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भीमा कोरेगांव : एक युद्ध जिसने दलित समुदाय का इतिहास बदल दिया

भीमा कोरेगाँव का युद्ध भारतीय इतिहास का एक जरूरी मोड़ था, जिसने न केवल राजनैतिक परिदृश्य को बदला, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक जरूरी कारण बना। यह युद्ध आज भी दलित समुदाय के लिए गौरव और स्वाभिमान का प्रतीक है। वर्ष 2018 में भीमा कोरेगाओं के 200वीं  सालगिरह पर एकत्रित सामाजिक कार्यकर्ताओं और सामाजिक आंदोलन से जुड़े लोगों को  हिंदुवादी संगठनों द्वारा हिंसा फैलाकर उन्हें दोषी बनाते हुए गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया, जहां मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना दी गई। इसी आरोप में गिरफ्तार स्टेन स्वामी की कस्टडी में मौत हो गई। अभी भी कुछ लोग जेल में है, कुछ जमानत पर हैं। आज 206वीं सालगिरह पर पढ़िए डॉ सुरेश खैरनार का यह लेख।

भीमा कोरेगांव की लड़ाई के 206 साल

अंग्रेजों और पूना के पेशवाओं के बीच भीमा कोरेगांव की लड़ाई 1 जनवरी 1818 को खत्म हुई, जिसमें अंग्रेजों ने जीत हासिल की और भारत पर अपना एकछत्र राज स्थापित करते हुए एक और जीत दर्ज की। इस लड़ाई में महार रेजिमेंट ने बहुत कम संख्या में होने के बावजूद ब्रिटिश सेना के लिए जीत का मार्ग प्रशस्त किया।

हममें से कई लोगों को महार रेजिमेंट द्वारा इस तरह से अंग्रेजों का साथ देने पर आपत्ति हो सकती है। लेकिन इसके पीछे के कारणों को जानने के बाद शायद हमारी आपत्ति कम हो जाए। मैं खुद एक स्वतंत्रता सेनानी का बेटा होने के नाते महार रेजिमेंट के बारे में लंबे समय से जानता हूं। तब तक मुझे भीमा कोरेगांव के विजय स्तंभ को देखकर गुस्सा आता था। राष्ट्रीय सेवा दल में शामिल होने और दलित विमर्श और बाबा साहेब अंबेडकर और महात्मा ज्योतिबा फुले के साहित्य से रूबरू होने के बाद मेरी आपत्ति खत्म हो गई।

इसीलिए हमने विजय दिवस (1 जनवरी 2018) के अवसर पर राष्ट्र सेवा दल के माध्यम से भीमा कोरेगांव से छह साल पहले हुई एक सुनियोजित हिंसा की तथ्य खोज की थी और उस रिपोर्ट को न्यायमूर्ति जे.एन. पटेल जांच आयोग को सौंपा गया था। वह पूरी रिपोर्ट मेनस्ट्रीम जैसी बहुत ही महत्वपूर्ण अंग्रेजी पत्रिका ने अपने 23 जनवरी 2018 के अंक में प्रकाशित की है। इसीलिए पुणे कोर्ट, मुंबई हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने अलग-अलग फैसलों (डिसेंट जजमेंट) में उस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है।) मैंने इसे पूरी तरह से लिया है।

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महार रेजिमेंट द्वारा अंग्रेजों का साथ देने का कारण

 मनुस्मृति के अनुसार क्षत्रियों को छोड़कर किसी भी पिछड़ी जाति को हथियार रखने की मनाही थी। इसीलिए हजारों साल से भारत की दलित और पिछड़ी जातियों को युद्ध लड़ने के अधिकार से वंचित रखा गया था। अंग्रेजों ने महार रेजिमेंट बनाई थी और इसीलिए इतनी विषम संख्या के बावजूद भी महार रेजिमेंट ने अपनी जान की बाजी लगाकर भीमा-कोरेगांव की लड़ाई लड़ी और जीती। मेरा मानना ​​है कि हजारों सालों से शक, हूण, कुषाण से लेकर यूनानी, रोमन, मंगोल, मुगल, फारसी, अफगान, पुर्तगाली, डच, फ्रेंच, अंग्रेज तक विभिन्न आक्रमणकारी लगातार भारत में आते रहे हैं और उनमें से हर एक ने कुछ समय तक शासन किया। यह सिलसिला 1947 तक चलता रहा! इसका एक कारण यह भी है कि हमारी तीन चौथाई से ज्यादा आबादी शूद्र है, उन्हें हथियार रखने की मनाही थी, शिक्षा वर्जित थी और छुआछूत की तो पूछिए ही मत, इस तरह आपने खुद इतनी बड़ी आबादी को धर्म के नाम पर अछूत रखा। अगर उन्होंने राजा को नया साम्राज्य दिया होता तो वे उसके प्रति हमेशा उदासीन रहते, चाहे वर्तमान राजा कोई भी हो। हर नए आक्रमणकारी के प्रति जो प्रतिरोध की भावना होती है वह नगण्य होती। शायद उनके मन में यह उम्मीद रही होगी कि शायद जो भी नया आ रहा है, वह शायद इससे बेहतर होगा इसीलिए भारत पर हजारों सालों से आक्रमण होते रहे हैं। आक्रमणकारियों ने कुछ दिन या कुछ सौ साल तक शासन किया है। मेरी राय में इसका सबसे बड़ा कारण सामाजिक असमानता है।

2500 साल पहले महावीर और गौतम बुद्ध ने पहली बार इन असमानताओं के खिलाफ विद्रोह किया था। इसके कारण लगभग पूरे भारत (गुप्त काल) में बौद्ध साम्राज्य स्थापित हुआ। लेकिन हमारी जाति व्यवस्था ने फिर से षड्यंत्र किया और भारत से बौद्ध धर्म को हरा दिया। फिर मध्ययुगीन बर्बरता शुरू हुई। 17वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेज व्यापार के बहाने आए लेकिन बहुत जल्द ही आधुनिक विज्ञान और तकनीक की मदद से वे दुनिया के लगभग तीन-चौथाई हिस्से पर राज करने में सफल हो गए!। उन्होंने यहाँ के जातिगत और धार्मिक भेदभाव का फायदा उठाया। उन्होंने 200 साल तक राज किया लेकिन उन्होंने सिर्फ राज नहीं किया, भले ही वह उनके अपने राजनीतिक हितों के लिए था, उन्होंने शिक्षा, रेलवे, परिवहन और अपनी सेना को मजबूत करने के लिए अपनी सेना में सभी तरह के लोगों की भर्ती की। उस दौर में ही उन्होंने महार रेजिमेंट की शुरुआत की थी। महार रेजिमेंट ने 200 साल पहले भीमा कोरेगांव की लड़ाई में अंग्रेजों के लिए लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की और उनकी परंपरा के अनुसार, 1 जनवरी 2018 को विजय दिवस में देशभर से लाखों दलितों ने हिस्सा लिया और उन पर हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं मनोहर कुलकर्णी उर्फ ​​संभाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे को भड़काने का आरोप लगाया गया। हज़ारों गाड़ियों में तोड़फोड़ की गई, कुछ को जला दिया गया और कुछ लोग इसमें मारे गए, आज इसके छह साल पूरे हो रहे हैं।

हिंदू लोगों के खिलाफ हिंदुत्व हमारी राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण बात है। गांधीजी हिंदू लोगों की तरफ़ थे और गोलवलकर हिंदुत्व की तरफ़ थे। डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर ने दलितों के लिए महाड़ झील खोलने के लिए आंदोलन शुरू किया, लेकिन उनकी मदद करने के बजाय हिंदुत्ववादियों ने उन पर हमला कर दिया। उन्होंने पत्थर और लाठियाँ बरसाईं। यह बाबा साहेब अंबेडकर के बौद्ध धर्म स्वीकार करने से 20 साल पहले की बात है। क्या आप कोई ऐसा उदाहरण दे सकते हैं जहाँ हिंदुत्व समर्थकों ने दलितों को उनके अधिकारों की लड़ाई में समर्थन दिया हो?

क्या हिंदुत्ववादियों ने दलितों, पिछड़े वर्गों और महिलाओं के लिए महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई के किसी भी प्रयास का समर्थन किया? फुले गैर-ब्राह्मण थे। लेकिन आगरकर, चिपलूनकर, गोखले और कर्वे जैसे ब्राह्मण सुधारकों ने उनका साथ क्यों नहीं दिया? इसका मुख्य कारण यह है कि ये सभी समाज सुधारक ब्राह्मण थे और उन्होंने समाज सुधार का काम ब्राह्मणों के बीच ही किया। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे महान नेता लोकमान्य तिलक ने कहा था कि ‘कुनबी, माली, तेली, तंबोली और अन्य पिछड़े वर्ग क्या विभिन्न जातियों के लोग हल चलाना और राज करना छोड़ देंगे? फिर छत्रपति शिवाजी महाराज कौन थे? हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत से ही इस बात पर बहस होती रही है कि पहले क्या होना चाहिए – सामाजिक सुधार या राजनीतिक सुधार? यह बहस महात्मा ज्योतिबा फुले के समय से चली आ रही है, जो डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर के समय तक दिखाई देती है। भीमा कोरेगांव की लड़ाई इसका शास्त्रीय उदाहरण है। ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का मुख्य उद्देश्य दलित महिलाओं और पिछड़ी जातियों को मुक्त कराना था, जिन्हें मनुस्मृति के अनुसार हजारों वर्षों से गुलाम बनाया गया था। भीमा कोरेगांव की लड़ाई में महार रेजिमेंट के सैनिकों ने अपनी जान की परवाह किए बिना लड़ाई लड़ी। और डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने 1 जनवरी 1927 से इस लड़ाई का विजय दिवस मनाना शुरू किया।

 

डॉ. सुरेश खैरनार
डॉ. सुरेश खैरनार
लेखक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

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