सियासत की कोई एक परिभाषा लगभग नामुमकिन है। अक्सर हमें यह लगता है कि सियासत का मतलब केवल और केवल राज करना होता है, लेकिन यह केवल इतना भर नहीं होता। बाजदफा तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए शासक भी गजब की सियासत करते हैं। एक उदाहरण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं।
घटना कल की है। कल पीएम ने नये संसद भवन परिसर में ‘सिंह स्तंभ’ का अनावरण किया। यह स्तंभ करीब सात मीटर ऊंचा है। इस मौके पर हालांकि लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला भी मौजूद रहे। लेकिन उनकी उपस्थिति आज के अखबारों में प्रकाशित तस्वीरों में नहीं है। मजे की बात यह है कि इस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्राह्मण रीति-रिवाज से आयोजित एक पूजा में भी भाग लिया।
इससे भी अधिक दिलचस्प दो और बातें हुईं। पीएम ने मजदूरों को संबोधित किया। संसद भवन के नये परिसर के निर्माण के औचित्य को सही ठहराने के लिए उन्होंने मजदूरों से यह सवाल पूछा कि वे केवल एक अधिसंरचना बना रहे हैं या इतिहास बना रहे हैं। मजदूरों ने कहने में कोई देरी नहीं की कि वे इतिहास बना रहे हैं।
[bs-quote quote=”पहली बात तो यही कि कार्यपालिका ने विधायिका के अधिकारों का हनन किया। पीएम कार्यपालिका के प्रमुख होते हैं। जबकि विधायिका के प्रमुख लोकसभा अध्यक्ष। कल राष्ट्रीय प्रतीक के अनावरण का अधिकार ओम बिरला को था। लेकिन अपने आचरण से उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे लोकसभा अध्यक्ष से अधिक नरेंद्र मोदी के मोहरे हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”#1e73be” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दूसरी दिलचस्प बात यह रही कि एक मजदूर ने (जिसे संभवतः पहले से प्रशिक्षण दिया गया था) कहा कि आज ऐसा लग रहा है कि भगवान राम शबरी के घर पधारे हैं। इस पर नरेंद्र मोदी ने उस मजदूर की तारीफ भी की।
अब इस पूरे मामले को देखें तो अनेक बातें नजर आएंगीं। पहली बात तो यही कि कार्यपालिका ने विधायिका के अधिकारों का हनन किया। पीएम कार्यपालिका के प्रमुख होते हैं। जबकि विधायिका के प्रमुख लोकसभा अध्यक्ष। कल राष्ट्रीय प्रतीक के अनावरण का अधिकार ओम बिरला को था। लेकिन अपने आचरण से उन्होंने यह साबित कर दिया कि वे लोकसभा अध्यक्ष से अधिक नरेंद्र मोदी के मोहरे हैं।
मेेरी चिंता इस बात को लेकर है कि नरेंद्र मोदी संवैधानिक संस्थाओं को एक-एक कर ध्वस्त कर रहे हैं और यह पूरा देश खामोश है। जो काम लोकसभा अध्यक्ष को करना चाहिए, वह कोई और कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में सेवानिवृत्त होने के बाद भी पद की लालसा बनी रहती है। न्यायपालिका सरकार के सामने बेबस दिखाई देती है।
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वर्ष 2017 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक अधिकारों से लैस किया। फिर भगवानलाल साहनी की अध्यक्षता में आयोग का पुनर्गठन भी किया। लेकिन अब यह आयोग खाली पड़ा है। इसी वर्ष फरवरी में आयोग के सदस्यों का कार्यकाल समाप्त हो गया। कायदे से सरकार को इसका पुनर्गठन कर देना चाहिए था। लेकिन सरकार ने नहीं किया है। वह शायद 2024 के पहले करे। ओबीसी के लोगों को झांसा देने के लिए यह निश्चित रूप से बेहतर समय होगा।
लेकिन मेेरी चिंता यही है कि सरकार स्वयं ही संवैधानिक संस्थाओं को महत्वहीन बनाती जा रही है। ऐसे में वह यह नहीं सोच रही है कि इसका समाज पर क्या असर पड़ेगा। आज यह खबर लगभग सभी अखबारों में है कि अगले तीन सालों में भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाएगी। रोजगार का संकट बढ़ेगा ही। ऐसी स्थिति में यदि सरकार संवैधानिक संस्थाओं को ही ध्वस्त कर देगी तो नीतियां और योजनाएं कैसे बनाई जाएंगी। संसद तो आज ही तमाम सवालों पर मुंह बाए खड़ी है। यह बात ओम बिरला से अधिक कौन जान सकता है भला!
नवल किशोर कुमार फ़ॉरवर्ड प्रेस में संपादक हैं।