वाराणसी। जी20 शिखर सम्मेलन को लेकर इतना प्रचार है कि पिछले कई महीने से इस शहर का भाजपा समर्थक खेमा अतीव उत्साह में है कि सत्तर सालों में यह पहली बार हो रहा है। वाराणसी में जगह-जगह सेल्फी पॉइंट बन गए हैं और सुबह-शाम सैर पर निकलने वाले लोग एक फोटो सुरक्षित कर लेना चाहते हैं। लेकिन वाराणसी तंग गलियों और छोटी सड़कों वाला शहर है और इन्हीं के जरिये वह अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था को संभालता है। बरसों से अपनी लय में चल रहे शहर में नई सत्ता ने जब अपनी महत्वाकांक्षाओं का बुलडोजर चलना शुरू किया तो सबसे ज्यादा संकट रोज़मर्रा के काम से अपनी आजीविका चलाने वाले लाखों लोगों के सामने आ खड़ा हुआ है। सरकारी प्रचार और मंत्रियों-नौकरशाहों की लगातार आवाजाही और उनके लिए सड़कों को जनविहीन बनाए रखने की कवायद ने आम जनता को भी नहीं बख्शा है।
सबसे ज्यादा तकलीफों का सामना ठेला और रेहड़ी-पटरी व्यवसायियों को करना पड़ रहा है। वे हर जगह से भगा दिये जाते हैं। सम्मेलन में आने वाले मेहमानों को खुश करने वाराणसी के सौंदर्यीकरण के बहाने नगर निगम तथा जिला प्रशासन द्वारा अतिक्रमण के नाम पर रेहड़ी-पटरी वालों को सड़कों से हटाया जा रहा है। ऐसे में रेहड़ी-पटरी वालों को अपनी आजीविका चलाना मुश्किल हो गया है। निराशा के साथ वह अपना ठेला-खोमचा हटा दे रहे हैं। वह समझ जाते हैं कि आज उनकी आमदनी नहीं होने वाली। सिर्फ इतना ही नहीं इन्हें कई बार पुलिस वालों की ‘दबंगई’ का भी शिकार होना पड़ता है। मेहनत के बदले इन्हें दो वक्त की रोटी के साथ-साथ असुरक्षा और अपमान का भी सामना करना पड़ता हैं। बनारस से इतर बात करें तो देश भर में तकरीबन एक करोड़ 30 लाख स्ट्रीट वेंडर्स इसी तरह की परिस्थितियों में जीवनयापन करते हैं। लेकिन कठिन परिश्रम और अनियमितता के बावजूद उनको बार-बार अपनी जगहों से हटा दिया जाता है। जबकि संविधान का अनुच्छेद 19(1)(जी) प्रत्येक नागरिक को कोई भी पेशा अपनाने या कोई व्यवसाय, व्यापार या व्यवसाय करने का अधिकार देता है। इसी तरह, फेरीवालों को भी अपनी पसंद का व्यापार या कारोबार करने का मौलिक अधिकार है।
ये स्ट्रीट वेंडर्स शहरी जीवन का प्रमुख अंग होते हैं। ठेला-पटरी व्यावसायियों की दुकानें प्रशासन द्वारा हटाई तो जा रही हैं, लेकिन अभी तक उनके व्यवसाय के पुनर्वास की कोई रूप-रेखा सम्बंधित विभाग की तरफ से सामने नहीं आई है। उन्हें कोई दूसरी जगह भी आबंटित नहीं की गई है। पुलिस आए दिन छोटे दुकानदारों का उत्पीड़न करती है, जिससे इनके सामने आजीविका का संकट पैदा हो गया है। यह दिनों-दिन चुनौती बनता जा रहा है कि ‘वह अपनी आजीविका कैसे चलाएं?’
कोरोना काल में ठेला-पटरी व्यवसाइयों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए शासन द्वारा उन्हें बिना ब्याज व गारंटी के 10 हजार रुपये का ऋण मुहैया कराया गया था, वहीं, ठेला लगाने के दौरान प्रशासन की मनाही के कारण उनका कामकाज पूरी तरह ठप हो गया। इस कारण स्ट्रीट वेंडर्स के लिए ऋण का भुगतान करना भी मुश्किल हो गया है।
शिवपुर स्थित नॉर्मल स्कूल के पास ठेला-पटरी व्यवसायियों से बातचीत के दौरान ऐसी तमाम समस्याएँ सामने आई, जिस पर बात करने के दौरान उनके अंदर भय का माहौल था। थोड़ी-सी हिम्मत दिखाते हुए स्थानीय गुड़िया सोनकर ने कुछ बोलने की जहमत उठाई। गुड़िया शाम को यहाँ ठेले पर प्याज और आलू बेचती हैं।
वह बताती हैं कि, जब नगर निगम और पुलिस की गाड़ी आती है (जिसे स्थानीय लोग हल्ला गाड़ी बोलते हैं) तो उन्हें अपना ठेला लेकर इधर-उधर भागना पड़ता है। अगर पुलिस कोई भी ठेला देखती है तो वह सरकारी जमीन पर अतिक्रमण न करने की हिदायत देकर हमें खदेड़ देती है। बातचीत के दौरान गुड़िया अपने सिर पर रखे साड़ी के पल्लू से बार-बार इधर-उधर भी देख रहीं थीं। उन्हें पुलिस के आने का भय था। गुड़िया 15 वर्षों से यहाँ अपने पति और बेटे के साथ ठेला लगाती हैं और सीजन (मौसम) के हिसाब से सब्जियां और फल बेचती हैं। वह आगे कहती हैं कि, ‘हम लोगों की रोजी-रोटी इसी ठेले से चलती है। हमलोगों के मन में डर लगा रहता है, कब हल्ला गाड़ी आ जाएँ और ठेला हटाना पड़ जाए। कभी- कभी पुलिस वालों के ज्यादा सख्ती के कारण हम लोग हफ्ता-पंद्रह दिन तक दुकान नहीं लगाते हैं। पुलिस कभी-कभी इतनी सख्त हो जाती है कि वह ठेले के पहियों से हवा निकाल देती हैं, सामान गिरा देती है। वेंडिंग जोन क्यों नहीं मिला? के सवाल पर गुड़िया बतातीं हैं कि हमने फार्म भरा था, लेकिन अभी तक कुछ पता नहीं चला। वह कहती हैं कि, हम तो मोदी सरकार को बहुत सपोर्ट करते हैं लेकिन उनकी किसी भी योजना का लाभ हमको नहीं मिला। हमारा तो राशन कार्ड भी नहीं बना है। जब स्थानीय कोटेदार से पूछते हैं तो वह कह देते हैं कि जब बनने लगेगा तो बता देंगे। यह सिलसिला तीन-चार वर्षों से चल रहा है। इसी तरह उज्ज्वला योजना का भी लाभ हमें नहीं मिला।
कुछ दूरी पर प्यारे लाल मदन लाल ठेला पर गोलगप्पे बेचते हैं। 40 साल से वह यहाँ पर ठेला लगा रहे हैं। प्यारे बताते हैं कि बनारस जब से जी 20 का कार्यक्रम चल रहा है, तब से हम लोगों को यहाँ ठेला लगाने से मना कर दिया गया है। जब नगर निगम के कर्मचारी आते हैं तो ठेला यहाँ से हटाना पड़ता है।
नगर निगम और पुलिसकर्मियों से कभी पूछा कि अपना ठेला यहाँ न लगायें तो कहाँ लगायें? के सवाल पर उन्होंने कहा कि उनके हाथ में लाठी और पॉवर है, कौन उलझने जाए। प्यारे बताते हैं कि इस महंगाई में चार महीने पहले मैं इसी ठेले पर सुबह पूड़ी-सब्जी और शाम को गोलगप्पे की दुकान लगाता था। जब से जी20 का आयोजन शुरू हुआ है, तब से हल्ला गाड़ी वाले ज्यादा सक्रिय हो गए हैं। इन चार महीनों से हल्ला गाड़ी आ रही है और ठेले को हटाने लग रही है, तब से हम सिर्फ शाम को ही अपना ठेला लगाते हैं। मुश्किलें तो हो रहीं हैं, लेकिन मजबूरी है।
स्थानीय विजय गुप्ता ठेले पर टमाटर-चाट बेचते हैं। वह भी लगभग 40 साल यानी अपने दादा के समय से यह काम कर रहे हैं। विजय की माँ और भाई भी इस काम में उनका हाथ बंटाते हैं। वह बताते हैं कि जब पुलिस उन्हें हटाने आती है तो वह कुछ घंटों के लिए आसपास की गलियों में चले जाते हैं। छिपकर धंधा करते है। चार माह से यह प्रक्रिया चल रही है। विजय बताते हैं, ‘अगर हमें यह पता होता कि निगमकर्मी या पुलिस किस दिन और कब आ जाएगी तो उस दिन हम ठेला लगायें ही नहीं। उस दिन बना-बनाया सामान खराब हो जाता है। घाटा हो जाता है। विजय बताते हैं कि मैंने प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना से लोन लिया है। जब रोजगार ही नहीं चलेगा तो लोन कहाँ से भर पाऊँगा?
इसी मार्ग पर विनोद गुप्ता ठेले पर दाना भूनते हैं। वह कहते हैं कि मैं 1998 से यहाँ ठेला लगा रहा हूँ। इलाके में कहीं भी ठेला लगाकर सुकून से कुछ रुपये कमा लेता था। अब तो सिपाहियों को देखकर ही डर लगने लगता है। वह कुछ भी बहाना बताकर ठेला हटाने को कह देते हैं। विनोद बताते हैं कि पहले इतनी परेशानियाँ नहीं होती थीं। शहर में कोई भी वीआईपी आता है तो पहले हमें ही खदेड़ा जाता है। कुछ दिन पहले ही योगीजी के कार्यक्रम को लेकर हमें इस जगह ठेला न खड़ा करने की हिदायत देकर पुलिसवाले चले गए। गलियों में कहीं जगह नहीं रहती कि कुछ देर खड़े होकर दुकानदारी कर लूँ। विनोद बताते हैं कि इन्हीं समस्याओं के कारण मैंने एक माह तक ठेला नहीं लगाया। इतने दिन कैसे गुज़ारा चला मैं ही जानता हूँ, लेकिन कब तक काम-धंधा नहीं करूँगा? प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के तहत एक बार 10 हजार रुपये का लोन उठा चुका हूँ, अब उतनी कमाई नहीं होती कि दोबारा लोन ले सकूँ। स्थानीय ठेले वाले बताते हैं कि शिवपुर के इस स्थान पर वेंडिंग जोन का एक बोर्ड लगा हुआ था। दो सप्ताह पहले नगर निगम वाले वह बोर्ड हटा दिए।
पांडेयपुर चौराहा हर समय गुलज़ार रहता है। यहाँ की हालत ऐसी है कि आधे सड़क पर सिर्फ ठेले-खोमचे वाले और ग्राहकों की भीड़ ही नज़र आती है। यहाँ दिलीप सोनकर ठेले पर केला बेचते हैं। वह बताते हैं कि पुलिस और निगम के कर्मचारी तो प्रतिदिन आ जाते हैं ठेला हटवाने। परिवार के भरण-पोषण के लिए हम चौराहे पर इधर-उधर होकर ठेला लगाते रहते हैं। एक-दो दिन से ज़्यादा मैं अपने ठेले का नहीं हटा सकता। परिवार में पत्नी-बच्चों के अलावा बूढ़े पिताजी हैं। इसी ठेले की कमाई से सभी को देखना पड़ता है। बिना किसी से उलझे थोड़ा बच-बचाकर धंधा कर रहा हूँ।
सतीश सोनकर पांडेयपुर चौराहे पर 3 दशक से फलों का ठेला लगा रहे हैं। वह बताते है कि वेंडिंग जोन के लिए एक वर्ष पहले फॉर्म भरा हूँ लेकिन अभी तक उसके बारे कुछ पता नहीं चला है। वह बताते हैं कि पांडेयपुर में भी स्ट्रीट वेंडर्स के लिए वेंडिंग जोन बनने वाला था।
अनिल कुमार सोनकर कहते हैं कि नगर-निगम वालों ने कई बार हम लोगों का ठेला हटाया है। उस दिन हम लोगों को इधर-उधर भटकना पड़ता है। उस दिन हम यह मान लेते हैं कि हाथ में कुछ आमदनी नहीं आने वाला।
किशन सोनकर बताते हैं कि पुलिस वाले पांडेयपुर चौराहे पर लगने वाले जाम का कारण हमें ही बताते हैं। जबकि यहाँ शुरुआत से ही यातायात की दिक्कतें हैं। अब हालत यह हो गई है कि सड़क पर वाहन धीरे-धीरे और रुक-रुककर चलती हैं। उसी में कुछ लोग अपने वाहन सड़क ही खड़ी कर दुकानदारी करने लगते हैं। इसमें हमारी क्या गलती है? हम सुकून से दो पैसा कमाकर रात में अपने घर लौटना चाहते हैं लेकिन उसके लिए भी हमें पुलिस और सम्बंधित विभागों की प्रताड़ना झेलनी पड़ती हैं।
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आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपइया, का ज़िक्र करते हुए आशा देवी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि वह अपने पति के साथ ठेले पर फल बेच रही हैं। पति मंडी से फल वगैरह लाते हैं तो मैं उन्हें ठेले पर सहेजकर बेचती हूँ। आशा बताती हैं कि यहाँ ठेला लगाने के लिए निगम को हम पाँच सौ रुपये सालाना देते हैं। इस महंगाई में अब ज़्यादा कमाई नहीं हो पाती है। बावजूद इसके यह काम करना पड़ता है। सबसे ज़्यादा दिक्कत तब होती है जब कोई नेता बनारस आता है, उस समय सबसे पहले हमारी ही दुकान को साफ करवा दिया जाता है। इस साल यह काम ज़्यादा हुआ है, क्योंकि यहाँ जी 20 आयोजन हो रहा है।
उनसे बात करनी चाही तो उन्होंने मना कर दिया, वो लोग जल्दी किसी सवाल का जवाब नहीं दें रहे थे। वो लोग बोलते आप किसी और से बात कर लीजिये। क्योंकि उनके अन्दर प्रशासन को लेकर डर और भय था। अगर वो प्रशासन के खिलाफ कुछ भी बोलते तो उन्हें प्रशासन द्वारा प्रताड़ित किए जाने का बहुत डर था.साथ ही उन्हें यह भी डर था कि कब पुलिस वाले आयेंगे और उनको ठेला लेकर भागना पड़ जाए।
फेरी पटरी ठेला व्यवसाई समिति के सचिव अभिषेक निगम स्ट्रीट वेंडरों की स्थिति पर बताते हैं कि नगर निगम के माध्यम से अभियान चलाकर ठेला-खोमचा वालों का रजिस्ट्रेशन पीएम स्वनिधि योजना में करवाया जा रहा है ताकि सभी को इस योजना का लाभ मिल सके। अभी भी कई लोगों का रजिस्ट्रेशन नहीं हो पाया है उसके लिए भी प्रयास किए जा रहे हैं। मेरे माध्यम से अभी तक मात्र 100 गुमटियाँ उपलब्ध कराई गई हैं ताकि ठेले वाले इसी में अपनी दुकान सुरक्षित तरीके से चला सकें।
वहीं विभागीय सूत्रों की मानें तो वाराणसी में लगभग 40 हजार स्ट्रीट वेंडर्स रजिस्टर्ड हैं जबकि हजारों वेंडर्स का रजिस्ट्रेशन नहीं हुआ है। यहाँ यह सवाल उठना लाज़मी है कि जिस शहर में लाखों लोग ठेला-खोमचा लगाकर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं, उनमें सिर्फ़ 40 हजार लोग ही सरकारी सुविधा के घोषित पात्र हैं।
वाराणसी में विदेशी मेहमानों को आकर्षित करने के लिए प्रशासन लगातार प्रयास कर रहा है। वाराणसी के चमकते हिस्से को दिखाया जा रहा है, धूसर हिस्से को छुपाया जा रहा है। सड़कों पर पानी का छिड़काव किया जा रहा है, उन्हें बार-बार रोशनी से नहलाया जा रहा है। इस सबके बीच यह वेंडर्स बार-बार सड़क से ऐसे खदेड़े जा रहे हैं जैसे वाराणसी की आभासी मखमली रंगत से टाट का पैबंद उधाड़ कर फेंका जा रहा हो। सबसे बड़ा सवाल ठेला-पटरी व्यवसायियों की रोजी-रोटी का है जिन्हें सरकार रोजगार देने में बिलकुल असफल है लेकिन उजाड़ने में उसे जरा भी शर्म नहीं आती।