Thursday, April 18, 2024
होमअर्थव्यवस्थाकिसान आंदोलन का हासिल और भविष्य की चुनौतियां

ताज़ा ख़बरें

संबंधित खबरें

किसान आंदोलन का हासिल और भविष्य की चुनौतियां

किसान आंदोलन का एक हासिल यह भी है कि इसने सत्ता और कॉरपोरेट मीडिया के चरित्र, उसकी प्राथमिकताओं एवं रणनीतियों को आम लोगों के सम्मुख उजागर किया है। हमारी सरकारें जन आंदोलनों से निपटने के लिए उन्हीं रणनीतियों का सहारा लेती दिख रही हैं जो गुलाम भारत के अंग्रेज शासकों द्वारा अपनाई जाती थीं।

किसान आंदोलन एक वर्ष पूरा हो रहा है। हर डिबेट में आजकल प्रायः एक सवाल परंपरागत सरकार समर्थक मीडिया द्वारा घुमा फिरा कर पूछा ही जाता है- इस किसान आंदोलन से क्या हासिल होना है? सरकार तो स्पष्ट कर चुकी है कि यह तीन कृषि कानून वापस नहीं लिए जाएंगे। यदि किसानों के कुछ सुझाव हैं तो उन पर सकारात्मक चर्चा हो सकती है। फिर भी किसानों द्वारा आंदोलन जारी रखना क्या हठधर्मिता नहीं है? क्या किसान आंदोलन नेतृत्व के अहंकार की लड़ाई बन गया है?

यह प्रश्न बहुत तार्किक लगते हैं और लगता है कि इनके उत्तर आंदोलित किसानों के पास नहीं होंगे किंतु ऐसा नहीं है। किसान आंदोलन का जारी रहना और उत्तरोत्तर व्यापक तथा मजबूत होना ही इस आंदोलन का हासिल है। किसान आंदोलन का हासिल यह भी है कि इसने सरकार को बेनकाब कर दिया है। यह स्पष्ट हो गया है कि सरकार खेती को कॉरपोरेट कंपनियों के हवाले करना चाहती है। धीरे-धीरे यह भी उजागर हो रहा है कि सरकार कॉरपोरेट घरानों के चयन में भी पक्षपात कर रही है और कुछ पसंदीदा मित्रों के लाभ के लिए यह कृषि कानून गढ़े गए हैं। सरकार कांट्रैक्ट फॉर्मिंग की ओर भी अग्रसर है।

सरकार न केवल खेती-किसानी अपितु देश की प्रकृति में ही परिवर्तन लाना चाहती है। भारत गांवों में बसता है और भारत कृषि प्रधान देश है। जैसे कथन अंतरराष्ट्रीय  वित्तीय संस्थाओं को नापसंद रहे हैं और भूमि स्वामी किसानों को शहरी मजदूरों में तबदील करने, विषयक आदेशात्मक दिशा निर्देश उनके द्वारा वर्षों से दिए जाते रहे हैं। कृषि की रोजगारमूलक प्रकृति को बदल कर मुनाफा केंद्रित बनाने की कोशिश की जा रही है जिसमें मानव संसाधन की भूमिका सीमित होगी। देश की तासीर को बदलने के इस अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र पर किसान आंदोलन के कारण कम से कम चर्चा तो हो रही है।

किसान आंदोलन का एक हासिल यह भी है कि इसने सत्ता और कॉरपोरेट मीडिया के चरित्र, उसकी प्राथमिकताओं एवं रणनीतियों को आम लोगों के सम्मुख उजागर किया है। हमारी सरकारें जन आंदोलनों से निपटने के लिए उन्हीं रणनीतियों का सहारा लेती दिख रही हैं जो गुलाम भारत के अंग्रेज शासकों द्वारा अपनाई जाती थीं। सरकार समर्थकों द्वारा किसानों को पाकिस्तान परस्त, खालिस्तानी, राष्ट्र विरोधी, अराजक, विलासी आदि की संज्ञाएं दी जाती रही हैं। संदेह एवं अविश्वास पैदा करना, फूट डालना तथा हिंसक क्रिया-प्रतिक्रिया के दुष्चक्र को बढ़ावा देना उस विचारधारा की विशेषताएं हैं जो सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व को पोषण देती है।

प्रदर्शन करते किसान

यही कारण है कि किसानों के मध्य आपस में फूट डालने तथा किसानों को आम जनता से अलग दिखाने की कुछ बहुत हास्यास्पद कोशिशें की गई हैं। अनुशासित टैक्स पेयर, विरुद्ध सब्सिडी पर पलने वाले अराजक किसान, अमीर और बड़े किसान, गरीब और छोटे किसान, हरियाणा-पंजाब के समृद्ध किसान, शेष भारत के पिछड़े किसान कुछ ऐसी आधारहीन तुलनाएं हैं जो बचकानी होते हुए भी व्हाट्सएप, विश्वविद्यालय के उच्च मध्यमवर्गीय छात्रों को रुचिकर लगती हैं। हमने सरकार समर्थक मीडिया को किसानों पर हमलावर होते और छिद्रान्वेषण करते देखा है। अनेक बार तो कॉरपोरेट मालिकों द्वारा वित्त पोषित समाचार चैनलों के संवाददाता और एंकर पुरस्कार के लोभ में दुस्साहसिक षड्यंत्र रचने वाले महत्वाकांक्षी गुप्तचरों की भांति लगते हैं। किसान आंदोलन ने वैकल्पिक मीडिया के महत्व को उजागर किया है और अनेक साहसी पत्रकारों की कवरेज को देश की जनता ने बहुत ध्यान से देखा है।

किसान आंदोलन की एक उपलब्धि यह भी है कि इसने महात्मा गांधी की अहिंसक प्रतिरोध की युक्ति की प्रासंगिकता, शक्ति एवं महत्व को रेखांकित किया है। यदि आंदोलन इतनी लंबी अवधि तक चलकर सशक्त एवं विस्तृत हुआ है तो इसके पीछे इसका अहिंसक स्वरूप एक प्रमुख कारण है। हम जैसे बहुत सारे शुद्धतावादी यह मानते हैं कि किसानों को राजनीतिक दलों से दूरी बनाकर रखनी चाहिए और उन्हें चुनावी राजनीति से स्वयं को अलग रखना चाहिए। किंतु किसान आंदोलन के शीर्ष नेतृत्व का यह विश्वास है कि प्रजातांत्रिक देश में चुनी हुई सरकारें नीति निर्धारण एवं क्रियान्वयन का कार्य करती हैं। इसलिए चुनावों में जनमत को प्रभावित किए बिना अपने लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। यही कारण है कि उन्होंने कुछ समय पूर्व हुए चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा को वोट न देने की जनता से अपील की और आगे भी उनकी यही रणनीति दिख रही है।

सरकार किसान नेताओं पर विपक्षी दलों के एजेंट के रूप में कार्य करने का आरोप लगाती रही है। विपक्षी दलों द्वारा किसानों को दिए जा रहे समर्थन में उनकी राजनीतिक मजबूरियों का योगदान अधिक है। यह समझना कि भारत के दरवाजे उदारीकरण एवं वैश्वीकरण हेतु खोलने वाली कांग्रेस तथा विकास के प्रचलित मॉडल के साथ कदमताल करने को अपनी प्रगतिशीलता समझने वाले क्षेत्रीय दलों का हृदय परिवर्तन हो गया है, भोली आशावादिता होगी। आज कांग्रेस समेत सारे विपक्षी दल ज़मीनी संघर्ष से कतराने की कमजोरी के शिकार हैं। जनांदोलन खड़ा करने की न तो इनमें इच्छा शक्ति है न ही साहस। इनके लिए किसान आंदोलन एक वरदान की तरह है। इनके लिए सारा परिश्रम कोई और कर रहा है, इन्हें बस चुनावों के पहले चंद शतरंजी चालें चलकर जन असन्तोष को अपने पक्ष में मतों में परिवर्तित करना है।

यही वह कठिन मोड़ है जहाँ पर किसान नेताओं के चातुर्य एवं उनकी भविष्य दृष्टि की परीक्षा होगी। और हाँ, यहीं उनकी नीयत भी परखी जाएगी। हो सकता है कि आने वाले समय में होने वाले उत्तरप्रदेश आदि राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा अच्छा प्रदर्शन न कर पाए और वह संघ समर्थित किसान संगठनों के माध्यम से किसी सम्मानजनक समझौते की कोशिश करे। यह भी संभव है विपक्षी दल अपनी हालिया चुनावी सफलताओं से उत्साहित होकर आगामी लोकसभा चुनावों में किसानों से संबंधित कुछ आकर्षक घोषणाएं करें। यह भी संभव है कि राजनीतिक दलों द्वारा ‘किसान’ को प्रधानमंत्री के विचार विमर्श में डाला जाए। और इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा के कद्दावर नेताओं को अपने दल की ओर आकर्षित कर महत्वाकांक्षा की विनाशक दौड़ प्रारंभ की जाए।

हक की लड़ाई लड़ते अन्नदाता

किसान आंदोलन धीरे-धीरे उन दार्शनिक प्रश्नों का प्रतिनिधित्व करने लगा है जिन पर चर्चा करना भी विकास विरोधी मान लिया गया था। क्या हमारी अर्थव्यवस्था और राजनीति के केंद्र में अब ग्राम और किसान को स्थान दिया जाएगा? क्या हम विकास के जवाहर-इंदिरा मॉडल और नरसिम्हा-मनमोहन मॉडल से परे हटकर गाँधी-लोहिया के पुनर्पाठ के लिए तैयार हैं? क्या हम ग्राम स्वराज्य, सहकारिता और हस्त शिल्प एवं कुटीर उद्योगों की सार्थकता पर पुनर्विचार करने हेतु प्रतिबद्ध हैं? सबसे बढ़कर क्या हममें अर्थव्यवस्था की वैश्विक प्रणाली के दबावों का मुकाबला करने का साहस है?

किसानों की आर्थिक स्थिति बेहतर करने वाली कुछ घोषणाएं हासिल करके यदि किसान आंदोलन समाप्त हो जाता है तो यह एन्टी क्लाइमेक्स ही कहा जाएगा। कोई भी सरकार किसानों को आर्थिक फायदा देने से पहले उनके शोषण की नई रणनीतियां तैयार कर लेगी और किसानों के कारण राजकोष को हुई कथित “क्षति” की भरपाई किसानों से ही करने के लिए धूर्त कॉर्पोरेट समर्थक अर्थशास्त्री अपनी चालाक रणनीति पहले ही बना लेंगे। किसानों और मजदूरों के हाथों में राजनीतिक सत्ता हो और वे अर्थव्यवस्था के संचालन की शक्ति अर्जित कर सकें, यही इस आंदोलन का लक्ष्य होना चाहिए। किसान आंदोलन ने धर्म और जाति की संकीर्णताओं को तोड़ने का कार्य किया है।

हर धर्म और हर जाति के किसानों ने इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया है। दंगों के लिए कुख्यात मुजफ्फरनगर में अल्लाह-हु-अकबर और हर-हर महादेव के नारे गुंजायमान हुए हैं। यह स्थिति तब है जब करोड़ों कृषि मजदूरों तथा सीमांत और लघु किसानों को अभी किसान आंदोलन ने स्पर्श ही किया है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि गलत सूचनाओं और फर्जी जानकारी पर आधारित जहरीली सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं और साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं। किंतु किसान आंदोलन का संदेश करोड़ों भूमिहीन, कृषि मजदूरों एवं लघु तथा सीमांत किसानों तक वर्ष भर में भी ठीक से पहुँच नहीं पाता है। किसान आंदोलन के नेताओं को गाँधी से रणनीति के पाठ सीखने होंगे। गांधी के युग में संचार के साधन लगभग नहीं थे लेकिन गाँधी की एक पुकार पर पूरा देश उठ खड़ा होता था। उनका संदेश विद्युत स्फुल्लिंग की भांति पल भर में देश के एक छोर से दूसरे छोर का फ़ासला तय कर लेता था।

हक की लड़ाई में बच्चे भी पिछे नहीं

किसान नेताओं को प्रधानमंत्री समेत विपक्षी दलों के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को खुली चर्चा के लिए आमंत्रित करना चाहिए। किसानों को नौकरशाहों द्वारा तैयार किए गए डील हवाले वाले जटिल और कुटिल जवाबों की जरूरत नहीं है। देश के प्रधानमंत्री से केवल एक ही प्रश्न पूछा जाना चाहिए- पार्टनर, तुम्हारी राजनीति क्या है? विपक्ष से भी आग्रह करना होगा कि वह सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करे कि किसानों के लिए उसके पास क्या है? राजनीतिक दलों की सच्चाई जब जनता के सामने आ जाएगी तो स्वतंत्र मोर्चे के रूप में किसानों के सीधे चुनावी राजनीति में प्रवेश का मार्ग सरल बन जाएगा। पारंपरिक राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में किसान, मजदूर को स्थान दिलाने में नाकामयाब होने पर संयुक्त किसान मोर्चा इन दलों में मौजूद समान विचार वाले नेताओं के साथ संवाद कर नई संभावनाएं भी तलाश कर सकता है।

हाल ही में किसान नेतृत्व द्वारा आहूत बंद को मजदूर संगठनों तथा कर्मचारियों का व्यापक समर्थन मिला था। किसान आंदोलन को न केवल हर प्रान्त तक ले जाने की आवश्यकता है बल्कि इसके फलक को व्यापक बनाकर इससे हर शोषित, वंचित, पीड़ित को जोड़ने की आवश्यकता है। जब किसान आंदोलन का राष्ट्रव्यापी विस्तार होगा तब स्वाभाविक रूप से अनेक ऊर्जावान योग्य साथी इससे जुड़ेंगे। इस प्रकार किसान आंदोलन के नेतृत्व के विकेन्द्रित होने की संभावनाएं बनेंगी और यह इस आंदोलन की दीर्घजीविता के लिए आवश्यक भी है। मीडिया किसान आंदोलन के नायक की तलाश में है। जैसे ही यह नायक उसे मिल जाएगा इस नायक को आंदोलन से बड़ा बनाने की कोशिश प्रारंभ हो जाएगी और इस बहाने आंदोलन को कमजोर किया जाएगा।

यद्यपि भारतीय मतदाता नायक पूजा का आदी है और हमारी राजनीतिक पार्टियों के अपने-अपने नायक हैं, लेकिन जन आंदोलनों का नेतृत्व सामूहिक ही रहना चाहिए। यदि भविष्य में किसान आंदोलन से किसी राजनीतिक पार्टी का जन्म हो, तो इसे भी नायक पूजा से परहेज रखना चाहिए। नायक हमेशा बुनियादी मुद्दों और जन समस्याओं को गौण बना देते हैं।  किसान आंदोलन को यदि किसी नायक की आवश्यकता भी है तो यह जनता द्वारा चयनित नायक होना चाहिए न कि मीडिया द्वारा निर्मित। मीडिया द्वारा निर्मित नायक कितने मायावी हो सकते हैं इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण आदरणीय नरेंद्र मोदी जी हैं। जबकि नवीनतम उदाहरण श्री कन्हैया कुमार हैं जिन्हें मीडिया भारतीय वामपंथ के भविष्य के रूप में चित्रित करता था किंतु आज हम उन्हें कांग्रेस की तकदीर संवारते देख रहे हैं।

किसान आंदोलन के लंबे समय तक चलने और राष्ट्रीय स्वरूप प्राप्त करने में किसान आंदोलन के नेताओं की एकजुटता एवं सतर्क रणनीतियों का योगदान रहा है। सरकार की हठधर्मिता ने भी किसानों को संगठित होने का अवसर प्रदान किया है। अब किसान आंदोलन के नेतृत्व की असली परीक्षा है। उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा इस आंदोलन से उपजे जन असंतोष का लाभ किसी ऐसे राजनीतिक दल को न मिल जाए जो अपनी प्रकृति से किसान विरोधी है। उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि कोई लोकलुभावन आर्थिक समाधान अब इस मोड़ पर अपर्याप्त माना जाएगा। अब किसान आंदोलन को किसान मजदूरों की राजनीतिक सत्ता में भागीदारी के व्यापक लक्ष्य की ओर ध्यान देना होगा। यह व्यापक लक्ष्य तभी प्राप्त हो सकेगा जब किसान नेता तुच्छ व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को दरकिनार कर उदात्त भूमिका का निर्वाह करेंगे।

 

 

गाँव के लोग
गाँव के लोग
पत्रकारिता में जनसरोकारों और सामाजिक न्याय के विज़न के साथ काम कर रही वेबसाइट। इसकी ग्राउंड रिपोर्टिंग और कहानियाँ देश की सच्ची तस्वीर दिखाती हैं। प्रतिदिन पढ़ें देश की हलचलों के बारे में । वेबसाइट की यथासंभव मदद करें।

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

लोकप्रिय खबरें