संविधान ही सत्य है। संविधान ही सुंदर है। और संविधान ही अनुकरणीय है। यह बात मैं इसलिए नहीं कह रहा कि मैं राजतंत्र का विरोधी और जनतंत्र का पक्षधर हूं। संविधान की मूल परिभाषा ही इसे सबसे अलग बनाती है। हिंदी व्याकरण के हिसाब से देखें तो संविधान का मतलब सम + विधान। यानी वे सारे विधान, जो सभी के लिए बराबर हों। यही संविधान है।अब भारत जैसे देश में यह कैसे संभव है कि सभी के लिए एक विधान हो? यह सवाल इसलिए कि सामाजिक भेद के जितने सारे तरीके हो सकते हैं, वे भारत में मौजूद हैं। फिर चाहे वह जातिगत भेद हो, वर्ण भेद हो, धर्म भेद हो, नस्ल भेद हो, लिंग भेद हो, वर्ग भेद या फिर क्षेत्र भेद हो। फिर ऐसे मुल्क के लिए एक संविधान है और इस संविधान में सभी तरह के भेदों को स्वीकार करते हुए विधान बनाए गए हैं ताकि कोई तबका पीछे न छूट जाए। यही हमारे संविधान की खासियत है। इसे आज के दिन ही वर्ष 1949 में स्वीकार किया गया था। यह बेहद खास दिन है हम सभी भारतीयों के लिए।
मैं तो आज के दिन दो बातें सोच रहा हूं। एक तो किसानों के आंदोलन के बारे में, जिसका एक साल आज पूरा हो गया है। मैं इसे कोई संयोग नहीं मानता कि आज के दिन ही वर्ष 2020 में किसान दिल्ली की सीमाओं पर तीनों कृषि कानूनों के खिलाफ आ डटे थे। इसके पहले जो भारत सरकार और हरियाणा सरकार ने किसानों के खिलाफ दमनात्मक कार्रवाइयां की थीं, वे भी इतिहास में दर्ज हैं। फिर चाहे वह सड़कों पर ट्रकों का खड़ा करना हो, लाठीचार्ज हो, सड़कों को खोद देना हो या फिर सड़कों पर कीलें ठोंकना। हम सबने इस आंदोलन को अपनी आंखों से देखा है कि कैसे किसानों ने ठंड, गर्मी और बरसात को झेला है।
[bs-quote quote=”हिंदी व्याकरण के हिसाब से देखें तो संविधान का मतलब सम + विधान। यानी वे सारे विधान, जो सभी के लिए बराबर हों। यही संविधान है।अब भारत जैसे देश में यह कैसे संभव है कि सभी के लिए एक विधान हो? यह सवाल इसलिए कि सामाजिक भेद के जितने सारे तरीके हो सकते हैं, वे भारत में मौजूद हैं।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
अब जबकि भारत सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को वापस करने के लिए संसद में संशोधन विधेयक लाने का फैसला किया है, मेरे मन में शक है। शक इस बात की कि सरकार ने जो अबतक कारपोरेट कंपनियों को छूटें दे रखी हैं, क्या उन्हें वह वापस ले लेगी? क्या वे कंपनियां, जिन्होंने अरबों रुपए का निवेश कर रखा है, वे अपना कारोबार बंद कर देंगे? क्या खाद और बीज कंपनियों के मनमर्जी पर रोक लग सकेगी? क्या बीमा कंपनियां, जो कि बिना पूंजी के अरबों का मुनाफा कमा रही हैं, वे अपनी नीतियों में बदलाव लाएंगीं। किसान एमएसपी की बात कर रहे हैं।
इस संबंध में कल ही महाराष्ट्र के बड़े दलित नेता प्रकाश आंबेडकर से बात हो रही थी। उनका कहना था कि यह सब भाजपा का किया हुआ है। उन्होंने सोयाबीन का उदाहरण देते हुए कहा कि पहले भारत सरकार ने इसका न्यूनतम समर्थन मूल्य 9 हजार रुपए प्रति क्विंटल रखा और बाद में सरकार ने पामोलिन तेल के आयात शुल्क में कमी कर दी। इसके कारण सोयाबीन से उत्पादित खाद्य तेल का बाजार गिर गया और इसका मूल्य साढ़े चार हजार रुपए हो गया। ऐसे में किसानों को अपना सोयाबीन आधी कीमत पर बेचना पड़ा।
अब यह कहने की जरूरत नहीं है कि पामोलिन खाद्य तेल को मलेशिया से आयात करने वाले अडाणी का नरेंद्र मोदी से क्या संबंध है। इस सेक्टर में रिलायंस और टाटा जैसी कंपनिया भी हैं। उनके पास अकूत धन संपदा है और वे इस स्थिति में हैं कि बाजार को किसी भी वक्त झटका दे सकते हैं। अभी हाल ही में हिमाचल के वरिष्ठ साहित्यकार राजकुमार राकेश ने अपने फेसबुक पोसट पर सेव उत्पादन करनेवाले किसानों की व्यथा लिखी कि कैसे अडाणी समूह ने पहले अधिक कीमत पर किसानों से सेव की खरीदकर छोटे व्यापारियों की कमर तोड़ दी। एक बार जब सारे छोटे व्यापारी खत्म हो गए और बाजार पर अडाणी समूह का कब्जा हो गया तब उसने दूसरे साल सेव की कीमत आधी से भी कम कर दी। किसानों के पास अडाणी समूह द्वारा निर्धारित मूल्य के अतिरिक्त बेचने का कोई विकल्प नहीं था। नतीजा यह हुआ कि जो सेव अडाणी समूह ने किसानों से दस रुपए किलो के हिसाब से खरीदे थे, उन्हें डेढ़ सौ रुपए किलो की दर से खुले बाजार में बेचा। अंतर केवल इतना था कि हर सेव पर अडाणी की कंपनी का एक होलोग्राम चिपका दिया गया था।
तो ऐसे में किसानों के आंदोलन के महत्व को समझा जा सकता है। लेकिन समाधान क्या है? नवउदारवादी युग में विश्व के साथ तालमेल की कोशिश में हम बहुत दूर निकल आए हैं और अब हम आर्थिक उपनिवेश बन चुके हैं। मैं तो क्रिप्टोकरेंसी के बारे में सोच रहा हूं। शायद ही भारत की बहुसंख्यक आबादी इस करेंसी के बारे में स्पष्ट समझ रखती है। उन्हें तो इससे कोई मतलब भी नहीं कि इस तरह की करेंसी का चलन हो अथवा नहीं हो।
[bs-quote quote=”इंदिरा गांधी ने संसद में एक विधेयक के जरिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था ताकि बैंकों की मनमर्जी खत्म हो। वित्त पर सरकार का नियंत्रण हो। अब नरेंद्र मोदी सरकर करीब पचास सालों के बाद पलटने जा रही है। इसका असर यह होगा कि जिस दिन कोई प्राइवेट बैंक चाहेगा, अपने ग्राहकों की सारी पूंजी को समेट विदेश में शिफ्ट हो जाएगा और भारत सरकार लाठी चलाने का ढोंग करेगी।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
दरअसल, पूंजी का स्वरूप बदलता जा रहा है। अभी भी कई तरह के प्लेटफार्म उपलब्ध हैं, जिनके जरिए बिना नकद के कुछ भी खरीदा जा सकता है। फिर चाहे वह सब्जी हो, ऑटो का भाड़ा हो, या फिर कोई भी बड़ी वस्तु, अब आपको नकद की आवश्यकता नहीं है। आपको बस अपने मोबाइल पर कोई ऐप खोलना है और धन हस्तांतरित करना है।
एक आम उपभोक्ता के रूप में आपको यह बेहद सुविधाजनक लगता है। लेकिन आप यह समझ ही नहीं पाते हैं कि इसका असर हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर किस तरह पड़ रहा है। आज पेटीएम और गूगल पे जैसी कंपनियां इस तरह की सुविधाओं को बढ़ावा दे रही हैं। वहीं बिटक्वाइन जैसी मुद्राएं चलन में हैं। ताज्जुब की बात यह है कि दो साल पहले ही भारत सरकार के निर्देश पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इस तरह की मुद्राओं के चलन को अपनी स्वीकृति दी थी और अब वह खुद की एक आभासी करेंसी लाने जा रही है। इसके लिए संसद के शीतकालीन सत्र में एक विधेयक भी लाया जा रहा है। इस विधेयक का मतलब ही है कि देश में वित्तीय लेन-देन पर कैसे नियंत्रण किया जाय। इस बार के सत्र में एक और विधेयक भी लाया जा रहा है, जिसका मकसद सरकारी बैंकों का निजीकरण है। गौर तलब है कि वर्ष 1970 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संसद में एक विधेयक के जरिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था ताकि बैंकों की मनमर्जी खत्म हो। वित्त पर सरकार का नियंत्रण हो। अब नरेंद्र मोदी सरकर करीब पचास सालों के बाद पलटने जा रही है। इसका असर यह होगा कि जिस दिन कोई प्राइवेट बैंक चाहेगा, अपने ग्राहकों की सारी पूंजी को समेट विदेश में शिफ्ट हो जाएगा और भारत सरकार लाठी चलाने का ढोंग करेगी।
कुल मिलाकर मतलब यह कि हम भारत के लोग फिर से गुलाम बनने जा रहे हैं। दिलचस्प यह कि इसके लिए संविधान का हवाला दिया जा रहा है।
[bs-quote quote=”बाजार पर अडाणी समूह का कब्जा हो गया तब उसने दूसरे साल सेव की कीमत आधी से भी कम कर दी। किसानों के पास अडाणी समूह द्वारा निर्धारित मूल्य के अतिरिक्त बेचने का कोई विकल्प नहीं था। नतीजा यह हुआ कि जो सेव अडाणी समूह ने किसानों से दस रुपए किलो के हिसाब से खरीदे थे, उन्हें डेढ़ सौ रुपए किलो की दर से खुले बाजार में बेचा। अंतर केवल इतना था कि हर सेव पर अडाणी की कंपनी का एक होलोग्राम चिपका दिया गया था।” style=”style-2″ align=”center” color=”” author_name=”” author_job=”” author_avatar=”” author_link=””][/bs-quote]
लेकिन इसमें कुछ भी असंवैधानिक नहीं है। संविधान में इसके लिए प्रावधान किए गए हैं। यह ठीक ऐसे ही है जैसे कि एक कुदाल है। अब कुदाल का उपयोग यह है कि उससे खेती की जा सकती है। अब कोई उसका उपयोग किसी की हत्याकर लाश को जमीन में गाड़ने के लिए करे तो इसमें न तो कुदाल का कोई दोष है और ना ही कुदाल बनानेवाले का।
दरअसल, संविधान रूपी कुदाल इस समय एक ऐसे हुक्मरान के हाथ में है, जो खेती का मर्म ही नहीं समझता, जो मुल्क को एक कंपनी समझता है। इसके लिए वह धर्म का इस्तेमाल करता है। वह संविधान को खारिज कर देना चाहता है ताकि उसके लोग हाथों में तलवार, भाले, बंदूक, तोप आदि लेकर खुलेआम घूम सकें और जो उनके वर्चस्व के खिलाफ आवाज उठाए, उसकी मॉब लिंचिंग कर सकें।
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तो मेरे हिसाब से संविधान दिवस का जश्न मनाने से पहले मुल्क में बदलते हालातों पर मनन करना चाहिए। संविधान अक्षुण्ण रहे, इसके लिए सामूहिक पहल की आवश्यकता है। हम ऐसा कर सकते हैं। भारत के किसानों ने यह कर दिखाया है।
संविधान दिवस के मौके पर सभी श्रमजीवियों को खूब सारी बधाई। पिछले साल आज के दिन ही यह कविता लिखी थी। आज फिर उद्धृत करता हूं–
ब्राह्मणवादियों-
संविधान की कसम खाते तुम
बड़े अच्छे लगते हो
इसके बावजूद कि
तुम्हारे अंदर का ब्राह्मण जिंदा है
श्रेष्ठ होने का अहंकार जिंदा है।
संविधान की कसम खाते तुम
बड़े अच्छे लगते हो
इसके बावजूद कि
तुम कसम खाकर भी
झूठ बोलना नहीं छोड़ते हो
अपनी बहन-बेटियों को
दोयम दर्जे का इंसान समझते हो
और जो गरीब-गुरबे हैं
तुम उन्हें कीड़ा-मकोड़ा मानते हो।
संविधान की कसम खाते तुम
बड़े अच्छे लगते हो
इसके बावजूद कि
संविधान में तुम्हारी कोई आस्था नहीं
अब भी कोई राम तुम्हारा आदर्श है
विष्णु तुम्हारा रक्षक
और ब्रह्मा तुम्हारा सृजनहार है।
संविधान की कसम खाते तुम
बड़े अच्छे लगते हो
इसके बावजूद कि
साहित्य, इतिहास पर तुम्हारा कब्जा है
खेत-खलिहान-फैक्ट्री
सब पर तुम्हारा अधिकार है।
संविधान की कसम खाते तुम
बड़े अच्छे लगते हो
कम से कम एक दिन तो तुम
जानवर के बदले इंसान लगते हो।
हां, संविधान की कसम खाते तुम
बड़े अच्छे लगते हो।

नवल किशोर कुमार फारवर्ड प्रेस में संपादक हैं।