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भाजपा की आगामी इतिहास परियोजना : तुगलक.. तुगलक.. तुगलक.. तुगलक….

जिस पार्टी के पास आम जनता के असली मुद्दों से टकराने का साहस नहीं होता, वह ऐसे ही मुद्दों पर सुर्खियां बटोरने के काम में लगी रहती है, चाहे उसके परिणाम देश के लिए कितने ही खतरनाक क्यों न हो! औरंगजेब के बाद अकबर, बाबर और अब तुगलक को निशाने पर साधा है, क्योंकि संघ की स्थापना हिंदुत्व और सांप्रदायिकता को आगे बढ़ाने के लिए हुई थी, इसमें अब इनका राजनैतिक दल भाजपा बढ़ चढ़कर काम कर इतिहास बदलने का काम कर रहा है।

प्रेमचंद ने कहा था – ‘सांप्रदायिकता हमेशा संस्कृति की खाल ओढ़कर सामने आती है।’ इसके साथ ही आज का सच यह भी है कि सांप्रदायिकता इतिहास का मिथ्याकरण करती है और मिथकों को इतिहास के रूप में पेश करती है। आज भाजपा-संघ पुराणों में विमान विज्ञान से लेकर अंग प्रत्यारोपण और आइवीएफ चिकित्सा तक के तथ्य खोजने में जुटी हुई है और मिथकीय कहानियों को इसका प्रमाण बता रही है। उसके लिए ताजमहल और तमाम मस्जिद हिन्दू मंदिर है और इसके लिए वह मुगल शासकों द्वारा कुछ हिन्दू मंदिरों को लूटने और ध्वस्त करने को प्रमाण के रूप में पेश करती है। इतिहास में एक-दूसरे के धर्मस्थलों को तोड़ने के अनेकानेक उदाहरण है। शैवों ने वैष्णवों पर हमले किए हैं, हिंदुओं ने बौद्ध मठों को ध्वस्त किया है, ब्राह्मणों ने शूद्रों का भयंकर दमन किया है। ये सब सैकड़ों-हजारों साल पुरानी बातें हैं और आज की हमारी आधुनिक, वैज्ञानिक और तर्कशील चेतना इसे गलत मानती है। इन सब विकृतियों के बावजूद हमारा समाज आगे बढ़ा है, पहले से ज्यादा सभ्य हुआ है और सद्भाव की परंपरा, गंगा-जमुनी तहजीब विकसित हुई है।
इतिहास से सबक तो लिया जा सकता है, लेकिन इस इतिहास को आधार बनाकर बदला नहीं लिया जा सकता। ऐसा करना समाज का अमानवीयकरण करना होगा, समाज को पीछे बर्बरता के युग में धकेलना होगा, आज तक मानव सभ्यता ने जो कुछ हासिल किया है, उसे नष्ट करना होगा। लेकिन सांप्रदायिक ताकतें इतिहास से सबक नहीं लेना चाहती, वह इतिहास की बर्बरता को आधार बनाकर बदले की राजनीति करना चाहती है और भारतीय समाज को पीछे, और पीछे, बर्बरता के युग में पुनः पहुंचाना चाहती हैं। उनके इरादे और घोषणाएं बहुत स्पष्ट है।
भाजपा की झोली जादुई झोली है, जिसमें मुद्दों की भरमार है। लेकिन ये मुद्दे हमारी वास्तविक जिंदगी के मुद्दे नहीं है। इस झोली में मुस्लिम विद्वेष के मुद्दे हैं, नफरत के मुद्दे हैं। वह मुस्लिमों को एक ऐसे काल्पनिक शत्रु के रूप पेश करती है, जिनका यहां रहना ही इस देश की सभी समस्याओं की जड़ है। वह मुस्लिम समुदाय से एक नागरिक के रूप में सम्मानपूर्वक जीवन जीने का बुनियादी अधिकार भी छीन लेना चाहती है। अपनी कल्पना को साकार करने के लिए वह हिंदुओं को लामबंद करना चाहती है। संघ-भाजपा ‘हिंदुत्व’ की जिस राजनीति की बात करती है, उसका सार यही है। ‘हिंदुत्व’ शब्द का उपयोग पहली बार सावरकर ने किया था। संघ-भाजपा के इस ‘वीर’ सपूत ने ही यह कहा है कि हिंदुत्व का हिंदू धर्म से कुछ लेना देना नहीं है और यह सत्ता में पहुंचने के लिए, और सत्ता में पहुंचने के बाद इसमें काबिज रहने के लिए, हिंदुओं को लामबंद करने की राजनीति है। इस आलेख में हम सावरकर द्वारा  अंग्रेजों से माफी मांगने का कोई जिक्र नहीं करेंगे।
सत्ता में बने रहने के लिए धर्म के आधार पर आम जनता में फूट डालने की राजनीति अंग्रेजों ने की थी। धर्म के आधार पर फूट डाल कर राज करने की नीति को ही सांप्रदायिक राजनीति कहते हैं। काले पानी की सैर की कथित वीरता के बाद सावरकर अंग्रेजों की इस राजनीति के हमराह बने थे और उन्होंने अपने इस कदम के औचित्य का प्रतिपादन हिंदुत्व के नाम पर किया था। आजादी के बाद सत्ता में आने के लिए व्याकुल संघ-भाजपा ने देश में अंग्रेजों की इसी राजनीति को आगे बढ़ाया। 1857 के पहले इस देश में कई राजाओं-बादशाहों, सम्राटों और शहंशाहों ने राज किया, अपने राजपाट के दौरान उन्होंने मंदिर-मस्जिद तोड़े-लूटे, लेकिन किसी ने भी अपने राज को स्थाई बनाने के लिए धर्म के आधार पर फूट डालने का काम नहीं किया। यही कारण है कि राजनैतिक शत्रुता के बावजूद न महाराणा प्रताप के खिलाफ अकबर के मन में कोई घृणा थी और न औरंगजेब के खिलाफ शिवाजी महाराज के मन में। राजपाट की दुश्मनी को धार्मिक दुश्मनी के रूप में पेश करके इतिहास को नकारने का काम आज संघ-भाजपा कर रही है, तो यकीन मानिए, उसके मन में न तो महाराणा के लिए कोई इज्जत है और न ही शिवाजी महाराज के लिए कोई सम्मान। ये सब लोग उसकी राजनीति के हथियार बना लिए गए हैं।
अभी औरंगजेब का विवाद शांत भी नहीं हुआ है कि तुगलक को कब्र से बाहर निकाल दिया है भाजपा ने। राज्यसभा सांसद डॉ. दिनेश शर्मा, फरीदाबाद सांसद कृष्णपाल गुर्जर और उप नौसेना प्रमुख किरण देशमुख ने अपने निवासों पर तुगलक लेन की जगह स्वामी विवेकानंद मार्ग की नामपट्टियां लगवा ली हैं। असल में जिस पार्टी के पास आम जनता के असली मुद्दों से टकराने का साहस नहीं होता, वह ऐसे ही मुद्दों पर सुर्खियां बटोरने के काम में लगी रहती है, चाहे उसके परिणाम देश के लिए कितने ही खतरनाक क्यों न हो!
लेकिन स्वामी विवेकानंद की आत्मा भी इससे बेचैन होगी, क्योंकि स्वामीजी भगवाधारी जरूर थे, हिंदू धर्म के अनुयायी और वेदों के ज्ञाता भी थे, लेकिन संघ-भाजपा के भगवा विचारों के संवाहक तो कतई नहीं थे। मुस्लिम द्वेष ने तो उन्हें छुआ भी नहीं था। वे इस्लामी शरीर और वेदांती मस्तिष्क के कायल थे। वे मेहनतकश शूद्रों का, निश्चय ही उनके जमाने में मेहनतकश ही शूद्र थे, का राज आने की भविष्यवाणी कर रहे थे। एक धर्मनिरपेक्ष स्वामी विवेकानंद को एक सांप्रदायिक भगवाधारी में बदलने की कोशिश संघ-भाजपा कर रही है। इसी प्रकार, वे क्रांतिकारी भगतसिंह को अपने सांप्रदायिक जुए में जोतने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि भगतसिंह के समाजवादी विचारों से संघ-भाजपा का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। वे इस देश के तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को अपने बंजर हिंदुत्व के खेतों को जोतने में लगा देना चाहते हैं, क्योंकि उनके पास तो अंग्रेजों की चापलूसी करने वाले सेनानी ही हैं और आज भी भक्तिभाव से अमेरिका की साम्राज्यपरस्ती में लगे हुए हैं।
तुगलक कोई पहला बादशाह नहीं था, जिसने अपने राजपाट में सनक भरे फैसले लिए हों, अपनी रियाया के प्रति क्रूरता बरती हो और अय्याशी में डूबा हो। असल में राजतंत्र चलता ही इसी तरह से था, क्योंकि राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था और उसकी इच्छा ही सर्वोपरि थी। ये राजा और बादशाह सामंतवादी मूल्यों के संवाहक और प्रतीक हैं। लेकिन किसी शासक ने अपने जीते-जी किसी सड़क का नामकरण अपने नाम से नहीं किया होगा। आखिर, राजा और बादशाह भी नैतिकता के कुछ नियमों का पालन करते ही होंगे। यहां तो हमारे देश में प्रधानमंत्री ने ही एक स्टेडियम का नाम अपने नाम पर रख लिया है और ऐसा करते हुए शायद उसे शर्म भी नहीं आई। इतिहास में नाम लिखाने की जिद्द लोकतंत्र में किसी शासक को इतना गिरा सकती है, तो फिर तो तुगलक की जिद्द राजतंत्र की जिद्द थी।
औरंगजेब, अकबर, बाबर और अब तुगलक की बारी है, क्योंकि संघ-भाजपा की सांप्रदायिकता से यारी है! इतिहास के प्रति संघी गिरोह की यह ‘तुगलकी सनक’ देश का बंटाढार कर दें, इसके पहले ही इतिहास का मिथ्याकरण करने और नई शिक्षा नीति के जरिए उसे पूरे देश पर थोपने की संघी मुहिम के खिलाफ उठकर खड़े होने और सोए हुओं को जगाने की जरूरत है, ताकि आमजनता की बदहाली से जुड़े नीतिगत मुद्दों पर बहस शुरू हो सके।
संजय पराते
संजय पराते
लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।
1 COMMENT
  1. का. संजय पराते का आलेख आम पाठक को प्रभावित करने वाला है, जिसकी इस समय सघन आवश्यकता है। सरल शब्दों में सांप्रदायिकता की (इतिहास पर मिथकों को आरोपित करने) की साजिश सामने रखी गई है लेकिन इतिहास के उदाहरणों को स्पष्ट रूप में रखने में थोड़ी कमी लगी (मुझे)!

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