मुंबई/पालघर। सभाजित-सुभाष यादव के तबेले से गुजरती गली के एक मकान से आठ साल का अयान बाहर निकल रहा है। वह अपनी मां के साथ है। मैंने उससे पूछा, ‘कहां जा रहे हो?’ उसने बताया- ‘कोचिंग में ट्यूशन पढ़ने जा रहा हूं।’ अच्छा। मैंने पूछा कि ‘तुम्हारे पिता कहां हैं?’ तो उसने बताया कि ‘मेरे पिता गुजरात गए हैं वे और तबेले में काम नहीं करते। मेरे पिता एक फैक्ट्री में काम करते हैं।’
इसी तरीके से पालघर जिले के नालासोपारा इलाके में स्थित पटखलपाड़ा के एक तबेले में अंजली रहती है। अंजली बीएससी कर रही है। और जब पढ़ाई से खाली होती है तब अपनी मां का हाथ बटाती है। अंजली का सपना है कि वह पढ़-लिखकर डॉक्टर बने। उसकी बड़ी बहन नर्सिंग का कोर्स कर रही है। अब उसके घर में नई पीढ़ी का कोई बच्चा तबेले में काम नहीं करना चाहता।
थोड़ी दूर पर एक तबेला चलाने वाले राजकुमार यादव का बेटा भी अब एक फैक्ट्री में काम करता है और अपने पिता के तबेले को लेकर उसका कोई लगाव नहीं है। हालांकि राजकुमार इस बात को लेकर कतई कोई दिक्कत नहीं महसूस करते कि अगली पीढ़ी में जब कोई भैंस का काम नहीं करेगा तो उनके इस तबेले का क्या होगा?
दुनिया में संचार क्रांति का बोलबाला है। इसके बावजूद वे सपनों के शहर में इस तरह का काम कर रहे हैं जिसमें बेहिसाब परिश्रम और दिक़्क़तें हैं। सुबह से रात तक काम चलता रहता है। इसमें दो पालियों में मिलाकर प्रतिदिन तेरह-चौदह घंटे खटना पड़ता है और यदि कोई भैंस बीमार हो गई अथवा कोई ब्याने वाली होती है तो काम के घंटे स्वतः बढ़ जाते हैं।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के एक गांव के रहने वाले राजकुमार सन 1982 में मुंबई आए थे। यहां उनके बड़े भाई का एक तबेला था जिसमें आकर वह काम करते थे। उन्होंने बताया कि वह इंटरमीडिएट तक पढ़े हुए हैं।
मैंने पूछा कि ‘क्या आपको कोई दूसरी नौकरी नहीं मिली?’ उन्होंने कहा कि ‘मैंने कोई कोशिश नहीं की क्योंकि बड़े भाई का तबेला था यहां पर। और मैंने सोचा कि जब अपना धंधा है तब मुझे काम क्या करने की जरूरत है। दूसरे की नौकरी से अच्छा है अपना काम करो। इसमें मेहनत अधिक जरूर है लेकिन यह अपना काम है। इसमें किसी की ताबेगीरी नहीं है।’
थोड़ी देर पहले जब हम यहां आ रहे थे तब देखा अचोले चौक के पास 15-20 भैंसों के साथ राजकुमार बड़ी मस्ती से चले आ रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि वह उत्तर प्रदेश से चलकर सुदूर महाराष्ट्र में पालघर के एक उपनगर में अपने गांव की तरह भैंसों को हाँक कर चल रहे हैं। वसई से लगा यह नालासोपारा का दक्षिण-पूर्वी इलाका खासा भीड़-भाड़ वाला है लेकिन वे और उनकी भैंसें अपने काम की इतनी अभ्यस्त हैं कि बिना कोई परेशानी पैदा किए आराम से अपने तबेले की ओर लौट रही हैं। ऐसे ही सुबह वे पानी पीने को ले जाई जाती हैं।
मुंबई में दूध के लिए अभी भी बहुत से लोग तबेलों पर निर्भर हैं, इसके बावजूद कि प्लास्टिक की थैलियों में अमूल और दूसरी कंपनियों का दूध बहुत बड़ी मात्रा में बिकता है। लेकिन बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो खुला हुआ दूध खरीदते हैं। खुले हुए दूध की दर्जनों डेरियाँ हैं, जहां से लोग दूध ले जाते हैं। दूध के साथ अन्य दूसरे दुग्ध उत्पाद भी वे डेरियों से ही लेते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यहाँ पर शुद्ध दूध मिलता है। निश्चित ही वहाँ बिना पानी मिला दूध मिलता होगा लेकिन अंधेरी के एक तबेले में जब मैं और शूद्र शिवशंकर सिंह यादव गए तो दूध लेने के लिए जुटे दर्जनों ख़रीदारों के बावजूद सरेआम भैंसों को इंजेक्शन लगाकर दूध निकाला जा रहा था।
बहुत कठिन है तबेले का काम
सपनों की नगरी कही जानेवाली मुंबई शहर में हजारों ऐसी कहानियाँ हैं जिनका जन्म तबेलों से हुआ है लेकिन उनके पात्रों का अब तबेले से कोई भी रिश्ता नहीं बचा है। पहले म्यूचुअल फंड और अब बिल्डर का काम करने वाले मीरा रोड निवासी विजय कुमार यादव बताते हैं कि ‘मेरे पिता ने भी अंधेरी में चालीस खूँटे चलाये थे ताकि पैसे कमा सकें। मेरे बड़े भाई डॉ गुलाबचंद यादव और परिवार के दूसरे लोगों ने बेहिसाब मेहनत की। मैं तब बहुत छोटा था। सातवीं-आठवीं में पढ़ता था और सुबह चार बजे साइकिल पर दूध के बाल्टे लादकर सांताक्रूज और विले पार्ले में दूध देने जाता था। दरअसल मुझे साइकिल चलाने का बहुत शौक था और यह मेरे लिए एक अच्छा मौका था। इसलिए मैं खुली हुई शर्ट पहने जब लहराकर साइकिल चलाता तो ठंडी-ठंडी हवा एकदम मन को उल्लास से भर देती थी।’
आईडीबीआई बैंक के बेंगलुरु स्थित अंचल कार्यालय में हिंदी अधिकारी अमरेंद्र कुमार त्रिपाठी ने बताया कि ‘हमारे पिताजी भी नौकरी पाने से पहले एक लंबे समय तक तबेले में ही काम करते थे। हमारी छोटी बहन के जन्म के बाद ही उनकी नौकरी लगी। इतना ही नहीं, मैंने भी एक माह तक उसी तबेले में काम किया। तब 11वीं कक्षा में पढ़ रहा था और अपनी पहली कमाई से जो पहली चीज़ खरीदी थी वह थी रैपीडेक्स इंगलिश स्पीकिंग कोर्स नाम की किताब। सुबह उठकर 40 भैंसों का गोबर साफ करना, उनको नहलाना, छाटा डालना और अन्य बहुत सारे कार्य करता था।’
एक समय था जब पूर्वांचल के लोग मुंबई के तबेलों में खटने आते थे। आमतौर पर ये लोग छोटे किसान और खेतिहर मजदूर होते थे। उनकी आर्थिक स्थितियाँ ऐसी थीं कि खेतों में काम के बाद बड़ी मुश्किल से घर चल पाता था और अच्छी नकदी की उम्मीद में वे मुंबई का रुख करते थे। इनमें अधिकतर यादव जाति के लोग थे। उनके पास कार्यकुशलता के नाम पर गाय-भैंस की देखभाल और दुहना आदि ही थी। यह न केवल आसान था बल्कि इसमें आसानी से काम मिल जाता था। जिनको भैंस दुहने आता था, वे दुहेले हो जाते थे। जो साइकिल चलाना जानते थे वे प्रायः दूध भरते (घर-घर दूध पहुँचाने का काम)। हिसाब-किताब करने में कुशल लोग ‘मेहतागीरी’ करते थे। मुंबई में मेहतागीरी करने वालों को लोकभाषा में दलाल माना जाता है जो आमतौर पर तबेला मालिक और खटेलों के बीच की कड़ी होते हैं। मेहता हर तरह से व्यवस्थाओं को सुचारु बनाए रखते थे। भैंस का ब्याना, दुहाई से लेकर सफाई और ख़ुराकी तक सबकुछ की देखभाल उन्हीं के जिम्मे था। और जिनको कुछ नहीं आता था वे गोबर उठाने, साफ-सफाई, भैंसों को नहलाने, चारा काटने जैसे मजदूरी के काम करने लगते थे। मुंबई में इन्हीं लोगों को ‘भैया’ कहा जाने लगा जो पूर्वांचल में सम्मानजनक सम्बोधन था लेकिन मुंबई में हिकारत से भरा सम्बोधन बना जो प्रायः पूर्वांचल और बिहार के हर आदमी के लिए रूढ हो गया।
मुंबई में रहनेवाले यादवों के बीच बाबूलाल यादव अच्छी पैठ रखते हैं। टेलीफोन विभाग से रिटायर्ड बाबूलाल दो हज़ार से अधिक शादियाँ करवा चुके हैं। इसलिए लोगों के बीच उनका आना-जाना अबाध गति से चलता रहा है। वह अनेक ऐसे लोगों को जानते हैं जो तबेले वाले हैं या दूसरों के तबेलों में आजीवन खटते रहे। वह बताते हैं कि मैं ऐसे कई परिवारों को जानता हूँ जिनमें दो या तीन भाई डेवढ़ (सिलसिला) से मुंबई आते और तबेलों में काम करते थे। उन्होंने जौनपुर के लोरिक-भोरिक नामक दो भाइयों के बारे में बताया जो छः-छः महीने की पारियों में मुंबई के तबेले में काम करते थे। लोरिक कमाने आते तो भोरिक खेती करते। फिर छः महीने बाद जब भोरिक मुंबई आते तो लोरिक गाँव पर रहकर खेती-गृहस्थी और हिताई-नताई देखते थे। यह पारिवारिक अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण आधार है और आज मुंबई में रहनेवाले बहुत से यादव इन्हीं तबेलों से निकलकर प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं।
वसई में डेयरी चलानेवाले भदोही निवासी रामचरण यादव बहुत सुलझे और राजनीतिक रूप से सजग व्यक्ति हैं। वह सपा के पालघर जिलाध्यक्ष हैं। रामचरण कहते हैं कि ‘तबेला बनाना, चलाना या इसमें खटना बहुत कठिन काम है। इसमें कोई छूट नहीं मिलती। हर चीज का टाइम फिक्स है। चारा देना, साफ-सफाई, दूहना और दूध बेचना सबकुछ टाइम से नहीं हुआ तो तबेले के खूँटे उखड़ जाएंगे। कहावत है कि अगर दूध समय से नहीं बिका तो वह दूधवाले को ही बेच देगा। अर्थात यह कच्चा रोजगार है और ज़रा सी लापरवाही खतरनाक हो सकती है।’
रामचरण का कहना है कि ‘तबेलेवालों ने मुंबईवासियों के दूध की जरूरत को पूरा करने में जीवन लगा दिया है लेकिन उन्हें कोई विशेष सहूलियत या सुविधा नहीं मिली। सामाजिक रूप से उन्हें हिकारत ही मिली। इसे एक जरूरी पेशे के रूप में सम्मान नहीं मिला इसलिए नई पीढ़ी इससे विरक्त हो रही है।’
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रामचरण के पास कई अनुभव हैं जो तबेले और दूध का काम करने वालों की कठिन जिंदगी की आईनादारी करते हैं। जब उन्होंने काम की शुरुआत की थी तब रोज दो बजे उठते और तबेले में पहुँचते ताकि दूध लेकर चार बजे तक घरों में पहुँचा सकें। लेकिन वे उन दिनों कम दूध लेते थे इसलिए डेयरी वाला दूध पहुंचाता नहीं था। गर्मी हो या बारिश यह क्रम लगातार चलता रहा। कई बार तबीयत खराब होने पर भी काम करना ही था। वह बताते हैं कि ‘हर काम टाइम से बंधा है। इस बीच में कोई मर भी जाता तो सब काम करने के बाद ही अन्त्येष्टि होती। दूध वालों की ज़िंदगी निर्ममता का शिकार होती है। लेकिन उन्हें कोई सहूलियत या सुविधा नहीं मिलती उल्टे उन्हें गलत समझा जाता है। बच्चे के जन्म के बाद से दूध की जरूरत शुरू होती है और हर सुबह सबकी चाय के लिए दूध चाहिए लेकिन कोई यह नहीं सोचता कि ये दूधवाले कितना परिश्रम करते हैं। सरकार ने इनके संरक्षण और बेहतरी के लिए कोई कानून नहीं बनाया बल्कि उनके ऊपर कई तरह के दंड लगाए जाते रहे हैं। ये मेहनत करनेवाले लोग हर तरह की परिस्थिति का सामना करके भी समाज की सेवा करते हैं।’
तबेले में काम करनेवालों की जिंदगी गोबर, बदबू, मच्छर-मक्खी से भरी है। मुंबई के अंधेरी स्थित एक तबेले में नीचे भैंस रहती है और उससे चार फीट ऊपर बने मचान पर काम करनेवाले सोते हैं। इसी मचान पर उनकी गृहस्थी है। आप कल्पना कीजिये कि आदमी और भैंस का जीवन यहाँ एक दूसरे में कितना मिल गया है। यह एक लोमहर्षक जिंदगी है। युवावस्था में तबेले में काम कर चुके आईडीबीआई में महाप्रबंधक (राजभाषा) डॉ गुलाबचन्द यादव कहते हैं कि ‘आज इतने साल बाद सोचता हूँ तब भी पसीने छूट जाते हैं। लेकिन उन दिनों अंधेरी स्टेशन के पूर्वी-दक्षिणी छोर पर मेरे पिताजी के चालीस खूँटे होते थे। इसमें इतनी खटनी थी कि किसी और काम के लिए फुर्सत भी नहीं मिलती थी। अंधेरी से दूध लेकर भोर में साइकिल से वर्सोवा जाता था और वहाँ गुप्ता डेयरी में पहुंचाता था। बरसात के दिनों में कई बार गोबर में फिसलकर गिरा हूँ और कई बार भैंस ने अंडकोश पर पूंछ मार दिया। मरणान्तक दर्द से गुजरा हूँ। मैंने बी कॉम में एडमिशन लिया था लेकिन इतना काम करता था कि क्लास में मुझे नींद आ जाती और अध्यापक कई बार मुझे ज़लील करके बाहर निकाल देते। एक बार तो दोपहर में मेरा इम्तहान था और सुबह मैं भैंस धो रहा था। मेरे एक पड़ोसी अध्यापक ने पूछा कि तुम्हारा तो आज पेपर है। मैंने हाँ कहा तो उन्होंने बुरी तरह मुझे डाँटा कि क्या जीवन भर गोबर ही धोओगे। फिर पिताजी को आड़े हाथों लिया। तब पिताजी ने कहा कि जाओ इम्तहान दे आओ। उस साल मैं फेल हो गया। फिर बाद में खालसा कॉलेज में बी ए में दाखिला लिया। तबेला छोड़कर ऑटो चलाना सीखा, लाइसेन्स बनवाया और बैज लगाकर सड़क पर निकल गया।’
दो दुहेलों की दास्तान
तबेलों में काम करनेवाले लोगों की स्थिति तुलनात्मक रूप से आज भी बहुत तकलीफदेह है। वे बारह-बारह घंटे कमरतोड़ मेहनत करते हैं लेकिन उन्हें दस-बारह हज़ार रुपए महीने से अधिक वेतन नहीं मिलता। लेकिन साफ-सफाई और चारा-पानी का इंतजाम करनेवालों को और भी कम वेतन मिलता है। वेतन के अलावा एक लीटर दूध भी मिलता है। कुछ लोग एक की जगह आधा लीटर ही दूध लेते हैं और आधा लीटर का पैसा बचा लेते हैं। इस प्रकार वे इन हज़ार-बारह सौ रुपयों से अपनी सब्जी-साबुन,बीड़ी-तमाखू का काम चला लेते हैं।
मुंबई के अंधेरी पूर्व में गगनचुंबी इमारतों के साये में चलनेवाली एक डेयरी में दुहेले का काम करने वाले मटरू प्रसाद उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के रहनेवाले हैं। वह बताते हैं कि रोज रात दो बजे से दिनचर्या शुरू हो जाती है। मेरे जिम्मे दस भैंस हैं जिन्हें दो टाइम दूहता हूँ। एक भैंस को पेन्हवाने और दूहने में आधा घंटा लगता है। इस तरह कुल दस घंटे की दुहाई में हाथ भर जाता है। शुरू-शुरू में तो इतना दर्द होता था कि अगर कोई सुई भी उठाने को कह दे तो पहाड़ लगती थी। लेकिन अब सब सध गया है। गर्मी हो चाहे बरसात हो काम हमेशा एक टाइम से ही होता है।’
मटरू को बारह हज़ार वेतन मिलता है। साथ में एक लीटर दूध प्रतिदिन मिलता है। लेकिन अन्य कोई सुविधा नहीं मिलती। छुट्टी का पैसा कटता है। अब यहाँ कुल दो तबेले ही रह गए हैं इसलिए काम करनेवालों की संख्या कम हो गई है और इसीलिए उनका कोई संगठन नहीं है। वह बताते हैं कि हमारे दुख-दर्द की बात कोई नहीं सुनता।
तबेले के ऊपर ही उनका मचान है जिस पर उनकी गृहस्थी का सारा सामान है। वह कहते हैं कि ‘आपको मेरे कपड़ों से दूध की महक आ रही होगी लेकिन यहाँ काम करते-करते अब मुझे इन सब चीजों की आदत हो गई है। दस महीने काम के बाद दो महीने गाँव में जाकर रह आता हूँ। वहाँ भी खेत है लेकिन खेती से किसको पूरा पड़ता है?’
मटरू प्रसाद की तीन बेटियाँ और दो बेटे हैं। दो बेटियों की शादी कर चुके हैं। एक बेटी और दो बेटे पढ़ रहे हैं। वह नहीं चाहते कि कोई बेटा उनकी तरह तबेले में काम करे। लेकिन उत्तर प्रदेश में बेरोजगारी की स्थिति देखकर वह ऐसी कोई उम्मीद नहीं रखते कि उनके बेटे कोई नौकरी पा जाएंगे। वह कहते हैं कि बेटे की पढ़ाई पूरी होने के बाद मुंबई ले आएंगे ताकि किसी अच्छी कंपनी में वह नौकरी पा सके।
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इसी तबेले में काम करनेवाले खेलावन पहले तो संकोच के कारण बात नहीं कर रहे थे फिर बोले कि ‘आप गलत समय पर आए। शाम को दम लेने की फुर्सत नहीं है।’ उन्होंने कहा कि ‘हाड़-तोड़ मेहनत के बाद रोटी मिलती है। छोटी सी तनख्वाह में सब कुछ करना पड़ता है। जब तक काम करेंगे तब तक ही पैसा मिलेगा। बाद में तो ठनठनगोपाल ही रहना है।’ फिर उन्होंने धीरे से कहा कि मालिक यह तबेला बेच देगा तो ट्रक भर रुपया पाएगा। हमको तो कुछ नहीं मिलनेवाला।
वहां मौजूद मेहता भैंस को इंजेक्शन देने की तैयारी कर रहे थे । उन्होंने बताया कि अब यह तबेला भी उखड़ेगा। बीएमसी से कुछ लफड़ा चल रहा है। लेकिन फैसला उसी के हक में आएगा। उन्होंने कहा ‘इतनी बड़ी बिल्डिंगों के बीच यह तबेला कितने दिन बचेगा। बहुत लोगों की नज़र इस ज़मीन पर है।
तबेले में काम करनेवाले लोगों को स्वास्थ्य की कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। लगातार बदबू और मच्छर-मक्खियों से जूझना पड़ता है। भविष्य का कोई बंदोबस्त नहीं। जो है वह वर्तमान है। कोई मेडिकल सुविधा नहीं मिलती। फंड या बीमे का भी कोई प्रावधान नहीं है। खेलावन कहते हैं और कोई रास्ता नहीं है लेकिन पहले जब बहुत से लोग इस काम में थे तब अच्छा लगता है लेकिन अब बहुत कम लोग बच गए हैं, इसलिए लगता है कि सब कहाँ से कहाँ चले गए लेकिन हम यहीं फंसे रह गए।
तबेले का इतिहास मुंबई के विस्तार के साथ बदलता रहा है
तबेला अस्तबल शब्द का देसी रूप है। मुंबई में तबेले का इतिहास काफी पुराना है। अंग्रेजों के जमाने में कोलाबा में तबेले थे। कोलाबा ही पुरातन मुंबई रहा है जो वास्तव में कोलियों का गाँव था। बाद में जब कोलाबा के आसपास सम्पन्न लोगों की आबादी बढ़ी तब कोलाबा से तबेलों और कोलियों को शिफ्ट कर दिया गया। क्रमशः तबेले और कोलियों के नए ठिकाने दादर, माहिम, कुर्ला, घाटकोपर, अंधेरी, जोगेश्वरी और गोरेगांव आदि की ओर बढ़ते रहे।
सौ-सवा सौ साल पहले मुंबई के लोगों की नज़र में दादर का क्या महत्व था इसका पता दादा साहब फाल्के के जीवन पर बनी मराठी फिल्म हरिश्चंद्राची फैक्ट्री में फाल्के के एक पड़ोसी की बात से चलता है। दादा साहब फाल्के तब ‘टाउन’ में राजा रवि वर्मा के साझीदार के रूप में एक प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे लेकिन घाटा होने के कारण साझीदारी टूट गई। तब फाल्के ने अपना परिवार लेकर दादर रहने की घोषणा की जिसकी प्रतिक्रिया में उनका पड़ोसी कहता है कि ‘अरे अब उस जंगल में जाकर रहोगे!?’
बहुत आसानी से यह बात समझ में आ जाती है कि अमीरी के विस्तार और बिल्डरों के वर्चस्व ने तबेलों को विस्थापित होने और उजड़ने पर मजबूर किया और वे उत्तर और पश्चिम की ओर खिसकते रहे।
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मुंबई में चलने वाले अनेक तबेले अब आरे कॉलोनी में शिफ्ट हो गए हैं, लेकिन पहले जोगेश्वरी गोरेगांव और अंधेरी में अनेक तबेले हुआ करते थे। वेस्टर्न रेलवे पर बहुत से तबेले साफ-साफ दिखा करते थे लेकिन अब वे वसई, नालासोपारा और विरार आदि उपनगरों में शिफ्ट हो गए। अभी भी अंधेरी ईस्ट और जोगेश्वरी वेस्ट में कुछ तबेले हैं। आरे कॉलोनी में जो बड़ा तबेला चल रहा है, वह पहले सरकार ने हस्तगत कर लिया था लेकिन वह चला नहीं पाई तो उसे निजी तौर पर चलाने का जिम्मा किसी को दे दिया। नायगाँव, वसई, नालासोपारा और विरार के इलाकों में छोटे-बड़े ढाई-तीन सौ तबेले हैं। आज के समय में अधिकतर तबेला मालिक गुजराती हैं लेकिन उनमें काम करनेवाले नब्बे फीसदी लोग जौनपुर और भदोही के यादव हैं। भजनलाल का तबेला सबसे बड़ा और आधुनिक है जिसमें पंद्रह सौ मवेशी हैं और मशीन से दूध निकाला जाता है।
महाराष्ट्र सरकार तबेला चलाने के लिए पहले लीज पर जमीनें देती रही है। जैसे-जैसे शहर बढ़ता है वैसे-वैसे बिल्डरों को अधिक ज़मीनों की आवश्यकता पड़ती है। इस क्रम में उनकी नज़र झुग्गी-झोंपड़ियों आदि मलिन बस्तियों तथा तबेले आदि पर पड़ती रही है। फिर उन्हें विस्थापित करने का एक खेल चलता रहा है। इस प्रकार तबेले मुंबई के शहरी विस्तार में उजड़ते-बसते रहे हैं।
नालासोपारा के इलाके में परिवारों द्वारा चलाए जा रहे तबेले बच गए हैं। राजकुमार यादव का तबेला, सभाजित और सुभाष यादव का तबेला तथा भैयालाल पाठक जैसे लोगों का तबेला एक परिवार द्वारा चलाये जानेवाले तबेले हैं जिनमें घर के लोग ही काम करते हैं। पटखलपाला और नालासोपारा में ऐसे डेढ़ सौ से अधिक तबेले हैं जिन्हें परिवार के लोग चलाते हैं। पटखलपाड़ा इलाके में सुभाष यादव के तबेले के ऊपर लगा यह होर्डिंग एकदम धूमिल हो चुका है जिससे पता चलता है कि यह कई दशक पुराना है। इसी तबेले में बनी दुछत्ती में दो लोग सो रहे थे। अंधेरी या दूसरी जगहों के तबेलों के मचान अधिक कठिन जिंदगी के संकेतक हैं।
कभी-कभी यूं भी होता था
डॉ गुलाबचंद यादव के पास अनेक ऐसे किस्से हैं जो उनके तबेले में काम करनेवालों से जुड़े हैं। उन्हीं में से एक किस्सा इस प्रकार है ‘नारगांव, जिला भदोही निवासी श्री बैजनाथ यादव अंधेरी (पश्चिम) के कामा रोड स्थित एक सोसाइटी के गुजराती व्यवसायी के यहां प्रतिदिन सुबह छः बजे तीन लीटर दूध देने जाया करते थे। उस गुजराती व्यवसायी के परिवार में पत्नी, दो बेटियां, एक बेटा और उसकी 75 वर्षीया मां शामिल थी। बैजनाथ सुबह पहुंचकर जब डोर बेल बजाते तो कुछ देर बाद दरवाजा खुलने पर व्यवसायी की बुजुर्ग माताजी को भगोना (बड़ा टोप) लिए खड़ी पाते। यह रोज का क्रम था। बैजनाथ लौटते समय सोचते कि इस घर में व्यवसाई की पत्नी और तीन बड़े बच्चे भी रहते हैं फिर भी उनकी माताजी ही क्यों दूध लेने के लिए रोज खुद दरवाजा खोलती हैं। बाकी लोग क्यों नहीं यह काम करते?
बहुत ही जमीनी रिपोर्ट है, इसमें प्रायः पूर्वांचल के अधिकांश गांवों की कहानी छिपी हुई है।
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