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नकदी खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा बनती जा रही है

[कड़ी मेहनत और बड़ी लागत से होनेवाली नकदी खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा होती जा रही है। अनाज, दलहन और तिलहन के अलावा दूसरी सभी तरह की ऐसी फसलें जो किसानों को नकदी पैदा करने का भरोसा देती हैं वे प्रायः मौसम की मार और बाज़ार की बेरुखी का शिकार होती रही हैं। […]

[कड़ी मेहनत और बड़ी लागत से होनेवाली नकदी खेती किसानों के लिए घाटे का सौदा होती जा रही है। अनाज, दलहन और तिलहन के अलावा दूसरी सभी तरह की ऐसी फसलें जो किसानों को नकदी पैदा करने का भरोसा देती हैं वे प्रायः मौसम की मार और बाज़ार की बेरुखी का शिकार होती रही हैं। यहाँ तक कि प्याज-टमाटर जैसी लंबे समय तक भंडारण की जा सकने वाली फसलें भी अक्सर मौसम से बचीं तो बाज़ार की मार से नहीं बच पातीं। जैसे-जैसे उपज मंडियों में खेप बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उनका दाम गिरता जाता है। एक समय ऐसा भी आता है जब पूरी की पूरी फसल ही मंडियों में अवांछित वस्तु की तरह पड़ी रहती है और व्यापारी तथा बिचौलिये उसे एकदम सेंत के भाव हड़प लेते हैं और किसानों की सारी उम्मीदों तथा इच्छाओं पर तुषारापात हो जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि जितनी मशक्कत से जितनी बड़ी मात्रा में किसान माल पैदा करता है उतनी ही आसानी से बाज़ार उनके माल को अधिकतम सस्ता बना देता है। इसका सहज परिणाम है किसानों का लगातार घाटे और कर्ज़ में डूबते जाना है। वाराणसी जनपद में फूलों की खेती करने वाले किसान बीती दिवाली को इन्हीं हालात से रू-ब-रू थे। इस विषय पर अनेक गाँवों और मंडियों की यात्रा के बाद लिखी गई अमन विश्वकर्मा की यह रिपोर्ट पढ़िये – संपादक]

वाराणसी। त्योहारों के चलते पूरे देश में उत्सव का माहौल है। एक के बाद एक त्योहार आ रहे हैं। नवरात्रि के बाद दशहरा और अब दीवाली भी बीत गई। दीपावली की पूर्व संध्या पर बनारस का ‘रोज विलेज’ यानी लखमीपुर गाँव का हर दूसरा परिवार खेत में गेंदे के फूल तोड़ रहा है या घर में उन फूलों की माला गूँथी जा रही है। पूरा गाँव गेंदे के फूलों की रंगत से चमक रहा है। यहाँ के किसानों का पूरा परिवार, बनारस की फूल मंडियों में अधिक से अधिक गेंदे की माला बनाकर दुकान लगाने की तैयारी कर रहा है। इस काम में महिलाएँ भी जी-जान से लगी हुई हैं। दूसरी तरफ, रामखेलावन जैसे कई किसानों को चिंता है कि उनका पूरा माल मंडी में बिक पाएगा या नहीं? बनारस के हजारों किसानों ने लगभग तीन माह पहले से ही गेंदे की खेती शुरू कर दी थी क्योंकि दीपावली से लगे हुए अन्य त्योहारों पर इनकी डिमांड बढ़ जाती है। गेंदे के फूलों की खेती में अब अधिकतर किसान अपनी किस्मत आजमाने लगे हैं। यही कारण है कि इस काम में किसानों की आय भी अब घटती जा रही है। उत्पादन ज़्यादा है और खपत कम। बाजार भले ही विभिन्न प्रकार के फूलों से भरे हुए हैं, लेकिन सही कीमत नहीं मिलने के कारण किसान और व्यापारी परेशान हैं, हताश हैं। इस साल फूलों का उत्पादन ज्यादा हुआ है, इस वजह से दाम भी काफी गिर गया है।

लखमीपुर के किसान रामखेलावन ने बताया कि ‘इस साल दिवाली के मद्देनज़र एक बिगहा में गेंदे के फूल की खेती की है। व्यापारी पाँच से छह रुपये प्रति माला के भाव से खरीदी कर रहे हैं। एक बिगहा की खेती में उनका 15-20 हजार से ज़्यादा का खर्च आता है, लेकिन बाजार में ठीक भाव नहीं मिलने के कारण खेतों में अभी काफी फूल पड़े हुए हैं। छठ और एकादशी पर बिकने की उम्मीद है। पिछले साल इसी समय गेंदे का गजरा 18 से 23 सौ रुपये सैकड़े बिक रहा था। इस बार वहीं गजरा 12 से 15 सौ रुपये में बिका।’ रामखेलावन ने निराश मन से कहा कि ‘अगली बार हम लोग फूल की खेती नहीं करेंगे।’

लखमीपुर के किसान रामखेलावन और कोची के किसान विजय राजभर

किसान राजूराम बताते हैं कि गर्मी के सीजन के लिए जनवरी में फूल लगाए जाते हैं। जिनका चैत्र नवरात्र की पूजा-पाठ के दौरान खूब इस्तेमाल होता है। इसके बाद अप्रैल-मई में फूलों खेती होती है, जिनको मंदिरों में चढ़ाने के लिए खरीदा जाता है। उसके बाद अगस्त-सिम्बर में फूलों की बिजाई की जाती है। वह बताते हैं कि दो वर्ष पहले उनके खेत में धान और गेहूँ की फसल लगाई गई थी। बेमौसम हुई बारिश में हजारों का नुकसान हो गया। लखमीपुर में सैकड़ों किसान फूल की खेती करते हैं इसलिए उन्होंने भी इस बार इस व्यवसाय में हाथ लगा दिया।

भट्ठी गाँव के किसान विशाल यादव ने बताया कि ‘गेंदे के फूल को बड़ा होने के लिए एक सप्ताह का इंतज़ार करना पड़ता है। दीवाली पर गजरे की मांग ज़्यादा रहती है और उसमें अच्छी आमदनी हो जाती है। इसलिए आठ नवम्बर को ही मैं अपने परिवार के साथ खेत में लग गया। 30-31 अक्टूबर को फूल छोटे-छोटे थे। हम लोग दवा का छिड़काव भी कम करते हैं। आठ-नौ दिनों में जब फूल बड़े हुए तो इसको तोड़ने और गुहने का काम शुरू हो गया। स्कूल की छुट्टियाँ हो गई थीं तो बच्चे फूलों को तोड़ने का कर हाथ बँटाते हैं। बड़े लोग फूलों की माला बनाने काम करते हैं, क्योंकि उसमें एक लम्बी सुई का प्रयोग होता है। ज़रा सी लापरवाही पर सुई ऊँगलियों में धंस जाती है।’ विशाल बताते हैं कि ‘गजरे की एक लरी में 52 और छोटी माला में 30 फूल लगते हैं। एक घंटे में हम लोग मिलकर 30 गज़रा और 50 छोटी माला बना लेते हैं। हम पुरुष लोग तय करके बैठते हैं कि कितना घंटा काम करना है। महिलाओं के ऊपर कोई बंदिश नहीं रहती, क्योंकि उन्हें घर के काम के साथ अन्य जिम्मेदारी भी निभानी पड़ती है।’

माला गुहने के काम में अन्नपूर्णा, रिमा और सबिता भी अपने परिवार के लोगों का भरपूर सहयोग करती हैं। उन्होंने बताया कि ‘त्योहारी सीजन के कारण हम लोग सुबह पाँच बजे ही उठ जाते हैं। पिछली बार धान-गेहूँ की खेती के दौरान हमारा काफी नुकसान हो गया। कर्जा लेकर खेती शुरू की थी। अभी तक कई कर्जदारों के पैसे भी नहीं दे पाए हैं। इस बार अगर गेंदे के फूल नहीं बिके तो स्थिति और भी खराब हो जाएगी।  इस कारण पूरा परिवार इसमें लगा हुआ है। मजदूरी नहीं देने की स्थिति के कारण सभी काम हम लोग ही कर रहे हैं।  सुबह खेतों में फूलों की तोड़ाई से लेकर रात तक उन्हें गुहने तक का सारा काम हम ही लोग कर रहे हैं।’ लखमीपुर की इन महिलाओं को उम्मीद है कि इस बार उनके परिवार की स्थिति थोड़ी ठीक हो जाएगी।

लखमीपुर के हर दुसरे घर में ऐसे ही गुही जा रही है गेंदे की माला

चिरईगाँव की प्रियंका विश्वकर्मा लगभग तीन वर्षों से गेंदे के फूल की खेती कर रही हैं। उनके पति की तीन वर्ष पहले मौत हो चुकी है। एक बेटे और एक बेटी के साथ वह अपने मायके में रहती हैं। वह बताती हैं कि ‘यह काम करके मैं अपने पिताजी के परिवार में काफी सहयोग कर देती हूँ। उनसे पैसा माँगना अच्छा नहीं लगता इसलिए स्वावलम्बी बन रही हूँ।’ वह बताती हैं कि ‘खेती करने के बाद एक बात तो तय है कि सरकार की तरफ से किसानों को प्रोत्साहन मिले तो बनारस में फूलों की खेती और उस उसका व्यापार अच्छा हो सकता है। वह बताती हैं कि ‘जब तक बनारस के फूल विदेशों में निर्यात नहीं होंगे, तब तक किसानों की आर्थिक स्थिति नहीं सुधरेगी।’

कुछ ऐसी ही कहानी दीनापुर के वंदना पांडेय की है। इंटर में पढ़ने वाली 18 वर्षीय वंदना के पिता जगदीश की मौत को साल भर भी नहीं हुए हैं। माँ के साथ दो छोटी बहनों और एक छोटे भाई के भरण-पोषण के लिए उन्होंने आठ माह पहले 11 हजार रुपये में 11 बिस्वा ज़मीन लीज़ पर ले ली। इसके बाद इस जमीन पर कुंद के फूलों की खेती शुरू की। वे बताती हैं कि ‘इस खेत में पहले से ही कुंद के पौधे लगे हुए थे। मुझे इसकी रखवाली करके कलियों को फूल बनने के बाद तोड़ना था। इसके लिए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी।’ दो किलोमीटर स्थित अपने घर से वंदना साइकिल से आती हैं। वह बताती हैं कि ‘आसपास के किसानों से उन्होंने कुंद की खेती सीखी। उन किसानों ने ही मुझे दवा की जानकारी दी और छिड़काव करने का तरीका भी बताया। इस बार मैं तीसरी बार कुंद के फूल तोड़ूँगी। मैं दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम को इन पौधों की देख-रेख के लिए आती हूँ। माँ और बहनें मिलकर इन फूलों की माला बनाते हैं। इतने काम के बाद भी स्कूल नहीं छोड़ा और अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए हूँ। घर आने के बाद तैयार मालाओं को बेचने का काम मैं करती हूँ। इकट्ठा माला पर लोग ज़्यादा मोल-भाव करते हैं। इसके बाद भी सारी मालाएं बिक जाती हैं। ज्यादा फायदा नहीं होने की बावजूद वह इस काम  में लागि हुई हूँ क्योंकि ‘इससे  घर के खर्च के साथ पढ़ाई करने का भी समय मिल जाता है।’

वंदना पांडेय

फूलों की खेती का चुनाव ही क्यों किया? इस सवाल पर बताती हैं कि ‘पिताजी की मौत के बाद मेरे परिवार को कोई काम ही नहीं सूझ रहा था। आसपास के लोगों से जानकारी मिलने के बाद मैंने अपनी माँ को फूलों की खेती करने की सलाह दी। उन्होंने मुझे काम करने से मनया किया, क्योंकि मैं लड़की हूँ। उन्हें भरोसा नहीं था कि अकेले मैं खेतों में काम काअ पाऊँगी। उन्हें दर था कि समाज और गाँव वाले क्या कहेंगे?   मैंने माँ को भरोसा दिलाया कि फूलों की खेती से ही हमारा गुज़र-बसर हो सकता है। पिताजी नहीं रहे तो हम लोगों को ही अपनी ज़िम्मेदारी उठानी होगी। कुंद की खेती के बाद अब मैं जितना कमाती हूँ, उससे घर का खर्च चल जाता है। अपने भाई-बहनों के साथ मैं स्वयं भी पढ़ाई कर पा रही हूँ।’

बनारस के राजातालाब, मोहनसराय, लहरिया, इंद्रपुर, कैथी, मिल्कीपुर, काशीपुर, विरभानपुर, भट्ठी, चिरईगाँव, कोची, रमना, पचराँव आदि गाँवों में प्रमुख रूप से फूलों की होती है। मंदिर वाले इस शहर में मात्र दो फूल मंडियाँ हैं। पहली मलदहिया (इंग्लिशिया लाइन) और दूसरी बाँसफाटक पर। अधिकतर किसान मलदहिया मंडी में अपने फूल बेचते हैं, क्योंकि यह शहर के बीचों-बीच का इलाका है। आधा किलोमीटर की दूरी पर बस अड्डा और एक किलोमीटर की दूरी पर रेलवे स्टेशन होने के कारण बनारस के बॉर्डर (जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, आजमगढ़ आदि) सहित पूर्वांचल के कई जिलों से किसान यहाँ आते हैं।

दीनापुर के किसान चंद्रदेव प्रसाद

दीनापुर के सैकड़ों किसानों के लिए इन दिनों वहाँ स्थापित एसटीपी समस्या बन गई है। शहर के सीवर से निकलने वाले गंदगी का शोधन करने के लिए बनी एसटीपी के कारण यहाँ के किसानों की काफी ज़मीनें भी चली गईं। चंद्रदेव प्रसाद उन्हीं किसानों में से एक हैं। वह अपने खेतों में बेला, गुड़हल, कुंद और मदार की खेती करते हैं। वह बताते हैं कि ‘बेमौसम बारिश से इस बार की खेती चौपट हो गई है। अब हम लोग गुलाब की खेती करेंगे। इसके लिए वह उद्यान विभाग से बीज की डिमांड भी करेंगे।’ वह बताते हैं कि ‘गुलाब की खेती के लिए अगर बाज़ार से बीज खरीदेंगे तो खेती काफी महँगी पड़ जाएगी।’

गेंदे और कुंद के फूलों की खेती करतीं हैं ज्योति

मलदहिया मंडी की लीलावती बताती हैं कि ‘व्यापारी बहुत मोल-भाव करते हैं। फूलों के  सड़ जाने के भय से हम लोग उन्हें फिक्स दाम से एक-दो रुपये कम पर माल बेच देते हैं। फूल कोई भी हो एक बार उसमें पानी लग गया या दब गए तो खराब हो जाता है। व्यापारी इन बातों को बहुत ध्यान से देखते हैं। क्योंकि माल खरीद लेने के बाद हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती। खरीदने पहले फूलों की छँटाई में बहुत से फूल अलग कर देते हैं, जिसका पैसा हमें नहीं मिलता।’ लीलावती के साथ इसरावती भी 25 किलोमीटर की दूरी तय कर राजातालाब से मलदहिया फूल मंडी आती हैं। उन्हें मंडी आने में एक घंटा लग जाता है। वह बताती हैं कि ‘हम लोग लगभग 100 किलो माल जिसमें विभिन्न प्रकार के फूलों की माला, बेल के पत्ते, दूब आदि चीजें होती हैं। रिक्शे या टोटो पर लादकर माल को मंडी में लाना होता है।’ लीलावती और इसरावती जैसी दर्जनों महिलाएँ मलदहियाँ फूल मंडी में आती हैं। महिलाएँ बताती हैं कि ‘आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण शादी के कुछ साल बाद वह इस पारिवारिक धंधे को संभालने लगीं। कभी-कभी हमारा मन भी खिझला जाता है कि यह काम छोड़ दें, लेकिन बच्चों बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के यही काम कर सकते हैं।’

लक्ष्मी, अपनी माँ मुन्नी के साथ खेतों में काम करते हुए

बच्चों को नहीं मिल पाती है अच्छी शिक्षा

बनारस में फूलों की खेती करने वालों में मौर्या जाति के लोग ही ज्यादा हैं, उसके बाद राजभर, पटेल, यादव और अन्य बिरादरी। सिंधोरा के संतोष राजभर, जंगबहादुर, विपिन, मुन्नी देवी, कोची के विजय, कैलाश, प्रकाश, धर्मेंद्र, छोटू और सुरेंद्र बताते हैं कि ‘हमारे बच्चे कक्षा एक से पाँच या आठ तक सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। उसके बाद की पढ़ाई प्राइवेट स्कूलों में होती है।’ वह बताते हैं कि ‘कई सरकारी स्कूलों में अच्छी पढ़ाई नहीं होती है, इसीलिए प्राइवेट में जाने पर बच्चों को काफी मेहनत करनी पड़ती है। इस कारण अधिकतर बच्चे पढ़ाई छोड़कर खेती-बारी में लग जाते हैं। परिवार के लोग चाहते हैं कि बच्चे पढ़े-लिखे, ताकि उन्हें यह काम न करना पढ़े।’ लखमीपुर के संतोष यादव कहते हैं कि ‘मैं जीवन बीमा कम्पनी का एजेंट होकर भी फूलों की खेती करता हूँ। एजेंट की कमाई से परिवार की दाल-रोटी चल जाती है। हमारी जाति के बच्चों को अच्छी शिक्षा की काफी ज़रूरत है। मेरे बच्चे पढ़ना भी चाहते हैं, इसलिए वह भी खेती-बारी में मेरा साथ देते हैं। गेंदे के फूल में जो मुनाफ़ा होता है, उस आधे से ज़्यादा पैसा मैं बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर देता हूँ। इस उम्मीद के साथ कि आने वाले दिनों में पढ़-लिखकर सरकारी नौकरी में आ जाएंगे।’ सरकारी विभाग में नौकरियाँ हैं या नहीं? इस सवाल पर संतोष हँसकर कहते हैं कि ‘सच्चाई क्या है, यह तो पूरा ज़माना जान रहा है।’

फूलों को मुरझाने और कीड़े लग जाने का रहता है डर

कोची के किसान अजय राजभर बताते हैं कि मुरझाए फूलों को हटा देने से पौधों में अमूमन कलियाँ खिलने लगती हैं। अगर आपके पौधों में फूल मुरझाए हैं तो उनकी डंडी को काट दिया जाता है, जिससे नए फूल आने लगते हैं। लेकिन मौसम की बेरुखी के कारण अब ऐसा नहीं हो रहा है। मुरझाए फूलों के पौधों को हम जड़ से ही तोड़ देते हैं। अजय बताते हैं कि ‘वैसे तो गेंदे के पौधे पर कीट नहीं लगते, लेकिन कभी-कभी मकड़ी की कुटकी और ऐफिड (छोटे आकार के कीट जो पौधों का रस चूसते हैं) पौधों को नुकसान पहुँचाते हैं। इन्हें हटाने के लिए हम लोग पौधों पर पानी और दवाइयाँ स्प्रे करते हैं। हफ्ते में एक या दो बार इंसेक्टिसाइडल साबुन डालते हैं। कभी-कभी गेंदे के पौधे के ऊपर पाउडर जैसी फफूँदी होने लगती है। उस पर तुरंत दवा छिड़काव करते हैं क्योंकि इससे गेंदे के फूलों की पैदावार अच्छी होती।’

वाराणसी के जिला उद्यान विभाग अधिकारी ज्योति कुमार सिंह बताते हैं कि ‘बनारस में नारंगी और पीले रंग के गेंदे के फूलों की खेती ज़्यादा होती है। इन फूलों को कलकतिया लेदर के नाम से भी जाना जाता है। इसका गजरा बनाया जाता है। दूसरा होता है फ्रेंच गेंदा, जो छोटा-छोटा होता है। लाल और पीले रंग के इस गेंदे के फूल की छोटी मालाएँ बनती हैं।’ वह बताते हैं कि ‘बनारस के सभी विकास खंडों (आराजीलाइन, बड़ागाँव, चिरईगाँव, चोलापुर, हरहुआ, काशी विद्यापीठ, पिंडरा और सेवापुरी) में गेंदे के फूल की खेती होती है।’ वह बताते हैं कि जिले के ‘565.75 हेक्टेयर ज़मीन पर फूलों की खेती होती है।’

मौसम की मार से खराब हुए गेंदे के फूल

फूलों की खेती करने वाले किसानों का कहना है कि ‘भारत में गेंदे के फूल के 50 से भी ज्यादा प्रकार होते हैं। भारत के ग्रामीण इलाकों में सबसे ज्यादा पाए जाने वाले गेंदे के फूल अमेरिकन मेरीगोल्ड, फ्रेंच मेरीगोल्ड, सिग्नेट मेरीगोल्ड (इंग्लिश मेरीगोल्ड) हैं। इनमें से अमेरिकन और फ्रेंच मेरीगोल्ड की सुगंध बहुत लुभावन होती है। किसान बताते हैं कि फ्रेंच और सिग्नेट मेरीगोल्ड को वसंत के मौसम में उगाया जाता है और लंबे अफ्रीकन मेरीगोल्ड को गर्मी में। भारत में गेंदे का पौधा सबसे ज़्याद लगाए जाने वाले पौधों में से एक है। गेंदे का फूल पूजा-पाठ से लेकर शादी-ब्याह और दवाइयाँ बनाने के इस्तेमाल में आता है। जिन लोगों को बागवानी का शौक होता है, वो इसे आसानी से अपने बगीचों में उगा लेते हैं। लेकिन जो लोग बागवानी से अनजान हैं, उन्हें इसे उगाने में थोड़ी कठिनाई उठानी पड़ती है।

बनारस में खेती-बारी करने वालों की बहुत बड़ी आबादी है।अधिकतर क्षेत्रों में छोटी-छोटी टुकड़ियों में रहकर काम करने वाले किसानों में ज़्यादातर आबादी पिछड़े जातियों की है। मंदिरों-मस्जिदों का शहर होते हुए भी फूलों की खेती करने वाले किसानों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। बिचौलियों के कारण उन्हें उपयुक्त आमदनी नहीं मिल पाती। बहरहाल, दबी जुबान उनकी माँग यह भी रही कि किसानों के लिए सरकार स्थायी फूल मंडी की व्यवस्था कर दे। दोनों फूलमंडियों में किसानों को माला बेचने के लिए 30 से 35 रुपये प्रतिदिन आढ़त मालिकान को देने पड़ते हैं। त्योहारी सीजन में उस फूल मंडी के आसपास बैठने के लिए भी उन्हें 20-25 रुपये देने पड़ते हैं। किसानों के अनुसार, ‘सरकार बागबानों के लिए थोड़ा भी पहल कर दे तो भारत के फूलों की सुगंध पूरी दुनिया में फैल सकती है।’

अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा
अमन विश्वकर्मा गाँव के लोग के सहायक संपादक हैं।

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