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ग्राउंड रिपोर्ट

अमित शाह के बिहार दौरे के सियासी निहितार्थ, क्या यूँ ही खुल गए नीतीश के लिए भाजपा के दरवाजे?

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का बीते 17 महीने में बिहार का नौवां दौरा है। आने वाले चुनावों को ध्यान में रखते हुए  भाजपा हमेशा की तरह ही सीरियस और पेशेवर रवैया रखती दिखाई दे रही है। 

देश में कभी भी आचार संहिता लागू हो सकती है। चुनाव आयुक्त ‘अरुण गोयल’ ने अचानक से इस्तीफ़ा दे दिया। प्रधानमंत्री ताबड़तोड़ चुनावी सभाएं कर रहे हैं। प्रधानमंत्री तो जहां जा रहे वहां हजारों-हजार करोड़ की योजनाओं की घोषणा भी कर रहे।

वहीं केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी पीछे नहीं। बीते 17 महीने में वे नौवीं बार बिहार के दौरे पर थे। पटना जिले के पालीगंज में  पिछड़ा-अति पिछड़ा सम्मेलन था लेकिन निशाने पर रही लालू प्रसाद एंड फ़ैमिली।

ज़ाहिर है, भाजपा के लिए बिहार दुखती रग है। जहां वे तमाम कोशिशों के बावजूद अकेले दम पर सत्ता में नहीं आ सके हैं। बिहार में विपक्ष किन्ही और राज्यों की तुलना में अपेक्षाकृत सतर्क और तैयार भी नजर आ रही है।

जहां विपक्ष ने नौकरी-रोजगार के सवाल पर एजेंडा सेट किया है, वहीं मोदी-शाह दोनों को बिहार में युवाओं पर बात करने के लिए मजबूर किया है। जैसे ही नीतीश ने पाला बदला विपक्ष वैसे ही सड़कों पर उतर आया और फिर विपक्ष की ‘गांधी मैदान’ में हुई रैली ने उसे एक मोमेंटम तो ज़रूर दे दिया है। जहां मामला नियुक्ति पत्र के वितरण और श्रेय लेने से आगे चला गया है।

हाल के दिनों तक जहां तमाम राजनीतिक विश्लेषक चुनाव में एक तरह की नीरसता पा रहे थे, वे भी कहने लगे हैं कि ‘नौकरी-रोजगार’ के माध्यम से मोदी सरकार को घेरा जा सकता है और भाजपा सांसद जगह-जगह घेरे भी जाने लगे हैं।

हिन्दी पट्टी में चुनाव दिलचस्प होने के आसार नज़र आने लगे हैं। भले ही पीएम मोदी और गृह मंत्री राम लला के प्राण प्रतिष्ठा की कितनी भी दुहाई क्यों न देते रहें बिहार की राजनीति के केंद्र में युवा और बेरोजगारी आ चुके हैं।

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बीते रोज़, 9 मार्च को जब अमित शाह फिर से बिहार के दौरे पर थे, तो वे ऐसे इलाक़े (पालीगंज) में सभा कर रहे थे जहां से भाजपा और जदयू (एनडीए) का बीते विधानसभा चुनाव में लगभग सफ़ाया हो गया था। शाहाबाद की इक्का-दुक्का सीटों बड़हरा और आरा को छोड़ दें तो मगध के इलाक़े में पटना तक एनडीए सारी सीटें हार गई, और ऐसे में भाजपा का नेतृत्व कोई रिस्क नहीं लेना चाहता। आखिर इस बात से कौन इनकार करेगा कि चुनाव को लेकर भाजपा हमेशा से सीरियस और पेशेवर रवैया रखती है।

इस बात को पुख़्ता तौर पर इसलिए भी कहा जा सकता है क्योंकि अमित शाह ने पिछली बार अपने बिहार के दौरे पर भाजपा कार्यकर्ताओं को आश्वस्त करने हेतु कहा था कि सीएम नीतीश कुमार के लिए एनडीए और भाजपा के दरवाज़े बंद हैं। भाजपा अब अकेले दम पर संघर्ष करेगी और अपना सीएम बनाएगी लेकिन तमाम समझौते करते हुए इस बीच न सिर्फ़ नीतीश कुमार को फिर से एनडीए में शामिल करा लिया गया बल्कि फिर से सीएम भी मान लिया।

ज़ाहिर तौर पर देश भर में और विशेष तौर पर बिहार में हो रही इन सभाओं की टाइमिंग और प्लेसमेंट के भी गहरे राजनतिक निहितार्थ हैं। बीते  रोज़ 9 मार्च को जब अमित शाह सभा को संबोधित कर रहे थे तो वे अपने कार्यकाल की उपलब्धियों को गिनाने के बजाय इस बात पर ज़ोर देते अधिक दिखे कि कैसे उनकी सरकार यदि फिर से आई तो ज़मीन माफियाओं को नहीं बख्शा जाएगा, और बिहार को रसातल में ले जाने के लिए लालू एंड फ़ैमिली ज़िम्मेदार है।

हालाँकि वे यह बताना भूल गए कि अभी केंद्र से लेकर राज्य में किसकी सरकार है? और भू-माफियाओं का मनोबल क्योंकर बढ़ा हुआ है? अंत में यही कहना है कि सभी को अब इस बात का इंतज़ार है कि आचार संहिता कब लागू होती है लेकिन एक बात तो तय है कि हाल के दिनों तक बहुतों को नीरस लगने वाले चुनाव में तरह-तरह के रंग तो ज़रूर दिखने लगे हैं और मोदी-शाह दोनों के लिए यह चुनाव शायद ही वैसा हो जैसा पिछला आम चुनाव रहा था।

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अमित शाह के बिहार दौरे और रैली में भाषा और भाव-भंगिमा पर भाजपा को लंबे समय से कवर करने वाले पत्रकार रंजीत सिंह कहते हैं, ‘अमित शाह इस बार बिहार की बदली परिस्थितियों के बीच आए हैं। वे तो चाहते थे कि नीतीश को साथ न लाया जाए लेकिन यह फ़ैसला पीएम मोदी का था। रही बात लालू प्रसाद पर हमलावर रहने की तो यह तो उनकी स्ट्रैटजी हमेशा से ही रही है।’

रंजीत सिंह आगे कहते हैं, ‘वे ग़ैर यादव पिछड़ा और अति पिछड़ा को संदेश देना चाहते थे कि ज़मीन पर कौन क़ब्ज़ा कर रहा है। लालू प्रसाद का वोट भी दरक नहीं रहा, हर चुनाव में वे (लालू प्रसाद) 1 करोड़ 20 लाख के क़रीब वोट मिल रहे। वहीं इस बीच तेजस्वी का उभार हो रहा है। तो अमित शाह का भाषण तो उनकी लाइन पर ही था और भाजपा की सीधी लड़ाई भी लालू प्रसाद से ही है। नीतीश अब गौण हो चुके हैं।’

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