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जूम करके देखिए सियासती पैंतरेबाजी (डायरी 12 जनवरी, 2022)

सियासत वाकई कमाल की चीज है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इसके पैंतरे बड़े कमाल के होते हैं। और आप यदि संविधान में विश्वास रखते हैं तो आपको ये पैंतरे संविधान का उल्लंघन करते हुए पहली बार तो नहीं ही लगेंगे। आपको महसूस होगा कि जो भी पैंतरेबाजी की जा रही है, […]

सियासत वाकई कमाल की चीज है। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इसके पैंतरे बड़े कमाल के होते हैं। और आप यदि संविधान में विश्वास रखते हैं तो आपको ये पैंतरे संविधान का उल्लंघन करते हुए पहली बार तो नहीं ही लगेंगे। आपको महसूस होगा कि जो भी पैंतरेबाजी की जा रही है, उसके लिए संविधान में प्रावधान है। लेकिन यह संविधान का दुरुपयोग मात्र है। हुकूमतें संविधान का दुरुपयोग कर ही पैंतरेबाजियां करती रहती हैं। एक उदाहरण है सीएए यानी नागरिकता संशोधन अधिनियम का। यह तो इतना शानदार पैंतरा है कि मुझ जैसे खबरनवीस को आकर्षित करता रहता है।

मसलन, याद करिए वह समय जब देश में लोकसभा चुनाव होने थे और उसके पहले ही भाजपा ने हिंदू-मुस्लिम की सियासत को अंजाम देना शुरू कर दिया था। वह इसके पहले एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिकता पंजी को अपना हथियार बना रही थी। यह तभी से कहा जा रहा था कि सरकार नागरिकता कानून में बदलाव करेगी। सरकार के हवाले से किसी बयान के बदले भाजपा के नेताओं ने इसकी घोषणा की थी कि जो दूसरे देशों के गैर-मुस्लिम हैं, उन्हें नागरिकता दी जाएगी। इसका जबरदस्त विरोध हुआ और इसका लाभ भाजपा को मिला। वह एंटी इंकंबेंसी को निष्प्रभावी बनाने में सफल रही।

[bs-quote quote=”लेकिन सीएए के मामले में ऐसा नहीं हुआ। यह दोनों सदनों में पारित भी हुआ और राष्ट्रपति की मुहर भी लग गयी। इसका मकसद ही था कि सरकार दूसरे देशों में रहनेवालों को नागरिकता दे सकती है, अगर वे मुसलमान नहीं हैं। धर्म के नाम पर भेदभाव का यह खुल्लमखुल्ला उदाहरण मेरी नजर में तो इसके पहले नहीं आया। हालांकि मेरी जानकारी अत्यंत ही सीमित है। यहां तक कि मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करते समय भी धर्म को आधार नहीं बनाया गया। दूसरे धर्म के पिछड़ों को भी ओबीसी में शामिल किया गया।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

फिर बिहार, आसाम, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में चुनाव के पहले नागरिकता संशोधन विधेयक केंद्र सरकार ने 11 दिसंबर, 2019 को संसद में पेश किया था। मजे की बात यह कि इसे दोनों सदनों में पारित भी कर दिया गया और करीब एक दिन बाद ही राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने इसके ऊपर हस्ताक्षर भी कर दिया था। यहां तक तो तकनीकी पहलुओं के हिसाब से ठीक ही लगता है। सामान्य तौर पर यही होता आया है कि सरकार जब कोई कानून बनाना चाहती है अथवा कोई संशोधन करना चाहती है तो वह विधेयक संसद में पेश करती है। विधेयक एक तरह का प्रस्ताव होता है जिसमें सरकार संबंधित कानून अथवा संशोधन के उद्देश्य व उससे संबंधित नियमों का उल्लेख करती है। संसदीय परंपरा के मुताबिक, दोनों सदनों द्वारा पारित किए जाने के बाद उसे राष्ट्रपति को भेजा जाता है। कई बार राष्ट्रपति जब असहमत होते हैं तो वह या तो विधेयक वापस कर देते हैं या फिर उसे ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। यह सब सियासत का हिस्सा होता है।

लेकिन सीएए के मामले में ऐसा नहीं हुआ। यह दोनों सदनों में पारित भी हुआ और राष्ट्रपति की मुहर भी लग गयी। इसका मकसद ही था कि सरकार दूसरे देशों में रहनेवालों को नागरिकता दे सकती है, अगर वे मुसलमान नहीं हैं। धर्म के नाम पर भेदभाव का यह खुल्लमखुल्ला उदाहरण मेरी नजर में तो इसके पहले नहीं आया। हालांकि मेरी जानकारी अत्यंत ही सीमित है। यहां तक कि मंडल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करते समय भी धर्म को आधार नहीं बनाया गया। दूसरे धर्म के पिछड़ों को भी ओबीसी में शामिल किया गया। हालांकि अब भी दलित ईसाईयों का मसला बरकरार है। जबकि दलित से बौद्ध बने लोगों को आरक्षण का लाभ दिया जाता है। यह भी एक राजनीति के तहत ही किया गया। वैसे भी राजनीति हमेशा नकारात्मक नहीं होती।

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तो सीएए के मामले में दिलचस्प बात यह है कि इसे राष्ट्रपति की मंजूरी दिए जाने के बाद भी इसे लागू नहीं किया गया क्योंकि इसके लिए नियम तैयार नहीं थे। सरकार ने विधेयक में इसका उल्लेख ही नहीं किया था कि वह इसे किस तरह लागू करेगी। यह एक तरह से तरकश के तीर के माफिक थे, जो सरकार अपने पास रख लेना चाहती थी। यह भी असंवैधानिक नहीं है। संविधान कहता है कि राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद सरकार को छह महीने के अंदर नियम तय करने होंगे और यदि वह ऐसा करने में नाकाम रहती है तो उसे संसदीय समिति से विस्तार के लिए अनुरोध करना होगा। अब यह संसदीय समिति पर निर्भर करेगा कि वह सरकार को नियम तय करने के लिए समय देती है अथवा नहीं देती है। यदि वह नहीं देती है तो कानून स्वत: ही खारिज माना जाएगा।

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लेकिन ठहरिए, सीएए मामले में ऐसा नहीं हुआ है। 11 दिसंबर, 2019 को यह दोनों सदनों में हल्ला-हंगामे के बीच पारित हुआ। अगले ही दिन यानी 12 दिसंबर, 2019 को राष्ट्रपति ने इसे स्वीकृति प्रदान की। लेकिन जब सरकार छह महीने के भीतर नियम तय नहीं कर सकी तो उसने संसदीय समिति से अतिरिक्त समय की मांग की। यह मांग पहली बार जून, 2020 में की गयी। संसद की विधान संबंधी समिति, जिसके अध्यक्ष और अधिकांश सदस्य सत्ता पक्ष के हैं, ने कोई विरोध नहीं किया और छह महीने की मोहलत दे दी गयी। इस तरह से अब तक सरकार पांच बार मोहलत ले चुकी है। अंतिम मोहलत की समय सीमा 10 जनवरी, 2022 की थी। लेकिन उसके पहले ही सरकार ने समिति से मोहलत की मांग कर दी थी। अब एक सप्ताह के अंदर समित को यह तय करना है कि वह सरकार के निवेदन को स्वीकार करेगी या नहीं।

मेरा विश्वास है कि वह इसे जरूर मानेगी और तब तक मानेगी जब तक कि 2024 नहीं आ जाएगा। लोकसभा चुनाव के आने तक वह सीएए को जिंदा रखेगी। ठीक वैसे ही जैसे उसने ओबीसी के उपवर्गीकरण के लिए गठित जी. रोहिणी कमीशन को जिंदा रखा है।

बहरहाल, सियासती पैंतरेबाजी से इतर मैं इश्क के बारे में सोच रहा हूं।

बसर सबका होता है इस जहां में

नहीं होता तो कुछ भी नहीं होता।

रात को चाहिए सूरज का डूबना,

नहीं तो चांद जैसा कुछ भी नहीं होता।

उजाले की परियों से पूछिए जरा,

पेट खाली हो तो कुछ भी नहीं होता।

समंदर नावाकिफ नहीं है किनारों से,

अगर होता तो कुछ भी नहीं होता।

परिंदों अपने पंखों पर मत इठलाओ,

नहीं होती जमीन तो कुछ भी नहीं होता।

ईश्वर के नाम पर खून बहानेवालों सुनो,

होता कहीं ईश्वर तो कुछ भी नहीं होता।

सच हम भी जानते हैं दिलफरेब नवल,

इश्क नहीं होता तो कुछ भी नहीं होता।

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।

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