वर्ष 1925 में आरएसएस का गठन ही इसलिए किया गया था कि देश की संस्कृति और धर्म को परिवर्तित कर हिन्दू राष्ट्र का गठन किया जाये। तब से लेकर लगातार 90 वर्ष की मशक्कत के बाद 2014 में सत्ता में आने के बाद वे लोग इस बात के लिए सक्रिय हुए। इस बीच उन्होंने अपना काम बंद नहीं किया बल्कि अलग-अलग संगठन बनाकर हर वर्ग व जाति के लोगों को जोड़कर उनका ब्रेन वाश करते हुए एक मजबूत कैडर की फौज खड़ी कर ली।
इधर दस वर्षों से देश की संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, धर्म, जाति, लिंग को अपनी निजी संपत्ति समझ उसमें परिवर्तन और दखलंदाजी बिना किसी खौफ के साथ कर रहे हैं। देश में परिवर्तन करने का ठेका संघ के लोगों ने पिछले कुछ सालों से संभाल रखा है। देश चलाने के अतिरिक्त लेखकों, कवियों, सिनेमाकारों, नाटककारों, चित्रकारों, एक्टिविस्ट, पत्रकारों द्वारा किसी भी प्रकार की अभिव्यक्ति पर अघोषित बंदिश लगा दी गई है। फासीवाद ताकतों का विरोध करने पर इनकी ट्रोलिंग कंपनी तुरंत ही सोशल मीडिया पर टिड्डी दल जैसा हमला कर ट्रोल करती है। यह ट्रोलर भारत की बहुआयामी संस्कृति और सभ्यता के लिए बहुत ही बड़ा खतरा बनते जा रहा है।
2014 और 2019 में केंद्र में बीजेपी के पूर्ण बहुमत के साथ आने पर संघ के साथ उनकी आक्टोपस जैसी सभी शाखाओं की बाछें खिल गई। वे जो चाहते थे, उन्हें मिला। उसके बाद हर संस्थान में परिवर्तन का दौर शुरू हुआ। हर संस्थान को चलाने की बागडोर संघी मानसिकता वाले व्यक्तियो को सौंप दी गई। विशेषकर शिक्षा विभाग और विश्वविद्यालयों में वैज्ञानिक चेतना और तार्कितता को दरकिनार कर इतिहास को बदलने का काम शुरू किया गया, जो आज तक चल रहा है। जिन विषयों का जीवन में कोई महत्त्व नहीं है, उन्हें विश्वविद्यालय में शामिल कर एक नई फ़ैकल्टी खोली जा रही है। यहाँ पढ़ाने वालों की नियुक्ति योग्यता के आधार पर न होकर धर्म के आधार पर की जा रही है। इसके विरोध में किसी ने कुछ कहा या लिखा तो सैफ्रोन डिजिटल आर्मी के द्वारा उन लोगों पर कमर के नीचे बेधड़क हमला करवाया जा रहा है। व्हाट्सअप तथा अन्य सोशल मीडिया के द्वारा, इन्हें ट्रोल करने की पूरी आज़ादी है बल्कि इनका अपना आईटी सेल है, जिसमें युवक-युवतियों को वेतन पर रखा जा रहा है।
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बुद्धिजीविता और वैचारिकता से इन्हें भय लगता है। कुछ वर्ष पहले समाज सुधारक डॉ नरेंद्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविंद पानसरे, प्रोफेसर कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या करवा दी।
कलाकारों और मुसलमानों से संघ वालों की दुश्मनी है। अभिनेता अमिर खान, शाहरुख खान, नसरुद्दीन शाह और गीतकार जावेद अख्तर जैसे कलाकारों से किया गया व्यवहार सभी को मालूम है। लेकिन जो वैचारिक रूप से मजबूत हैं, वे इनसे नहीं डरते बल्कि ये उनसे डरते हैं। इनके प्रति सांप्रदायिक नफरत की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है।
विश्व भर में अपनी पेंटिंग से जाने जाने वाले मकबूल फिदा हुसैन जैसे कलाकार का अंत कैसा हुआ सभी जानते हैं। उनकी बनाई भारत माता की पेंटिंग को लेकर शिवसेना ने सबसे ज्यादा विरोध किया। दिल्ली कोर्ट में उन पर केस चला। विरोध के चलते उनका यहाँ रहना मुश्किल हो गया, वर्ष 2006 में वे लंदन चले गए। वर्ष 2009 में कतर की नागरिकता मिली, अपने अंतिम समय तक वे वहीं रहे और मरने के बाद, उन्हें अपने देश में दफनाने की अनुमति भी नहीं मिली और अंतत: वर्ष 2011 में विदेशी भूमि में दफनाना गया।
गंगा-जमनी तहजीब वाले इस देश में वर्ष 2014 के बाद हिन्दू-मुस्लिम तहज़ीब काम कर रही है। जो इस देश के लिए शर्म की बात है!
पिछले दस वर्षों से धर्म के नाम पर विरोधियों को लक्ष्य बनाकर द्वेषपूर्ण प्रचार किया जा रहा है। धर्म की आड़ में, लोगों की आस्था के मुद्दों को उछाल कर अनेक ऐसे काम किए जा रहे हैं, जो गैरजरूरी है। यही तरीका जर्मनी में हिटलर ने आजमाया था लेकिन लोगों को बहकाने का यह फार्मूला अब पुराना हो चुका है।
जैसी स्थिति इन दस वर्षों में हमारे देश में दिखाई दे रही है, उसे देखते हुए सवाल उठता है कि क्या भारत में सौ सालों पहले के जर्मनी जैसा फासिस्ट ताकतों का राज शुरू हो गया है?
हिटलर के नाम से कांपने वाले जर्मनी में आज हिटलर के नाम तक लेने की मनाही है। क्या संघ और उससे संबंधित इकाइयां इतिहास में घटित घटनाओं से कुछ भी सबक सीखेंगे?
जो स्थितियाँ आज देश की है, उसे लेकर वर्तमान केंद्र सरकार को थोड़ी सी भी चिंता करें तो 1977 में क्या हुआ है? यह समझ में आ जाएगा। डॉक्टर राममनोहर लोहिया की भाषा में जिंदा कौमे पांच साल इंतजार नहीं करती हैं।