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गर स्वर्ग में जाना हो तो जी खोल के ख़रचो
मुक्ति का है व्योपार बनारस की गली में
ऐसी चुटीली और मारक शायरी के पुरोधा शायर नज़ीर बनारसी का जन्म 25 नवम्बर 1909 को बनारस, उत्तर प्रदेश, में हुआ। वे भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के सबसे बड़े शायरों में से एक हैं। उनकी शायरी में बनारस के इतने रंग और शेड्स हैं जो उनकी एक दुर्लभ विशेषता है। बनारस के गली-कूँचों को अपनी कविताओं में उन्होंने जिस अंदाज़ से दर्ज़ किया है वह जब भी पढ़ा जाता है तब ज़ेहन में एक अनूठी मस्ती और उल्लास छा जाता है। सामाजिक भाईचारे के लिए वे आजीवन समर्पित रहे। सांप्रदायिक ताकतों से ताउम्र टकराते रहे। उनका पूरा जीवन और उनकी पूरी शायरी राष्ट्रीय एकता को समर्पित था। वे एक महान शायर थे। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं – ‘गंगो जमन’, ‘जवाहर से लाल तक’, ‘गुलामी से आजादी तक’, ‘चेतना के स्वर’, ‘किताबे गजल’ और ‘राष्ट्र की अमानत राष्ट्र के हवाले’। राजकमल प्रकाशन से मूलचंद सोनकर के संपादन में ‘नजीर बनारसी की शायरी’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। नज़ीर साहब का निधन 23 मार्च 1996 बनारस में ही हुआ। आज हम उनकी एक सौ बारहवीं जयंती पर उन्हें पूरे सम्मान और अक़ीदत के साथ याद कर रहे हैं। इस मौके गाँव के लोग स्टुडियो में जाने-माने कवि-आलोचक प्रोफेसर सुरेन्द्र प्रताप मौजूद हैं। और साथ ही प्रसिद्ध कवि और गजलकार शिवकुमार पराग और गाँव के लोग के संपादक रामजी यादव भी हैं। आप तीनों का हम हार्दिक स्वागत करते हैं। आइये हम नज़ीर साहब को याद करते हुये जानते हैं कि इन लोगों की यादों के खजाने में नज़ीर साहब किस रूप में मौजूद हैं।
संचालन – अपर्णा
कैमरा और संपादन – पूजा
सहभागी – प्रोफेसर सुरेन्द्र प्रताप, शिवकुमार पराग, रामजी यादव
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