राजनीति की बिसात पर शह-मात का खेल पूरा हो चुका है। कुछ राजनीतिक दल अपनी सत्ता बचाने में कामयाब हुये तो कुछ को सत्ता गंवानी पड़ी। कहीं किसी की चाल कामयाब हुई तो कहीं किसी की चाल को मात मिली। फिलहाल पाँच राज्यों में हुये विधानसभा चुनाव के नतीजे अब आ चुके हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है तो तेलंगाना में कांग्रेस सत्ता में पहुँचने में कामयाब हुई है जबकि चार राज्यों से एक दिन बाद हुई मिजोरम की मतगणना में जोरम पीपुल्स फ्रंट को पूर्ण बहुमत मिला है।
भाजपा जहां मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बचाने में कामयाब रही है वहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ की सत्ता से कांग्रेस को बेदखल कर सत्ता हासिल भी की है। इस चुनाव से विपक्ष के वह मंसूबे भी कहीं ना कहीं कमजोर होते दिख रहे हैं, जिसके बल पर वह संसदीय चुनाव-2024 में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने की उम्मीद कर रहा था। खास तौर पर हिन्दी पट्टी से कांग्रेस को गहर धक्का लगा है।
राजस्थान की अंतर्कलह ने भाजपा को सौंपी सत्ता की बागडोर
राजस्थान की कुल 199 सीटों में से 115 सीटें भाजपा ने जीत कर बहुमत का आंकड़ा 101 को बखूबी पार कर लिया है। भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव से 42 सींटें ज्यादा जीती हैं। जबकि कांग्रेस 69 सींटों पर सिमट गई। वहीं बहुजन समाज पार्टी ने भी दो सीटों पर जीत दर्ज की है। इस चुनाव में भाजपा की जीत और कांग्रेस की हार के अलग-अलग विश्लेषण भी सामने आ रहे हैं। एक तरफ कांग्रेस की भारी-भरकम हार के लिए अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लड़ाई को जिम्मेदार माना जा रहा है तो दूसरी ओर इसे भाजपा के हिन्दुत्व कार्ड की जीत के रूप में भी देखा जा रहा है। इस सब के साथ सबसे जरूरी बात जो दिखती है वह साफ तौर पर यह है कि अशोक गहलोत मुख्यमंत्री पद पर जिस आत्ममुग्धता के साथ विराजमान थे वहाँ से उन्हें अपनी घोषित योजनाएँ तो साफ और सुंदरता के साथ दिखती रही पर उनकी जमीनी सच्चाई की तहकीकात करने का उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। राजस्थान में अपराध पर लगाम लगाने में भी कांग्रेस की नाकामी को भाजपा ने बड़े मुद्दे के रूप में उछाला। कांग्रेस की तमाम महत्वाकांक्षी योजनाओं को सुरक्षा का हवाला देकर भाजपा ने बेअसर कर दिया। कांग्रेस भाजपा के मुद्दे का कोई काउंटर सामने नहीं ला पाई। राहुल गांधी ने भी चुनाव के शुरुआती दौर में राजस्थान पर फोकस नहीं किया। इसके साथ कांग्रेस की केंद्रीय इकाई ने भी राज्य में पार्टी के भीतर चल रहे अंतर्कलह को खत्म कराने में भी रुचि नहीं दिखाई, जिसका प्रभाव यह हुआ कि पार्टी अलग-अलग धड़ों के रूप में चुनाव लड़ती रही। जबकि कांग्रेस के पास कर्नाटक चुनाव जीतने का एक मॉडल पहले से था। हाल के कुछ सालों में कर्नाटक एक मात्र ऐसा राज्य रहा, जहां कांग्रेस ने भाजपा को सही तरीके से जवाब दिया था और उसी चुनाव ने विपक्ष के भीतर यह उम्मीद भी पैदा की थी कि नरेंद्र मोदी का मुक़ाबला किया जा सकता है पर अपने ही मॉडल को चार महीने बाद के चुनावों में न लागू कर पाना कांग्रेस की बड़ी विफलता रही।
दूसरी ओर कर्नाटक चुनाव के बाद कांग्रेस कहीं न कहीं अति आत्मविश्वास का शिकार भी हुई। जिसकी वजह से लोकसभा में भाजपा को सत्ता से बेदखल करने के लिए किये जा रहे प्रयास के तहत बने इंडिया गठबंधन से भी दूरी बना ली। जिसकी वजह से भाजपा के सामने कांग्रेस स्वतः ही बहुत कमजोर स्थिति में पहुँच गई। इसके पीछे कहीं न कहीं कांग्रेस का यह भी प्रयास था कि वह यह चाहती थी कि इस विधानसभा चुनाव में वह अपने दम पर बड़ी जीत हासिल करके गठबंधन में शामिल हो रही दूसरी पार्टियों पर दबाव बनाने में कामयाब होगी। पर अब कांग्रेस का यह दांव उल्टा पड़ चुका है और इंडिया गठबंधन में भी उसकी राह कहीं न कहीं कठिन हो चुकी है।
यह भी पढ़ें –
राजस्थान चुनाव 2023 : नहीं बदली परम्परा, पाँच साल बाद भाजपा की सत्ता में वापसी
मध्य प्रदेश में कांग्रेस की हार और भाजपा की जीत के मायने
मध्य प्रदेश विधानसभा की 230 सींटों में से 163 सींटे जीतकर भाजपा ने कांग्रेस के सत्ता तक पहुँचने के सपने को बिखेर दिया है। कांग्रेस को इस चुनाव में सिर्फ 66 सीटें हासिल हुई हैं। यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि भाजपा के अभियान के सामने कांग्रेस पूरी तरह हवा में उड़ गई। कमलनाथ को पूरी उम्मीद थी कि इस बार वह मध्य प्रदेश में कमल को कुम्हलाने पर मजबूर कर देंगे। अहंकार इतना ज्यादा था कि वह मध्य प्रदेश के इकलौते पोस्टर पॉलीटीशियन होना चाहते थे, उनका बस चलता तो वह राहुल गांधी को भी इस चुनाव में सामने नहीं आने देते। सही तौर पर देखा जाय तो मध्य प्रदेश कांग्रेस ने राहुल को इस चुनाव में मजबूत तरीके से ना तो शामिल होने दिया न ही उनके वैचारिक आग्रह को चुनाव में आगे बढ़ाया। राहुल गांधी इस चुनाव में जातीय जनगणना के नए नायक बनने का प्रयास कर रहे थे। उनकी ही पार्टी ने इस मुद्दे को कमजोर बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी।
यह कहना गलत नहीं होगा कि अपने सबसे बड़े नेता के मुश्किल से अर्जित प्रयासों की मध्य प्रदेश कांग्रेस ने निर्मम हत्या कर दी। कर्नाटक चुनाव में तारणहार बना पीडीए फार्मूला भी कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में नहीं आजमाया बल्कि पिछड़ी जाति के बड़े नेता और उत्तर प्रदेश के बड़े राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को गठबंधन के नाम पर जिस तरह पहले गुमराह किया और बाद में अखिलेश यादव को लेकर मीडिया द्वारा पूछे गए सवाल पर कमल नाथ ने यह बयान दिया कि ‘अरे छोड़िए अखिलेश-वखिलेश को’ ने पिछड़ी जाति को लेकर कमलनाथ के नकारात्मक चेहरे को राज्य की जनता के सामने ला दिया। जिस पिछड़ी जाति के दम पर राहुल गांधी कांग्रेस की नैया पार लगाना चाहते थे उसी नाव को उनके सामने ही कमलनाथ ने डुबो दिया। ज्योतिरदित्य सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने से कांग्रेस का उतना नुकसान मध्य प्रदेश में नहीं हुआ जितना नुकसान कमलनाथ के रहने से हुआ है।
यह भी पढ़ें –
काँग्रेस को सोचना पड़ेगा कि लड़ने के मौके पर आरामतलबी खतरनाक होती है
छत्तीसगढ़ में सारे दावे ध्वस्त कर भाजपा ने कांग्रेस से सत्ता छीन ली
पिछले पाँच साल से भूपेश बघेल ने जिस तरह से छतीसगढ़ की राजनीति को ज्यादा मानवीय, संवेदनशील और जिम्मेदार चेहरा बनाया था, उससे यह स्वीकार करना आसान नहीं लग रहा था कि छत्तीसगढ़ की सत्ता से कांग्रेस बेदखल होगी पर कई बार राजनीति के चक्रवात बिना बवंडर के भी चलते हैं। कुछ ऐसा ही चक्रवात छत्तीसगढ़ में भी सामने आया।
बाहरी तौर पर छत्तीसगढ़ कांग्रेस में सब कुछ भले ही शांत दिखता रहा पर आंतरिक तौर पर छत्तीसगढ़ कांग्रेस की कलह भाजपा को लाभ पहुंचाने का माध्यम बनती गई। कांग्रेस ने यहाँ भी किसी राष्ट्रीय पार्टी की तरह चुनाव नहीं लड़ा बल्कि भाजपा के बड़े प्रयास के सामने वह किसी क्षेत्रीय पार्टी की तरह चुनाव लड़ती रही। भाजपा ने 90 विधानसभा चुनाव वाले राज्य में 54 सीटें जीतकर यह दिखा दिया कि जब अपना कुछ भी न हो तब भी विरोधी पार्टी की ताकत के सामने भी उसके कमजोर पक्षों पर लगातार हमला करके उसे हराया जा सकता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को भाजपा से सीखना होगा कि चुनाव कैसे लड़ा जाता है। भाजपा की केंद्रीय इकाई और राज्य इकाई एक दूसरे से अलग-थलग रहकर भाजपा को पराजित नहीं कर सकती हैं।
यह भी पढ़ें –
तेलंगाना में मोदी की आक्रामकता ने कांग्रेस की राह आसान की
तेलंगाना राज्य बनने के बाद से ही के चंद्र शेखर राव तेलंगाना के मुख्यमंत्री बने हुये थे और उम्मीद थी कि अगले पाँच वर्ष भी तेलंगाना की जनता उन्हें ही अपना मुख्यमंत्री चुनेगी पर इस बार कांग्रेस ने उनकी उम्मीदों को धराशाई कर दिया है। 119 सीटों वाले राज्य में कांग्रेस ने 64 सीटें जीत ली जबकि केसीआर की पार्टी बीआरएस को सिर्फ 39 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। भाजपा ने भी बड़ी बढ़त लेते हुये 8 सीटें हासिल की। पिछले चुनाव में भाजपा के हिस्से में केवल एक ही सीट थी।
तेलंगाना में कांग्रेस भले ही सत्ता की देहरी तक पहुँच गई है पर इसमें कांग्रेस की जीत से ज्यादा केसीआर की हार महत्वपूर्ण है। एंटी इंकमबेनसी की वजह से जनता बदलाव का मूड बना चुकी थी जिसका फायदा कांग्रेस और भजपा दोनों को हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से केसीआर पर हमले किए उससे केसीआर का ग्राफ जनता के मन में गिर गया पर इसका फायदा भाजपा के बजाय तेलंगाना की दूसरी सबसे ताकतवर पार्टी कांग्रेस के हिस्से में गया। शेष राज्यों की तरह यहाँ कांग्रेस ज्यादा संगठित रूप से चुनाव में गई उसका फायदा भी कांग्रेस को मिला और यह एक मात्र खुश होने की वजह भी बना।
मिजोरम चुनाव एक नई शुरुआत
एक नई पार्टी जो पहली ही बार विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरी थी उसने सत्ताधारी पार्टी से सत्ता छीनने में कामयाबी हासिल की है। 40 सीटों वाले इस राज्य में जोरम पीपुल्स मूवमेंट ने 27 सीटें जीतकर मिज़ो नेशनल फ्रंट को सत्ता से बाहर कर दिया। MNF अपनी जीती हुई 17 सीटें गंवाकर सिर्फ 10 सीटों पर सिमट गई।
यह राज्य भले ही छोटा सा है पर इसने अपने निजी मुद्दों के सामने किसी भी राष्ट्रीय पार्टी को अपनी सीमा में मजबूती से प्रवेश करने का मौका नहीं दिया। बावजूद भाजपा और कांग्रेस ने राजनीतिक सेंध लगाते हुये क्रमशः 2 और 1 सीटें अपनी छोली में डालने की सफल हुईं। यह राज्य अन्य राज्यों के लिए एक नजीर पेश करने में कामयाब हुआ है कि स्थानीय चुनाव स्थानीय मुद्दों की गरिमा के भीतर ही लड़े जाने होंगे।
फिलहाल पाँच राज्यों के चुनाव ने विपक्ष के साझे सपने के सामने एक बड़ी दीवार खड़ी कर दी है। इस दीवार को बिना तोड़े 2024 के लोकसभा चुनाव में वह केंद्र में सत्तारूढ एनडीए गठबंधन और भाजपा का मुक़ाबला नहीं कर सकते हैं। इस चुनाव ने कांग्रेस के उस सपने को भी गंभीर क्षति पहुंचाई है जिसके तहत वह विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करना चाहती थी। कांग्रेस की इस हार का प्रभाव इंडिया गठबंधन के हितों पर भी देखने को मिलेगा।