Tuesday, April 16, 2024
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काहे रे नलिनी तू कुम्हिलानी …

दुनिया के सबसे उपेक्षित कवियों में से एक और सबसे ताकतवर और प्रतिभाशाली कवियों में से भी एक रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविताओं में औरतों की जो दशा दर्ज है वह बार-बार उनकी स्थिति की ओर देखने की जरूरत पैदा करती है। अगर वे कहते हैं कि ‘हर सभ्यता के मुहाने पर एक औरत की/ […]

दुनिया के सबसे उपेक्षित कवियों में से एक और सबसे ताकतवर और प्रतिभाशाली कवियों में से भी एक रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की कविताओं में औरतों की जो दशा दर्ज है वह बार-बार उनकी स्थिति की ओर देखने की जरूरत पैदा करती है। अगर वे कहते हैं कि ‘हर सभ्यता के मुहाने पर एक औरत की/ जली हुई लाश/ और इन्सानों की बिखरी हुई हड्डियाँ’ हैं और ‘यह लाश जली नहीं है, जलाई गई है/ ये हड्डियाँ बिखरी नहीं हैं, बिखेरी गई हैं’ तो इस बात को बहुत गंभीरता से लेनी चाहिए और अपने जीवन की खूब कसकर छानबीन करनी चाहिए कि कहीं हम उस सभ्यता के ही हिस्से तो नहीं हैं। कहीं हमारे आस-पास इन्सानों की हड्डियाँ तो नहीं बिखरी हुई हैं। और किसी जगह औरत की जली हुई लाश तो नहीं पड़ी हुई है। विद्रोही अपनी प्रसिद्ध कविता औरत में कहते हैं –‘एक औरत की लाश/ धरती माता की तरह होती है दोस्तो!/ जो खुले में फैल जाती है/ थानों से लेकर अदालतों तक/ मैं देख रहा हूँ/ जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है’।

अभी महीना भी नहीं बीता जब इसी देश की एक स्त्री, एक बेटी को रात के अंधेरे में जला दिया गया। उसको अपराधियों को बचाने के लिए पूरी सरकार और सरकारी महकमे अपने घिनौने और षड्यंत्रकारी मंसूबों के साथ लगे हुये हैं। यह क्या है? अपराध किए जाने के बावजूद अपराधी को सज़ा से क्यों बचाया जा रहा है और इस क्रम में अपराधियों का पक्ष लेनेवाली सारी ताक़तें क्यों एक संगठित अपराध कर रही हैं? पीड़िता के न्याय के लिए मौजूद एक-एक सबूत वे मिटा रहे हैं। पीड़िता के घर के लोगों को बयान बदलने के लिए धमका रहे हैं। उसके पक्ष में बोलने वालों को रोक रहे हैं। उन पर लाठियाँ चलवा रहे हैं। क्या उसके पक्ष में बोलने वालों को रोक रहे हैं। उन पर लाठियाँ चलवा रहे हैं। क्या यह कोई मामूली बात है। विद्रोही अपनी कविता में संकेत करते हैं कि यह एक सभ्यता है। बलात्कारियों, षड्यंत्रकारियों और हत्यारों की सभ्यता। और इस सभ्यता के मुहाने पर तमाम औरतों की लाशें हैं। ढेरों लोगों की हड्डियाँ बिखरी हुई हैं और वास्तव में ये हड्डियाँ बिखेरी गई हैं। यानी सिर्फ मोलेस्ट करना और रेप करना नहीं, जीभ काट लेना, रीढ़ तोड़ देना और मर जाने पर रात के अंधेरे में बिना उसके घर वालों की उपस्थिति के उसकी लाश जला देना और पूरी बेशर्मी और ताकत से यह प्रचारित करना कि बलात्कार नहीं हुआ। जीभ नहीं काटी गई। ऐसी सभ्यताओं की सबसे बड़ी ताकत बेशर्मी ही होती है। आखिर जब कुछ नहीं हुआ तो फिर आप क्या छिपा रहे हैं? यह छिपाना ही इस सभ्यता का मूल चरित्र है।

[bs-quote quote=”जो हालात हैं उनको देखते हुये पूरी तरह शक करना चाहिए। अपने अनुभवों के उस संसार में उतरना चाहिए जिसमें इसलिए नहीं उतर पाये थे क्योंकि वह विज़न साफ नहीं था जो पर्दे के पीछे छिपे सच को देख सके। इसलिए जब जिंदगी के एक ऐसे मोड़ पर आए जहां पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता के दमन और झूठ को समझ सकते हैं तब शक करना चाहिए। हर बात पर। हर घटना पर और छानबीन करना चाहिए। ये सत्ताएँ किसको संरक्षण दे रही हैं और किसका बचाव कर रही हैं यह ठीक से समझना चाहिए। बिना समझे कोई भी आज़ादी का सपना साकार नहीं हो सकता है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

विद्रोही कहते हैं मुझे विश्वास नहीं है तुम्हारे कहे पर। क्योंकि धर्म की किताबों और पुलिस के रिकार्डों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि सबकुछ एकतरफा लिखा गया है। कभी जलकर मरने के कगार पर पहुंची अस्पताल के बिस्तर पर पड़ी और कभी मर चुकी स्त्री का झूठा बयान दर्ज़ कर लिया जाता है। विद्रोही कहते हैं –‘मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित/ दोनों को एक ही साथ/ औरतों की अदालत में तलब करूंगा/ और बीच की सारी अदालतों को/ मंसूख कर दूँगा/ मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूँगा/ जिन्हें श्रीमानों ने/ औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं/ मैं उन डिगरियों को निरस्त कर दूँगा/ जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं/ मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूँगा/ जिन्हें दुर्बल ने भुजबल के नाम किए हुये हैं/ मैं उन औरतों को जो/ कुएं में कूदकर या चिता में जलकर मरी हैं/ फिर से ज़िंदा करूंगा/ और उनके बयानों को/ दोबारा क़लमबंद करूंगा/ कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया/ कि कहीं कुछ बाकी तो नहीं रह गया’। (नयी खेती : रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ , 2018)

जो हालात हैं उनको देखते हुये पूरी तरह शक करना चाहिए। अपने अनुभवों के उस संसार में उतरना चाहिए जिसमें इसलिए नहीं उतर पाये थे क्योंकि वह विज़न साफ नहीं था जो पर्दे के पीछे छिपे सच को देख सके। इसलिए जब जिंदगी के एक ऐसे मोड़ पर आए जहां पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता के दमन और झूठ को समझ सकते हैं तब शक करना चाहिए। हर बात पर। हर घटना पर और छानबीन करना चाहिए। ये सत्ताएँ किसको संरक्षण दे रही हैं और किसका बचाव कर रही हैं यह ठीक से समझना चाहिए। बिना समझे कोई भी आज़ादी का सपना साकार नहीं हो सकता है। इसलिए इस बात को देखना चाहिए कि हमारे अनुभव संसार में कौन सी सभ्यता कायम है और उसके मुहाने पर कितनी जली हुई लाशें हैं और कितनी हड्डियाँ बिखरी पड़ी हैं। विद्रोही इसलिए शक कर रहे हैं। वे बताते हैं कि ‘क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ/ जो अपने एक बित्ते के आँगन में/ अपनी सात बित्ते की देह को/ ता-ज़िंदगी समोए रही और/ कभी भूलकर बाहर की तरफ झाँका भी नहीं/ और जब बाहर निकली तो/ औरत नहीं , उसकी लाश निकली/ जो खुले में पसर गई है/ माँ मेदिनी की तरह’।

[bs-quote quote=”लेकिन सबसे अधिक भयावह है गरीबी और अभाव में मर जाना। ऐसी स्त्रियॉं की संख्या भारत की आबादी की चौथाई से भी ज्यादा है। हिन्दू हों चाहे मुस्लिम उन्हें गरीबी, पुरुष उत्पीड़न, जाति उत्पीड़न  तलाक, हलाला, इद्दत ही झेलना है।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

कितने मिथक हैं। कितने मुहावरे हैं। कितनी कहानियाँ हैं। कोई अंत नहीं है। गायों, बैलों, भैंसों और घोड़ों को पगहे से बांधा गया लेकिन औरत के लिए मान्यताओं और लोकाचार का बंधन ही काफी था। ऊंटों, बैलों, घोड़ों और भालुओं को रस्सियों और लोहे की लगाम लगाई जाती है लेकिन औरतों को गहनों से ही बांध दिया जाता है और जब चाहे तब उनकी नकेल बेरहमी से खींच ली जाती है। और वे क्या विद्रोह कर पाती हैं? बस त्रासदी झेलती रहती हैं लेकिन त्रासदियों का कोई अंत कब होता है। विद्रोही ने औरतों की इन त्रासदियों के अनेक बेधक चित्र खींचे हैं –‘औढरदानी का बूढ़ा गण/ एक डिबिया सिंदूर में/ बना देता है विधवाओं से लेकर/ कुंवारियों तक को सुहागन’। और ‘आपको बतलाऊँ मैं इतिहास की शुरुआत को/ किसलिए बारात दरवाजे पे आई रात को/ ले गई दुल्हन उठाकर/ और मंडप को गिराकर/ एक दुल्हन के लिए आए कई दूल्हे मिलाकर/ जंग कुछ ऐसा मचाया कि तंग दुनिया हो गई/ मरने वाले की चिता पर ज़िंदा औरत सो गई/ तब बजे घड़ियाल/ पंडे शंख घंटे घनघनाये/ फ़ौजों ने भोंपू बजाए, पुलिस ने तुरही बजाए/ मंत्रोच्चारण यूं हुआ कि मंगलम औरत सती हो/ जीते जी जलती रहे जिस भी औरत के पती हो’।

रमाशंकर विद्रोही सारी औरतों की बात करते हैं और क्या खूब करते हैं लेकिन उनकी चिंता के केंद्र में नौकरानियाँ और श्रमजीवी औरतें हैं जिनकी किस्मत को व्यवस्था ने बड़ी चालाकी से दबा रखी है। वे कहते हैं –‘मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता /नौकरानियों की होती है’। और वास्तव में जब हम नौकरानियों और श्रमजीवी औरतों की दुनिया में झाँकते हैं तो क्या मिलता है? विद्रोही कहते हैं ‘कितना खराब लगता है एक औरत को /अपने रोते हुये पति को छोडकर मरना/ जबकि मर्दों को/ रोती हुई औरतों को/मारना भी/ खराब नहीं लगता/ औरतें रोती जाती हैं/ मरद मारते जाते हैं/ औरतें और ज़ोर से रोती हैं/ मरद और ज़ोर से मारते हैं/ औरतें खूब ज़ोर से रोती हैं/ मरद इतने ज़ोर से मारते हैं कि वे मर जाती हैं’।

[bs-quote quote=”लगता है यह दुनिया ही औरतों के लिए नरक है। जिसे वे झेल रही हैं। पितृसत्ता, धर्मसत्ता, राजसत्ता सब मिलकर उसके खिलाफ एक दावानल दहकाये हुये हैं। देवदासी, जोगिनी, बेड़िनी, मुरली, विधवाएँ, दलित, गरीबी में सिर से पाँव तक लिथड़ी औरतें इसी दुनिया का सच है जहां देवता निवास करते हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

औरतों की मौतें कितनी बेरहमी से सहन कर ली जाती हैं। बल्कि बेरहमी ऐसी कि सहन करने की भी क्या जरूरत है। जैसा कि राही साहब लिखते हैं ‘बुखारी साहब एक ही वक्त में कई साहब थे। एक तो वह एमए’ बीटी थे। फिर वह मुस्लिम एंग्लो हिंदुस्तानी हायर सेकेन्डरी स्कूल के प्रिंसिपल थे। क्योंकि वह हयातुल्लाह अंसारी के मँझले दामाद थे। इसके अलावा वह पी एस पी के मुक़ामी लीडर भी थे और आनेवाले चुनाव में पार्टी-टिकट पर चुनाव भी लड़नेवाले थे। ….. वह वहशत के घर जा रहे थे कि शहरनाज को शहला के घर भेजें, क्योंकि यह तैय था कि मुसलमान वोट शहला की मुट्ठी में थे। शहरनाज से मिलने के बहाने वह यों भी निकला करते। बुतुल से तो उन्होंने प्रिंसिपल बनने के लिए शादी की थी। खुदा का शुक्र था कि वह कैंसर से मरनेवाली थी। यदि उसकी मौत तक शहरनाज़ की शादी न हो तो वह भी कैंडीडेट हो सकते थे।” यह सब केवल एक बानगी है। बहुजन समाज की औरतों की मौत ऐसे ही होती है। बाहर और घर में। उसक लिए पुरुष एक जातिसत्ता है, पितृसत्ता है और पतिसत्ता है। इनके बीच उसे उमड़-घुमड़कर मरना ही है।

लेकिन सबसे अधिक भयावह है गरीबी और अभाव में मर जाना। ऐसी स्त्रियॉं की संख्या भारत की आबादी की चौथाई से भी ज्यादा है। हिन्दू हों चाहे मुस्लिम उन्हें गरीबी, पुरुष उत्पीड़न, जाति उत्पीड़न  तलाक, हलाला, इद्दत ही झेलना है। बनारस के बुनकरों के जीवन पर क्लासिक बन चुका अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास झीनी-झीनी बीनी चदरिया तो शुरू ही होता है टीबी से ग्रस्त एक खाँसती हुई दिनचर्या से –‘जाड़े की धूप इस छत से लेकर उस छत तक पीले कतान की तरह फैली हुई है। इस छत पर अलीमुन एक ओर बने बावर्चीखाने में आग सुलगाते जा रही है और उस छत पर कमरून कटान फेरने की तैयारी में व्यस्त है। अचानक दोनों छतें बोल उठती हैं –’का हो अलीमुन अभइन तक आग नाहीं बारेव का ?’

‘नाहीं हो देखो अब जाइला बारे। एतना-सा काम रहा, करे के एही से एतनी अबेर हो गई हो। तूँ का करेतू ?’….. अलीमुन को टीबी हो गई है। मतीन को मालूम है। लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता। घर का जो काम है, वह बीवी को करना ही होगा। फेराई-भराई, नरी-ढोटा, हांड़ी-चूली …. सभी कुछ करना होगा। बिना किए काम न चलेगा। और रहना भी होगा पर्दे में। खुली हवा में घूमने का सवाल नहीं। समाज के नियम सत्य हैं। उन्हें तोड़ना गुनाह है। मतीन जनता है ।”

[bs-quote quote=”और सच मायने में कबीर जिस ओर इशारा कर रहे हैं वह भयानक यथार्थ है। तालाब का पानी सड़ जाने से कमलिनी कुम्हिला रही है। पूरे जल में जहर घुला हुआ है। और समाज में स्त्रीविरोधी माहौल है। कुछ भी दिख नहीं रहा है। पाखंड निर्लज्जता की हद तक चमक रहा है लेकिन इन औरतों की चीख दर्ज नहीं हो रही है। लगता है धर्म की ध्वजा औरतों की गुलामी के ऊपर गाड़ी हुई है और लहरा रही है। कबीर साहब संकेत कर रहे हैं कि नलिनी इसलिए ही मुरझा रही है क्योंकि वह जिस सरोवर में है वहाँ चारों ओर जहर फैल चुका है। लेकिन उस पर संतों का ध्यान नहीं जा रहा है और वे अन्याय का झण्डा बुलंद किए हुये हैं!” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

बुनकरों के जीवन का यह सत्य है। वहाँ की स्त्रियॉं का यह सत्य है। इस सत्य को नकारना किसी के बूते का नहीं है। जो कमरून अलिमुन का हाल चाल पूछ रही है उसके पति लतीफ ने उसे तलाक दे दिया। वह अपने बड़े बेटे के साथ कहीं दूर रहने लगी। एक गृहस्थी टूट गई। परिवार बिखर गया। लतीफ को पश्चाताप होने लगा कि यह उसने क्या किया। लेकिन बिना हलाला के वह कैसे साथ रह सकता है। अब तो वह उसके लिए हराम हो गई है। समाज के बनाए नियम तोड़ना क्या आसान है? लेकिन मनुष्य का मन और उसकी संवेदना का क्या होगा। एक दिन ‘लतीफ़वा ज़िद पकड़कर बैठ गया था कि तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा।

कमरून चली तो आई वापस, लेकिन अपने ही घर में वह बंदिनी की तरह रहने लगी। किस मुंह से बाहर निकलती? दुनिया में क्या ऐसा भी कहीं हुआ है कि तलाक़शुदा मुसलमान औरत बगैर ‘हलाला’ के फिर अपने शौहर के साथ आकर रहने लगे? मज़हब के साथ इतना बड़ा खिलवाड़! इतना बड़ा गुनाह! अगर आज वह अलग न रहकर अपने माँ-बाप के साथ रहती तो क्या ऐसा हो सकता था? काटकर फेंक दी जाती वह! उसने पूरी बिरादरी की नाक कटा दी है!”

लगता है यह दुनिया ही औरतों के लिए नरक है। जिसे वे झेल रही हैं। पितृसत्ता, धर्मसत्ता, राजसत्ता सब मिलकर उसके खिलाफ एक दावानल दहकाये हुये हैं। देवदासी, जोगिनी, बेड़िनी, मुरली, विधवाएँ, दलित, गरीबी में सिर से पाँव तक लिथड़ी औरतें इसी दुनिया का सच है जहां देवता निवास करते हैं।

कबीर पूछते हैं – ‘काहें रे नलिनी तू कुम्हिलानी/ तेरे ही नाल सरोवर पानी/  जल में उतपति जल में वास/ जल में नलिनी तोर निवास/ ना तलि तपत न ऊपर आगि/ तोर हेतु कहु कासनि लागि/ कहे कबीर जे उदकि समान/ ते नहीं मुए हमारे जान’। यह वैसा ही आश्चर्यजनक दृश्य है जैसा कंबल के बरसने और पानी के भींगने का या फिर सिंह के खड़े होकर गाय चराने का है। जिसका जन्म ही जल में हुआ हो और जो जल में ही रहती आई हो वह कमलिनी क्यों मुरझा रही यह बड़े अचरज की बात है। अचरज की बात यह है कि न तो सरोवर की तलहटी में है तप रही है और न ही ऊपर आग लगी। पाखंडी लोग कहते हैं कि जहां तुम्हारी पूजा होती है वहाँ देवता बसते हैं फिर भी तुम क्यों इतनी पीली होती जा रही हो? इस दुनिया में कुछ बदल नहीं रहा है। कहीं उथल-पुथल नहीं मची है फिर भी तुम ऐसी कुम्हिलाई हुई हो। कोई न कोई बात तो ऐसी है जिससे तुम्हारी रगों में जहर भर रहा हो। और सच मायने में कबीर जिस ओर इशारा कर रहे हैं वह भयानक यथार्थ है। तालाब का पानी सड़ जाने से कमलिनी कुम्हिला रही है। पूरे जल में जहर घुला हुआ है। और समाज में स्त्रीविरोधी माहौल है। कुछ भी दिख नहीं रहा है। पाखंड निर्लज्जता की हद तक चमक रहा है लेकिन इन औरतों की चीख दर्ज नहीं हो रही है। लगता है धर्म की ध्वजा औरतों की गुलामी के ऊपर गाड़ी हुई है और लहरा रही है। कबीर साहब संकेत कर रहे हैं कि नलिनी इसलिए ही मुरझा रही है क्योंकि वह जिस सरोवर में है वहाँ चारों ओर जहर फैल चुका है। लेकिन उस पर संतों का ध्यान नहीं जा रहा है और वे अन्याय का झण्डा बुलंद किए हुये हैं!

 

रामजी यादव कथाकार और गाँव के लोग के संपादक हैं 

गाँव के लोग
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  1. सटीक, सामयिक ,शानदार एवं हृदय स्पर्शी आलेख.

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