अगर नहीं तो जरूर पढ़िए आधा बाजा रामजी यादव का कथा संग्रह है जिसमें कुल जमा 8 कहानियां है, सूदखोर के पांव, अंतिम इच्छा, अंबेडकर होटल, एक सपने की मौत, परजुनिया,आधा बाजा और उपनिवेश. रामजी यादव कौन हैं, इनके व्यक्तित्व का विकास कैसे हुआ इस पर बात करने की जगह मैं सीधे कहानियों पर बात करना चाहूंगा और कहानियों पर बात करने से पहले मैं अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया देना चाहूंगा।
इन कहानियों को पढ़ते हुए मुझे यह एहसास हुआ की प्रेमचंद की शिल्प दक्षता और रेणु के रोमांटिसिज्म के बीच गांव का आदमी कहीं छूट जाता है या इस बात को और बेहतर ढंग से कहूं तो यह कह सकता हूं की इन कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगा कि चरित्र आकर अपनी कहानी सुना रहे हैं। गांव के लोग आकर अपनी कहानी सुना रहे हैं।
[bs-quote quote=”ऐसे लेखकों की भी कमी नहीं जो भाषा को चटखारेदार बनाने के लिए या चरित्रों का चरित्र हरण करने के लिए गाली गलौज और अश्लील कहे जाने वाले मुहावरों का सायास प्रयोग करते हैं। एक तरफ प्रेमचंद है दूसरी तरफ काशीनाथ सिंह और इनके बीच कहीं फणीश्वरनाथ रेणु। भाषा का एक परिष्कार प्रेमचंद के यहां दिखता है और भाषा शिल्प का लोकरंगी निखार रेणु के यहां दिखता है लेकिन भाषा के साथ गाली गलौज का व्यवहार काशीनाथ सिंह के यहां दिखता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
प्रेमचंद को पढ़ते हुए यह अहसास बना रहता है कि हम एक बड़े लेखक को पढ़ रहे हैं। उनके चरित्र लेखक की भाषा बोलते हैं. लेखक की जुबान और चरित्र की जुबान के बीच एक खाई दिखाई देती है। प्रेमचंद के चरित्र वही भाषा नहीं बोलते जिस भाषा में जीते हैं। आश्चर्यजनक रूप से प्रेमचंद के ग्रामीण चरित्रों की भाषा में बहुत सारी चीजें तराश कर पड़ोसी गई हैं। दरअसल गांव प्रेमचंद से शुरू होता है न कि खत्म जैसा कि आज तक आलोचक बताते रहे हैं? प्रेमचंद को एक ऐसे मानदंड के रूप में प्रस्तुत करते रहे कि कथा रचना में उनके पास तक नहीं जाया जा सकता. प्रेमचंद भी ऐसा नहीं चाहते होंगे कि उनके बाद गांव पर लिखा ही न जाए। भाषा के निर्माण काल में भाषिक शुद्धता को बनाए रखने के लिए ऐसा करना लाजिमी रहा होगा। प्रेमचंद उर्दू जैसी नफीस भाषा से हिंदी जुबान में आए थे और उन्होंने एक भाषा गढ़ के हमें दी. उस भाषा का ही प्रयोग करके आगे भी गांव के लोगों की कहानियां लिखी जाएंगी ऐसा प्रेमचंद जैसे बड़े लेखक और मनीषी की परिकल्पना रही हो सकती है। ऐसा ही हो भी रहा है लेकिन प्रेमचंद का शिल्प ही आखरी शिल्प है ऐसा मान लेने से कथा साहित्य में गांव का बड़ा नुकसान हुआ है।
दूसरी तरफ ऐसे लेखकों की भी कमी नहीं जो भाषा को चटखारेदार बनाने के लिए या चरित्रों का चरित्र हरण करने के लिए गाली गलौज और अश्लील कहे जाने वाले मुहावरों का सायास प्रयोग करते हैं। एक तरफ प्रेमचंद है दूसरी तरफ काशीनाथ सिंह और इनके बीच कहीं फणीश्वरनाथ रेणु। भाषा का एक परिष्कार प्रेमचंद के यहां दिखता है और भाषा शिल्प का लोकरंगी निखार रेणु के यहां दिखता है लेकिन भाषा के साथ गाली गलौज का व्यवहार काशीनाथ सिंह के यहां दिखता है
रामजी यादव की आधा बाजा की कहानियां चरित्रों की तरफ से कही या लिखी गई कहानियां है। इन्हें पढ़ते हुए आपको यह लग सकता है आप किसी गांव में घूम रहे हैं और सीधे वहां के लोगों से उनकी जिंदगानी की दास्तान सुन रहे हैं।
गांव के लोगों पर जब भी लिखा गया, किसी बाहरी आदमी की तरह लिखा गया. उनका हिस्सा बनकर, उनसे सहानुभूति रख कर, उनका बनकर लिखा गया और इन सब में एक सायास प्रयत्न है।
[bs-quote quote=”ये कहानियाँ वैसी ही हैं जैसे रामजी यादव हैं। रामजी जैसे बोलते हैं, वैसे ही ये कहानियाँ बोल रही हैं। लेखक की भाषा और लेखन की भाषा में ऐसा अंतर नहीं होना चाहिए कि दोनों दो छोर के लगें, ऐसा एक मार्क्सवादी सौदर्यशास्त्री रसूल हमजातोव कहते हैं” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
यह प्रयास ही वह जरा सी दरार छोड़ देता है जैसे किसान डँडा़र छोड़ देता है। उस पार लेखक और इस पार चरित्र।
रामजी यादव की कहानियों में वह बीच की रेखा मिट जाती है। आप सीधे गांव से मुखातिब होते हैं। किताब के शीर्षक कहानी आधा बाजा का नायक शादी विवाह और गांव के लोकोत्स्वों में बाजा बजाने वाला एक व्यक्ति है सुखदेव। सुखदेव का नाम है कि वह कभी पूरा बाजा नहीं ले जाते हैं। सौदा पूरा बाजा का करते हैं और आधा कहीं और भेज देते हैं। उनसे बेहतर कोई डफ नहीं बजा सकता है तो सब उन्हीं को चाहते हैं लेकिन आदर कोई नहीं देता। एक दिन जब उनको आदर मिलता है तो पढ़ने वाले पाठक को भी लगता है कि वह भी उसके भीतर भी एक सुखदेव है जो आज बाहर निकल आया है।
यह एक जरुरी किताब है आपके लिए अगर आप सन् 1990 से 2020 तक के गाँव के हाल समाचार से अवगत होना चाहते हैं। हालांकि बड़े प्रायोजित ढंग से गाँव को चर्चा से भी बाहर कर दिया गया है जिसकी तसदीक़ उपनिवेश कहानी में की गई है।
अम्बेडकर होटल कहानी उत्तर भारत के गाँव और महानगर मुंबई के बीच घटित होती है। एक एक कहानी, भाषा, शिल्प, कथ्य आदि पर अकादमिक तरीके से लिखना या बोलना ठीक रहेगा। फिलहाल एक पाठक की हैसियत से इतना ही कि कहानियाँ बहुत ही पठनीय हैं। वैचारिक पूर्वाग्रह या प्रतिबद्धता का बोझ सिर पर उठाकर लिखी गई कहानियों से ये कहानियाँ अलग हैं।
[bs-quote quote=”कहानियों को पढ़ते हुए मुझे यह एहसास हुआ की प्रेमचंद की शिल्प दक्षता और रेणु के रोमांटिसिज्म के बीच गांव का आदमी कहीं छूट जाता है या इस बात को और बेहतर ढंग से कहूं तो यह कह सकता हूं की इन कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा लगा कि चरित्र आकर अपनी कहानी सुना रहे हैं। गांव के लोग आकर अपनी कहानी सुना रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
छोटी सी किताब मैंने एक पखवारे में पढ़ के खतम की क्योंकि हर कहानी कुछ समय के लिए अपने साथ रोक लेती है जैसे रामजी यादव अपने मित्रों को हाथ थाम के रोक लेते हैं।
मुझे अच्छा लगा कि ये कहानियाँ वैसी ही हैं जैसे रामजी यादव हैं। रामजी जैसे बोलते हैं, वैसे ही ये कहानियाँ बोल रही हैं। लेखक की भाषा और लेखन की भाषा में ऐसा अंतर नहीं होना चाहिए कि दोनों दो छोर के लगें, ऐसा एक मार्क्सवादी सौदर्यशास्त्री रसूल हमजातोव कहते हैं।
(आधा बाजा – अगोरा प्रकाशन , मूल्य -140/-)
बहुत ही पठनीय पुस्तक है यह।
इस पुस्तक पर और कधिक समीक्षा की जरूरत है।