ढिंकिया संकल्प के दूसरे आयाम की दिक्कतें भी कम नहीं हैं। इसका एक उदाहरण भूमि अधिग्रहण विरोधी अध्यादेश के खिलाफ चले कामयाब संघर्ष के तुरंत बाद अहमदाबाद में देखने को मिलता है। इस घटना को व्यवस्थित रूप से अब तक कहीं दर्ज नहीं किया गया है। ढिंकिया और इसके बाद दिल्ली में चली प्रक्रिया के विस्तार के तौर पर जुलाई 2016 के मध्य में अहमदाबाद में जल, जंगल और ज़मीन की रक्षा के लिए जनसंघर्षों का एक राष्ट्रीय सम्मेलन रखा गया था। सम्मेलन से हफ्ते भर पहले 8 जुलाई, 2016 का टाइम्स ऑफ इंडिया देखें, तो पता चलता है कि इस सम्मेलन को मीडिया में कैसे बरता गया और बाद में इस सम्मेलन के जुड़े संगठनों ने कैसे सरकारी दुष्प्रचार का पर्दाफाश भी किया। महाराष्ट्र के नागपुर में टाइम्स ऑफ इंडिया के एक संवाददाता किसी ख़बर के सिलसिले में राज्य की एंटी-नक्सल विंग में गए हुए थे। बातचीत के बीच वहां उन्हें दराज से निकालकर एक न्योता थमाया गया और कहा गया कि नक्सलियों के जनसंगठन अहमदाबाद में अपनी पहली बैठक करने जा रहे हैं। संवाददाता ने वह आमंत्रण लिया और नागपुर की डेटलाइन से 8 जुलाई के अखबार में महाराष्ट्र गुप्तचर विभाग के स्रोत से एक ख़बर चला दी। इस ख़बर का उसी दिन खंडन कुछ वेबसाइटों पर हुआ और संघर्षरत समूहों की ओर से बताया गया कि कैसे राज्य और इंटेलिजेंस किसान संगठनों की बैठक को नक्सलियों की बैठक बताकर बुनियादी संघर्षों को बदनाम कर रहे हैं। अगले दो दिनों तक इसका खंडन जारी रहा, जिसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया को खबर दुरुस्त करके लगानी पड़ी। यह उदाहरण बताता है कि अगर किसानों, मजदूरों, दलितों और आदिवासियों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी है, तो चेतना के स्तर पर थोड़े उन्नत उनके प्रतिनिधियों को एक लड़ाई मीडिया से भी लड़नी है। इसके लिए उन्हें मीडिया को राज्यसत्ता का ही विस्तार समझना होगा और कैमरों की बाट नहीं जोहनी होगी। किसान आंदोलन ने कालांतर में इस नुक्ते को बहुत मजबूती से सामने रखा और मुख्यधारा के मीडिया के समानांतर आंदोलन का अपना मीडिया खड़ा कर के दिखाया।
जुलाई 2016 में हुए अहमदाबाद के राष्ट्रीय सम्मेलन की ख़बर शायद ही कहीं आई हो, लेकिन इसमें शामिल दो दर्जन से ज्यादा संघर्षरत संगठनों ने मिलकर जल, जंगल और ज़मीन को बचाने की लड़ाई के भविष्य का जो खाका तय किया था, उसे आज गतिरोध के दौर में फिर से पढ़ा जाना चाहिए। अहमदाबाद के सम्मेलन में किसान सभाओं, किसान संगठनों, दलित/ आदिवासी/ महिला समूहों और संघर्षरत लोगों द्वारा पारित किया गया संकल्प पत्र देश में भूमि अधिग्रहण विरोधी संघर्षों के लिए एक ब्लूप्रिंट साबित हो सकता है।
इस संकल्प पत्र में कुल 15 बिंदु थे। सभी बिंदु आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने 2016 में थे, लेकिन भूमि अधिग्रहण विरोधी संघर्षों का स्वरूप इस बीच काफी बदल चुका है। हम देखते हैं कि सबसे मजबूत आंदोलन वहीं चल रहे हैं जो ‘नॉन-नेगोशिएबल’ हैं यानी जहां लोगों ने पक्का निर्णय ले लिया है कि जमीन नहीं देनी है। फिलहाल हसदेव, नियमगिरि और सिलगेर इनके उदाहरण हो सकते हैं। दूसरे किस्म के आंदोलन वे हैं जहां लड़ाई मुआवजे को लेकर है। यह लड़ाई आज नहीं तो कल खत्म हो ही जानी है क्योंकि जमीनों की लूट को लेकर कोई मूल्यगत विरोध नहीं है। इन दोनों किस्म के संघर्षों में मोटे तौर पर हम पाते हैं कि मुआवजे वाले संघर्ष गैर-आदिवासी क्षेत्रों में हैं यानी उन इलाकों में जो पांचवीं अनुसूची में नहीं आते हैं। इसके उलट जहां लोगों ने अपना खूंटा पकड़ रखा है, वे इलाके ज्यादातर पांचवीं अनुसूची वाले आदिवासी क्षेत्र हैं। धीरे-धीरे ही सही, बीते एक दशक में यह फर्क पैदा हुआ है कि आदिवासी और गैर-आदिवासी जमीनों के लिए जनता का संघर्ष अपने मूल स्वरूप में पहचान लायक बन गया है। आज से दस साल पहले ऐसा नहीं था, क्योंकि आदिवासी क्षेत्रों में किसी भी संघर्ष का पर्याय माओवाद बता दिया जाता था। इस लिहाज से देखें तो जनसंघर्षों का क्षैतिज दायरा व्यापक हुआ है और वे उन क्षेत्रों में गए हैं जहां पिछली सरकारों में केवल माओवादी हुआ करते थे।
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यह फर्क वास्तविक भी है और धारणा के स्तर पर भी कायम हुआ है। इसके कई कारण हो सकते हैं। उनमें न जाते हुए फिलहाल समझने वाली बात यह होगी कि धीरे-धीरे ही सही, भूमि अधिग्रहण विरोधी जन आंदोलनों ने अपने अहिंसक स्वरूप को बरकरार रखते हुए हिंसाग्रस्त इलाकों की जनता के बीच पैठ बनायी है। इन आंदोलनों का जिस तरह प्रसार हुआ है और हर कोने में जिस तरह ऐसे अहिंसक संघर्षों ने हस्तक्षेप किया है, इनकी व्यापकता को केवल एनजीओ का आंदोलन कहकर नजरंदाज कर देना मूर्खता होगी। हम पाते हैं कि सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों का चरित्र जिस तरह बदला है, ठीक वैसे ही किसानों के आंदोलन भी शक्ल लेते गए हैं- देखने में स्वयं स्फूर्त लेकिन संगठित, कानूनी औज़ारों में मजबूत लेकिन हिंसक लाइन से असहमति रखने वाले।
सवाल उठता है कि हिंसा और अहिंसा के बीच की वह लाइन क्या हो जहां संसदीय लोकतंत्र में अपनी जमीन पर अपने अधिकार की उम्मीद को लेकर एक गुंजाइश कायम हो सके? वह लाइन क्या सभी आंदोलनों के लिए अलग-अलग हो या समान? क्या मौजूदा भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों के लिए कोई एक रेखा खींच पाना मुमकिन है? गौर से यदि हम ढिंकिया, अहमदाबाद, गोड्डा और रायपुर में हुए सम्मेलनों के संकल्पों का मिलान करें, तो पाते हैं कि ‘स्वशासन’ का सवाल सभी में समान रूप से समान मजबूती से प्रकट होता है। जाहिर है, जब हम गांव के स्तर पर स्वशासन की बात कर रहे हैं तो यह सामान्य तौर से गांधी का ग्राम स्वराज नहीं बल्कि विशिष्ट रूप से जनजातीय गांवों में ग्राम स्वराज का वह संवैधानिक अधिकार है जिसे पंचायती राज (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) कानून यानी पेसा कानून के तहत फलीभूत किया गया था। इस कानून को संविधान के भीतर संविधान कहा गया है। यही वह टेक है जहां से भूमि अधिग्रहण के मौजूदा आंदोलनों को आगे बढ़ना है। संयोग से पेसा कानून के 25 वर्ष पिछले साल ही पूरे हुए हैं और पहले से कहीं ज्यादा जोर-शोर से इसके बारे में आज चर्चाएं हो रही हैं।
संविधान भीतर संविधान
यह सन 1996 की बात है जब राजस्थान के डूंगरपुर स्थित तिलैया गांव में ग्राम स्वशासन का पहला शिलालेख डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा के नेतृत्व में आदिवासियों ने स्थापित किया। कोडियागुंड गांव से डॉ. शर्मा के साथ निकली आदिवासियों की एक यात्रा उस दिन तिलैया गांव में संपन्न हुई थी। शिलालेख स्थापित करने के बाद तिलैया को देश का पहला ग्राम गणराज्य घोषित किया गया था। दिसंबर 1996 में केंद्र सरकार ने तिलैया जैसे आदिवासी गांवों को पांचवीं अनुसूची में जोड़ते हुए पंचायती राज कानून का विस्तार किया। यह विडम्बना है कि झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ (तत्कालीन मध्य प्रदेश) के आदिवासी बहुल प्रदेश होने के बावजूद पहला ग्राम गणराज्य शिलालेख राजस्थान के भील बहुल डूंगरपुर में स्थापित हुआ, लेकिन कालांतर में इसी संवैधानिक अधिकार का आग्रह पत्थरगड़ी आंदोलन के माध्यम से करने वाले झारखंड के आदिवासियों को नक्सली बताकर देशद्रोही करार दिया गया। इस प्रक्रिया की एक परिणति फादर स्टेन स्वामी के निधन में हुई जो कायदे से राजकीय हत्या कही जानी चाहिए।
इस कानून के महत्व को बताते हुए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आयुक्त रहे डॉ. बीडी शर्मा ने 2010 में राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा था। आदिवासी समाज पर अपने काम के लिए मशहूर रहे डॉ. शर्मा ने लिखा, “जब पेसा कानून बना और इसके प्रावधान सामने आए तो ऐसा प्रतीत हुआ कि यह जनजातीय समुदाय के साथ किए गए ऐतिहासिक अन्याय को मिटाने के लिए बनाया गया है। इस कानून के आने से पूरे देश के आदिवासी समाज का उत्साह अभूतपूर्व तरीके से बढ़ा।इन लोगों को लगा कि इस कानून के आने से उनकी गरिमा और स्व-शासन का अधिकार पुनः बहाल होगा। मावा नाटे मावा राज की तर्ज पर। इसका तात्पर्य है ‘हमारा गांव हमारा शासन’। उसी पत्र में उन्होंने इस कानून के पंद्रह साल की यात्रा को समझाते हुए बड़े सख्त लहजे में लिखा था कि आदिवासी समाज का यह उत्साह खत्म हो गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग पेसा की मूलभावना को मानने को तैयार ही नहीं है।इस पत्र को लिखे भी दस साल से अधिक हो चुका है।आज स्थिति जस की तस बनी हुई है।
भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन को इस पड़ाव पर यह निर्णायक रूप से तय करना होगा कि उसे अपने संघर्षों और विमर्शों को आदिवासियों पर केंद्रित करना है या नहीं। रायपुर सम्मेलन के नौ प्रस्ताव साफ दिखाते हैं कि संसाधनों पर मालिकाना, वनाधिकार, ग्रामसभाओं की स्वायत्तता आदि हर एक बिंदु इसी ओर प्रवृत्त हैं। यह जनसंघर्षों की शक्ल और अंतर्वस्तु को नये सिरे से केंद्रित करने का दूसरा चरण है।
इस कानून के तहत पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों में ग्रामसभा को आदिवासी समाज की परंपराएं और रीति-रिवाज, उनकी सांस्कृतिक पहचान, समुदाय के संसाधन और विवाद समाधान के लिए परंपरागत तरीकों के इस्तेमाल के लिए सक्षम बनाया गया। ग्रामसभा को भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार दिया गया। इन्हें खान और खनिजों के लिए संभावित लाइसेंस/ पट्टा, रियायतें देने के लिए अनिवार्य सिफारिशें देने का अधिकार भी दिया गया। इसी कानून का हवाला देते हुए 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने ओडिशा सरकार को नियमगिरि पहाड़ी में में बॉक्साइट खनन के लिए पल्ली सभाओं से अनुमति लेने को कहा था और लोगों ने 12 पल्ली सभाओं की सुनवाई के बाद 12-0 से वेदांता कंपनी को शिकस्त दी थी। ग्रामसभा के इतिहास में यह घटना मील का पत्थर बन चुकी है।
नियमगिरि की कामयाबी भले राजकीय दमन का बायस बनी और 2017 में केंद्र सरकार ने नियमगिरि सुरक्षा समिति को माओवादी संगठन घोषित कर दिया, लेकिन यह घटना दिखाती है कि कायदे से अगर पेसा कानून को लेकर काम किया जाय तो संवैधानिक रास्ते से अवैध भूमि अधिग्रहण का प्रतिकार किया जा सकता है। चूंकि भूमि अधिग्रहण के खिलाफ ‘नॉन-नेगोशिएबल’ आंदोलन ज्यादातर आदिवासी इलाकों में ही चल रहे हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि ओडिशा के ढिंकिया से 2014 में शुरू हुई जनसंघर्षों की ‘भूमि अधिग्रहण केंद्रित’ प्रक्रिया आज छत्तीसगढ़ पहुंची है। यह स्वाभाविक सफर है। इस सफर के निशानों से सबक लिए जाने चाहिए।
इस संदर्भ में छत्तीसगढ़ से ही 2017 की एक घटना अंधेरे में रोशनी की तरह सामने आती है। 5 मई, 2017 को बस्तर जिले के तोकापाल ब्लाक के मावलीभाटा के आदिवासियों की जमीन पर पाइपलाइन बिछाने के लिए राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) द्वारा ग्रामसभा का आयोजन किया गया था। आदिवासियों ने पारम्परिक ग्रामसभा अपनाते हुए एनएमडीसी की ग्रामसभा का बहिष्कार कर दिया। संविधान में उल्लिखित पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत परम्परागत गांवसभा द्वारा एडिशनल कलेक्टर व तहसीलदार को पारम्परिक गाँव सभा में बिना अनुमति के प्रवेश करने तथा जबरन भूमि अधिग्रहण के लिए दोषी मानते हुए जुर्माना ठोंक दिया गया था।
मावलीभाटा के ग्रामवासियों ने ग्राम सभा में मांझी, मुखिया, गयांता व ग्रामवासियों द्वारा एडिशनल कलेक्टर व तहसीलदार को पारम्परिक ग्रामसभा में बिना अनुमति के प्रवेश करने पर संविधान के अनुच्छेद 19 (5) के उल्लंघन के तहत दंड सुनाया गया। ग्रामसभा ने छत्तीसगढ़ सरकार के प्रशासनिक अमले को संविधान के अनुच्छेद 13(3) के पैरा (क), अनुच्छेद 19 के पैरा 5, 6 वअनुच्छेद 244 के पैरा 1 का पालन करने को कह दिया था।
इतना ताकतवर संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद भू-अधिग्रहण विरोधी आंदोलनों में इसे कामयाबी से लागू नहीं किया जा रहा, तो इसकी एक वजह यह है कि कुछ राज्यों ने 25 साल बीत जाने के बाद भी पेसा कानून के नियम नहीं बनाए हैं। आचर्यजनक रूप से पचीस साल बाद मध्यप्रदेश की सरकार को पेसा की याद आयी तो उसने इस कानून की मूल भावना के खिलाफ इसके नियम गढ़ दिए। ‘पेसा कानून’ में आदिवासी परम्पराओं के अनुसार आपसी विवाद निपटाने और प्राकृतिक संसाधनों का समुदाय के हित में प्रबंधन करने का अधिकार ग्राम सभा को दिया गया है। 25 वर्षों बाद मध्य प्रदेश सरकार द्वारा ‘पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) नियम– 2021’ काम सौदा तैयार कर जुलाई 2021 में सबंधित विभागों से एक माह के अंदर सुझाव और संशोधन हेतु प्रस्ताव मांगे गए थे। ‘पेसा नियम’ के मसौदे को न तो सार्वजनिक किया गया और न ही इस पर आमलोगों से सुझाव मांगे गए। यहां तक कि निर्वाचित आदिवासी जनप्रतिनिधियों को भी इस संबंध में अधिकृत रूप से सूचित नहीं किया गया।
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ओडिशा सरकार ने 2011 में राज्य पेसा नियमों का मसौदा तैयार किया था, हालांकि पिछले 11 वर्षों से इसे विधानसभा में पास होने का मौका नहीं मिला है। यह देखा गया है कि ओडिशा ग्राम पंचायत अधिनियम 1964 और अन्य पंचायत संबंधी कानूनों में अधिकांश तथाकथित संशोधन केंद्रीय पेसा अधिनियम 1996 की भावना के अनुरूप नहीं थे। इन तीन पंचायत कानूनों में संशोधन किए गए। इससे पहले 1994 में ओडिशा राज्य विधायिका द्वारा 73वें संशोधन के अनुपालन में भी उन्हें संशोधन कहना उचित नहीं होगा। इसके अलावा, आधिकारिक और नागरिक समाज दोनों हलकों में कई सवाल और भ्रम हैं कि ओडिशा राज्य न केवल पेसा अधिनियम 1996 में रोड़ा लगा रहा है, बल्कि पहले के कानून यानी 1992 के 73वें संविधान संशोधन के भी रास्ते में खड़ा है।
समस्या और भी जटिल है- उदाहरण के तौर पर, संविधान का अनुच्छेद 243G, जो पंचायतों को ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करने का प्रावधान करता है जो उन्हें योजनाओं की तैयारी के मामले में पंचायतों को शक्तियों और जिम्मेदारियों के हस्तांतरण के साथ-साथ स्वशासन के संस्थानों के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाती हैं और आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाओं का कार्यान्वयन के साथ कई विषयों पर केंद्रित हैं जिसमें संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध मामले शामिल हैं, लेकिन इन्हीं तक सीमित नहीं हैं। ओडिशा विधानसभा ने संविधान के अनुच्छेद 243N का कथित अनुपालन करते हुए 1994 और 1995 में तीन प्रमुख पंचायत कानूनों में संशोधन किए, लेकिन यह संशोधन पंचायत कानूनों को समय के साथ अपडेट करने के बजाय जुगाड़ की तरह इधर-उधर बैठा दिए गए जिसमें प्रतिगामी पुराने कानून और प्रगतिशीलन ये कानून के पहिये लगाकर ऐसी गाड़ी तैयार की गयी जो कहीं बढ़ ही नहीं पाती है। इस प्रकार यह संविधान के 73वें संशोधन की मूल भावना का सीधा निषेध करती है।
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पेसा के संदर्भ में मुद्दा केंद्रीय अधिनियम के साथ राज्य के कानूनों के अनुपालन का है। हिमाचल, आंध्रप्रदेश, राजस्थान ने अपने पेसा नियमों को 2011 में और महाराष्ट्र ने 2014 में अधिसूचित किया था। तेलंगाना ने 2018 में पेसा नियम लागू किए, जो आंध्र प्रदेश के पेसा नियमों पर आधारित हैं लेकिन छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, ओडिशा और झारखंड ने अभी तक पेसा नियमों को अधिसूचित नहीं किया है। दूसरी ओर, गुजरात ने पाँचवीं अनुसूची के क्षेत्रों के प्रबंधन के लिए पंचायती राज अधिनियम के नियमों का ही उपयोग किया है। गुजरात ने वास्तव में पंचायती राज नियमों को ही पेसा का नियम बनाया है।उदाहरण के लिए, गुजरात सरकार का कहना है कि पेसा नियमों के तहत मान्यता प्राप्त ग्राम सभा पंचाय तस्तर पर होगी।यदि एक पंचायत के अंतर्गत चार गाँव हैं तो प्रत्येक गाँव के कुछ प्रतिनिधियों को सदस्य बनाया जाएगा और पंचायत स्तर की ग्रामसभा को मान्यता दी जाएगी। दूसरी ओर, केंद्रीय पेसा अधिनियम प्रत्येक गाँव से एक ग्रामसभा को अधिकार देता है।चूँकि गुजरात में पंचायती राज नियमों को पेसा नियमों में बदल दिया गया है, इसलिए ग्रामसभाओं के पास पेसा अधिनियम में परिकल्पित सटीक स्वायत्तता और शक्ति नहीं है।
इस कारण से अधिकतर राज्यों में पांचवीं अनुसूची की ग्रामसभाओं का इस्तेमाल अंततः लोगों को परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण पर सहमत होने पर मजबूर करने के लिए किया जा रहा है।उनके जीवन और आजीविका पर प्रतिकूल प्रभाव के बारे में कोई गंभीर जानकारी या चर्चा के बिना मूलरूप से त्वरित सहमति प्राप्त करने के लिए फर्जी ग्रामसभाएं बनायी जार ही हैं। अगर किसी परियोजना को लागू करना है, तो वनाधिकार कानून (एफआरए) और पेसा दोनों अधिनियमों के तहत ग्रामसभा की सहमति का होना आवश्यक है। राज्य चालाकी से ग्रामसभा की सहमति को गढ़ता है।इस तरह सरकार एफआरए और पेसा अधिनियम दोनों में ग्रामसभा के संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करती है।
जनसंघर्षों के ‘आदिवासी’ केंद्रित होने का दूसरा चरण?
आठ साल पहले ‘भूमि केंद्रित’ हुए भारत के जनांदोलनों और इससे निकले भूमि अधिकार आंदोलन को क्या अब ‘आदिवासी केंद्रित’ होने की स्वाभाविक ज़रुरत आन पड़ी है? यह सवाल संसदीय लोकतंत्र में अहिंसा के रास्ते आंदोलन करने वाले नुक्ते के हिसाब से भी मौजूं है क्योंकि ढिंकिया संकल्प के दूसरे आयाम पर आंदोलनों के बीच बहुत चर्चा नहीं हुई है। क्या यह दूसरा आयाम ‘संविधान के भीतर संविधान’ से निकलता है? नियमगिरि की कामयाबी से शुरू हुआ पिछले एक दशक का भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन परिदृश्य स्वाभाविक रूप से इसी ओर इशारा कर रहा है। जाहिर है, यह बात हम पांचवीं अनुसूची क्षेत्रों के संदर्भ में ही कर रहे हैं, क्योंकि आंदोलनों का ‘नॉन-नेगोशिएबल’ चरित्र भी वहीं दिखता है। उचित मुआवजा देने या मुआवजा बढ़ाने वाले मामलों में कोई तकनीकी गतिरोध नहीं है, केवल सरकारों की इच्छाशक्ति का मामला है चूंकि उसका इलाज 2013 वाले कानून में निहित है। जो लोग अपनी जमीन नहीं छोड़ना चाहते सवाल उनका है। वे अनिवार्यत: आदिवासी हैं और पेसा कानून के दायरे में आते हैं।
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आज से दस साल पहले यह बहस हो सकती थी कि जमीन अधिग्रहण और विकास का आपसी सम्बंध क्या है। अब इस बहस की ज़रुरत नहीं रह गयी है क्योंकि जिनकी ज़मीनें छिन रही हैं वहां पर्याप्त समझदारी कायम है कि कम से कम विकास के लिए तो ये जमीनें नहीं छीनी जा रही हैं। हां, बेशक शहरी और कस्बाई मध्यवर्ग में यह झूठी समझदारी अब भी कायम है कि सरकार विकास करने के लिए ज़मीनें लेती है, लेकिन उसे सम्बोधित करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि इस तबके की बुनियादी संवेदनाओं की नैतिक दिशा ही भ्रष्ट हो चुकी है। 2020 और 2021 के दो लॉकडाउन के दौरान शहर से वापस अपने गांव जा रहे मजदूरों के प्रति उनकी अभिव्यक्तियों का मामला हो या फिर साल भर चले किसान आंदोलन पर उनकी प्रतिक्रियाओं का, यह एकदम स्पष्ट हो चुका है कि इस देश का ‘अप्रभावित’ वर्ग ‘प्रभावित’ वर्ग से मूलत: अलग है, बल्कि उसे अपने हितों का दुश्मन समझता है। ये शहरी-कस्बाई अप्रभावित अनिवार्यत: उच्च वर्ग और उच्च जातियों से आते हैं जो किसान, मजदूर, दलित, मुसलमान और आदिवासी को राजसत्ता के चश्मे से देखते हैं। इसलिए इनके बीच किसी भी तरह की झूठी समझदारी या भ्रम पर समय ज़ाया करने का अर्थ नहीं बनता। यह आंदोलनों को समझना होगा कि दस साल पहले संभव हो सकता था, लेकिन आज बदली हुई परिस्थितियों में ‘अप्रभावित’ वर्ग वंचितों के लिए किसी किस्म के प्रेशर ग्रुप का काम नहीं कर सकता है।
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उधर, प्रभावितों और प्रभावित क्षेत्रों में बहस काफी आगे जा चुकी है। उन्हें भूमि अधिग्रहण और विकास के बीच झूठे रिश्ते को समझाने के बजाय यह साझा परस्पर समझदारी विकसित करना ज़रूरी है कि संविधान की टेक लेकर कैसे अपनी ज़मीनों को संवैधानिक दायरे में बचाया जा सकता है। रणकौशल का सवाल हर आंदोलन और हर समूह अपने सामर्थ्य और समय के हिसाब से तय करेगा, जैसा पंजाब के किसानों ने किया।
भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन को इस पड़ाव पर यह निर्णायक रूप से तय करना होगा कि उसे अपने संघर्षों और विमर्शों को आदिवासियों पर केंद्रित करना है या नहीं। रायपुर सम्मेलन के नौ प्रस्ताव साफ दिखाते हैं कि संसाधनों पर मालिकाना, वनाधिकार, ग्रामसभाओं की स्वायत्तता आदि हर एक बिंदु इसी ओर प्रवृत्त हैं। यह जनसंघर्षों की शक्ल और अंतर्वस्तु को नये सिरे से केंद्रित करने का दूसरा चरण है। इसके बाद लड़ाई या तो जीती जानी है या हारी जानी है। बेहतर होगा कि देश के तमाम संघर्ष समूह पलट कर बीते दस साल के संघर्षों का अवलोकन करें और पिछले लिए संकल्पों को दोबारा पढ़ें। जमीन की लूट के प्रतिकार का जवाब उसी में छुपा है।
संदर्भ स्रोत:
- संघर्ष संवाद (मध्यप्रदेश और ओडिशा)
- मोंगाबे (पेसा, कुंदन पांडे)
- जनपथ (हसदेव, सिलगेर, गोड्डा)
- गांव के लोग, अंक-1 (‘गांव की बात: क्यों, कौन और कैसे?’, अभिषेक श्रीवास्तव)
- विकीपीडिया (पेसा, भूमि अधिग्रहण 2013)
- पेसा कानून के अनुभवों पर राज्यों की रिपोर्ट, पीस
- प्रेस विज्ञप्तियां, जनांदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय
- भूमि अधिकार आंदोलन (संकल्प-पत्र और प्रस्ताव: ढिंकिया, अहमदाबाद, गोड्डा और रायपुर)
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