Friday, March 29, 2024
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पर्व, त्यौहार, ख़ुशी, हर जगह बाज़ारवाद तलाशना और फिर दूसरे के विरुद्ध बाज़ारवाद की बहस खड़ा कर बाज़ारवाद के विरुद्ध दार्शनिक अंदाज़ अख़्तियार करके आपस में लड़ने-कटने पर उतारू हो जाना उसी तरह फ़ैशन हो गया है जैसे पिछले दिनों साम्प्रदायिकता पर बहस के बहाने अपनी प्रगतिशीलता चमकाना । हम स्वयं बाज़ार के क़रीब जा […]

पर्व, त्यौहार, ख़ुशी, हर जगह बाज़ारवाद तलाशना और फिर दूसरे के विरुद्ध बाज़ारवाद की बहस खड़ा कर बाज़ारवाद के विरुद्ध दार्शनिक अंदाज़ अख़्तियार करके आपस में लड़ने-कटने पर उतारू हो जाना उसी तरह फ़ैशन हो गया है जैसे पिछले दिनों साम्प्रदायिकता पर बहस के बहाने अपनी प्रगतिशीलता चमकाना ।

हम स्वयं बाज़ार के क़रीब जा रहे हैं, उसे अपने जीवन में जगह दे रहे हैं, उससे अधिकतम लाभ लेना चाह रहे हैं और ऊपर से बाज़ारवाद का रोना रो रहे हैं।

घर बनाना हो या ख़रीदना हो तो वहीं ही जहां से बाज़ार नज़दीक हो। मुहल्ला या कालोनी वही अच्छी जहां दरिए प्रोवीजनल स्टोर हो।  यात्रा-आरक्षण  नहीं तो बेसी पैसा देकर तत्काल-यात्रा। किताब छपाई जेब से देकर दिल्ली के प्रकाशक का बैनर ख़रीदना। दुनिया के वे सारे रास्ते जो हमें आगे बढ़ाने और सुविधा प्रदान या लोगों के बीच  हमारी हैसियत में इज़ाफ़ा करने में फ़ायदेमंद हों, हम अख़्तियार करना या उन्हें ख़रीद लेना चाहते हैं और उसके लिए वे सारे उपक्रम करते हैं जो हमें बेहतर ख़रीदार बना सके। चाहे शिक्षा हो या स्वास्थ्य, हम बाज़ार से सहर्ष (कहीं-कहीं दबावन भी) समझौता करते हैं पर बाज़ारवाद को कोसना बंद नहीं करते।

हम धर्म,  परम्परा, पर्व, आस्था सब में बाज़ारवाद तलाश लेते हैं और शादी में मंत्र पढ़वा कर नैतिक बन जाते हैं। पियरी पहन कर कन्यादान करते हैं और अम्मा बाऊजी की अंतिम बिदाई बाक़यदा बाज़ार से टेंट कनात कैटरर बुलवाकर मूड़ मुड़वा कर तीन दिनिया संस्कार के साथ तेरही भी करते हैं कि कहीं पुरखा बिचवे में लटके अमुक्त न रह जाएं। कउन ठिकाना पोथी पत्रा का। गांव टोला समाज का मुंह ज़रूर देखते हैं अपनी बेरी कि टेढ़ा न रह जाए। रोज़ रोज़ थोड़े न मरी महतारी।

कौन से ब्राह्मण ने आपका अपहरण करके आपसे यह सब कराया है पार्टनर और कौन सा बाज़ारवाद आपको सिद्धांतच्युत कर रहा है ?

[bs-quote quote=”घर बनाना हो या ख़रीदना हो तो वहीं ही जहां से बाज़ार नज़दीक हो। मुहल्ला या कालोनी वही अच्छी जहां दरिए प्रोवीजनल स्टोर हो।  यात्रा-आरक्षण  नहीं तो बेसी पैसा देकर तत्काल-यात्रा। किताब छपाई जेब से देकर दिल्ली के प्रकाशक का बैनर ख़रीदना। दुनिया के वे सारे रास्ते जो हमें आगे बढ़ाने और सुविधा प्रदान या लोगों के बीच  हमारी हैसियत में इज़ाफ़ा करने में फ़ायदेमंद हों, हम अख़्तियार करना या उन्हें ख़रीद लेना चाहते हैं और उसके लिए वे सारे उपक्रम करते हैं जो हमें बेहतर ख़रीदार बना सके।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]

मगर 9 लोग 91 के पर्व त्यौहार को लेकर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित ज़रूर करेंगे ताकि उन नौ की विशिष्टता और प्रगतिशीलता अक्षत रहे।

जनता से कट कर आप जनता के हो ही नहीं सकते। जनता को बदलना है तो पहले उनका विश्वास जीतिए। उन्हें लगे कि आप उनके हैं। खुरपेंची नही। मार्क्सवाद के लिए गांधीवाद इन्हीं अर्थों में ज़रूरी है।

बौद्धिक अहमन्यता इस हद तक बढ़ चुकी है कि हम विपरीत विचार आवें उसके पहले ही लिख देते हैं  ‘कृपया …. इस पर टिप्पणी न करें।’

फिर भी हम बढ़ती जा रही संवादहीनता और बाज़ारवाद को लेकर बहुत बेचैन रहते हैं।

सत्तर साल में हम कहां से कहां आ गए ?, क्यों आ गए ?, इसकी फ़िक्र हमें नहीं। हम छिटकावन पसंद बुद्धिजीवी हैं। ईश्वर हमारी मदद करे यह कहना हमारी प्रगतिशील छवि में धब्बा लगा सकता है इसीलिए हम आमीन कहते हैं। हमें पता है कि नमाज़ी होकर प्रगतिशील हुआ जा सकता है, टीका लगा कर नहीं। छठ का दउरा कपार पर उठा कर नहीं। उसी तरह की हिंसा जो अहिंसा के नाम पर होती रही। फिलहाल हम लक्ष्मी जी को अपने घर बुलाने के लिए आपदा को अवसर बनाए लोगों के पास अपनी लेई पूंजी गिरवी रख रहे हैं।

हमें यह शेर याद है :

बाज़ार से गुज़रा हूं ख़रीदार नहीं हूं 

मगर हमें यह भी पता है कि ज़िंदगी शायरी नहीं होती। इसलिए हम शायरी का सच ज़िंदगी में नहीं उतारते। बाज़ार से ज़रूर गुज़रते हैं और बाक़ायदा ख़रीदार बन कर। हां मगर बाज़ारवाद को गरियाते ज़रूर हैं। यही सीखा है हमने बिना वाट्सएप यूनीवर्सिटी में दाख़िला लिए।

देवेंद्र आर्य सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार हैं और गोरखपुर में रहते हैं ।
गाँव के लोग
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