इसके पीछे तमाम सगुन-अपसगुन एवं परंपरागत तर्क दिये जाते हैं तथा ताउम्र इसकी सजा भुगतने के लिए उसे छोड़ दिया जाता है। जबकि अन्य तार्किक अध्ययन इसकी वजहों में विवाह की परस्पर-उम्र में बड़ा अंतर, पुरुषों की तुलना महिलाओं की उच्च जीवन-प्रत्याशा आदि कारणों को मानते हैं। उमा चक्रवर्ती के अनुसार वैधव्य के अनुष्ठानों और समारोहों की प्रक्रिया विधवा स्त्री को यौन मृत्यु देने की सीमा तक हावी होती है। धर्मशास्त्रीय कसौटी की आड़ में सामाजिक एवं सैद्धांतिक संकल्पना से ओतप्रोत गढ़े गये पहचानगत (सिंबोलिक) तत्व विधवा महिलाओं को जनसाधारण से एकदम अलग-थलग कर देते हैं। आज भी विधवा स्त्री को बड़े पैमाने पर रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक गतिशीलताओं, निर्णय के अधिकार सहित कई प्रकार की निहायत जरूरी सहूलियतों में कटौती के साथ समझौता करना पड़ता है।

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भारतीय हिन्दू सांस्कृतिक दायरे में वैधव्य नारी समुदाय के लिए बहुस्तरीय जटिलताओं और मिथ्याभाषी मान्यताओं से भरा पड़ा है। महिलाओं के संदर्भ में हिन्दू धर्मशास्त्रों से लेकर लोक मान्यताओं तक में बहुत सघन विरोधाभास मौजूद हैं, एक तरफ नारी को देवी, लक्ष्मी, भगवती और शक्तिस्वरूपा माना गया है और उसी के समानांतर महिलाओं को अपवित्र, अशुद्ध यहाँ तक कि उन्हें नरक का द्वार तक कहा गया है। ये सारी बातें, मान्यताएँ अथवा प्रचलन में लायी गयी चीजें किन्हीं आकस्मिक घटनाओं का परिणाम नहीं बल्कि, यह पुरुषवादी राजनीतिक सोच का परिणाम हैं और जिनके आर्थिक पहलू भी हैं। उत्तराधिकार एवं पुत्राधिकार के अंतर्संबंधों के आधार पर वैधव्य के जेंडर पक्ष को और करीब से देखा समझा जा सकता है। यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि पत्नी का सम्मान, उसकी प्रतिष्ठा और उसके अधिकार पति के संरक्षण और उपस्थिति तक ही सीमित हैं। ऐसे कई पहलू देखे जा सकते हैं और इन सबकी अपनी राजनीति और आर्थिकी है। आज के आलोक में विधवा स्त्रियों के सामाजिक सरोकारों का अध्ययन करते हुए न सिर्फ इसके सामाजिक-सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पहलुओं को देखना जरूरी है, बल्कि इनकी राजनीति और आर्थिकी को भी समझना होगा। यह पाठ इन्हीं कुछ जरूरी बिन्दुओं के इर्द-गिर्द गुजरते हुए विधवा स्त्रियों के सामाजिक सरोकारों एवं उनसे जुड़े विविध पहलुओं तक पहुँचने के प्रयास का हिस्सा है।

गौरतलब है कि 19वीं सदी भारत सहित पूरी दुनिया के लिए केवल राजनीतिक महत्त्व भर के लिए नहीं बल्कि, महिला अधिकारों एवं नारीवादी विचारों की बुनियादी जमीन तैयार करने के लिहाज से भी बहुत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इसी दौर में फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड एवं रूस के बुद्धिजीवियों-सुधारकों ने महिलाओं के मुद्दों को अपनी बौद्धिक अभिव्यक्ति का केंद्रीय विषय बनाना शुरू किया। यह सदी भारतीय नारीवाद अथवा भारतीय महिलाओं की स्थिति में सुधारों की भी ऐतिहासिक गवाह रही है। स्त्री-शिक्षा, बाल-विवाह, सती प्रथा के विरुद्ध मुहिम, विधवा महिलाओं की स्थिति में सुधार एवं विधवा पुनर्विवाह जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों को 19वीं सदी के भारतीय समाज सुधारकों, पुनरुत्थानवादियों ने बहस का मुद्दा बनाया। 19वीं सदी के आलोक में राधा कुमार लिखती हैं कि भारतीय महिलाओं की स्थिति में सुधार के प्रारंभिक प्रयास पुरुषों द्वारा किये गए। औपनिवेशिक भारतीय भद्रलोक में एक नयी सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हो रहा था, जिसमें महिलाओं की समस्याओं पर मुखरता से बहस शुरू हुई। बंगाल और बंबई प्रेसिडेंसियों में उभर रहे समाज सुधार आन्दोलनों को 19वीं सदी की महत्त्वपूर्ण घटनाओं में शुमार किया जाता है। इन आन्दोलनों ने दकियानूसी पुजारियों, धर्मशास्त्रीय पाखंड और खासकर बंबई में छुआछूत एवं जातिवादी संस्थाओं के विरुद्ध मुहिम छेड़ा। महिला शिक्षा के पक्ष में और सती प्रथा के विरुद्ध राजा राममोहन राय ने, विधवा स्त्रियों के पक्ष में ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने सुधारवादी आंदोलनों की अगुआई की। हिन्दू धर्म में विधवा पुनर्विवाह पर लगे प्रतिबंधों के विरुद्ध 1850 में आंदोलन छेड़ते हुए ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने बांग्ला में एक पुस्तिका भी प्रकाशित की, जिसमें इसे शास्त्रसम्मत बताया गया। ईश्वरचंद्र के इस अभियान को स्थानीय समर्थन भी मिला। ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों और उनके तर्कों को रूढ़िवादी हिन्दुओं के विरोध का सामना करना पड़ा। साथ ही साथ, उन्हें दकियानूसी पंडितों के साथ शास्त्रार्थ भी करना पड़ा लेकिन यह मुहिम उन तमाम महिलाओं की आवाज बनी, जो वर्षों से इस घुटन और त्रासदी को झेल रही थीं। महिलाएँ इस अभियान के पक्ष में अपनी अभिव्यक्तियों का इजहार प्रशस्ति और प्रशंसा गीत-संगीत के माध्यम से करती पायी गयीं। सुमंत बनर्जी इस पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि, विधवाएँ अपने वैधव्य से निकलकर पुनर्विवाह के लिए तैयार थीं और खुशी का इजहार इन गीतों में किया गया (कुमार, 2014, पृ. 41)।

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कानूनी सुधार की याचिकाओं और सुधारवादी अभियानों के चलते वर्ष 1856 में हिन्दू विधवा पुनर्विवाह विवाह पारित किया गया, जिसके जरिये अब विधवा पुनर्विवाह को वैध कर दिया गया था। खासकर उच्च हिन्दू समुदाय की महिलाओं के लिए यह कानून अधिक महत्त्वपूर्ण था। अन्य निम्न हिन्दू जातियों में पहले भी इसको लेकर कोई खास जटिलता नहीं थी। लेकिन इस कानून में महिलाओं के आर्थिक अधिकारों को पेचीदा बनाया गया, जिसकी स्पष्ट रूप से पितृसत्तात्मक पक्षधरता बनती है। कालांतर में इस कानून का कुछ खास असर नहीं दिखा, पुनर्विवाह उस पैमाने पर नहीं हुए। अलबत्ता उन तबकों के लिए पुनर्विवाह की कानूनी शैली और पेचीदगी भरी हो गयी, जिनमें इसकी कोई मनाही ही नहीं थी। इसीलिए इसे कुछ लोगों, यहाँ तक कि कुछ सुधारकों ने इसे ‘मुर्दा पत्र’ की संज्ञा दी (कुमार, 2014) । 19वीं सदी के समाज सुधार आंदोलनों के तात्कालिक संदर्भों में पंडिता रमा बाई का योगदान एवं उनके द्वारा की गयी पितृसत्ता की मुखालिफत बहुत ही क्रांतिकारी रही। उन्होंने अपनी पुस्तक द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन, जो सदी के आखिर में प्रकाशित हुई, के जरिये बाल-विवाह, विधवा-विवाह एवं हिन्दू महिलाओं की व्यापक समस्याओं पर एक बहस की जमीन तैयार की। बंगाल में ब्रह्म समाज, महाराष्ट्र में प्रार्थना समाज और उत्तर भारत में आर्य समाज को 19वीं सदी के भारतीय समाज सुधार आंदोलन और हिन्दू धर्म सुधार प्रयासों का ऐसा तीन प्रमुख केंद्र माना जाता है, जहाँ से  रूढ़िवादी, दकियानूसी खयालों और उसमें अभ्यासरत हिन्दू कुलीनतंत्र को चुनौती देते हुए एक आधारभूमि तैयार की गयी।

वास्तव में विधवा-विवाह की प्रथा शूद्र और अछूत समाज की समस्या नहीं थी। यह समस्या ब्राह्मण और राजपूत आदि तथाकथित उच्च जातियों की थी, जो अपने समाज की विधवाओं को पुनर्विवाह करने की अनुमति नहीं देते थे। शास्त्र के अनुसार पति की मृत्यु के बाद विधवाओं को अपने बाल कटवाने पड़ते थे। ऐसा न करने पर ब्राह्मण पुरोहित उनके घर में कोई संस्कार नहीं करवाते थे। बेशक विधवा विवाह की समस्या सवर्णों से संबंधित थी, फिर भी ब्राह्मणी व्यवस्था की अमानवीयता, अनैतिकता, अधार्मिकता, बर्बरता को देखकर फुले दंपति का करुणामय हृदय द्रवित हो गया। महात्मा फुले ने विधवा -विवाह का खुलकर समर्थन किया। दीनबंधु  नामक समाचार पत्रिका में विधवा-विवाह के विज्ञापन देते थे। समाज में व्याप्त ब्राह्मणवादी मान्यताओं को ठोकर मारते हुए, मानवीय भावनाओं से सराबोर होकर सन 1864 में फुले दंपति ने एक वैष्णवी विधवा का पुनर्विवाह करवाया। उन्होंने हिन्दुओं के उच्च वर्ण में विधवा होने के बाद स्त्रियों के बाल मुंडवाने के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया। इसके लिए उन्होंने नाइयों का आंदोलन और हार्दिक अभिनंदन किया। विधवा औरतों से उनके ही सगे-संबंधी अनैतिक संबंध बनाते और जब वह गर्भवती हो जाती तो उसे छोड़ देते। फुले दंपति ने अपने ही घर एक बालहत्या प्रतिबंधक गृह भी शुरू किया। कोई भी विधवा यहाँ आकर बच्चे को जन्म दे सकती थी। उस विधवा का नाम गुप्त रखा जाता था। बालहत्या करने से कई विधवाओं को उन्होंने रोका। ऐसी ही एक ब्राह्मण विधवा काशीबाई थी, जो अवैध गर्भ के कारण नदी में कूदकर आत्महत्या करना चाहती थी। फुले दंपति ने उसे ऐसा करने से रोका और अपने घर में पनाह दी। उसके पुत्र को गोद लिया, उसका नाम यशवंत रखा और पाल-पोसकर उसे डॉक्टर बनाया। फुले अच्छी तरह जानते थे कि, सवर्ण लोग विधवाओं को संपत्ति नहीं देना चाहते। इस कारण पति के मरने के बाद संपत्ति में हिस्सा न देना पड़े, इसलिए ब्राह्मणों ने इस प्रथा को जायज ठहराने के लिए अनेक किस्से गढ़ लिये थे। अनेक ब्राह्मण इन विधवाओं से व्याभिचार कर, उन्हें गर्भवती बनाकर बेसहारा छोड़ देते थे। उन दिनों विधवा-विवाह पर रोक होने से पूना और आसपास के क्षेत्रों में सैकड़ों बच्चों की हत्या कर दी जाती थी। इसे रोकने के लिए फुले ने विधवा-पुनर्विवाह करवाना शुरू किया।

बाबासाहब डॉ. अंबेडकर ने हिन्दू कोड बिल में हिन्दू विधवाओं और लड़कियों को पिता की संपत्ति में पुत्र के बराबर की हिस्सेदारी की बात कही। डॉ. अंबेडकर, फुले को अपना गुरु मानते थे इसलिए, विधवा पुनर्विवाह की बात हिन्दू कोड बिल में कही, पर सनातनी कट्टरपंथी हिन्दुओं ने विधवा पुनर्विवाह का विरोध करते हुए ‘नियोग’ प्रथा की वकालत की, जिसका डॉ. अंबेडकर ने खुलकर विरोध किया और विधवा पुनर्विवाह को कानूनी मान्यता दिलवायी।

विधवा पुनर्विवाह का हासिल

अमूमन विधवा पुनर्विवाह की मनाही सिर्फ तीन उच्च जातियों में प्रचलित थी। वर्ष 1905 तक आंध्र प्रदेश में जो 68 विधवा विवाह हुए, उनमें 57 ब्राह्मण, 8 वैश्य तथा तीन अन्य जातियों में हुए। 1856 में पारित हुए विधवा पुनर्विवाह को कानूनी स्वरूप प्रदान किए जाने में ईश्वरचंद्र विद्यासागर की मुख्य भूमिका थी। उन्होंने अपने पहले बेटे की शादी एक विधवा स्त्री से कराकर इस दिशा में प्रेरक उदाहरण प्रस्तुत किया। यहाँ तक कि वे विधवा विवाह का खर्च भी उठाते थे। 1856 में विधवा विवाह कानून में विधवाओं को उनके मृत पतियों की संपत्ति में हिस्सा नहीं दिया गया था। राजमहेंद्री समाज सुधार संगठन ने इसका विरोध करते हुए सरकार से इस कानून में सुधार की पैरवी की। दीगर बात है कि, विधवा विवाह कानून से विधवाओं की स्थिति में कोई खास अंतर नहीं आया था।

[bs-quote quote=”विधवा पुनर्विवाह की मनाहियों को लेकर ऋग्वैदिक काल से धर्मसूत्र, गृहसूत्र एवं कौटिल्य के यहाँ तक कुछ खास साहित्य नहीं मिलता। रोमिला थापर के अनुसार ऋग्वैदिक दौर में सती एक नकली अथवा अनुकरणीय समारोह था, जिसमें पति की मृत्यु के बाद पत्नी को चिता पर लिटाया जाता था और चिता में आग लगाने से पहले पति का संबंधी कोई पुरुष उसे उतारता था, जो उससे विवाह करता था। पी. थॉमस भी यह मानते हैं कि, ऋग्वेद काल में विधवा स्त्री को जलाया नहीं जाता था बल्कि, उसकी शादी मृत पति के भाई से करा दी जाती थी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

11 दिसंबर, 1881 को राजमहेंद्री में वीरेशालिंगम ने एक ब्राह्मण विधुर की शादी एक विधवा से करवायी, जो आंध्र प्रदेश में विधवा विवाह का पहला उदाहरण था। 1879 में उन्होंने अपने एक चर्चित भाषण में कहा कि विधवा विवाह शास्त्रसम्मत है। 1881 में उन्होंने एक विधवा विवाह संगठन की भी स्थापना की।

विधवाओं ने भी देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी स्थिति को लेकर विरोध करना शुरू किया। मई, 1870 में एक युवा विधवा ने एक जिला मजिस्ट्रेट की इजलास में शिकायत की कि, उसके पिता सीताराम, जो कि हिन्दू मठाधीश शंकराचार्य के दलाल हैं, जबर्दस्ती उसका सिर मुंडवाना चाहते हैं। लेकिन मजिस्ट्रेट ने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने में अपनी अक्षमता जाहिर की। मुंबई की एक विधवा शिक्षिका एक स्कूल मास्टर से विवाह करना चाहती थी, उसने तैयारियाँ की और मित्रों को आमंत्रित किया लेकिन उसके रिश्तेदारों ने युवती तथा उसके होने वाले पति एवं दोस्तों के साथ मारपीट की। उन्होंने जबरन युवा विधवा का सिर मुंडवा दिया और उसे घर में कैद कर दिया। वीरेशालिंगम, एक ब्राह्मण महिला के बारे में बताते हैं, जो कि अभी-अभी विधवा हुई थी। उसने अपने भाई से कहा कि, उसके लिए जो सफेद साड़ियाँ वह ले आया है, उन्हें वह अपनी पत्नी को दे दे क्योंकि उसके पास पहनने को बहुत सी साड़ियाँ हैं और वह एक आदमी के साथ पुनर्विवाह भी करना चाहती है। कड़े विरोध के बाद घर वालों ने उस विधवा को उस आदमी से संबंध बनाने की इजाज़त दी लेकिन विवाह की इजाज़त नहीं दी। काकीनाड़ा की एक विधवा अपने कुछ गहने लेकर एक शूद्र लड़के के साथ भाग गयी। बाद में दोनों को चोरी के आरोप में जेल भेज दिया गया। अखबारों से यह जानकर कि वीरेशालिंगम विधवा विवाह करवाते हैं, उड़ीसा के गंजाम जिले में यासिका गाँव की एक विधवा सीतम्मा आधे रास्ते बैलगाड़ी में बैठकर और आधा रास्ता पैदल यात्रा करके राजमहेंद्री में वीरेशालिंगम के पास आयी। ऐसे कई उदाहरण विधवा महिलाओं के संदर्भ में मिलते हैं, जिन्होंने पुनर्विवाह के पक्ष में तत्कालीन परिस्थितियों के हिसाब से क्रांतिकारी कदम उठाया। नयी-नयी विधवा विवाह समितियों के गठन होने के साथ-साथ विधवाओं को स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता का प्रशिक्षण देने वाले केंद्र स्थापित किये जाने लगे। ऐसे पहले केंद्र की स्थापना शरीपद बनर्जी ने 1877 में कलकत्ता में की।

1881 में पश्चिम भारत के सूरत कोर्ट में एक युवा ब्राह्मण विधवा को इसलिए फांसी की सजा सुनायी गयी क्योंकि उसने विवाहेतर संबंधों से पैदा हुए अपने बच्चे की हत्या कर दी थी। अपील करने पर बाद में सजा को बदलकर आजीवन देश निकाला कर दिया गया। बाद में इस सजा को भी घटाकर इसकी अवधि पाँच साल कर दी गयी। ताराबाई शिंदे (1850-1890) (पूना, महाराष्ट्र) जो महात्मा फुले के सत्यशोधक समाज की कार्यकर्ता थीं, इस घटना से इतनी आहत हुयीं कि उन्होंने स्त्री-पुरुष तुलना  नाम की पुस्तक लिखी। इस पुस्तक ने समाज में विधवाओं के दुर्भाग्य और विधवा विवाह मुद्दों पर एक जोरदार बहस छेड़ दी। ताराबाई ने इस मामले को समाज में महिलाओं के साथ साधारणतया होते रहने वाले अन्याय-अत्याचार के उदाहरण के रूप में ही लिया। दरअसल, जोर-शोर से चलने वाले समाज-सुधार आंदोलन महिलाओं के लिए मददगार तो थे लेकिन, अब भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने को तैयार नहीं थे। यही कारण है कि, ताराबाई की चीख-पुकार उस समाज में अनसुनी रह गयी।

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महाराष्ट्र का पूना शहर चितपावन ब्राह्मणों का केंद्र रहा है। कट्टर सनातनी ब्राह्मण 1860 से ही समाज सुधार अभियानों के धुर विरोधी थे। 1870 तक बाल-विवाह, विधवा पुनर्विवाह आदि के विरुद्ध ब्राह्मणों का अभियान अपने चरम पर पहुँच गया था। जी. एच. देशमुख जैसे समाज सुधारक भी 1871 में चितपावन ब्राह्मणों की सामाजिक बहिष्कार की धमकी के आगे नतमस्तक हो गये। पूना के प्रभावशाली समाज सुधारक एम. जी. रानाडे ने अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के पश्चात पंडिता रामबाई के शारदा आश्रम की बाल-विधवा से विवाह किया। परिणामस्वरूप पूना के ब्राह्मणों ने उन्हें बिरादरी से आजीवन बहिष्कृत कर दिया।

फुले जैसे लोगों ने विधवा स्त्रियों के मुंडन को बंद करने का अभियान चलाया। जब ब्राह्मणों ने अपनी विधवा स्त्रियों का बाल कटवाना बंद नहीं किया, तो फुले ने नाइयों को समझाया कि वे किसी भी विधवा स्त्री के बाल काटने न जाएँ। उनके आग्रह पर नाइयों ने विधवाओं के बाल काटना बंद कर दिया और इस तरह धीरे-धीरे पूना में विधवाओं के बाल काटने की परंपरा बंद हुई। पेशवा काल में विधवाओं के लिए विशेषकर ब्राह्मण समाज में इतने जटिल कानून बनवाये गये कि हम पाते हैं कि अधिकतर समाज सुधारकों ने ब्राह्मण स्त्रियों की शिक्षा, अनाथ आश्रम, विधवा पुनर्विवाह या बाल विवाह के क्षेत्र में काम किया।

विधवा पुनर्विवाह के इस आंदोलन का परिणाम नगण्य रहा। विधवा विवाह करने वाले दंपति चूंकि आर्थिक सहयोग के लिए विद्यासागर और वीरेशालिंगम पर निर्भर रहते थे अत: ऐसे दंपतियों की आर्थिक मदद करने के लिए विद्यासागर और वीरेशालिंगम को कई-कई बार ऋण लेना पड़ता था। समाज सुधारक सिर्फ पुनर्विवाह करवाने पर ही ध्यान देते थे। विवाह सुसंगत है या नहीं, इस पर ध्यान नहीं रहता था। अत: ऐसे असंगत विवाह पति-पत्नी के लिए दुखदायी ही सिद्ध होते थे। वीरेशालिंगम ने बाद में स्वीकारा कि ऐसे विवाह अक्सर जल्दीबाजी में करवा दिये जाते थे। समाज सुधार समर्थक कुछ पत्रिकाओं ने सुधारकों को इस बारे में चेताया भी। यदि किसी कारणवश विधवा विवाह किये हुए पति-पत्नी में तलाक हो जाता, तो तलाक के बाद तलाकशुदा महिला का हाल पूछने वाला कोई नहीं होता। प्राय: विधवा स्त्रियों को अपनी पसंद का पति चुनने का कोई मौका नहीं होता था। आर्य-समाज की बात करें- तो वह सिर्फ ‘बाल-विधवाओं’ का ही पुनर्विवाह करवाता था।

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1890 के दशक में यह तथ्य सामने आया कि विधवा पुनर्विवाह कानून बनने के बाद पिछले 40 वर्षों में कुल पाँच सौ विधवा पुनर्विवाह हुए। हालाँकि उस समय तक समाज सुधार संगठन बहुसंख्या में पूरे भारत में फैल चुका था और प्रत्येक का प्रण था कि वे विधवा पुनर्विवाह के लिए अभियान चलाएँगे। किन्तु तमाम कवायद के बावजूद वे इतना ही हासिल कर सके। इसके अतिरिक्त ये पाँच सौ विधवा पुनर्विवाह भी बाल-विधवाओं या कुंवारी विधवाओं के थे। ऊँची जाति की वे विधवाएँ, जो कुंवारी नहीं थीं, उन्होंने न तो पुनर्विवाह किया और न ही उनका पुनर्विवाह हो सका (मिसेज मारकस बी फुलर द रॉग्स ऑफ़  इंडियन वुमेनहुड; इंटर इंडिया पब्लिकेशन, 1984, प्रथम संस्करण 1900, दिल्ली)।

वैधव्य की ऐतिहासिक चित्तवृत्ति

हिन्दू धर्मशास्त्रीय दृष्टि ने स्त्रियों को शुद्धता, पवित्रता और सम्मान का प्रतीक बनाते हुए, उसकी यौनिकता एवं सार्वजनिक गतिशीलताओं को नियंत्रित करने का कार्य किया है। आदर्श पुत्री, पुत्रवधू, और पत्नी के संकल्पनात्मक महिमामंडन के साथ-साथ स्त्री को पिता, पति और पुत्र के संरक्षण में रहने की नसीहतों वाली मनुवादी आचार संहिताओं के बीच स्त्री के स्व की जगह नदारद दिखती है। राष्ट्रवादी इतिहासकारों एवं धार्मिक टीकाकारों ने वैदिक युगीन भारतीय परंपरा को बहुत ही ज्यादा महिमामंडित किया है, जिसमें महिलाओं की स्थिति को ऊँचे दर्जे का बताया जाता है। आखिर इस ग्लोरीफिकेशन में उनकी लेखनी प्राचीन भारत के उसी दौर को क्यों अधिक दर्ज करती है, जिसमें महिलाओं को बहुत ऊँचा दर्जा प्राप्त था, ऐसा बताया जाता है। हालाँकि, अल्टेकर हिन्दू महिलाओं की स्थिति पर लिखने वाले सबसे चर्चित इतिहासकार माने जाते हैं। महिलाओं के संपत्ति के अधिकार, विधवा महिलाओं की स्थिति, उनके सार्वजनिक जीवन से जुड़े मुद्दों पर लिखने वाले अल्टेकर का तर्क कहीं न कहीं हिन्दू नस्ल की बेहतरी के लिए महिलाओं की स्थिति में सुधार की बहस प्रतीत होती है। उमा चक्रवर्ती, अल्टेकर के लेखन को राष्ट्रवादी समझ से ओतप्रोत मानती हैं। अल्टेकर की कृति द पोजीशन ऑफ़  वुमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन: फ्राम प्रीहिस्टोरिक टाइम टू प्रजेंट डे (1959) को मुकम्मल और बहुत हद तक प्रामाणिक माना जाता है।

विधवा पुनर्विवाह की मनाहियों को लेकर ऋग्वैदिक काल से धर्मसूत्र, गृहसूत्र एवं कौटिल्य के यहाँ तक कुछ खास साहित्य नहीं मिलता। रोमिला थापर के अनुसार ऋग्वैदिक दौर में सती एक नकली अथवा अनुकरणीय समारोह था, जिसमें पति की मृत्यु के बाद पत्नी को चिता पर लिटाया जाता था और चिता में आग लगाने से पहले पति का संबंधी कोई पुरुष उसे उतारता था, जो उससे विवाह करता था। पी. थॉमस भी यह मानते हैं कि, ऋग्वेद काल में विधवा स्त्री को जलाया नहीं जाता था बल्कि, उसकी शादी मृत पति के भाई से करा दी जाती थी। वे यह भी कहते हैं कि विधवा पुनर्विवाह की यह पद्धति पूर्व में प्रचलित नियोग प्रथा से मिलती-जुलती मानी जा सकती है। इन उद्धरणों से साफ जाहिर होता है कि दरअसल, विधवा विवाह अथवा सती जैसी संहिताओं को पितृसत्ता ने समय, काल और परिस्थिति के हिसाब से अपने पक्ष में गढ़ा है। ए. एस. अल्टेकर की माने, तो वैदिक आर्य विधवा स्त्रियों को जलाने की बजाय पुनर्विवाह को तरजीह इसलिए देते थे क्योंकि वे भारत में अल्पसंख्यक थे और उन्हें अपनी राजनीतिक प्रभुता कायम करने के लिए अपनी जनसंख्या बढ़ाने की जरूरत थी। कौटिल्य के यहाँ भी महिलाओं की पुनरुत्पादन क्षमता के उपयोग का जिक्र मिलता है। हालाँंकि, इस पूरे दौर में महिलाओं को संपत्ति के अधिकार की बात कहीं नहीं मिलती दिखती। बल्कि यह माना गया है कि महिलाएँ उत्तराधिकार के काबिल नहीं होतीं और यह बात विधवा स्त्रियों के संदर्भ में खासतौर से मिलती है। यहाँ तक कि, नियोग के जरिये पुत्र पाने वाली स्त्री को अपनी संतान के लिए महज संपत्ति की देखभाल करने और संरक्षण का अधिकार रहा। इस तरह अगर महिलावादी नजरिए से देखा जाय, तो वैदिक काल में भी स्थितियाँ बहुत अलग नहीं दिखतीं। सत्ता, संपत्ति और पुनरुत्पादन की राजनीति में महिलाओं का वस्तुकरण (कमोडिटीफिकेशन) ही दिखता है। संभव है, कुछ एक मुद्दों पर वैदिककाल,  मध्यकाल की तुलना में हमें कहीं अधिक उदार लगे, जैसा कि कई विद्वानों को भी लगता है लेकिन इससे वो सच्चाइयाँ धुंधली नहीं हो सकतीं, जिनकी निरंतरता में महिलाओं के अधिकारों को सीमित करते हुए, उनकी स्थितियों को और अधिक दुष्कर बनाया जाता रहा।

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दूसरी ई. पूर्व के तमिल ग्रंथ पुरानुरु (Puranuru) में विधवा को तमाम बंदिशों का विषय बनाते हुए – उसे बिना आभूषणों, पत्थर के बिस्तर पर सोयी और सिर मुड़ायी स्त्री के रूप में चित्रित किया गया। 14वीं सदी में लिखे गए स्कंद पुराण  में इसकी चर्चा मिलती है। विधवा को जलाने के पक्ष में न होने के बावजूद ब्राह्मणवादी ग्रंथ धर्मसूत्र  में वैधव्य को पूर्वजन्म के पापों की सजा के बतौर देखा जाता है। उसमें कहा गया है कि सच्ची पतिव्रता कभी भी विधवा नहीं हो सकती, उसकी मृत्यु पति के पहले ही हो जाती है। मनु भी विधवा स्त्रियों को ताउम्र मृत पति के प्रति निष्ठा बनाए रखते हुए अधिक से अधिक व्रत उपवास और सादगी भरा जीवन जीने की सलाह देते हैं। बौधायन धर्मसूत्र  में विधवा को पति की मृत्यु के बाद वर्ष भर मधु, मांस, मदिरा, नमक आदि त्यागने के साथ-साथ जमीन पर सोने की बात कही गयी है तथा इसके पीछे महिलाओं की कामशक्ति को नियंत्रित रखने का तर्क दिया गया है (आर्य, जियालाल)। विधवा स्त्रियों को लेकर बनायी जा रही ये आचार संहिताएँ धीरे-धीरे सघन होती गईं। मध्यकाल के दौरान महिलाओं की स्थिति और भी खराब होने लगी और इसका सबसे बड़ा और प्रचलित तर्क विदेशियों के भारत में प्रवेश से जुड़े विभिन्न कारणों को दिया जाता है। सती प्रथा इस दौर में बहुत तेजी से प्रचलित हुई और पारिवारिक गौरव का विषय बनने लगी। उत्तर भारत में यह खासी प्रचलित हो रही थी तथा अधिसंख्य योद्धा जातियों में इसे प्रतिष्ठा का विषय बनाया जाने लगा। कल्हण की राजतरंगिणी और जायसी की पद्मावत में भी सती प्रथा के गौरवान्वयन का जिक्र मिलता है। सती प्रथा एक प्रकार से विधवा स्त्रियों को जलाने की प्रथा थी, जो पूर्व में नहीं थी। कई अध्ययन और शोध बताते हैं कि भारी संख्या में विधवाओं को सती के नाम पर जलाया गया। अल-बरूनी अपने वर्णन में लिखता है – विधवाओं के पास दो ही विकल्प थे या तो वो सती हो जाएँ या ताउम्र विधवा बनीं रहें। इसी संदर्भ में उमा चक्रवर्ती भी लिखती हैं कि 700 ई. के बाद भारत में विधवा स्त्रियों के सामने दो ही मॉडल बचते हैं या तो सती और या फिर संन्यासिनी। तत्कालीन समाज में ऐसे अभ्यासों को स्त्री धर्म का मूल सूत्र बताए जाने की धारणाएँ जड़ होती गई, जो कि ब्रिटिशकालीन भारत में भी मौजूद रहीं। 19वीं सदी के समाज सुधार और धर्म सुधार आंदोलन की केंद्रीयता में स्त्री प्रश्नों की जरूरत और उसके संघर्ष, इस बात की गवाही देते हैं। धर्म और परंपराओं के नाम पर आज भी महिलाओं की एक बड़ी आबादी को उन्हीं रूढ़िवादी मान्यताओं-दस्तूरों से दो-चार होना पड़ता है। विवाहित, अविवाहित, एकल एवं विधवा महिलाओं को लेकर धार्मिक-सामाजिक-कर्मकांडीय प्रतिमानों, संकेतों का पीढ़ी दर पीढ़ी चलता चला आ रहा संरक्षण, पितृसत्ता की गहरी जड़ों को उजागर करता है, जो महिलावादी चिंतन परंपरा में निरंतर शोध और अध्ययन का विषय  है।

प्रो. आशा शुक्ला, डॉ. बीआर अम्बेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय महू, इंदौर (मप्र) की भूतपूर्व कुलपति हैं।

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