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भारत बंद से पुराने फॉर्म में लौटीं मायावती क्या अपनी बिखरी राजनीति को समेट पाएँगी                                              

भारत बंद की सफलता के बाद जहां अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने दलित आंदोलनकारियों के व्यवहार में आए बड़े बदलाव को देखते हुए भविष्य में धरना- प्रदर्शनों के सैलाब आने की संभावना जाहिर किया, वहीं दलित आंदोलनकारी अपनी बहन जी को पुराने रूप में लौटते देख खुशी से झूम उठे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस कांशीराम का नाम लेकर मायावती राजनीति करती रही हैं, लोग राहुल गांधी में अब कांशीराम की छवि देखने लगे हैं। यदि कांशीराम के रूप में राहुल गांधी की छवि स्थापित हो जाती  है, तब पहले से ही काफी हद तक अपना वोटबैंक गवां चुकी मायावती का राजनीतिक भविष्य का क्या होगा?

कहावत है कि हर बुराई अपने पीछे कुछ अच्छाई भी छोड़ जाती है। यह कहावत आरक्षण के उपवर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक अगस्त को आए फैसले पर काफी हद तक लागू होती है। शीर्ष कोर्ट के फैसले का जहां दलित-आदिवासियों के एक छोटे से तबके ने दिल से स्वागत किया, वहीं इसके बहुसंख्य लोगों, विशेषकर दलितों के बड़े समूह ने इसे आरक्षण और संविधान पर बड़े आघात के रूप में लिया और फैसला आने के कुछ ही दिनों के मध्य किसी अज्ञात संगठन/ व्यक्ति की ओर से 21 अगस्त को भारत बंद की घोषणा कर दी गई।

बिना बड़े दलित एक्टिविस्टों और संगठनों के सलाह के भारत बंद की घोषणा ने दलितों को असमंजस में डाल दिया। किन्तु बंद का दिन करीब आते ही कोर्ट के फैसले से क्षुब्ध दलितों ने असमंजस को दरकिनार कर बंद में उतरने का मन बना लिया और 20 अगस्त तक तय हो गया कि ऐसा भारत बंद होने जा रहा है, जो अप्रैल, 2018 के बंद को भी पीछे छोड़ देगा। बंद समर्थकों का हौसला सातवें आसमान पर तब पहुंच गया जब अंतिम क्षणों में मायावती की ओर से बसपा कार्यकर्ताओं को बंद में शामिल होने का निर्देश जारी हो गया।

मायावती की देखादेखी चिराग पासवान, अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव की ओर से भी भारत बंद के समर्थन की घोषणा हुई। समर्थन करने वालों में कांग्रेस भी शामिल हो गई । लेकिन बंद समर्थक दलितों का हौसला खासतौर से मायावती की घोषणा से बढ़ा। मायावती का अपनी पार्टी को बंद में उतरने के निर्देश देना दलितों के लिए एक सुखद विस्मय था। कारण कि जो मायावती प्रायः तीन दशकों से अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं को सड़क पर उतरने से यह कहकर मना करतीं रहीं कि इससे कमजोर दलित समाज के लोग कानूनी झमेलों में फंस जाएंगे, उसी मायावती ने जब अपनी पार्टी को सड़क पर उतरने का निर्देश दिया तो बंद पर गहरा असर पड़ा और यह  ऐतिहासिक साबित हो गया।

मायावती के बचाव में उतरे अखिलेश यादव

भारत बंद की सफलता के बाद जहां अधिकांश राजनीतिक विश्लेषकों ने दलित आंदोलनकारियों के व्यवहार में आए बड़े बदलाव को देखते हुए भविष्य में धरना- प्रदर्शनों के सैलाब आने की संभावना जाहिर किया, वहीं दलित आंदोलनकारी अपनी बहन जी को पुराने रूप में लौटते देख खुशी से झूम उठे। आरक्षण के उपवर्गीकरण से दलित एकता मे विराट क्षति के बावजूद, दलित एक्टिविस्ट इसमें एक अच्छाई यही देख रहे हैं कि बंद ने उन्हें उनकी बहन जी को पुराने रूप में वापस ला दिया।। इससे रातों-रात बसपा ने अपनी खोई जमीन कुछ हद तक हासिल कर ली। बसपा सुप्रीमो के भारत बंद समर्थन का इतना बड़ा असर पड़ा कि राष्ट्रीय स्तर के कई ऐसे दलित बुद्धिजीवी बसपा में शामिल होने का मन बना लिए, जो बहुजन समाज के सरोकारों से आँखें मूँदने के लिए दिन-रात उनकी आलोचना में लंबे समय से पंचमुख रहे। लेकिन उनका पुराने रूप में वापस आना शायद भाजपा को रास नहीं आया इसलिए उसके मथुरा के मांट सीट के विधायक ने टीवी डिबेट में यह खुली घोषणा कर दी कि ‘मायावती को पहली बार मुख्यमंत्री हमने बनवाया, लेकिन वह हमारी भूल थी। मायावती यूपी की सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री रही हैं।’

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चैनल पर जब एंकर ने यह कहा कि आप किसी भावना में बहकर तो यह नहीं कह रहे तो विधायक ने कहा कि यह अकाट्य सत्य है कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार मायावती सरकार में हुआ। भाजपाई विधायक के बयान पर बसपा नेतृत्व हक्का-बक्का रह गया। उसे कुछ कहते नहीं बन रहा था। तभी सबसे पहली प्रतिक्रिया अखिलेश यादव की ओर से आई। उन्होंने एक्स पर बड़ी पोस्ट डालकर कहा कि पूर्व मुख्यमंत्री के प्रति कहे गए अभद्र शब्द दर्शाते हैं कि भाजपाइयों के मन में महिलाओं और खासकर वंचित-शोषित समाज से आने वालों के प्रति कितनी कटुता है। राजनीतिक मतभेद अपनी जगह होते हैं, लेकिन एक महिला के रूप में उनका मान-सम्मान खंडित करने का अधिकार किसी को नहीं है। भाजपाई कह रहे हैं कि उनकों मुख्यमंत्री बनवाकर गलती की थी, यह भी लोकतांत्रिक देश में जनमत का अपमान है। बिना किसी आधार के यह आरोप  लगाना कि वह सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री थीं, बेहद आपत्तिजनक है। इस वक्तव्य के लिए भाजपा विधायक पर मानहानि का मुकदमा होना चाहिए।’

मायावती को फिर याद आया गेस्ट हाउस कांड

अखिलेश के बयान पर बसपा प्रमुख ने आभार जताते हुए एक्स पर कहा कि ‘भाजपा विधायक को गलत आरोपों का जवाब देकर सपा मुखिया ने बसपा प्रमुख के ईमानदार होने के बारे में सच्चाई को माना है। उसके लिए पार्टी आभारी है। पार्टी को लगता है कि उसकी भाजपा में अब कोई पूछ नहीं रही। इसलिए अनाप-शनाप बयानबाजी करके सुर्खियों में आना चाहता है। भाजपा कोई कार्रवाई नहीं करती है तो फिर इसका जवाब पार्टी के लोग अगले विधानसभा चुनाव में उसकी जमानत जब्त करवाकर और वर्तमान में होने वाले उपचुनाव में भी जरूर देंगे।’

मायावती ने जिस तरह अखिलेश यादव के प्रति आभार जताया, उससे कुछ बहुजन बुद्धिजीवियों में उम्मीद जगी कि वह भाजपा को परोक्ष लाभ पहुंचाने की रणनीति में बदलाव कर विरोधी खेमे के साथ जुड़ जाएंगी। ऐसे अतिउत्साही बहुजन बुद्धिजीवियों ने अतीत में भी कई बार उम्मीद पाली थी कि वह भाजपा के खिलाफ लड़ाई में उतरेंगी, किन्तु उन्होंने हर बार की तरह फिर एक बार निराश किया। पर, इस बार दलित बुद्धिजीवी इसलिए ज्यादा उम्मीद पाल लिए थे, क्योंकि भाजपा विधायक की ओर से जैसे आरोप लगाए गए थे, वैसी स्थिति में किसी भी पार्टी का नेतृत्व उसके खिलाफ कमर कस लेता।

लेकिन भाजपा द्वारा चरम रूप से अपमानित और लांक्षित किए जाने के बावजूद मायावती उसके खिलाफ उग्र नहीं हुईं। उलटे 26 अगस्त को 2 जून, 1995 वाले गेस्ट हाउस कांड की याद दिलाते हुए उन्होंने भाजपा की तारीफ और सपा-कांग्रेस की बुराई कर डाली।

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उन्होंने 26 अगस्त को एक्स पर पोस्ट किया, ‘सपा, जिसने 2 जून, 1995 को बीएसपी द्वारा समर्थन वापसी पर मुझ पर जानलेवा हमला कराया था तो इस पर कांग्रेस कभी क्यों नहीं बोलती? जबकि उस दौरान केंद्र में रही कांग्रेसी सरकार ने भी समय पर अपना दायित्व नहीं निभाया था। तब मान्यवर कांशीराम को अपनी बीमारी की गंभीर हालत में भी हास्पिटल छोड़कर रात को इनके गृहमंत्री को हड़काना पड़ा था तथा विपक्ष ने भी संसद को घेरा था, तब जाकर यह कांग्रेसी सरकार हरकत में आई थी। क्योंकि उस समय कांग्रेस सरकार की भी नीयत खराब हो चुकी थी, जो कुछ भी अनहोनी के बाद यूपी में राष्ट्रपति शासन लगाकर, परदे के पीछे से अपनी सरकार चलाना चाहती थी, उनका यह षड्यन्त्र बीएसपी ने फेल कर दिया था। उस समय सपा के आपराधिक तत्वों से बीजेपी सहित समूचे विपक्ष ने मानवता व इंसानियत के नाते मुझे बचाने में जो दायित्व निभाया है तो इसकी कांग्रेस को बीच-बीच में तकलीफ क्यों होती रहती है, लोग सचेत रहें। बीएसपी वर्षों से जातीय जनगणना के लिए पहले केंद्र में कांग्रेस पर और अब बीजेपी पर भी पूरा दबाव बना रही है, जिसकी वर्षों से पक्षधर रही है और अभी भी है। लेकिन जातीय जनगणना के बाद क्या कांग्रेस एससी, एसटी, ओबीसी वर्गों को वाजिब हक दिला पाएगी? जो एससी/एसटी आरक्षण के वर्गीकरण पर व क्रीमी लेयर को लेकर अभी भी चुप्पी साधे हुए है, जवाब दे।’

यही नहीं उन्होंने आगे बढ़कर यह भी कह दिया था, ‘संविधान सम्मान समारोह करने वाली कांग्रेस पार्टी को बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर के अनुयायी कभी माफ नहीं करेंगे, जिसने संविधान के मुख्य निर्माता को उनके जीते-जी व देहांत के बाद भी भारतरत्न की उपाधि से सम्मानित नहीं किया।’

बेवजह फिर कांग्रेस की आलोचना में मुखर हुईं मायावती  

राम मंदिर के बाद जिस तरह कोर्ट के जरिए भाजपा के आरक्षण का वर्गीकरण का एजेंडा पूरा हुआ और जिस तरह मांट के विधायक ने मायावती को यूपी का सबसे भ्रष्ट मुख्यमंत्री बताया, उससे राजनीतिक विश्लेषक कयास लगा रहे थे कि वह अब भाजपा के खिलाफ आरपार की लड़ाई में उतरेंगी और मोदी-योगी का चैन छीन लेंगी। किन्तु सबको विस्मित करते हुए वह भाजपा के प्रति विरोध की औपचारिकता पूरी करते हुए राहुल गांधी और उनकी पार्टी के खिलाफ हमले तेज करती गईं।

बहरहाल एक ऐसे समय में जब कि कोई भी स्वाभिमानी नेता भाजपा के खिलाफ अपने लोगों को सड़क पर उतार देता, गेस्ट हाउस कांड के जरिए मायावती द्वारा भाजपा की तारीफ और सपा-कांग्रेस को निशाने पर लेना राजनीतिक विश्लेषकों को चौका  गया। कारण, 2 जून 1995 को उनको सीएम के रूप में शपथ दिलाने वाले कांग्रेस के तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल बोरा के नाम की सिफारिश राष्ट्रपति पद के लिए करने के साथ स्वतः ही डॉ. मनमोहन सरकार को समर्थन दी थीं। यही नहीं, बहुत पहले गेस्ट हाउस कांड का मुकदमा वापस लेने के साथ 2019 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह यादव के समर्थन में रैली में भाग ले चुकी थीं।

ऐसे में जब उन्होंने 26 अगस्त को भाजपा की तारीफ और सपा-कांग्रेस की आलोचना की, तब राजनीतिक विश्लेषक इस नतीजे पर पहुंचे बिना न रह सके कि मायावती अभी भी बुरी तरह भाजपा के दबाव में हैं। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा शर्मनाक आरोप लगाए जाने के बावजूद, उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा और 30 अगस्त को बेवजह कांग्रेस की आलोचना में मुखर होकर उन्होंने फिर अपनी भद्द पिटवा ली।

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राहुल गांधी की ‘भारत डोजो यात्रा’ के खिलाफ भी मुखर हुईं मायावती          

कांग्रेस सांसद और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने 29 अगस्त को एक वीडियो शेयर किया था, जिसमें वह बच्चों के साथ मार्शल आर्ट करते दिखे थे। राहुल ने इसे जारी करते हुए कहा था जल्द ही ‘भारत डोजो यात्रा’ शुरू होगी। भारत डोजो यात्रा का जिक्र करते हुए राहुल गांधी ने कहा है कि भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान, जब हमने हजारों किलोमीटर की यात्रा की, तो हमारे शिविर स्थल पर हर शाम ‘जीउ-जित्सु’ का अभ्यास करना हमारी दैनिक दिनचर्या थी। ये चीज फिट रहने के एक सरल तरीके के रूप में शुरू हुई थी, लेकिन यह एक कम्युनिटी एक्टिविटी में बदल गई।

राहुल गांधी ने बताया कि जहां वे रुके थे वहां संबंधित शहरों के साथी यात्रियों और युवा मार्शल आर्ट छात्रों को एक साथ लाया गया। उन्होंने बताया कि वह राष्ट्रीय खेल दिवस के अवसर पर लोगों के साथ अपना अनुभव साझा करना चाहते हैं। उन्हें उम्मीद है कि उनमें से कुछ लोग इस जेन्टल कला का अभ्यास करने के लिए प्रेरित होंगे। जानकारों का मानना है कि डोजो यात्रा से लोगों में मार्शल आर्ट के प्रति तो क्रेज पनपेगा ही, साथ ही इससे बौद्ध वैचारिकी व बौद्ध जीवन शैली को बढ़ावा मिलेगा। लेकिन मायावती राहुल की ‘भारत डोजो यात्रा’ से बुरी तरह भड़क गईं।

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उन्होंने 30 अगस्त को एक्स पर कहा है-‘पेट भरे लोगों के लिए दोजा व अन्य खेलकूद के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई व पिछड़ापन से जूझ रहे उन करोड़ों परिवारों का क्या जो पेट पालने हेतु दिन-रात कमरतोड़ मेहनत को मजबूर हैं। ‘भारत डोजो यात्रा’ क्या उनका उपहास नहीं?’ उन्होंने आगे कहा है कि कांग्रेस एवं इनके इंडिया गठबंधन ने आरक्षण बचाने के नाम पर एससी, एसटी व ओबीसी का वोट लेकर अपनी ताकत तो बढ़ा ली, किन्तु अपना वक्त निकाल जाने पर उनके भूख व तड़प को भुलाकर यह क्रूर रवैया अपनाना क्या उचित है?

खेल का राजनीतिकरण हानिकारक है! मायावती ने आगे कहा, ’केंद्र व राज्य सरकारें देश के करोड़ों गरीबों व मेहनतकश लोगों को सही व सम्मानपूर्वक रोटी-रोजी की व्यवस्था कर पाने में अपनी विफलता पर पर्दा डालने के लिए उनसे भूखे पेट भजन कराते रहना चाहती है, किन्तु विपक्षी कांग्रेस का भी वैसा ही जनविरोधी रवैया जनता को कैसे गवारा संभव है?’

राहुल की लोकप्रियता से खौफ़जदा भी हो गईं हैं मायावती

बहरहाल, काल विलंब किए बिना मायावती द्वारा राहुल गांधी की भावी भारत डोजो यात्रा को निशाने पर लेने से राजनीतिक विश्लेषक हैरान व परेशान हैं। उन्हें लगता है कि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया है इसलिए जिस भाजपा ने आरक्षण के खात्मे के लिए सरकारी कंपनियां तक बेचने के साथ कोर्ट के जरिए राम मंदिर की भांति आरक्षण के वर्गीकरण का संघ का पुराना एजेंडा पूरा कर लिया, उसके  खिलाफ आंदोलन संगठित करने के बजाय ,वह उस कांग्रेस पर जरूरत से ज्यादा हमलावर हो गईं हैं, जो पिछले दस साल से सत्ता से दूर है।

सिर्फ राजनीतिक विश्लेषक ही नहीं, भाजपा के बजाय अधिकतम ऊर्जा कांग्रेस के विरोध में खर्च करने पर खुद उनके एकनिष्ठ  समर्थक तक विस्मित हैं। ऐसे में यह बड़े अध्ययन का विषय बन गया है कि क्यों मायावती कांग्रेस विरोध में जुनून की हद तक मुस्तैद हो गई हैं, लेकिन इसका जवाब कठिन नहीं बल्कि बहुत सरल है और वह जवाब है राहुल गांधी की आकाश छूती लोकप्रियता। वास्तव में पिछले छह महीने मे राहुल गांधी ने अपने वाचन और कर्म से भारतीय राजनीति में जलजला पैदा कर दिया है। उनका जनसम्पर्क और एजेंडा ही नहीं, उनके पहनावे तक ने भारतीय नेताओं में खौफ पैदा कर दिया है।

उनके लकदक सफेद टी-शर्ट ने खादी में घूमने वाले नेताओं को अपने ड्रेस कोड पर पुनर्विचार करने के लिए विवश कर दिया है। इससे दिन में कई बार कपड़े बदलने वाले प्रधानमंत्री मोदी अब कपड़े बदलना भूल गए हैं। पिछले एक दशक में अरबों रुपये खर्च करके भाजपाई मीडिया द्वारा पप्पू बनाए गए राहुल गांधी अब पापा की छवि निर्माण करने मे सफल हो गए हैं। जिस भाजपा ने उन्हें पप्पू बनाया, आज राहुल गांधी ने उसमें स्मृति ईरानी, कंगना रनौत, अनुराग ठाकुर, जेपी नड्डाओं के रूप में पप्पूओं की फौज खड़ी कर दी।

राहुल के व्यक्तित्व के समक्ष बुरी तरह निस्तेज हुए मोदी उनके खौफ से सांसद में जाना छोड़ दिए हैं। ममता जैसी फायर ब्रांड नेत्री के लिए राहुल गांधी दु:स्वप्न बन चुके हैं। जब जनता के बीच आत्मविश्वास से जाने वाले ममता और मोदी राहुल से खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे हैं तो जनता से बुरी तरह कटी-फटी सिर्फ ट्वीट के सहारे जिंदा मायावती कैसे असुरक्षित नहीं होतीं?

 क्या राहुल गांधी कांशीराम के विकल्प बनने वाले हैं

वास्तव में मोदी और ममता से भी कहीं ज्यादा राहुल से खुद को  असुरक्षित महसूस करने के लिए अभिशप्त हैं मायावती।  ऐसा इसलिए कि जो मायावती पिछले प्रायः 40 सालों से अपने समर्थकों को यह संदेश देती रही हैं कि कांग्रेस बहुजनों की सबसे बड़ी दुश्मन है तथा इसके अंत से ही बहुजन-राज कायम हो पाएगा, वह कांग्रेस आज राहुल गांधी के जरिए उस स्थिति में पहुँचती दिख रही है, जिस स्थिति में उसने आजादी के बाद के चार दशकों तक देश में एकछत्र राज किया।

सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस कांशीराम का नाम लेकर मायावती राजनीति करती रही हैं, लोग राहुल गांधी में अब उस कांशीराम की छवि देखने लगे हैं। वैसे तो पिछले छह महीनों में दलित बुद्धिजीवियों ने जिस राहुल गांधी को सामाजिक न्याय की राजनीति का नया आइकॉन और मसीहा इत्यादि के खिताब से नवाजा, उस राहुल गांधी की छवि अब दूसरे कांशीराम के रूप में स्थापित होने लगी है। यही कारण है 24 अगस्त को प्रयागराज में जो ‘संविधान सम्मान सम्मेलन’ हुआ, वहां से समवेत स्वर में आवाज उठी है,’ राहुल गांधी : दूसरा कांशीराम’!

यदि कांशीराम के रूप में राहुल गांधी की छवि स्थापित हो जाती  है, तब पहले से ही काफी हद तक अपना वोटबैंक गवां चुकी मायावती राजनीतिक रूप से कंगाल हो जाएंगी, इसलिए वह पहले से भी कहीं ज्यादा कांग्रेस के पार्टी पर हमलावर हो चुकीं हैं। लेकिन सवाल पैदा होता है, क्या वह इस तरह बेवजह राहुल गांधी की आलोचना करके उन्हें दूसरा कांशीराम बनने से रोक  पायेंगी? यह सवाल इसलिए जरूरी है क्योंकि फरवरी 2023 में रायपुर अधिवेशन से उग्र सामाजिक न्याय का दामन थामने वाली कांग्रेस के राहुल गांधी ऐसा कुछ कर चुके हैं कि दलित बहुजन जनता स्वतः ही उनमें कांशीराम की छवि देखने लगी है।

मायावती ने सतीश मिश्र के साथ मिलकर उलट दिया कांशीराम के भागीदारी दर्शन को  

बीसवीं सदी के अंत में भारतीय राजनीति में जलजला पैदा करने वाले कांशीराम आंबेडकर के बाद दलितों के सबसे बड़े नेता के रूप में जगह बनाने के क्रम में दलितों के पढे-लिखे नौकरीशुदा तबकों को ‘पे बैक टू द सोसाइटी’ के मंत्र से दीक्षित करने के साथ हजारों साल के दबे –कुचले लोगों में शासक बनने की जो महत्वाकांक्षा पैदा किया, वह भारतीय राजनीति की सबसे हैरतअंगेज घटनाओं में एक है।

लेकिन उन्होंने बहुजनों में शासक बनने की भावना पैदा करके ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर लिया। शासन-सूत्र हाथ में लेने के बाद जरूरी होता है एक आर्थिक नीति, जिसकी जोर से वंचितों को शक्ति के स्रोतों में उनका प्राप्य दिलाया जा सके। वैसे तो मुख्यधारा के तमाम बुद्धिजीवी ही एक स्वर में कहते रहे हैं कि कांशीराम  एक कुशल संगठनकर्ता के गुणों से तो समृद्ध रहे, पर, उनकी कोई आर्थिक सोच नहीं रही। लेकिन उनका एक आर्थिक दर्शन था जो ‘जिसकी जितनी संख्या भारी-उसकी उतनी भागीदारी’  के रूप मे सामने आया।

उनके इस भागीदारी दर्शन ने पूरे जमाने को प्रभावित किया और ढेरों राजनीतिक दलों ने इसका लाभ उठाने का प्रयास किया। किन्तु खुद उनकी उत्तराधिकारी मायावती ही इसका भरपूर उपयोग करने में चूक गईं। अगर उन्होंने साहब कांशीराम के भागीदारी दर्शन को शक्ति के समस्त स्रोतों – आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक – में हिस्सेदारी तक प्रसार कर बहुजनों को उसमें  हिस्सा दिलाने तक अपनी गतिविधियां प्रसारित करतीं तो बसपा केंद्र की सत्ता पर काबिज होती और वह कब की पीएम बन गई होतीं। किन्तु उन्होंने साहब के भागीदारी दर्शन को सिर्फ सत्ता में भागीदारी तक सीमित रखकर विभिन्न जातियों को सांसद-विधायक और मंत्री बनाने तक सीमित रखा।

बीसवी सदी के अंत तक आते-आते उन्होंने सतीश मिश्र के साथ मिलकर बसपा संस्थापक के नारे को ही उलट दिया और घोषित किया,’ जिसकी जितनी तैयारी-उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ जिसकी जितनी तैयारी की थ्योरी से बसपा में भारत के जन्मजात शोषकों : सवर्णों की भीड़ लग गई और कांशीराम का नारा निष्प्रभावी हो गया। हाँ इतना जरूर हुआ कि मायावती ने जिस तरह कांशीराम के भागीदारी के नारे को सत्ता में भागीदारी तक सीमित किया, उसका प्रयोग दूसरे दल भी करने लगे।

इस मामले में चैंपियन बने नरेंद्र मोदी। मोदी ने आज कांशीराम के नारे का उपयोग कर सत्ता में भागीदारी दिलाने के मामले में मायावती को भी बौना बना दिया है। इस नारे के जोर से तमाम बहुजन राजनीतिक प्रतिभाओं को भाजपा से जोड़कर इसे अप्रतिरोध्य बना दिया है।

राहुल गांधी ने कांशीराम के भागीदारी दर्शन को विस्तार दिया

बहरहाल कांशीराम ने भागीदारी का जो दर्शन दिया, वह सिर्फ सत्ता में भागीदारी तक सीमित न होकर शक्ति के समस्त स्रोतों तक के लिए था, जिसके तहत विविधतामय भारत के विविध सामाजिक समूहों को राजसत्ता की सभी संस्थाओं सहित अर्थोपार्जन की समस्त गतिविधियों (नौकरी सहित सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म-मीडिया, पार्किंग-परिवहन इत्यादि), शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों के प्रवेश और टीचिंग स्टाफ की नियुक्ति इत्यादि सहित पुजारियों की नियुक्ति तक में प्रसारित करना था। किन्तु   दलित बुद्धिजीवियों द्वारा बार-बार अपील किए जाने के बावजूद मायावती इसमें चूक गईं और भागीदारी के मोर्चे पर बड़ी शून्यता छोड़ गईं।

आज मायावती द्वारा छोड़े गए उसी शून्यता को भरने के लिए ‘जितनी आबादी-उतना हक’ के नारे के साथ मैदान में राहुल गांधी कूदे हैं। पिछले साल भर से कांशीराम के भागीदारी दर्शन को ‘जितनी आबादी – उतना हक’ के रूप में उद्घोष करने वाले राहुल गांधी ने न्याय पत्र के नाम से लोकसभा 2024 मे जारी कांग्रेस के घोषणापत्र में भागीदारी का मुकम्मल नक्शा पेश कर दिया है। कांग्रेस के जिस घोषणापत्र ने 2024 के  लोकसभा चुनाव की दिशा बदल कर दिया, उसका ठीक से अध्ययन करने पर स्पष्ट रूप में दिखेगा कि वह कांशीराम के भागीदारी दर्शन का शक्ति के समस्त स्रोतों तक विस्तार था।

चुनाव के पहले से जिस तेवर से राहुल गांधी सवाल उठाते रहे कि दलित, आदिवासी और ओबीसी की आबादी 73% है और 73% वाले कितनी प्राइवेट कंपनियों, यूनिवर्सिटीज, मीडिया, अखबारों ,अस्पतालों इत्यादि के मालिक और मैनेजर हैं? राहुल गांधी का वह तेवर कांशीराम से उधार लिया हुआ है, जिसे मायावती कब की खो चुकी है। कांशीराम से प्रेरित होकर कुछ दलित बुद्धिजीवी वर्षों से शक्ति के स्रोतों में डाइवर्सिटी लागू करवाने की बात कर रहे थे, राहुल गांधी ने उसे भी सम्मान दे दिया है। इस क्रम में उन्होंने आरक्षण का 50% दायरा तोड़ने का एजेंडे देने के साथ अपने घोषणापत्र मे एससी-एसटी समुदायों से संबंधित ठेकेदारों को ज्यादा सार्वजनिक कान्ट्रैक्ट देने के लिए पब्लिक खरीद पॉलिसी का दायरा बढ़ाने का वादा किया है।

ओबीसी, एससी,एसटी छात्रों के लिए स्कालरशिप की धनराशि दो गुना करने, हायर एजुकेशन के लिए एससी और एसटी के छात्रों को विदेश मे पढ़ने में सहायता देने और पीएचडी करने के लिए स्कालरशिप की मात्रा दो गुना करने की जो बात कांग्रेस के घोषणापत्र में आई है, उसके भी पीछे दलित बुद्धिजीवियों को सम्मान देने की भावना क्रियाशील है। डाइवर्सिटीवादी बुद्धिजीवियों के सुझाव को सम्मान देते हुए ही कांग्रेस के घोषणापत्र में राहुल गांधी ने डाइवर्सिटी आयोग गठित करने का वादा किया है, जो सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में रोजगार और शिक्षा के संबंध में विविधता की स्थिति का आंकलन करने के साथ विविधता को बढ़ावा देगा। कुल मिलाकर राहुल गांधी ने जिस तरह कांशीराम के भागीदारी दर्शन को सत्ता में भागीदारी से आगे बढ़ाकर शक्ति के समस्त स्रोतों तक प्रसारित किया है, उस कारण ही लोग उन्हे दूसरा कांशीराम कहने लगें हैं।

अब दूसरे कांशीराम का मुकाबला करने के लिए मायावती के सामने एक ही रास्ता बचा है, वह है सेना व न्यायालयों सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों ,पुजारियों की नियुक्ति। सरकारी और निजी क्षेत्रों द्वारा की जाने वाली खरीदारी, सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकों, पार्किंग-परिवहन, प्रिन्ट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सभी प्रभागों, विज्ञापन निधि की बँटने वाली धनराशि सहित चप्पे-चप्पे में बसपा संस्थापाक के कांशीराम के भागीदारी दर्शन को लागू करने की घोषणा। सिर्फ घोषणा ही नहीं इसके लिए फील्ड में उतरकर एवं सघन अभियान चला कर ही वह राहुल गांधी का मुकाबला कर सकती हैं, नहीं तो उनको मुट्ठी भर सजातियों के वोट पर ही निर्भर रहने के लिए अभिशप्त रहना होगा।

एच एल दुसाध
एच एल दुसाध
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

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