मेरी चिंताएं दूसरी हैं। एक तो यह कि जो तथाकथित अग्निवीर होंगे, जिनके दिमाग में यह बात रहेगी कि वे केवल चार साल के लिए ही सैनिक हैं, तो क्या वे उतने ही प्रतिबद्ध होंगे, जितने कि नियमित सैनिक? यदि नहीं हुए तो क्या इसका असर देश की सुरक्षा पर नहीं पड़ेगा? दूसरी चिंता यह है कि आज ऊंची जातियों के लोग, जिनके पास धन-संपदा है, वे अपने बच्चों को सेना की नौकरी में नहीं भेजना चाहते हैं। यदि भेजते भी हैं तो वे उच्च पदों को ध्यान में रखकर। रंगरूट यानी मुख्य मोर्चे पर लड़नेवाले सैनिकों में अधिकांश दलित-पिछड़े ही होते हैं।

जब देश को एक कंपनी हुकूमत ने मान ही लिया है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो यह भी कह चुके हैं कि व्यापार उनके खून में है तो कोई क्या कह सकता है? मैं तो इस देश के बारे में सोच रहा हूं और लोकतंत्र के बारे में।