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पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

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इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

एक व्यक्ति ने मेरे ऐन सामने ‘सूत्रधार’ को उठाकर ऐसा फेंका कि वह नाली तक चला गया

पहला संवाद हेलो….नमस्कार दादा ! मैं रविशंकर। हां,  नमस्कार रवि जी क्या कर रहे हैं दादा ? हां, यहां प्रकृति का सौंदर्य है। बस एंजॉय कर रहे हैं ? पत्नी कहीं पूजा पाठ करने के लिए गई है। दादा !  भाभी और हम जैसे लोगों के कारण ही तो धर्म बचा हुआ है, वरना आप […]

पहला संवाद

हेलो….नमस्कार दादा ! मैं रविशंकर।

हां,  नमस्कार रवि जी

क्या कर रहे हैं दादा ?

हां, यहां प्रकृति का सौंदर्य है। बस एंजॉय कर रहे हैं ? पत्नी कहीं पूजा पाठ करने के लिए गई है।

दादा !  भाभी और हम जैसे लोगों के कारण ही तो धर्म बचा हुआ है, वरना आप लोगों ने धर्म का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर थोड़े ना छोड़ी है।

हां, मैं आपलोगों को नहीं बदल सकता।

दादा !  हम लोग तो बस आपकी डांट सुनने के लिए ही हैं।

ऐसा नहीं है। एक बात है कि आप लोग अच्छे पाठक या अच्छे श्रोता नहीं हैं। आप लोग संघर्ष और परिश्रम से भागते हैं। मैंने अपने संघर्ष की जो बात ओम प्रकाश जी को कही थी, वह तो ओम प्रकाश जी को ही मालूम है। मैंने उन्हें वही कहा था, जो  चीजें मेरे दरमियान आई। दस रुपए महीने में जिंदगी काटना। उन्नीस साल में एक प्रमोशन सिर्फ केमिस्ट तक। उसके बाद क्वार्टर तक नहीं मिलना अंत तक। जो कि हमारी जरूरत थी। मुझे कोई ढंग का स्कूल नहीं मिला,  जिसकी फीस तक माफ हो। जिसके पास किताबें खरीदने की क्षमता नहीं हो,  सस्ते कागज कॉपियों पर क्लास नोट्स लेकर, जिसने अपनी पढ़ाई पूरी की हो,  उसे अपनी जिंदगी में सुकून कहां मिला?

मेरी रचनाएं लौट-लौट आती थीं। उन बातों को छोड़ दीजिए। जब मैंने स्वस्थ लिखना शुरू किया तब भी जो आलोचक लोग हैं, उन्होंने कभी मेरी नोटिस नहीं ली। मैंने जितना कुछ लिखा, उनकी समझ में आता ही नहीं था। सर्कस! क्या है सर्कस? कोयला! क्या है कोयला? मार्कंडेय से मेरा झगड़ा भी हुआ था। मार्कंडेय यहां एक दिन के लिए कोयला देखने के लिए आए और उन्होंने कोयले पर एक उपन्यास लिख मारा। भैरव प्रसाद गुप्त ने मुझेसे कहा, ‘यहां कोलियरी में कहां हैं मजदूर?  मैंने छह-छह लाख मजदूर एक साथ देखा है।

मैंने ये सारी बातें आपको बताई है। मैंने जिंदगी में कभी समझौता नहीं किया,…. तो मुझे नहीं मिला।  मैंने ओस चाट-चाट कर जिंदगी बिताई। लोग कहते हैं कि ओस चाट कर प्यास नहीं जाती है। मैंने ओस चाट कर ही प्यास बुझाई है।

[bs-quote quote=”… देखिये, उनदिनों रमाकांत जी हमसे से जुड़े हुए थे। देवनाथ सिंह सबसे बड़े थे। रामचंद्र ओझा जी थे। आपको क्या बताऊं ! एक व्यक्ति ने मेरे ऐन सामने ‘ सूत्रधार ‘ को उठाकर ऐसा फेंका कि सूत्रधार नाली तक चला गया। ब्राह्मणों की निंदा है ना उसमें। जो व्यक्ति ब्राह्मण होने की मानसिकता से ग्रस्त हो, वह सह नहीं सकता है। मैंने उनसे कहा, आप देख लीजिए। इसमें मैंने जो बातें लिखी हैं, वह मेरी नहीं है । भिखारी ठाकुर की हैं। आप भिखारी ठाकुर की कृतियों को उठाकर देख लीजिए । भिखारी ठाकुर ने ये बातें नहीं कही हो तो आप जो कहिए। आप तो मेरे गुरू रहे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

आपके पाठक आपके बारे में बखूबी जानते हैं।

हां, पाठक ही तो हैं, जिन्होंने मुझे जिंदा रखा है।

बाढ़ आपकी बेहतरीन कहानी है। उस कहानी की चर्चा जितनी होनी चाहिए थी नहीं हुई।

….बाढ़ कहानी में वह जो मौसम्मात थी। उसने एक कुआं खोदवाया था। उस  कुएं का विवाह होता है। वह मौसम्मात तिरबेनी काका की ओर आकर्षित हो जाती है। उसके बाद तिरबेनी काका घर से झोला-सोंटा लेकर निकल जाते हैं और मंदिर में जाकर राम-राम लिखते हैं। मोसम्मात पीछे से आकर टोंटिंग करती है – सिर्फ राम-राम ही लिखोगे? सीता सीता भी लिखना चाहिए ना!

घर वाले को संदेह होता है कि तिरबेनी काका मौसम्मात से शादी कर लेंगे। मौसम्मात उनकी जमीन-जायदाद हथिया लेगी, इसलिए वे लोग उसकी हत्या कर देते हैं। तिरबेनी काका उस कुएं में जा कर झांकते हैं और बहुत रोते हैं। उन्होंने कुंवारियों की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने किसी औरत से कभी कोई निवेदन नहीं किया। उन्होंने जिसको-जिसको चाहा उनकी शादियां होती गई। उनकी बेटियां जवान हुई फिर उनकी बेटियों की बेटियां भी जवान हुई और तिरवेनी काका सिर्फ देखते रहे।

क्या बाढ़ कहानी के तिरबेनी काका में आपको ढूंढा जा सकता है?

मैंने उस तरह से कभी किसी को एप्रोच नहीं किया है। मुझे कुछ लोगों ने कहा, आई लव यू, मैं आपके बिना जी नहीं सकती। यह बात उनकी तरफ से कही गई। बाढ़  कहानी से मेरा मिजाज़ मिलता है तो बस इतना ही मिलता है।

दादा, कहीं आप अपने इमेज को लेकर डर तो नहीं गए?

( फिर वही हंसी) ‘ऐसा नहीं है। मैंने केवल संदर्भ सहित अपनी बात रखी है।’

अच्छा दादा, अक्सर राजेंद्र यादव कहा करते थे, यार लवलीन को कमर के ऊपर नहीं दिखाई देता है और संजीव को कमर के नीचे। अगर इन दोनों को मिला दो तो मुकम्मल कहानी बनेगी।

(संजीव दा हंसते हुए कहते हैं), अच्छा फिर कभी।

दूसरा संवाद

हेलो ….!  दादा प्रणाम, क्या कर रहे हैं ?

नमस्कार! अरे भैया, आज हम सुल्तानपुर से दिल्ली के लिए प्रस्थान कर रहे हैं।  खिड़की से बाहर देख रहा हूं। इस स्टेशन का नाम भी बदल कर श्रीदुर्ग रख दिया गया है। देखते हैं क्या करते हैं ये लोग। खैर, और बताइए क्या हाल है ?

बताना क्या है ? मेरी तो पिटाई ही लिखी है आपके हाथों!

अरे … नहीं। आप लोग मुझे जितना प्यार करते हैं उसके मुकाबले ये दुश्वारियां  कुछ भी नहीं।

संजीव दा! आप की  किसी कृति पर कभी किसी प्रकार का आरोप लगा है?

… देखिये, उन दिनों रमाकांत जी हमसे से जुड़े हुए थे। देवनाथ सिंह सबसे बड़े थे। रामचंद्र ओझा जी थे। आपको क्या बताऊं? एक व्यक्ति ने मेरे ऐन सामने ‘सूत्रधार ‘ को उठाकर ऐसा फेंका  कि सूत्रधार नाली तक चला गया। ब्राह्मणों की निंदा है ना इसमें। जो व्यक्ति ब्राह्मण होने की मानसिकता से ग्रस्त हो, वह सह नहीं सकता है। मैंने उनसे कहा, आप देख लीजिए। इसमें मैंने जो  बातें लिखी हैं, वह मेरी नहीं है। भिखारी ठाकुर की हैं। आप भिखारी ठाकुर की कृतियों को उठाकर देख लीजिए। भिखारी ठाकुर ने ये बातें नहीं कही हो तो आप जो कहिए। आप तो मेरे गुरू रहे हैं।

आप उनका नाम बताना चाहेंगे ?

कथाकार संजीवजी´

नहीं-नहीं, कुछ बातें नितांत व्यक्तिगत होती हैं। मैं आपको बता रहा था, जैसे रामचंद्र ओझा पर मैंने एक उपन्यास लिखा, जंगल जहां से शुरू होता है। उन्होंने समझा कि मैंने पूरा का पूरा उन्हीं को दिखाया है।  उसका नायक मलारी से बलात्कार करता है। उन्होंने समझा कि इससे उनकी छवि खराब हो रही है। मैंने उन्हें समझाया, भैया ! मेरा नायक जो है , वह एक नायक नहीं होता है। आप उन जगहों पर गए भी नहीं है, जहां-जहां मैं गया हूं और आप जिन जगहों पर गए हैं, मैं भी उन जगहों पर नहीं गया हूं। उस समय ध्रुव नारायण गुप्त थे और कुछ लोग थे। अनेक लोगों को मिलाकर मेरा नायक बना है। तो मैं कह रहा था  कि केवल रामचंद्र ओझा वहां नहीं है। वहां कई  एसपी आए। उन सब को मिलाकर मैंने उस अंचल  को दिखाया है। जहां तक संस्मरण का सवाल है  आप देखें, सबसे अच्छा संस्मरण साहिर लुधियानवी का है। आप लोगों ने पढ़ा नहीं है या कम पढ़ा है। देवेंद्र सत्यार्थी थे लोकगीतों के सम्राट। साहिर लुधियानवी ने देवेंद्र सत्यार्थी के ऊपर लिखा है और बहुत शानदार लिखा है। मैंने कहा है कि लोगों को साहिर लुधियानवी को पढ़ना चाहिए। मैंने राजेंद्र यादव पर एक संस्मरण लिखा है। आजकल में छपा है ‘राजेंद्र यादव होने का अर्थ’। मैंने गुरु की बदकारियों को छुपाया भी नहीं। ऐसा नहीं कि उन्हें और उनके सद्कार्यों को मैंने ढंक दिया। मुझे बहुत सारे फोन आए हैं कि मैंने आप से सीखा है कि सच में संस्मरण कैसे लिखे जाते हैं। मुझे लगा कि मेरे गुरु तो साहिर है।

आप अपने वैवाहिक जीवन की कोई रोचक घटना हो तो सुनाइए।

…अभी दो चीजें आपको बताऊंगा। एक तो यह कि मेरी सुहागरात कैसे कटी। दलान में खाट डाल दी गई। मुझे कह दिया गया कि यहीं पर आ जाएगी वह। यहां से भागना नहीं। अब मेरी पत्नी सहमी-सिमटी वहां आई। वह भी बेचारी अनाड़ी और मैं भी।अब मैं क्या करूं। वह बगल में लेटी है और उसकी देह छू जाती थी तो मैं चिहुंक जाता था। क्योंकि बगल से ही लगभग एक हाथ की दूरी से रास्ता था। उधर से ही रात में औरतें घर से बाहर दिशा-फराकत के लिए निकलती थीं। यह कोई सुहागरात हुई साहब। मैं तो अपने को‌ धिक्कारता रहा कि मैं यहां आया ही क्यों? इससे तो अच्छा था कि मैं यहां आया ही नहीं होता। आंगन से बाहर आती औरतों में से कोई टॉर्च की रोशनी अगर इधर घुमा देता तो सारा कुछ दिख जाता।

क्या बात करते हैं दादा! ऐसे में तो भाभियां सहयोग करती हैं?

…नहीं, खाक करेंगी? घर में जगह ही नहीं थी। मुझे दलान में जगह दी गई थी। आप मुझे एकांत भी नहीं देंगे तो फिर कैसी सुहागरात ?

लेकिन  दादा! आपके जीवन का एक प्रसंग मैंने सुना है। एक बार परिवार वालों ने आपको मिलने के उद्देश्य से ही भाभी के पास बोझा उठाने के लिए भेज दिया था।

वह तो अलग प्रसंग है। भाभी ने मेरी असुविधाओं को  समझा। उन्होंने मुझे बोझा उठाने के लिए जानबूझकर भेज दिया था। उस दिन हलवाहा नहीं आया था। मेरी पत्नी चरी यानी पशुओं का चारा काटने के लिए गई थी। मेरे गांव के दक्षिण तरफ एक खेत था वह। तो भाभी ने कहा,  जाओ वह चारा उठा नहीं पाएगी तो उसकी मदद कर देना। यह एक छोटा सा प्रसंग है। तो मैं गया। मैं तो कमजोर था ही और  वह थी स्ट्रांग शुरू से ही। हालांकि वह  एक वर्ष छोटी होगी मुझसे। मैं गया और जाकर चुपचाप खड़ा हो। बात-संवाद हम लोगों में नहीं हुआ है अभी तक समझ लीजिए। वह  बोझा बांधकर तैयार हो गई। अब ना वह बोले, और ना मैं। वहां पर कोई संवाद नहीं हुआ। उसके पहले भी नहीं हुआ। मैं बोझा उठा रहा हूं, लेकिन मुझसे कुछ नहीं हो सका। उसने मेरी मजबूरी समझी। उसने जोर लगाया और खुद ही बोझा उठाकर अपने माथे पर रख लिया। यह जीवन का एक छोटा सा प्रसंग है। मैंने जितना समझाया है लोगों ने उतना ही समझा। मेरे जितने साथी बिखरे पड़े हैं रानीगंज से धनबाद कोलकाता और रांची तक। वे इतना ही जानते हैं। उनमें से कुछ लोग बाद में मेरे गांव आए, लेकिन तब जबकि मैं गांव छोड़ चुका था।

और एक कहानी है दादा! अंतराल कहानी में नायक को भाभी या फूआ नायिका से मुलाकात करवाती है। वह नायक कौन है?

वह  एक  प्रसंग है। मेरे गांव के बगल में मेला लगता था। जेठुआ का मेला। मैं वहां पैदल जाता था। वह कई लोगों की कहानी है। घटनाएं  छोटी सी होती है। उसके बाद उसे हम लोग कल्पना से विस्तार देते हैं। लेकिन में करेक्टर सब सही है,  ऐसा ही होता है।

अच्छा दादा, यहां तो आप बच  निकले, लेकिन सूखी नदी के घाट पर। इस कहानी के बारे में आपको क्या कहना है ?

वह कहानी मेरे जीवन से मिलती-जुलती है। मेरी शादी उससे होनी थी। यह बात वह भी जानती थी।  यह सच है कि वहां मैं वहां साइकिल ढकेलते हुए गया था। उसके बाद जो चीजें हैं, वह सब काल्पनिक है।

दादा! वह एक अच्छी प्रेम कहानी है। आपकी सूखी नदी के घाट पर कहानी और शेखर जोशी की कोसी का घटवार कहानी में प्रेम का धरातल एक जैसा है।

..नहीं..नहीं, वह दूसरी ढंग की बहुत अच्छी कहानी है।

ट्रीटमेंट अलग-अलग है, लेकिन दोनों कहानी में प्रेम का धरातल एक समान है। प्रियंवद  बोल रहे थे कि संजीव दा मानपत्र  कहानी नहीं लिखते तो मैं उन्हें बड़ा कथाकार नहीं मानता।

अरे यार ! वह सब दूसरी बात है । मैंने भी 200 कहानियां लिखी है। उनमें से 50 कहानियां तो जरूर बहुत अच्छी है।

दादा, अपराध में भी  प्रेम कथा है ?

हां है। उसके बाद अंतराल, सूखी नदी के घाट पर आदि ढेर सारी कहानियां है।

आपकी रचनाओं में पेड़-पौधे, पशु-पक्षी का वर्णन बहुत स्वाभाविक रूप से मिलता है। इतनी जीवंतता आप कहां से लाते हैं ?

… मेरी रचनाओं में जो आप पशु- प्राणी देखते हैं ना, वह मैंने अपने जीवन से लिया है। अभी मैं सुबह घूमने के लिए निकला था। मैंने देखा एक मोरनी भागी जा रही है और  एक छोटा सा तीतर उसका पीछा कर रहा है। मैंने अपने पोते से कहा देखो तीतर मोरनी को परेशान कर रहा है । मैंने करीब जाकर देखा। वह तीतर नहीं था । वह मोरनी का छोटा – सा बच्चा था । मोरनी आगे-आगे भागी जा रही थी और उसका बच्चा  उसके पीछे – पीछे जा रहा था। अभी एक लड़का हिरणी जैसी किसी पशु को पकड़ कर ले कर जा रहा था। मैंने करीब जाकर देखा । वह हिरनी नहीं थी ,नीलगाय का छोटा- सा बच्चा था। उसने कहा मैं इसे पांच रुपए में बेच दूंगा।

ये सब चीजें मेरे चारों और बिखरी पड़ी हुई हैं । इन चीजों के लिए मुझे किसी जंगल – झाड़ में जाने की जरूरत नहीं पड़ी । मेरे आस-पास  चीजें बिखरी पड़ी थी – कोयला, कारखाने, हर तरह के मजदूर, आदिवासी आदि जातियाँ, रानीगंज से कुल्टी, झरिया धनबाद तक।

तीसरा संवाद

संजीव दा!  बिना किसी भूमिका के सीधे सवाल पर आता हूं। रह गई दिशाएं इसी पार‘  उपन्यास के बारे में राजेंद्र यादव ने कहा था कि संजीव ने डेढ़ सौ साल या पचास साल पहले की कथा  लिख दी है। इसके बाद  इस देश की सबसे बड़ी समस्या जाति समस्या पर आपका प्रत्यंचाउपन्यास आया। क्या आपको नहीं लगता कि जिस स्तर पर साहित्य जगत में इसकी नोटिस ली जानी चाहिए थी वैसा नहीं हुआऐसा क्यों है ?

यह जो आपका सवाल है,  इस पर कुछ काम और हो रहा है। इधर चित्रा मुद्गल की पतोहू जो है ना! वे अभी कुछ लेखकों पर सफरनामा बना रही है। हम पर, असगर वजाहत पर। डॉक्यूमेंट्री टाइप का। आजकल यूट्यूब पर बहुत कुछ चलता रहता है ना।

आपके सवाल का सीधा-सीधा उत्तर देना मुश्किल है। मुझे कौन सी समस्या ज्यादा हान्ट करती है। लोग दूरगामी परिणामों के प्रति सचेत नहीं रहते। उनको तात्कालिक परिणाम चाहिए। अब लेखन के प्रति वैसा आकर्षण नहीं है जो पहले था। अब वह नहीं है। हमने जब शुरू किया था उस समय लेखक- लेखन के प्रति एक आग्रह था। अब लेखन में ग्लैमर नहीं है। बहुत कुछ हटता गया। ग्लैमर छा गया। और जो ग्लैमर  है ना  फिल्म्स या क्रिकेट या इस तरह की जो दूसरी विधाएं हैं जीने की, वह भी सड़कों  पर आ गई हैं। फिल्म का भी वह क्रेज नहीं है। वह टूटा। बाहुबली तो उसने टेक्निकली जो चीजें हैं ,  टेक्निक के जरिए उसका प्रयोग किया। वह संवेदना अब नहीं रह गयी। दुनिया अपने हिसाब से बहुत तेजी से बदल रही है। अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंट रोबोट बिना ड्राइवर के ट्रेन चलाएगा। ऐसी बहुत चीज हैं।  मनुष्य अब दिखा रहा है कि संवेदना है, अभी भी इंसान है, यह याद कराओ। नहीं कर सकते गीता की तरह मामला आ गया।  हमने कुछ नहीं किया जो किया उस ईश्वर ने किया। दुनिया इतने ज्यादा तरीके से बदल गई है और लिखने का जो प्रभाव है उसमें कम होता गया है। दोनों में तालमेल नहीं बैठ पा रहा है,  इसलिए कि हमने उसको शुरू में ही पाया था। रह गई दिशाएं इसी पार में जो है कि आने वाली दुनिया ऐसी नहीं रहेगी। हर कुछ बदलेगा तो हम कैसे देखेंगे। लाचारी में मान लीजिए कि एक करोड़ वर्ष टोटल स्पा की जरूरत नहीं है। 50 हजार वर्ष तक खींच कर ले जाइए। आप देख सकते हैं अब इसकी जरूरत नहीं है। फिर भी आप देख सकते हैं कि मनुष्य को बहुत सारी लाचारी से निजात पाने में कितने वर्ष गुजर गए। अब इधर ज्यादा शिद्दत से उसे अपने ही बनाया मकड़जाल चुभने लगा है। कहां जाएगा कल का इंसान ? क्या करेगा?  हालांकि,  इंसान से बेटर अभी कोई चीज नहीं आई है, लेकिन इंसान को प्रभावित करने वाली चीजें आ गई है। मेरा प्रश्न यह है कि दुनिया कहां से कहां जा रही है और आप अपने लिंग से निम्न स्तर की चीजों में अभी तक पड़े हुए हैं। जैसे शगुन है, कुंठाएं हैं, अंधविश्वास है। हम अपने ही चीजों में फंसे हुए हैं। इंसान की सबसे बड़ी मुसीबत जाति है। इसका कोई औचित्य नहीं है। यहां तक कि स्त्री और पुरुष का जो डिवीजन है,  उसका भी कोई ज्यादा मतलब नहीं है। यह कल तक नहीं रह जाएगा। जो हमारी कहानी थी ‘जे यही पद का अर्थ बतावे’  उसमें मैंने दिखाया है कि स्त्री जब तक चाहे स्त्री रूप में रहे और जब चाहे पुरुष हो जाए। जब तक चाहा स्त्री के रूप में मजा लिया और फिर पुरुष हो गया। आने वाली दुनिया में यह संभव हो पाएगा। जितनी डिफरेंसेस हैं, मनुष्य की जितनी असुविधाएं हैं, उसे मनुष्य ही दूर कर सकता है। इससे आगे की चीजों को भी वह सॉल्व करेगा। मैंने संकेत भर किया है। मेरे पास टाइम नहीं था।

लोगों का अपना टेस्ट है। उन्हें जहां टेस्ट मिलता है, उसको लिख-पढ़ लेते हैं। नहीं तो नहीं पढ़ते हैं। आप जबरन नहीं पढ़वा सकते। सेक्स प्रस्थान बिंदु है। उसके प्रति अभी भी आकर्षण है। प्रोन लिटरेचर लोगों को आकर्षित करता है, लेकिन यह कब तक रहेगा? इसका कोई विकल्प है या  नहीं है ?

मेरे कहने का मतलब यह है कि बदलती हुई दुनिया में, बदलते हुए मिजाज़ में मेरे पास ऐसा कोई उपाय नहीं है कि आप उनको पढ़वा सकें।

गाँव के लोग
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4 COMMENTS
  1. बहुत शानदार इण्टर व्यू। सूत्रधार भिखारी ठाकुर के जीवन और आदर्शों को स्थापित करती हुई मार्मिक कथख है।रविशंकर सिंह जी और संजीव जी को बधाई।

  2. बेहतरीन साक्षातकार । गांव के लोग को वेब पर पढ़ना अच्छा लग रहा है।

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