Tuesday, March 25, 2025
Tuesday, March 25, 2025




Basic Horizontal Scrolling



पूर्वांचल का चेहरा - पूर्वांचल की आवाज़

होमग्राउंड रिपोर्टवाराणसी : ऊ कलाकारी करके का करें, जिसके सहारे परिवार का पेट...

इधर बीच

ग्राउंड रिपोर्ट

वाराणसी : ऊ कलाकारी करके का करें, जिसके सहारे परिवार का पेट ही ना पले

बुनकरों का कहना है कि सरकार मंहगाई रोक ही नहीं पा रही है। इतनी मंहगाई है कि आदमी शौक को दबाकर चूल्हा-चक्की के फेर में उलझा हुआ है। बनारसी हैंडलूम की साड़ियाँ महँगी होती हैं। अब बनाने वालों की मजदूरी ही जब आठ-दस हजार चली जाएगी, तब खुद ही सोचिए कि साड़ियाँ बनकर जब बाजार में जाएगी तब कितने की पड़ेगी। बुनकरों का यह सवाल वाजिब है।

बनारस में मशीनों की खटर-पटर के बीच गुम होता जा रहा बुनकरों की ज़िंदगी का ‘संगीत’

वाराणसी। हम वाराणसी की एक ऐसी गली में हैं, जिसके काम का नाम तो देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में जाना जाता है और उसकी चमक दूर तक अपनी रंगत बिखेरती नजर आती है, लेकिन यहाँ इस चमक के नीचे एक अज़ाब भी पसरा दिखता है। यह अज़ाब जाने कब से इस गली की सीलन भरी दीवारों पर जमा है, इसका उत्तर शायद यही हो सकता है कि इसी अज़ाब की कोख से ही इन दीवारों का जन्म हुआ है। इन गलियों में जो लोग रहते हैं, उन्हें अब इन सबकी आदत हो गई है, किसी से शिकायत नहीं करते। हैंडलूम की ध्वनि के साथ दिनभर बोलती-बतियाती यह गली अपने दर्द की गिरहें शायद ही कभी खोलती हो।

हम जिस गली की बात कर रहे हैं, वह गली बजरडीहा के इम्तियाज़ नगर चौबड़वा की है। इस गली में वाराणसी के शान की नुमाइंदगी करने वाली बनारसी साड़ी बनती है। इस गली के ज़्यादातर घरों में साड़ी बनाने के करघे लगे हुए हैं। किसी घर में एक करघा है तो किसी घर में दस। ज्यादातर घरों में मैनुअल करघा यानी हैंडलूम ही है, पर अब्दुल्ला के यहाँ पावरलूम चल रही है। कई मशीनें हैं उनके यहाँ, जो पूरी रफ्तार के साथ चल रही हैं। मैनुअल और पावरलूम की लयबद्ध आवाज एक साथ मिलकर विशिष्ट सांगीतिक भाव रचने में लगे हुये हैं। यह सुखद लग रहा है। इस सुखद संगीत के माधुर्य और साड़ियों पर की जा रही बेहतरीन कारीगरी से मुग्ध हुये जब हम करघा चलाने वालों से बात करने पहुँचते हैं तो एक अलग दुनिया से मुखातिब होना पड़ता है।

नट्टू दद्दा (बांयें)

लगभग 60 साल से बुनाई के काम में लगे हुये नट्टू दद्दा से जब हम उनके करघे के संगीत और साड़ी पर बुनी गई उनकी कारीगरी की तारीफ करते हैं तो हाथ की नरी, जिसमें गोल्डेन धागा बंधा हुआ है, उसे एक तरफ रख देते हैं। करघा चलाता हुआ उनका पैर भी रुक जाता है। वह कुछ देर मेरी तरफ देखते हैं और फिर धीरे से कहते हैं, ‘थक गए हैं इस आवाज से, इन्हीं धागों को सजाते-संवारते हुये इसी आवाज के साथ उम्र निकल गई। 12-13 साल की उम्र से इसमें लगें हैं। बचपन, जवानी और अब बुढ़ापा सब करघे के साथ ही बीता। जाने कितनी साड़ियाँ मैंने बुनी होगी, अब तो यह भी ठीक से याद नहीं पर इतना जरूर जानता हूँ कि पूरी उम्र में कभी इतनी हिम्मत नहीं हुई कि अपने घर के लिए एक साड़ी खरीद पाता। हम साड़ी के बुनकर उतना भी नहीं कमा पाते, जितना दिहाड़ी मजदूर कमा लेते हैं।

फिर भी इसी काम में क्यों जिंदगी खपा दी? इस सवाल पर वह कहते हैं कि ‘यह काम हुनर का है, सीखा है हमने। जिस रेशमी धागे से साड़ी बुनते हैं, अब उसी धागे में मन भी बंध गया है। महीने भर बुन कर जब करघे से साड़ी उतरती है तब मन को सुकून मिलता है कि हमने कुछ किया है, यह हमारी बनाई हुई है। बाकी मजदूरी के काम में पता ही नहीं होता कि कब-क्या बिगाड़ना पड़ जाये पर इस काम में इतना तो तय है कि यहाँ बिगाड़ना कुछ नहीं है, बस बनाना ही बनाना है और एक बार जिसे बनाना आ जाता है, वह विध्वंस के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ता।’

इतना कहते हुये उनके पाँव फिर से लकड़ी के डंडे को हरकत देकर करघा चलाना शुरू कर देते हैं। उनसे बतियाना ऐसे लगता है कि किसी दार्शनिक से बात हो रही है। मोटे चश्में से ढंकी उनकी आँखों में उदासी और नाउम्मीदी की एक छाया भी दिखती है, पर अब वह अपने मन को और कुरेदना नहीं चाहते हैं। हम भी उनसे अब ज्यादा कुछ नहीं पूछना चाहते हैं। उम्र 75 के आस-पास होगी फिर भी करघों पर टिकी हुई ज़िंदगी को ढोते हुये, थक जाने के बावजूद करघे पर ही पाँव टिकाये हुए हैं तो यकीनन उनके सामने अभी भी एक कठिन जिंदगी है, जिसके खिलाफ उन्हें अभी ना जाने कितनी और साड़ियाँ बुननी पड़ेंगी। वह जानते हैं कि अब वह इस करघे को जितना चलाएँगे, शायद यह करघा भी उन्हें उतना ही चलाएगा। दोनों अब एक सह-अस्तित्व को स्वीकार कर चुके हैं।

मोबीन अकरम

उनके कारखाने में चार और करघों पर भी काम चल रहा है। पाँच पुरुष और दो बच्चे काम में लगे हुये हैं। हम उनसे कुछ और बात करते कि कारखाने के मालिक मोबीन अकरम आ गए। उनके पास इस कारखाने के अलावा और भी दूसरी जगहों पर कारखाने हैं, जहां उनका करघा चलता है। सारे मजदूर जहां लुंगी, बनियान में हैं, वहीं मोबीन अकरम बाकायदा लखनवी कुर्ता-पायजाम पहने हुये हैं। मिजाज से मिलनसार और हंसमुख स्वभाव के हैं। वह भी इस जीवन की सच्चाई को वैसे ही बताते हैं, जैसे साड़ी बुनने वाले बुनकर। वह बताते हैं कि ‘कारखाने का मालिक होना बाकी बिजनेस जैसा नहीं होता है, बल्कि अब यह बस किसी ठेकेदार की तरह का काम रह गया है। पहले बाजार में बड़ी मांग थी तब कमाई अच्छी हो जाती थी, पर अब बाजार में बनारसी साड़ी की पहले जैसी मांग नहीं रह गई है। ऊपर से सरकार ने जीएसटी लगाकर पूरे धंधे को तबाह कर दिया। इतने साल हो गए कारोबार करते हुये पर एकर उलटफेर समझ में औबै नै करत। बस इतना समझ मा आवत है कि अब सब कुछ बहुत मंहगा होय गवा है। अब जब सब कुछ हमका ही मंहगा मिलेगा तब हम सस्ता बेंच नहीं पाएंगे।’

वह कहते हैं कि ‘सरकार मंहगाई रोक ही नहीं पाय रही है। इतनी मंहगाई है कि आदमी शौक को दबाकर चूल्हा-चक्की के फेर में उलझा हुआ है। बनारसी हैंडलूम की साड़ियाँ महँगी होती हैं। अब बनाने वालों की मजदूरी ही जब आठ-दस हजार चली जाएगी, तब खुद ही सोचिए कि साड़ियाँ बनकर जब बाजार में जाएगी तब कितने की पड़ेगी। जरी, तार, सिल्क सब जीएसटी की वजह से महँगा हो गया है। अब केवल बहुत अमीर आदमी ही इसको खरीद सकता है। ऐसे में बाजार बहुत कम हो गया है, इतने कम में अब घर-परिवार चलाना मुश्किल होता जा रहा है।’ मोबीन बताते हैं कि जो साड़ी बीनने वाले कारीगर हैं, उन्हें मजदूरी दिहाड़ी के हिसाब से नहीं दी जाती है, बल्कि साड़ी के हिसाब से दी जाती है। साड़ी की डिजाइन के हिसाब से मजदूरी तय हो जाती है। कुछ कारीगर अकेले बुनाई करते हैं और घर की स्त्रियाँ नरी भरने जैसे कामों को कर देती हैं और कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपने साथ सहयोगी मजदूर भी रखते हैं। इन सहयोगियों की स्थिति और भी खराब है। पूरी साड़ी पर मिलने वाले पारिश्रिमिक की स्थिति के अनुरूप देखा जाय तो इनकी रोजाना की कमाई 200 रुपये भी नहीं हो पाती है और मुख्य कारीगर भी ज्यादा से ज्यादा 300 रुपये रोजाना के हिसाब से कमा पाते हैं।

मोबीन बताते हैं कि ‘हमें सरकार की ओर से भी कोई सुविधा नहीं मिलती है, बिजली भी हमें औद्योगिक दर पर मिलती है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी के आदेश से कुछ उम्मीद बंधी थी, पर कुछ हुआ नहीं। वह कहते हैं कि हम यह तो नहीं कहते हैं कि यह धंधा खत्म हो जाएगा पर पिछले दस सालों में इस धंधे में बड़ी गिरावट आ गई है। बहुत लोग काम छोड़ भी दिहे हैं। लोग क़हत हैं कि ऊ कलाकारी करके का करें, जिसके सहारे परिवार का पेट ही ना पले।’

मोबीन बताते हैं कि ‘हमारी बस्ती के ज़्यादातर लोग इस धंधे में ही लगे हैं और सब-के-सब मुसलमान हैं। मुसलमान को आज तमाम सरकारी जगहों पर ऐसे देखा जाता है जैसे वह दोयम दर्जे के नागरिक हों। दूसरी बस्ती की गलियों में रोज झाड़ू लगती है पर इस गली की हालत देख लीजिये, यहाँ कभी झाड़ू लगाने वाले नहीं आते और गंदगी जमा हो जाती है तब लोग-बाग कहते हैं कि मुसलमान हैं, इनको गंदगी करके रहना अच्छा लगता है। मोबिन आगे कहते हैं कि ‘किसी को गंदगी में रहना अच्छा नहीं लगता है बस हमे वह सुविधा ही नहीं मिलती है कि हम भी बेहतर जिंदगी जियें।’

मोबीन के पास बहुत सी बाते हैं। बुनकरी के इस धंधे में उन्होंने बुनाई से लेकर करघा मालिक बनने तक के बीच बहुत कुछ देखा है। जो समय चल रहा है उसे धंधे और सामाजिक भाईचारा दोनों के लिए वह अच्छा नहीं मानते हैं।

अनवर जमाल

बगल के ही घर में अनवर जमाल अपने करघे पर बुनाई करते हैं। करघा अपना होने की वजह से उन्हें मजदूरों से थोड़ा ज्यादा मुनाफा होता है। अनवर जमाल साड़ी बुनाई की वह सारी तकनीकी बातें हमें बताते हैं कि बुनाई कैसे होती है। डिजाइन का पत्ता कैसे बनता है, इस काम में महिलाओं की क्या हिस्सेदारी है, जैसी बहुत सारी बातें वह हमें बताते हैं। वह बताते हैं कि साड़ी बनाने की बुनकरी में महिलाएं नहीं हैं। बस नरी भरने का काम उनके हिस्से में जाता है। उनको इस काम की कोई अलग से मजदूरी नहीं मिलती है बल्कि वह एक तरह से अपने पति या परिवार के काम में सहायक की भूमिका निभाती हैं। कई बार कुछ लोगों के साथ घर के बच्चे भी बुनाई में मदद करते हैं। हम पूछते हैं कि बाल श्रम तो कानून गलत है तो अनवर बताते हैं कि ‘यहाँ कोई बाहर से मजदूरी के लिए बच्चों को नहीं लाता है बल्कि घर के बच्चे जब समय मिलता है तब बैठ जाते हैं। वह कहते हैं कि यहाँ लोग इसे केवल मजदूरी का काम नहीं मानते हैं बल्कि इसे हुनर, कौशल के रूप में भी देखते हैं और चाहते हैं कि कल को अगर कोई और काम-धंधा ना मिले तो कम से कम अपने हुनर से अपना पेट तो पाल लेंगे।’ अनवर बताते हैं कि ‘अब बनारसी साड़ी के कारोबार पर गुजरात की काली छाया पड़ गई है। वहाँ ओरिजनल काम नहीं है पर इस तरह की डुप्लीकेट डिजायन तैयार होती है कि जिसने बनारसी साड़ी की असली बुनाई और काम बारीक तौर पर ना देखा हो वह असली-नकली का फर्क ही नहीं कर पाएगा। वहाँ सारा काम पावरलूम पर चल रहा है और सिल्क भी हल्का है। बनारसी के नाम पर वहाँ बनने वाली साड़ी बाजार में 1500 रुपये में भी बेंची जा रही है। लोग उसको असली समझ कर खरीद लेते हैं पर बाद में उस खराब सिल्क की साड़ी को ही असली बनारसी साड़ी समझकर बनारसी साड़ी की तौहीन करते हैं। सूरत में आज बनारसी साड़ी के साड़ी के नाम पर रोज हजारों साड़ियाँ बन रही हैं और बनारस बदहाल है।’

अहमद हसन अंसारी

बुनाई करने वाले अहमद हसन अंसारी पिछले तीस साल से साड़ी बुनने के काम में लगे हैं। वह इस बात से दुखी हैं कि इसके सिवा और कुछ करने का कभी सोचा ही नहीं। शुरू-शुरू में लगता था कि आज भले ही कम है, पर आगे चलकर हमारी जिंदगी भी इस काम से संवर जाएगी पर यहाँ धीरे-धीरे सब उल्टा होता चला जा रहा है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर अब काम तो बदल नहीं सकते हैं पर अब कुछ रह नहीं गया है इस काम में। एक साड़ी बुन रहे हैं इसका 8 हजार रूपया मिलेगा और बुनने में कम से कम 25-26 दिन लग जाएगा। वह कहते हैं ‘ऐसा भी नहीं की इसमें बस मैं ही लगा हूँ, एक तरह से यह समझिए की भले ही अभी करघे पर मैं अकेले बुन रहा हूँ पर इस साड़ी को बुनने में मेरा पूरा परिवार किसी न किसी रूप में लगा रहता है। एक तरह से पूरा परिवार मिलकर 25-26 दिन में 8000 रुपये कमाएंगे। इतने कम में परिवार की गुजर-बसर करना बहुत कठिन काम है। अब जैसे-तैसे हम तो निकाल रहे हैं पर बच्चों को इससे दूर रखेंगे।’ वह कहते हैं कि ‘बनारसी साड़ी बनारस की पहचान है। सरकार की मदद के बिना यह काम बहुत दिन नहीं चलेगा। पुरानी पीढ़ी के लोग जितने कम पैसे में बुनाई कर रहे हैं वह आने वाली पीढ़ी के लिए संभव ही नहीं है।’

इस बस्ती के ज़्यादातर घरों में करघा लगा हुआ है और उस पर बुनाई भी चल रही है पर बुनकरों की जिंदगी में आज भी बनारसी साड़ी की रंगत कोई चमक नहीं ला सकी। अहमद हसन के मुताबिक बिचौलिये और ट्रेडर्स मुनाफा कमा रहे हैं। बनारसी साड़ी का लाभ उन्हीं के हिस्से में जा रहा है। हम बुनकर तो बस किसी तरह से करघे के सहारे जिंदगी काट रहे हैं। सरकार की तरफ से बस विकास-विकास सुनाई देता है पर हमारी जिंदगी में कहीं कुछ बदलता ही नहीं। बस सुनते रहते है कि अब यह हो जाएगा वह हो जाएगा, लोकल वोकल हो जाएगा, जिसका जो हुआ हो पर हमारा तो कुछ हुआ नहीं।

तभी बगल में खड़े एक सज्जन बोलते हुये आगे बढ़ जाते हैं कि ‘जिस गली में चाँद और सूरज नहीं आते उस गल्ली में भला विकास कहाँ से आएगा। मुसलमान होकर उम्मीद पाले हो गजब आदमी हो भाई।’ इतना कहते हुये वह सज्जन निकल जाते हैं। हम उन्हें रोकना चाहते हैं पर वह कहते हैं कि ‘मुसलमानों की हालत किसी से छुपी तो है नहीं कि हम कुछ और बताएं और कुछ बताने से होगा भी क्या? हम बुनकर नहीं है इन लोगों से बात कीजिये।’ इतना कहते हुये वह सज्जन आगे बढ़ जाते हैं।

कुछ लोग उन पर टिप्पणी भी करते हैं। फिलहाल यह एक बानगी है बुनकर जीवन की। जाते हुये आदमी की बात ठीक लग रही है। इस बस्ती की तीन फुट चौड़ी गलियों में वाकई न सूरज आता है और न चाँद आता है। सरकार भी यहाँ की सीलन भरी दीवारों पर किसी उम्मीद का कोई सूरज नहीं उगाती है। बुनकरों के लिए श्रम कानून लागू होने की कोई स्थिति भी फिलहाल नजर नहीं आती है। हथकरघा कामगारों के लिए शुरू की गई बुनकर मित्र योजना भी फिलहाल अर्थहीन साबित हुई है। इस गली से जुड़ने वाली गलियाँ बहुत सारी हैं पर इन गलियों के पास अभी अपना कोई कारीडोर नहीं है जहां से वे विकास का रास्ता तय कर सकें। इन संकरी गलियों के दिन अभी छोटे हैं और रातें लंबी।

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here