Saturday, July 27, 2024
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एक ऐसा उपनगर जहां भीड़ बढ़ती जा रही है लेकिन सुविधाएं कुछ भी नहीं

नायगाँव पूर्व के निवासी पिछले 18 वर्षों तक टैंकर द्वारा महंगा पानी खरीद कर पीने को मजबूर थे। इस उम्मीद में कि एक दिन सरकारी पानी जरूर मिलेगा। दो साल पहले मिला भी था। लोग बहुत खुश हुए थे। लेकिन फिर पिछले सात-आठ महीनों से सरकारी पानी की सप्लाई जान-बूझकर आधी कर दी गई है। फिर से टैंकर का पानी शुरू हो गया है। अब फ्लैट लेने वाले बेचने की फिराक में लग गए हैं, लेकिन जितने में खरीदा है, उतना दाम अब नहीं मिल पा रहा है।

मुम्बई। नायगाँव पूर्व स्टेशन से दिखता यह दृश्य आपको किसी बाज़ार का लगता होगा। यहाँ की चहल-पहल एकदम बाज़ार जैसी ही है लेकिन वास्तव में यह एक रास्ता है जो नायगाँव स्टेशन से नायगाँव पूर्व, परेरा नगर, जूचंद्र, टिवरी आदि इलाकों को जोड़ता है। यहाँ से साढ़े तीन-चार सौ मीटर चलने पर सोपारा नाला आएगा जिस पर एक कंक्रीट का अधूरा पुल मिलेगा। सीढ़ियों के जरिये पुल पर चढ़कर नाला पार करने के बाद आप कहीं के लिए ऑटो ले सकते हैं। लेकिन यह जो सामने भीड़ दिख रही है उसे पार करना बहुत आसान नहीं है। रास्ते के दोनों किनारों पर दर्जनों दुकानें हैं। उनसे बचते-बचाते ही आप यह रास्ता पार कर सकते हैं।

नायगाँव वेस्टर्न रेलवे पर पड़नेवाला एक ऐसा खूबसूरत उपनगर है जहां पिछले दो दशक में बहुत तेजी से आबादी बढ़ी है। आज अगर आप नायगाँव जाइए तो वहाँ बहुत बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें मिलेंगी। पहले चार, फिर सात और अब पंद्रह से लेकर तीस मंजिलों तक के अपार्टमेंट बनकर तैयार हैं। यहाँ मॉल और बाज़ारों की एक लंबी शृंखला मिलेगी। जीवन के लिए जरूरी हर सामान यहाँ बिकता मिलेगा। हालाँकि अमूमन दुकानदार एमआरपी से बिना एक पैसा कम किए सामान बेचते हैं और यहाँ तक कि दूध आदि रोज़मर्रा की वस्तुएं तो दाम से एक या दो रुपये महंगी ही बिकती हैं। ग्राहक इस बात की कोई शिकायत नहीं कर सकता, बल्कि उसकी मजबूरी है कि वह उसी दाम पर सामान खरीदे। इसका साफ मतलब यही है कि यहाँ के दुकानदार ग्राहकों के प्रति पूरी व्यापारिक निर्ममता बरतते हैं क्योंकि यहाँ की आर्थिक और राजनीतिक संरचना के कारण उन्हें पर्याप्त संरक्षण प्राप्त है। कहा जा सकता है कि अभी यहाँ खुले बाज़ार की संभावनाएं बहुत कम हैं।

नायगाँव अभी भी वेस्टर्न रेलवे के दूसरे उपनगरों के मुक़ाबले काफी किफ़ायती है इसलिए घर खरीदने के लिए लोग इधर का रुख करते हैं। यहाँ रियल एस्टेट की काफी संभावना है। शुरुआती बिल्डरों ने यहाँ ज़मीन की अधिकता देखते हुये पहले चार अथवा सात मंजिल की इमारतें बनाई लेकिन बढ़ती भीड़ को देखते हुये अन्य बिल्डरों ने मंजिलों की संख्या बढ़ा दी और धीरे-धीरे यहाँ चारों ओर कंक्रीट के जंगल बढ़ गए।

प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच एक स्टेशन

आज यदि ब्रिटिश आर्किटेक्ट फ्रेडरिक विलियम स्टीवन और एक्सेल हेग जिन्दा होते और मुम्बई से महज 40 किमी दूर नायगाँव रेलवे स्टेशन को देख लेते तो उनके मन में इस स्टेशन को विश्व-स्तर का बनाने की इच्छा शक्ति जरूर पैदा हो जाती। मुझे नहीं लगता है कि ऐसी प्राकृतिक सुन्दरता से पूर्ण स्टेशन भारत में कोई और होगा। जो समुद्र के किनारे, चारों तरफ से खुली हवा, हरियाली से भरपूर हो, जहां रोज लाखों यात्रियों का आना-जाना लगा रहता हो और स्टेशन के चारों तरफ पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण के करीब-करीब 500 से 800 मीटर तक कोई मकान या दुकान न हो। नायगाँव स्टेशन के चारों ओर की पूरी जमीन खाली है। यही नहीं, रेलवे प्रापर्टी के साथ-साथ अधिकांश जमीनें केन्द्र सरकार की है। किसी प्रकार का स्थायी अतिक्रमण भी नहीं है।

नायगाँव पूर्व में लगातार नयी बिल्डिंगें बन रही हैं

ब्रिटिश आर्किटेक्ट का नाम मैंने इसलिए लिया कि जब 1853 में सिर्फ 34 किमी लम्बी मुम्बई-ठाणे रेलवे लाइन शुरू हुई थी, तब मुश्किल से दिनभर में 100 यात्री आते-जाते रहे होंगे। आज का क्षत्रपति शिवाजी महाराज टर्मिनल तब का बोरीबंदर या वीटी स्टेशन कहा जाता था। यह 20 जून, 1878 को बनना शुरू हुआ और 10 साल यानी 1888 में पूरा हुआ था। करीब 150 साल बाद भी आज मुंबई और मुंबई से बाहर  के लिए इस स्टेशन से लाखों लोगों का रोज आना-जाना रहता है। इसकी दोनों दिशाओं से बस या प्राइवेट कार अथवा अन्य किसी भी साधन से आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां तक कि कार पार्किंग की सुविधा भी स्टेशन कम्पाउन्ड में ही आसानी से मिल जाया करती है।

नायगाँव स्टेशन करीब 20 साल पहले शुरू हुआ जिसमें बहुत कम लोग ही सफ़र करते थे। पूर्व में स्थित जूचंद्र गांव और पश्चिम में स्थित वसई गांव से ही ज़्यादातर लोग जाते थे। लेकिन धीरे-धीरे इस ओर भी आबादी खिसकने लगी। शुरुआती बिल्डरों में परेरा और मित्तल ने इस इलाके में इमारतें बनाना शुरू किया और देखते ही देखते एक दर्जन से भी अधिक बिल्डिंगें नायगाँव में दिखने लगीं। जिस नायगाँव स्टेशन के बाहर पहले दो-चार मोटरसाइकिल ही दिखाई देती थीं, लेकिन दिन-प्रतिदिन उनकी कतारें बढ़ने लगीं। इस स्टेशन ने एक साथ रोजगार के कई दरवाजे खोल दिये। बढ़ती आबादी की रोज़मर्रा की जरूरतों को पूरा करने दुकानों की संख्या बढ़ी तो बिल्डिंगों से स्टेशन के बीच आवागमन के लिए ऑटो चलने लगे। स्थानीय आगरी समाज के युवाओं ने ऑटो चलाने के काम में जल्दी ही अपना वर्चस्व कायम कर लिया। इसी तरह साल-दर-साल बिल्डर यहाँ बढ़ने लगे और ब्रोकरों की भी अच्छी-ख़ासी तादाद बढ़ गई। सेवा क्षेत्र के तमाम कामगारों को मौका देनेवाले इस उपनगर की रौनक लगातार बढ़ती रही।

नायगाँव पहुँचने का सबसे आसान तरीका लोकल ट्रेन

नायगाँव, वसई, नालासोपारा और विरार वसई की खाड़ी के उत्तर में स्थित हैं और यहाँ से मुंबई जल्दी पहुँचने अथवा मुंबई से यहाँ आने का एकमात्र सुगम साधन लोकल ट्रेन है। पश्चिमी द्रुत गति महामार्ग अर्थात मुंबई-अहमदाबाद हाइवे दूसरा विकल्प है लेकिन वह नितांत खर्चीला, विलंबित और उबाऊ है। मुंबई की ट्रैफिक को देखते हुये आमतौर पर इससे बहुत कम और छोटी यात्राएं ही की जाती हैं। अपने घरों में महंगी कारें रखनेवाले लोग भी अमूमन लोकल से ही यात्रा करते हैं। गरीबों के लिए तो यह इकलौता विकल्प है। सभवतः इसीलिए लोकल को मुंबई की लाइफ-लाइन कहते हैं।

तो नायगाँव तक पहुँचने में भी इसी लाइफ-लाइन की सबसे बड़ी भूमिका है। आज आप इस स्टेशन पर जाएँ तो सुबह से शाम तक स्टेशन पर सैकड़ों लोगों की भीड़ दिखेगी। इसी भीड़ का फायदा उठाने के लिए स्टेशन के पूर्वी रास्ते पर एक पटरी बाज़ार ही विकसित हो गया है।

पुल पर बेतरतीब खड़े ऑटो

तेजी से बढ़ती भीड़ के बावजूद सुविधाओं का घोर अभाव 

नायगाँव स्टेशन के पूर्व और पश्चिम दोनों ओर रिहाइशी इलाके हैं लेकिन पूर्व की आबादी अधिक तेजी से बढ़ी है। इसका एक कारण संभवतः उसका हाइवे से लगा होना भी है। लेकिन विडम्बना यह है कि स्टेशन से पूर्व जाने के लिए जो सोपारा नाला पार करना पड़ता है वह आज तक केवल पैदल ही पार किया जा सकता है। उसके ऊपर ऐसा पुल आज तक नहीं बना जिस पर ऑटो अथवा बस जा सके। इसके कारण स्टेशन से ऑटो पकड़ने के लिए ढाई-तीन सौ मीटर पैदल तो चलना ही पड़ता है। ऊपर सीढ़ियाँ भी चढ़नी पड़ती हैं। युवाओं को तो इसमें कोई खास दिक्कत नहीं होती लेकिन बूढ़ों को भरी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

ज्ञातव्य है कि पहले इस नाले पर चार-साढ़े चार फुट चौड़ा लोहे का एक अस्थायी पुल था लेकिन बढ़ती भीड़ का भार उठाने में वह अक्षम होता गया और जर्जर होकर गिरने लगा था। अक्सर वह हिलता था और इसीलिए लोग दर भी जाते थे लेकिन भीड़ तो भीड़ है। तब तक चलती है जब तक कोई दुर्घटना न हो जाय। शुक्र है कि इस पुल के गिरने से पहले ही अधिकारियों को होश आ गया। इसलिए पांच साल पहले स्टेशन तक जाने के लिए नाले पर पक्का पुल बनना शुरू हुआ लेकिन तीन साल पहले नाले के पश्चिम साइड की ढलान पर यह पुल ढह गया। लोहे का पुराना और जर्जर से आवागमन रोक दिया गया और इस नए और पश्चिमी साइड में धराशायी पुल पर लोहे की सीढ़ियाँ लगाकर आवागमन के लिए खोल दिया गया। अब सीढ़ियाँ चढ़ और उतरकर लोग इससे आने-जाने लगे।

उंचाई होने के कारण बुजुर्गों और अपंगों को चढ़ने-उतरने में तकलीफ़ होती है। लेकिन इससे अधिक संगीन स्थिति यह है कि इसकी सीढ़ी भी सड़ गई है और अस्थायी रूप से मरम्मत कर प्रयोग में लाई जा रही है। पांच महीने पहले ढहे हुये पुल का काम शुरू हुआ था, लेकिन पता नहीं क्यों काम फिर रुक गया है। इसको पूरा करने के लिए पिछले महीने काफी धरना-प्रदर्शन भी किया गया था।

इस स्टेशन के लिए एकलौते रास्ते के पूरा होते-होते इसपर जबरदस्त भगदड़ मचेगी। लगता है जब कोई हादसा होगा, तभी स्टेशन के लिए दूसरा रास्ता नार्थ साइड में तलाशना शुरू होगा। इस उपनगर की प्लानिंग करने वालों की यही दूरदर्शिता है।

सड़क किनारे खड़ीं गाड़ियाँ

आपको बता दूं कि स्टेशन के दक्षिणी साइड में समुद्री खाड़ी है। स्टेशन की उत्तर दिशा में ही बसई पूर्व तक अच्छे-अच्छे काम्प्लेक्स और बिल्डिंग्स बनती जा रही है। उत्तर साइड में ही स्टेशन से एक किमी दूर पिछले बीस वर्षों में परेरा, मित्तल, सिटिजन, रश्मि , सनटेक कई अन्य कम्प्लेक्स भी बनते जा रहे हैं। लेकिन नार्थ साइड से स्टेशन जाने का अभी तक कोई रास्ता नहीं है।

एक ऐसा पुल जिसका बड़ी आबादी को कोई लाभ नहीं

नार्थ साइड में स्टेशन के प्लेटफार्म के ऊपर से करीब सटकर ही एक फ्लाईओवर पिछले दस सालों से बनते-बनते अभी आधा-अधूरा बनकर पूरा हुआ है। स्टेशन के पश्चिमी साइड में यह पुल टू-वे है और रेलवे के पैरेलल नार्थ साइड में उमेला गांव की तरफ एक उतार है। यह ट्रैफिक के लिए शुरू भी हो गया है। लेकिन दूसरी पूर्वी साइड से रेलवे स्टेशन की तरफ जाने वाले रोड को पता नहीं क्यों पूरा बनने के बाद भी सीमेंट से ब्लॉक कर दिया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि रेलवे ने पैसा नहीं दिया, इसलिए उसके रास्ते को ब्लॉक कर दिया है। आप कार या मोटरसाइकिल से स्टेशन नहीं जा सकते हैं। जाना है तो स्टेशन से और दूर नार्थ साइड उतर कर फिर साउथ साइड रेलवे स्टेशन की ओर पहुँचना होता है।

सड़क पर लगा संकेतक बोर्ड

पता नहीं किस इन्जीनियर ने इस फ्लाईओवर की डिजाइन बनाया है कि पूर्व की दिशा में जूचंद्र रोड पर ढलान बनाया है। उत्तर साइड में रोड के पैरेलल जहां से अधिकांश पब्लिक आती-जाती है, उधर रोड का ढलान ही नहीं बनाया है। जब ऐसा ही करना था तो सीधे पूर्व साइड में परेरा रोड पर ही ढलान बनाना बेहतर होता क्योंकि 75% नायगाँव पूर्व उपनगर इसी सड़क का उपयोग करता है। इससे लोगों को ढाई-तीन सौ मीटर पैदल चलने से न केवल मुक्ति मिलती बल्कि दोनों साइड के लिए आवागमन बराबर हो जाता। ब्रिज की लम्बाई कम हो जाती है और पैसे भी बच जाते।

जब फ्लाईओवर बन रहा था तो नार्थ साइड के रहवासियों को यह उम्मीद थी कि यहाँ से सीधे रेलवे स्टेशन पहुंच जाएंगे और ब्रिज के ऊपर से सटकर दक्षिण साइड में भी एक बुकिंग काउंटर शुरू हो जाएगा। इससे स्टेशन की दूरी करीब 400-500 मीटर कम हो जाएगी और लोग पैदल ही स्टेशन पहुंच जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे जनता का कोई भला नहीं हुआ। पूर्व और पश्चिम को जोड़नेवाला पुल हमेशा निर्जन ही रहता है। इक्का-दुक्का कार वाले कभी-कभार जाते जरूर दिख जाते हैं। करोड़ों रुपयों की लागत से जनता का क्या भला हुआ यह समीक्षा का विषय है।

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टूटी सीढ़ियों पर ख्वाबों के पंख लगाकर चल रहे हैं लोग

अगर कोई असहाय, बुजुर्ग या बीमार है अथवा चल-फिर नहीं सकता है तो भी नायगाँव पूर्व वालों के लिए इस रेलवे ओवरब्रिज का कोई फायदा नहीं है। यदि पश्चिम साइड के प्लेटफार्म तक जाना हो तो फ्लाईओवर पर आधा किलोमीटर का सफर करना पड़ेगा। मोटरसाइकिल या कारवाले सहज ही पश्चिम साइड में स्टेशन के नजदीक नहीं जा पाते हैं।

पार्किंग के नाम पर मनमानी 

स्टेशन के चारों तरफ सरकारी जमीन होने के बावजूद नगरपालिका की बस को स्टेशन के पूर्व में सही तरीके से खड़ी करने को जगह नहीं है। लेकिन वहीं केंद्र सरकार की जमीन पर पे एंड पार्क के लिए स्टेशन के दोनों तरफ तीन-चार लम्बी चौड़ी जगह बन गई है।

जब से रेलवे के दोनों तरफ पे एंड पार्क बन गया है, तब से रोड पर नो पार्किंग का बोर्ड लगा दिया गया है। अब कोई स्टेशन के नजदीक मोटरसाइकिल या वाहन नहीं खड़ा कर सकता हैं। सरकारी जमीन पर ओपेन पार्किंग बनी हुई है। धूप या बारिश में रोज नौकरीपेशा लोग 20 रुपये देकर पार्किंग करने पर मजबूर हैं।

रेलवे के दोनों तरफ पे एंड पार्क

हालांकि कुछ लोग अभी भी स्टेशन से करीब 500 मीटर दूर मोटरसाइकिल या कार खड़ी करते हैं लेकिन यह मजबूरी में रिस्क लेकर अपनी पार्किंग करने जैसा है। लेकिन यहाँ गाड़ी के नुकसान पहुंचने का खतरा हर समय बना रहता है। कभी सीट फट जाती है, तो कभी तेल चोरी हो जाता है। इसलिए बहुत से लोगों को घरवाले मोटरसाइकिल से स्टेशन छोड़कर आते हैं।

एक किलोमीटर का किराया पंद्रह रुपये

इस जगह पर एक ही बस कई चक्कर चलती है। हालांकि भीड़ को देखते हुये यह बिलकुल नाकाफी है। सरकारी बस का न्यूनतम किराया 10 रुपये है और पीक आवर्स में भी बस की फ्रीक्वेंसी मिनिमम आधा घंटा है। इस कारण रोज ड्यूटी करने वाले बस की सुविधा नहीं ले पाते हैं। यदि सरकारी बस का न्यूनतम किराया दस रुपये है तो ऑटो वाले भी शेयरिंग में न्यूनतम पंद्रह रुपये चार्ज करने लगे हैं। शेयरिंग रिक्शा पर ज्यादा खर्च के कारण से बहुत से लोगों ने लोन पर मोटरसाइकिल ख़रीद लिया था, अब वे लोग भी पछता रहे हैं। इससे यह फायदा हुआ है कि एक-डेढ़ किलोमीटर लंबी दूरी वाले बहुत से लोग पैदल आने-जाने लगे हैं।

परिवहन सेवा का बोर्ड

शायद इसीलिए बस खचाखच भर कर आती-जाती है। फ्रीक्वेंसी बढ़ाने की बात पर कंडक्टर कहता है कि हम तो इन्हीं बसों से ट्रिप बढ़ा सकते हैं, लेकिन सरकार ही बस की फ्रीक्वेंसी नहीं बढ़ा रही है।

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि ऑटो हर जगह के लिए आसानी से उपलब्ध हों। परेरा नगर एरिया के लोगों को यदि हाइवे जाना हो तो पहले ऑटो से स्टेशन जाएंगे। फिर वहां से ऑटो पकड़कर हाइवे। बिना वजह डबल खर्च। स्टेशन से हाइवे जाने वाली बसों को परेरा नगर होते हुए हाइवे क्यों नहीं चलाया जा रहा है? जूचंद्र रूट पर तो कोई पब्लिक भी नहीं है। इस तरह टिवरी रोड तक के लिए दो बस होने से बस की फ्रीक्वेंसी भी बढ़ जाएगी। यदि आपको इमरजेंसी में कहीं जाना है तो ओला या उबर के अलावा कोई साधन नहीं है। ऑटो रिक्शा इधर मीटर पर चलते ही नहीं हैं। भाड़ा फिक्स करना पड़ता है, उनका रेट शेयरिंग के हिसाब से मिनिमम 15 रुपये प्रति पैसेंजर होता है। यदि कोई अकेले जाना चाहे तो उसे मिनिमम 75 रुपये देना पड़ता है। रात को 12 बजे के बाद यदि मजबूरी में ऑटो लेना पड़ा तो मिनिमम दूरी का रेट 100 रुपये सरकारी नियम के अनुसार होता है।

आपको बता दूं कि नायगाँव एक निम्न मध्यवर्गीय लोगों से बसा उपनगर है। जिन लोगों के पास मुम्बई में चाल या झोंपड़ा था वे लोग वहाँ से बेचकर इस इलाके में थोड़ा बड़ा घर ले लिए। फिलहाल तो ज़्यादातर सर्विसवाले लोन लेकर यहां मकान लिए हुए हैं। लेकिन मकान के अलावा उनको हर तरह की असुविधाओं का सामना करना पड़ता है। उनको आश्चर्य होता है कि मुम्बई में एसी बस में पाँच-छह किमी तक पाँच या छह रुपये में सफर करते हैं और यहां एक किलोमीटर का दस रुपये देने पड़ते हैं। पाँच किलोमीटर तक नगरपालिका की बस का किराया 20 रुपये तक देना पड़ता है। सरकारी बस ऐसा करती है तो ऑटो वाले भी वैसा ही चार्ज करेंगे। उनका क्या दोष निकाला जाय? लोकल ट्रांसपोर्ट के मामले में ऐसा लगता है कि आप सिर्फ खाड़ी पार करते ही किसी दूसरे देश में आ गए हैं।

बस स्टैंड के पास खड़े ऑटो

पानी का भी कोई बंदोबस्त नहीं

नायगाँव पूर्व के निवासी पिछले 18 वर्षों तक टैंकर द्वारा महंगा पानी खरीद कर पीने को मजबूर थे। इस उम्मीद में कि एक दिन सरकारी पानी जरूर मिलेगा। दो साल पहले मिला भी था। लोग बहुत खुश हुए थे। लेकिन फिर पिछले सात-आठ महीनों से सरकारी पानी की सप्लाई जान-बूझकर आधी कर दी गई है। फिर से टैंकर का पानी शुरू हो गया है। अब फ्लैट लेने वाले बेचने की फिराक में लग गए हैं, लेकिन जितने में खरीदा है, उतना दाम अब नहीं मिल पा रहा है।

यह समझ में नहीं आता है कि जब रेलवे स्टेशन से सोपारा नाला पार करने के लिए आज तक पुल नहीं बना है और पीने के पानी की सप्लाई भी बराबर नहीं हो रही है तो मशरूम की तरह बिल्डरों को बिल्डिंग बनाने की इजाजत क्यों दी जा रही है?

संविधान से चलने वाले देश में जहां हर राज्य का एक मजबूत प्रशासनिक ढाँचा है और नगर निगमों, महानगर पालिकाओं और नगर पालिकाओं का स्वतंत्र प्रभार है वहाँ तेजी से बसते हुये नायगाँव जैसे उपनगर के लोगों को अराजकता और सुविधाविहीनता के गर्त में छोड़ देना किस प्रकार न्यायसंगत है?

क्या सरकार का काम सुविधा देना नहीं, जनता को परेशान करना है?

गाँव के लोग
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