कृषि हमारे देश का एक महत्वपूर्ण व्यवसाय है। भारत के पारंपरिक व्यवसायों में इसका उल्लेख किया गया है। इसीलिए कृतज्ञता के भाव में हम किसानों को अन्नदाता कहते हैं। लेकिन जिस चीज की अनदेखी की जाती है वह है लोहार का वह हाथ, जो किसानों को औज़ार प्रदान कर अनाज उगाने में मदद करता है। जो हाथ प्राचीन काल से ही लोहे की धातु को अलग-अलग आकार देकर लोगों के काम को आसान बनाता आ रहा है। यह समुदाय गड़िया लोहारों की है, जो आज भी गुमनामी के अंधेरे में वैज्ञानिक तरीके से अपने काम में पारंपरिक ज्ञान का इस्तेमाल करते रहे हैं, वह भी बिना किसी स्कूल गए। जैसा कि कई पारंपरिक व्यवसायों और कलाओं में महिलाओं का विशेष योगदान होता है। इस समुदाय की महिलाएं भी पुरुषों के बराबर इस काम को आगे बढ़ाने में अपनी भागीदारी निभा रही हैं।
राजस्थान में अजमेर-जयपुर हाईवे के किनारे पारसोली गांव में गड़िया लोहारों का एक गांव घोर गरीबी में जीवन यापन कर रहा है। इसी कस्बे की 60 वर्षीय डाली गड़िया लोहार कहती हैं, “हमें नहीं पता कि स्कूल कैसा दिखता है? हमने पंद्रह साल की उम्र में काम करना शुरू कर दिया था। उससे पहले हम अपने माता-पिता के साथ बैलगाड़ी पर बैठकर लोहे का सामान बेचने एक गांव से दूसरे गांव जाया करते थे। कभी खाना मिलता था तो कभी भूखे रहना पड़ता था। कभी-कभी हमारे खाने की गारंटी भी नहीं होती थी। सदियां बदल गई हैं, लेकिन हमारे हालात नहीं बदले हैं।” ये लोहार मूल रूप से मेवाड़ के थे और शासकों के लिए हथियार बनाते थे। अकबर से हारने के बाद जब महाराणा प्रताप ने अपना राज्य खो दिया, तो लोहारों ने भी खानाबदोशों की तरह जीने की कसम खाई कि जब तक महाराणा प्रताप को उनका राज्य वापस नहीं मिल जाता, वह भी भटकते रहेंगे।
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जीवनयापन के लिए वे बैलगाड़ी पर ही अपना सामान बनाते और गांव-गांव बेचते रहे। इस बैलगाड़ी की वजह से उन्हें गड़िया लोहार के नाम से पहचाना जाने लगा। 33 वर्षीय किताब गड़िया के अनुसार “उनके जीवन का सफर भी कुछ ऐसा ही रहा है। पंद्रह साल की उम्र में किताब ने अपने माता-पिता के साथ खेती और पशुपालन के लिए औजार बनाना शुरू कर दिया था।” लोहारों के इस समुदाय में महिलाएं धातु को औजार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। पुरुष जहां अंगारों को गर्म करके लोहे पर प्रहार करता है, वहीं महिला पहले अंगारों को पंखा करती है और फिर पुरुष के साथ मिलकर धातु को आकार देने में मदद करती हैं। यह कड़ी मेहनत और बहुत कठिन प्रक्रिया है। ये महिलाएं बचपन से ही अपने परिवार के लोगों से इस काम को सीखती हैं। महिलाएं सामान बनाने के अलावा गांव-गांव, मेला-दर-मेला जाकर भी अपना उत्पाद बेचती हैं। अपने उत्पादों के बारे में किताब गड़िया कहती हैं, “हम चिमटा, छलनी, दांतली (हाथ की आरी), कुल्हाड़ी, हंसिया और कुदाल बनाते हैं और उन्हें एक गांव से दूसरे गांव बेचने ले जाते हैं। सामान बनाने के लिए हम लोहा और कोयला शहर से खरीदते हैं।”
उनके परिवार में महिलाओं की अगली पीढ़ी, बादम (40), सुगना (30) और ममता (32) भी इसी तरह का काम करती हैं और उनका शिक्षा से कोई संबंध नहीं है। लेकिन अब जब वे पिछले एक दशक से एक ही जगह पर बसे हुए हैं, उनके बच्चे पास के एक सरकारी स्कूल में जाते हैं। गड़िया लोहार अपने दिन की शुरुआत सुबह जल्दी करते हैं। अगर उनके पास लोग सामान लेने आते हैं तो वह उन्हें बेच देती है, नहीं तो उसे अपना सामान बेचने गांव-गांव जाना पड़ता है। उनके काम में कई खतरे भी शामिल हैं। न केवल धधकती आग के सामने बैठने के मामले में, बल्कि औज़ार बनाने के दौरान चोट लगने की भी काफी संभावना रहती है। इस बारे में डाली कहती हैं, “हम कभी-कभी घायल हो जाते हैं, लेकिन हम कुछ नहीं कर सकते क्योंकि यह हमारे काम का एक हिस्सा है।” उनकी बात को जारी रखते हुए, किताब कहती हैं, “हम कई सालों से दिन-रात यही कर रहे हैं, यह थका देने वाला काम है।”
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कड़ी मेहनत के बावजूद, इन महिलाओं के पास दैनिक आय नहीं है। हालांकि ये लोहार अब एक जगह बस गए हैं, लेकिन इनका जीवन और कठिन हो गया है। बड़े पैमाने पर मशीनीकरण ने उन्हें पहले की तुलना में लाभ से वंचित कर दिया है। पहले सब कुछ हाथ से किया जाता था। अब मशीन से बने आधुनिक उत्पाद मौजूद हैं जो बहुत सस्ते दामों पर उपलब्ध हो जाते हैं। किताब कहती हैं, “हमारे पास मशीनें खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं, उनकी कीमत अक्सर लाखों में होती है। हम कुल्हाड़ी के विभिन्न आकार बनाते हैं जो इस बात पर निर्भर करता है कि आप इससे क्या काटना चाहते हैं? इसकी कीमत 1300 रुपये, 600 रुपये या 300 रुपये प्रति कुल्हाड़ी होती है। हम तीन-चार लोग मिलकर एक दिन में एक कुल्हाड़ी बनाते हैं। वहीं, एक मशीन दिन के कुछ ही घंटों में अनगिनत कुल्हाड़ियां बना सकती हैं और हर एक की कीमत महज 150 से 300 रुपये होती है। तो हम जो बनाते हैं उसे कोई क्यों खरीदेगा?”
अब कुछ लोहार खुद जो बनाते हैं, उनकी महिलाएं सड़क किनारे बैठ कर ताले, जंजीर, रसोई के चाकू, घंटियां, तरह-तरह के चम्मच, चूहेदानी आदि धातु से बने औज़ारों को बेचती हैं। जिससे उन्हें थोड़े से लाभ होते हैं। अजमेर-जयपुर हाईवे पर स्थित डोडो गांव के शोरगुल वाले चौराहे पर बैठ कर अपना सामान बेच रही कमला गड़िया लोहार अपनी आय और खर्च के बारे में बताते हुए कहती हैं, “हम 20,000 रुपये का सामान खरीदते हैं, लेकिन हमारी कुल कमाई सिर्फ 2,000 रुपये होती है। इस महंगाई के दौर में भी हम महीने के दो से तीन हजार रुपये ही कमा पाते हैं और वह भी तब जब हम सुबह से शाम तक सड़क किनारे यह स्टॉल चलाते हैं। देखो, मैं यहां सुबह से बैठी हूं, दोपहर हो चुकी है और अभी तक सिर्फ 50 रुपये ही कमा पाई हूं। हम इस पैसे से खाने की सब्जियां भी नहीं खरीद सकते हैं।”
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संतोष गड़िया लोहार की भी यही कहानी है। वह कहती हैं, “हम एक सामान से पांच से दस रुपये ही कमाते हैं। हम कुल्हाड़ी और कुछ अन्य सामान बनाते हैं, लेकिन बाकी सब कुछ हम बेचने के लिए बाजार से खरीदते हैं। लोहे के सामान बनाने का हमारा पारिवारिक व्यवसाय प्रभावित हुआ है।” वह कहती हैं, “अब हम ये सामान जयपुर और अजमेर से खरीदते हैं और यहां सड़क किनारे बेचते हैं। हम पास के मालपुरा रोड पर गड़िया लोहार कॉलोनी में पिछले 50 साल से रह रहे हैं।” मेले हस्तशिल्प के प्रचार-प्रसार के महत्वपूर्ण स्थल हैं, लेकिन इन लोहारों के लिए यह आसान नहीं है। पुष्कर मेला, क्षेत्र का सबसे बड़ा मेला, भी अब इनके लिए लाभदायक नहीं रहा है। यहां के आयोजक उनसे प्रति फुट किराया 3,000 रुपये लेते हैं और इस राशि का भुगतान करने के बाद भी, उन्हें मेले में स्थाई जगह नहीं मिलती है। संतोष बताती हैं कि “हम कुछ बेचें या न बेचें, हमें यह किराया देना ही होगा। हम ब्याज पर पैसा उधार लेकर सामान खरीदते हैं और फिर भी अपना माल नहीं बेच सकते हैं।” यही कहानी क्षेत्र के अन्य प्रमुख मेले ‘अजमेर शरीफ में उर्स मेले’ की भी है। वे पूरे महीने के लिए एकमुश्त किराया वसूलते हैं। संतोष कहती हैं कि “हम सब एक-दूसरे से थोड़ी दूरी पर एक साथ बैठते हैं। हमारे लिए कुछ भी गारंटी नहीं है। मानसून में तेजाजी मेले में हम बहते बारिश के पानी के पास बैठ जाते हैं, हमें अपना माल बेचने के लिए जो भी जगह मिल जाती है, हम वहीं बैठ जाते हैं।”
इस बीच, कक्षा 2 में पढ़ने वाली उनकी पोती भावना स्कूल से घर लौटती हैं। जब उससे पूछा कि वह बड़ी होकर क्या बनना चाहती हैं? तो वह गर्व से कहती हैं कि उसे एक सैनिक बनना है। भावना और उसके चचेरे भाई के अपने सपने हैं। लेकिन उसके परिवार का कहना है कि यही उनका पसंदीदा काम है। संतोष कहती है कि “हमने ऑनलाइन काम के बारे में सुना है। हो सकता है कि हमारे बच्चे अपनी शिक्षा पूरी कर इस काम को ऑनलाइन शुरू करें। तो शायद हमारे भी दिन बदल जाएं।” डाली, किताब और संतोष का “नई पीढ़ी का नई टेक्नोलॉजी के साथ पुश्तैनी काम” को आगे बढ़ाने का ख्वाब क्या पूरा होगा या नई पीढ़ी से छोड़ देगी? क्या उनके पोते-पोतियों के जीवन की दिशा को आशा के नए उपकरण में बदल देगी? ऐसे कई प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़कर गड़िया लोहार समुदाय की ये मेहनती महिलाएं उस दिन का इंतजार कर रही हैं जब उनके बनाये सामान एक बार फिर से लोकप्रिय होंगे और वह अच्छी कीमत पर बिकने लगेगी।
(साभार चरखा फीचर)