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प्रोफेसर चौथीराम यादव : वंचितों के व्याख्याता का महाप्रयाण

हिन्दी के शीर्षस्थ आलोचक और धुरंधर वक्ता प्रोफेसर चौथीराम यादव का महाप्रयाण बहुजन आंदोलन और साहित्य के लिए बहुत बड़ी क्षति है। वह अपने दौर के शानदार अध्यापकों में रहे हैं जिनकी याद उनके विद्यार्थियों को आज भी रोमांचित करती है। उन्होंने बड़े पैमाने पर लोगों के दृष्टिकोण को उन्नत किया जिससे आज हज़ारों लोग साहित्य के इतिहास और लोकधर्मी प्रतिरोध की परंपरा को व्यापक बहुजन समाज की मुक्ति की कसौटी पर देख रहे हैं। छद्म बुद्धिजीवियों की बढ़ती कतार के बरक्स प्रोफेसर चौथीराम यादव की उपस्थिति हमेशा एक जन-बुद्धिजीवी की उपस्थिति की आश्वस्ति देती रही है।

प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव नहीं रहे। निजी रूप से मेरे लिए यह खबर स्तब्ध करनेवाली है। जब-जब उनसे मुलाक़ात हुई तब-तब उनसे कुछ न कुछ नया सीखने को मिला। पिछले महीने हमलोगों ने चुनावी यात्रा के लिए लोगों से आर्थिक सहयोग मांगा। जब उनसे फोन पर कहा तो उन्होंने बताया कि ‘कल मैं पूर्वाञ्चल विश्वविद्यालय जौनपुर जाऊंगा, लेकिन तुम लोग आओगे इसलिए मैं कोशिश करूंगा कि जल्दी ही लौट आऊं।’

अगले दिन हमलोग रात में उनके यहाँ पहुँचे, तब उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में हमारा स्वागत किया। जलपान और चाय के बाद देर तक बतियाते रहे और फिर घर के अंदर गए और दो हज़ार रुपए लाकर उस डब्बे में डाला जो हम लेकर गए थे। वह हमारे अभियानों से हमेशा गर्मजोशी से जुड़े रहे। उन्होंने कहा कि एक दिन मैं गाँव के लोग के ऑफिस आऊँगा। हमने भी कहा कि इस वर्ष कबीर जयंती पर वेबसाइट के तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं इसलिए कबीर पर एक अच्छा आयोजन करेंगे। कबीर उनके पसंदीदा विषय रहे हैं। उन्होंने कहा मैं जरूर ही उसमें शामिल होऊंगा।

वर्ष 2018 तक मैंने चौथीरामजी को कभी देखा नहीं था। हाँ, बनारस में रहने कारण बनारसी बुद्धिजीवियों की बैठकों और बातचीत में उनकी चर्चा जरूर सुनी थी, जहां उनकी वैचारिकता और भाषण देने के अंदाज की अक्सर चर्चा होती थी। उनसे मिलने और सुनने की उत्सुकता थी। वर्ष 2018 में गाँव के लोग सोशल एण्ड एजुकेशनल ट्रस्ट ने उन्हें ‘ललई सिंह यादव स्मृति गाँव के लोग सम्मान’ से सम्मानित किया, तब उन्हें पहली बार देखने का अवसर मिला और सबसे अच्छी बात कि मंच से उन्हें भाषण देते हुए सुनने का मौका मिला। सम्मान समारोह में सबसे धारदार वक्तव्य भी उन्होंने ही दिया था।

वास्तव में उनके भाषण देने के अंदाज को देखते हुए लगा कि उनके बारे में सुनी गई बातें सही थीं। ऊंचे-पूरे, धोती-कुर्ता पहने हुए, सर पर जो भी बाल बचे वह चांदी सी सफेदी लिए लहराते रहते थे। माइक पर जो बोलना शुरू करते तो दहाड़ते हुए पूरे रौ में आकर हाथ फेंक-फेंककर बोलते थे। उनको सुनना हमेशा अद्भुत अनुभव होता था। उनके भाषण हमेशा समाज के वंचित समुदायों की पैरोकारी करते हुए होते। वे मनुस्मृति, ब्राह्मणवाद, साहित्य में जड़ जमाये सवर्णवाद की जड़ें हिलाकर रख देते थे। सच कहूँ तो उनके भाषण दलित-पिछड़े बुद्धिजीवियों, छात्रों और सामाजिक कार्यकर्ताओं में आत्मविश्वास भरनेवाले होते थे। उनके भाषणों में बहुजन समाज की मुक्ति की पूरी परियोजना होती थी और बहुजन प्रतिरोध के साहित्य के इतिहास को देखने की दृष्टि को विकसित करते थे।

खुटहन बाज़ार में चाय पीने और खैनी दबाने के बाद

उनको सुनकर मुझे इसलिए मजा आता था क्योंकि बौद्धिक वाक्जाल के बीच अपने आशय को समझाते बुद्धिजीवी अक्सर बोरियत पैदा करते हैं। जबकि चौथीराम जी की बात ही निराली थी। वह मौके के संदर्भ को विस्तृत करते हुये धीरे-धीरे एक अलग जोन में जाते जहां दो विरोधी धाराएँ स्पष्ट नज़र आती हैं। एक दमन की धारा जिसमें जन की कोई बात नहीं लेकिन दूसरी प्रतिरोध की धारा जहां मुक्ति की एक गहरी बेचैनी और छटपटाहट दिखती है। इस प्रकार चौथीराम यादव न केवल प्रतिरोध की व्यापक परंपरा को प्रमुख बना देते बल्कि ब्राह्मणवादी सौंदर्यबोध को छीलकर रख देते।

चौथीरामजी मंच से ही समाज बदलने की बात नहीं करते थे बल्कि उसके लिए सड़क पर उतरकर आंदोलन करने में भी पीछे नहीं रहते थे। कई वर्ष पहले जब बीएचयू में लड़कियों की पिटाई की गई थी और छात्रावासों को खाली कराया गया था तब वह लगातार छात्राओं के समर्थन में किए गए सभी कार्यक्रमों में भागीदारी करते रहे। इसके अतिरिक्त देश में चल रही अराजकता के खिलाफ जहां-जहां छात्र-छात्राओं ने लामबंदी की, तब-तब वहाँ-वहाँ प्रो चौथीराम ने एक मजबूत खंभे की तरह खड़े होकर उन्हें पूरा समर्थन दिया। उनके पक्ष में लिखा और जरूरत पड़ी तो वहाँ जाकर शामिल भी हुये। इसके लिए न उन्होंने उम्र की परवाह की न ही स्वास्थय उनके आड़े आया। उन्होंने हमेशा आवाज उठाई। यह एक बड़ी बात थी कि देश के नामी आलोचक और विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हो जाने के बाद आराम से जीवन बिताने की बजाय उनमें समाज के लिए कुछ करने का जज्बा जीवित था।

मैंने उस समय को देखा है जब बनारस में बीएचयू की छात्राओं के आंदोलन के साथ शहर के अनेक संगठनों के हजारों लोग शामिल थे। प्रोटेस्ट चल रहा था। पुलिस आई। बातचीत कर आंदोलन बंद कराने के लिए दबाव बनाया जाने लगा लेकिन क्या मजाल कि चौथीरामजी टस से मस होते बल्कि सड़क पर ही जमकर बैठ गए। उसके बाद पुलिस-प्रशासन घबरा गया। बनारस में चलने वाले सभी आंदोलनों में किसी न किसी रूप में उनकी भागीदारी देखने को मिलती थी।

मैं उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर इतने आदर से भरी हूँ कि मुझे लगा बनारस के इस प्रचंड वक्ता और धुरंधर विद्वान पर कुछ काम करूँ। इसी क्रम में गाँव के लोग ने उन पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई – ‘शब्द और कर्म की एकता के महारथी चौथीराम यादव’। जब इस काम के लिए उनसे बात करने उनके घर पहुंची तब उन्होंने सहजता से ही उन पर काम करने की अनुमति दे दी। उस दौरान मैंने उनके साथ बहुत समय बिताया। मुझे काफी वीडियोग्राफी करनी थी। पुरानी स्मृतियों को रिकार्ड करना और फोटोग्राफ इत्यादि को इकट्ठा करना था और मैं कई बार संकोच में पड़ जाती कि उन्हें डिस्टर्ब करूँ या नहीं! लेकिन इतनी उम्र में शूटिंग करते समय उनकी ऊर्जा और उत्साह सच में देखने लायक था। कई बार एक दृश्य के लिए कई-कई बार रीटेक करना पड़ा लेकिन उनके चेहरे पर कोई शिकन नही आई बल्कि हो जाने के बाद पूछते कि ठीक हुआ?

पूरा घर दिखाकर कहा कि जहां जो जरूरत है उपयोग कर लेना। ठंड के दिन थे। सोचा उनकी छत पर कुछ बातचीत कर ली जाए। ऐसे में वे तैयार हुए और फुर्ती से छत पर पहुँच गए। कभी कोई बात फिर से कहने को कहते तो बिना ना-नुकुर के दोहरा देते। हमें पहले लगा था कि कैसे उनसे कोई बात कही जाएगी लेकिन उन्होंने इतना स्पेस दिया कि सारा संकोच खत्म हो गया जिससे उनसे बातचीत करना आसान हो गया।

मैं सुबह 10 बजे पहुँच जाथी थी। काम शुरू हो जाता था लेकिन इसके बीच में वे अपनी छोटी बहू मीरा को कहते ‘बहुत ठंड है अदरक वाली चाय पिला दो।’ चाय और खैनी के बेहद के शौकीन थे क्योंकि दिन में कई बार इसका दौर चलता था। जैसे ही एक बजता कहते भई इन लोगों को कुछ खिला दो खाने का समय हो रहा है। मीरा भी कहाँ पीछे रहती। हमारे आने की खबर उसे रहती और वह पहले से ही तैयारी कर रखी रहती और जितने दिन गए अलग-अलग स्वादिष्ट खाना खिलाया। जबकि हम लोग खा-पीकर जाते थे। संकोच तो बहुत होता था लेकिन चौथीरामजी इतने स्नेह से अधिकारपूर्वक कहते थे कि उनकी बात टाल नहीं सकते थे। उनके साथ हम भी खाते। काम के दौरान जैसे ही चाय का समय होता कहते एक चाय हो जाए और उसके बाद 4-5 मिनट उनके खैनी का कार्यक्रम चलता। मजा बहुत आता उन्हें देखकर।

प्रोफेसर चौथीराम यादव के साथ मैं और रामजी

उनके कमरे में शूट करना था, मैंने कहा कि आपका लिखते हुए कुछ शॉट लेना है। आप अपनी टेबल-कुर्सी पर बैठकर कुछ लिखिएगा। उन्होंने बताया कि मैंने तो आज तक कुर्सी-टेबल पर कभी कुछ लिखा ही नहीं। जबकि उनकी 5-6 किताबें आ चुकी हैं। जब कमरे में पहुंचे तो सच में वहाँ उनके बेड के अलावा किताबों से आलमारी भरी थी, जिसमें ऊपर से नीचे तक किताबें भरी हुई थीं और ये सारी किताबें उनकी पढ़ी हुई थीं। मैंने पूछा कि तब क्या बिस्तर पर छोटी टेबल लगाकर लिखते हैं? हँसते हुए बताया कि मैं तो लेटकर लिखता हूँ। मुझे आश्चर्य हुआ लेकिन जब उन्होंने लेटे-लेटे ही अपने टैब पर देर तक टाइप किया।

उनके विचार और करनी में कभी कोई भेद नहीं दिखाई दिया। वे जिस विचार को मानते थे, उस पर पूरा अमल करते। वास्तव में वे प्रगतिशील थे, कभी दोहरा व्यवहार नहीं किया। जैसा कि कई बार कुछ लोग मंच से तो प्रगतिशीलता की बात करते हैं लेकिन घर और समाज में रूढ़िवादी होते हैं। यह बात इसलिए कि उनके परिवार के जितने भी लोगों से बात हुई, खासकर बहुओं से, उन्होंने बताया कि वे हमेशा से उन्हें आगे बढ़ाने के लिए न केवल कहते थे बल्कि उन्हें स्पेस दे आगे बढ़ने की व्यवस्था भी करते।

उन्हें आज की टेक्नोलॉजी में रमने और सीखने में वक्त नहीं लगता था। यह सोशल मीडिया पर उनकी उनकी पोस्ट देखकर समझ आता था। वे पहले कॉपी पर पेन से लिखते थे लेकिन मोबाइल और टैब आ जाने के बाद उनका हर लेख इसी में लिखा जाता और बिना किसी गड़बड़ी के वे लिखते। फोटो खींचने और खिंचवाने के गजब के शौकीन और फिर उस फोटो को सोशल मीडिया पर शेयर भी करते।

डाक्यूमेंट्री बनाने के लिए उनके पैतृक गाँव जाने की बात पर उन्होंने कहा ठीक है मैं भी चलूँगा। और फिर अपने बेटे अशोक, अभिषेक, बहू मीरा और पोते अथर्व तथा गाँव के लोग की टीम में संपादक रामजी यादव, कैमरमैन श्यामसुंदर पासवान और मैं साथ सुबह 8-9 के बीच चल पड़े। रास्ते में खुटहन बाजार में रुके जहां के स्कूल से उन्होंने पढ़ाई की थी। स्कूल के अंदर पहुंचकर स्कूल के दिनों की बहुत-सी बातें साझा कीं। पूरा स्कूल घुमाया। अपने अध्यापकों को याद किया। छुट्टी का दिन था, इसलिए केवल वहाँ के केयर टेकर से बातचीत हुई, जिसे कुछ ज्यादा नहीं मालूम था क्योंकि यहाँ आए उसे 7-8 वर्ष ही हुआ था। बहुत खुश होकर प्रोफ़ेसर साहब ने कहा ‘यहाँ मैं पढ़ाई के बाद आज आया हूँ। काफी कुछ बदल चुका है। यहाँ आकर मैं अपने विद्यार्थी जीवन में पहुँच गया।’ मुझे धन्यवाद दिया कि तुम्हारे बहाने मैं यहाँ आ सका। उन्होंने बताया कि बनारस से रास्ता तो यही है गाँव जाने का लेकिन कभी रुकने और स्कूल जाने का मौका नहीं लगा था। हम लोग भी खुश थे।

अपने गाँव कायमगंज में लोगों के साथ प्रोफेसर चौथीराम यादव

गाँव में उनका पैतृक घर बहुत बड़ा है, जिसमें बुजुर्ग लोगों में सिर्फ उनकी भाभी ही रह गई हैं। उनके भतीजे, बहुओं, पोते-पोतियों और बहनों के अलावा पट्टीदारों और गाँव के कुछ लोगो से मुलाकात हुई। सभी ने उनके साथ जुड़े अनुभव साझा किए। उनमें से एक ने बताया कि चौथीराम जी गाँव में रामलीला करवाते थे, जिसकी पटकथा इन्होंने लिखी थी। हर वर्ष दशहरे का इंतजार पूरे गाँव वाले करते थे। बाद में गाँव वालों ने रामलीला करवाने का जिम्मा खुद उठा लिया था लेकिन इधर 10-12 वर्षों से यह लगभग़ खत्म सा हो गया है।

चौथीराम जी से जब मैंने सवाल किया कि आप और रामलीला? तब उन्होंने कहा कि ‘उन दिनों मेरी वैचारिक समझ ऐसी नहीं थी और फिर लगा कि यह एक माध्यम है लोगों को जोड़ने और उनकी समाजिकता बढ़ाने का।’

वे एक शानदार अध्यापक थे और मैं जितने लोगों से मिली सभी ने उनके इस पक्ष की बहुत प्रशंसा की। अपने विषय पर उनका पूरा कमांड था और उनके संदर्भ बहुत व्यापक होते थे। बीएचयू में अपनी नौकरी तक तो वे खुलकर कभी किसी संगठन के साथ खड़े नहीं हुए क्योंकि उस समय उनकी अपनी सीमाएं थीं लेकिन जैसे ही नौकरी से फुरसत हुए पूरे देश में घूम-घूमकर दलित-पिछड़े समाजों के साहित्यिक कार्यक्रमों में खुलकर बोलते। व्यवस्था और सरकार को घेरते।

उम्र के 83 वर्ष पूरे जाने के बाद भी वे अपने अंतिम समय तक बाहर होने वाले सभी कार्यक्रमों में शामिल होते रहे। वे न ठंड देखते, न गर्मी और न बारिश। बस जाना है तो जाना है। इस कारण 250-300 किलोमीटर का सफर टैक्सी से करते जिसमें अपने सबसे छोटे बेटे अभिषेक और बहू मीरा को साथ ले लेते क्योंकि वे लोग उम्र के कारण अकेले जाने नहीं देते थे।

अभिषेक, मीरा, अशोक और पोते अथर्व के साथ खुटहन विद्यालय परिसर में

उनके नहीं रहने की खबर गाँव के लोग के व्हाट्सएप ग्रुप में दीपक शर्मा ने जब शेयर की तो विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि सुबह ही फेसबुक पर उनकी पोस्ट देखी थी।

एक बार फिर कहूँगी कि उनके साथ की जितनी कम स्मृतियाँ हैं उन्होंने भी मन में इतनी जगह बना ली है कि वह कभी विस्मृत नहीं होंगे। मैं कभी उनकी छात्रा नहीं रही इसके बावजूद मुझे लगता है कि उनसे मैंने बहुत कुछ सीखा है। उन्होंने मेरे साहित्यिक दृष्टिकोण को व्यापकता दी है। मैं बहुत लोगों से मिली हूँ लेकिन प्रोफ़ेसर चौथीराम यादव वास्तव में अनूठे थे। उनकी सामाजिकता, वैचारिकता और उनके व्यक्तित्व का आकलन करते हुये लगता रहेगा कि उनका सहज व्यक्तित्व और उनकी लोकतांत्रिकता ऐसी थी, जो हमारे दिल-दिमाग में उनकी स्थायी जगह बनाए रखेगी। उनके जैसा वक्ता दुबारा नहीं होगा। वंचितों का सबसे सशक्त व्याख्याता चला गया और हिन्दी साहित्य में देर तक उसके न होने से एक सन्नाटा छाया रहेगा। उनकी कमी खलती रहेगी। अच्छी बात यह है कि उनकी आवाज में बहुत सारे वक्तव्य सुरक्षित हैं। उनके विचार और किताबें उनकी कमी को बहुत हद तक कम करेंगे। उन्हें सादर नमन।

अपर्णा
अपर्णा
अपर्णा गाँव के लोग की संस्थापक और कार्यकारी संपादक हैं।

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