Friday, March 29, 2024
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प्रवास की कड़वी अनुभूतियों के बीच नई नागरिकता की खोज में बेउर सिनेमा

अस्सी (1980) के दशक में फ्रांस में सिनेमा की एक नई धारा की शुरुआत नॉर्थ अफ्रीकन देशों से आए फ़िल्मकारों के द्वारा की गई। इन फ़िल्मकारों ने सिनेमा के परदे पर अपने प्रवास के अनुभवों को प्रस्तुत कर दूसरी पीढ़ी के युवाओं के सामने खड़े पहचान और एकीकरण के मुद्दों को सामने लाने का काम […]

अस्सी (1980) के दशक में फ्रांस में सिनेमा की एक नई धारा की शुरुआत नॉर्थ अफ्रीकन देशों से आए फ़िल्मकारों के द्वारा की गई। इन फ़िल्मकारों ने सिनेमा के परदे पर अपने प्रवास के अनुभवों को प्रस्तुत कर दूसरी पीढ़ी के युवाओं के सामने खड़े पहचान और एकीकरण के मुद्दों को सामने लाने का काम किया। बेउर सिनेमा ने दो देशों और दो भिन्न संस्कृतियों के संपर्क, आदान-प्रदान से आ रहे बदलावों को प्रमुखता से उठाया, इसलिए इस सिनेमा को प्रवासी और अंतर-सांस्कृतिक सिनेमा के तौर पर पहचान मिली।

उत्तरी अफ्रीका के देशों से पलायन करके फ्रांस में बसने वाले प्रवासी फिल्मकारों ने सिनेमा की एक नई धारा (New Wave Cinema) सिनेमा के नाम से स्थापित की। उनके सिनेमा का मुख्य उद्देश्य था कि वह अपनी पहचान को होस्ट कंट्री में स्थापित करें और अपने समुदाय को एकजुट कर रख सकें। नार्थ अफ्रीका के देश फ्रांस की कॉलोनी के रूप में रहे और उसी क्रम में इन दोनों देशों के बीच नागरिकों के आने-जाने का क्रम शुरू होता है और नार्थ अफ्रीकन देशों के लोग एक बेहतर जीवन और रोजगार की तलाश में फ्रांस में आकर के बसे। बेउर शब्द वास्तव में अल्जीरिया एवं नार्थ अमेरिका के अरब ओरिजिन के उन लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है जो लोग फ्रांस में पैदा हुए और वहीं पर बस गए। फ्रांस में बसे दूसरी पीढ़ी के नॉर्थ अफ्रीकन नागरिक फ्रांस के बड़े शहरों के उपनगरीय क्षेत्रों में बनाए गए विशेष आवासीय कालोनियों, जिन्हें बेनलिक कहते हैं, में पैदा हुए और बड़े हुए। वास्तव में यह शब्द एक पिछड़े हुए लोगों के समूह के लिए प्रयोग किया जाने वाला एक नकारात्मक शब्द है, जिसका बाद में पढ़े-लिखे नॉर्थ अफ्रीकन नागरिकों ने अपने लिए प्रयोग करना बंद कर दिया, क्योंकि इससे उनकी  आइडेंटिटी और भौगोलिक पहचान में समस्या आती थी।

टी इन द हरेम का एक दृश्य

नस्लीय भेद के खिलाफ एक लंबी लड़ाई की अभिव्यक्ति 

नस्लीय भेदभाव और पुलिस द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न के विरोध में सन 1983 में 1,00,000 से भी ज्यादा की संख्या में नॉर्थ अफ्रीकन देशों के प्रवासी नागरिकों ने  पेरिस की तरफ पैदल मार्च किया। इसमें कई स्थानों पर पुलिस के साथ संघर्ष भी हुआ।  दंगे हुए और बड़ी संख्या में कारें और अन्य वाहन जलाए गए। यह आंदोलन ब्रिटेन के लंदन, बर्मिंघम जैसे शहरों में होने वाले आंदोलनों और दंगों की तरह था।  इसमें बाहर से आए हुए तमाम गैर अंग्रेज समुदायों के प्रवासियों ने राजनीतिक भेदभाव एवं रूढ़िवादिता के खिलाफ एकजुट होकर पुलिस और ब्रिटिश प्रशासन द्वारा अपने विरुद्ध किए जा रहे नस्लीय भेदभाव और बहिष्करण को समाप्त करने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन किए थे। इन आंदोलनों में युवाओं के द्वारा जो एक कॉमन पहचान अर्जित की गई वह बेउर के नाम से जानी गई। इन आंदोलनों के दौर में 80 के दशक में बेउर साहित्य का भी उद्भव हुआ और युवा एवं पुरुष लेखकों ने अपने दोहरे सांस्कृतिक अनुभवों के आधार पर साहित्य सृजन का काम शुरू किया। ये युवा लेखक दोस्तों पर कार्य कर रहे थे। आंतरिक रूप से फ्रांस में वे अल्जीरियन और इस्लामिक थे जबकि बाहरी तौर पर सांस्कृतिक रूप से वे सेक्युलर दिखते तथा पश्चिमी मास मीडिया और पॉप कल्चर को अपनाकर एक साथ प्रस्तुत कर रहे थे।

नौवें दशक में  फ्रांस के सार्वजनिक संस्थानों में मुस्लिमों की उपस्थिति एवं भूमिका को देखते हुए तथा लड़कियों के हिजाब पहनने और कौमी संस्कृति के अनुसार पहनावा और बोलचाल इत्यादि पर जोर दिए जाने के कारण स्थानीय फ्रांसीसी नागरिकों एवं प्रवासी नॉर्थ अफ्रीकन समुदाय के मुस्लिम लोगों के बीच आंतरिक संघर्ष बढ़ते चले गए। बेउर सिनेमा और साहित्य ने ऐसे सांस्कृतिक टकरावों को बारीकी से देखा-परखा। यह कई तरह की संस्कृतियों का सम्मिलन और भेदभाव सार्वजनिक जीवन में बाहरी लोगों के स्थान,  पहचान और मुख्यधारा को अभिव्यक्त करने के लिए रचा गया।

बेउर शब्द का प्रयोग फ्रांस मे रहने वाले अरब मूल के लोगों लिए किया जाता है। सन 1990 के बाद कुछ युवा लोगों ने रीबेउ शब्द का भी प्रयोग करना शुरू किया जो अब एक प्रभावी शब्द बन चुका है। महिलाओं के लिए बेउरेते (beurette) शब्द का भी प्रयोग होता है जो बेउर का स्त्रीलिंग  है। बेउर शब्द का उद्भव यद्यपि फ्रांस में हुआ लेकिन इसका प्रयोग यूरोप के अन्य देशों जैसे बेल्जियम, मोनाको, लक्जमबर्ग, स्विट्ज़रलैंड में भी होता है जिसका प्रसार ब्रिटेन, स्पेन, इटली और नीदरलैंड तक में होने लगा है। यूरोप और नॉर्थ अफ्रीका की मिली-जुली संस्कृति को अपनाकर जीने वाले पश्चिमी देशों के मूल निवासी, जो यूरोप में पले बढ़े हैं,  वे ही बेउर लोग हैं और उनके जीवन को परदे पर दिखाने वाली फिल्में बेउर फिल्में हैं।

बेउर सिनेमा ने इस तरह बनाई एक नई पहचान 

फ्रांसीसी राष्ट्रीयता और अरबी मूल के निवासी अपनी दो भिन्न संस्कृतियों के साथ जीते हैं। वे अपने ट्रांस-नेशनल अनुभवों और द्वंद्व को सिनेमा के परदे पर चित्रित करते हैं। फ्रांस के शहरों के बाहरी इलाकों (पेरीफेरी) में बेउर समुदाय के लोगों ने अपने ठिकाने बनाए हैं। सन 1970 के दशक में नस्लभेदी तनाव के दौर में जब फ्रांस में उग्र राष्ट्रवादी आंदोलन आरंभ हुआ तो प्रवास, एकीकरण और आत्मसातीकरण (assimilation) पर बहसें आरंभ हुईं। बेउर सिनेमा पापुलर अपील के साथ यथार्थवादी प्रकृति का सिनेमा है जिसका ‘हिप-हॉप’ सिनेमा से भी करीबी संबंध है। ये फिल्में एक सामाजिक आंदोलन की तरह हैं, जिनमें गीत-संगीत, कला, फ़ोटोग्राफी, थियेटर और साहित्य सब कुछ शामिल है, “Beur Cinema is a term reversely extrapolated from a word “Arabe” making an announcement of second coeval offsprings of North African settlers of France during their younger years. Beur cinema is a motion picture maneuvered particularly by any youthful moviemaker of North African descent. The prime lineage of these individuals work mainly on interpretations or factual chronicles on racism compositions that spearhead on all sorts of people’s wretchedness”.

हेक्सागोन मूवी का एक दृश्य

मोहम्मद चरेफ़ ने सन 1985 में एक फिल्म बनाई थी टी इन द हरेम (tea in the harem)। यह दूसरी पीढ़ी के अरबी मूल के फ्रांसीसी बेरोजगार नौवजवानों की मुश्किल ज़िंदगी को परदे पर प्रस्तुत करती है। अरब मूल के प्रवासी पहले पेरिस शहर के बाहरी इलाकों में बसे हुए थे जिन्हें बैनलिउ (banlieue) नाम से जाना जाता है। बाद में उस स्थान पर प्रवासियों के रहने के लिए कई मंजिला इमारतें बन गईं। इन स्थानों को कामगार वर्ग के निवास स्थान के रूप मे जाना जाता है। इस बसावट में उत्तर औपनिवेशिक काल की विभिन्न संस्कृतियों और राष्ट्रीयताओं के लोग निवासरत हैं। बाहरी होने का लेबल लगाकर इन लोगों को फ्रांसीसी गोरे नागरिकों ने नौकरी, रोजगार,  आर्थिक-राजनीतिक और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से बहिष्कृत कर रखा है। रशीद बूचारेब कीबैटन रूज (baton rouge -1985), मलिक चिबाने की फिल्म हेक्सागोन (Hexagone 1994), यमीना बेनगुईगुई की फिल्म इंच’स अल्लाह संडे (inch’s Allah Sunday)एवं अब्दुल लतीफ़ केचिचे की फिल्म कौसकौस (couscous -2007) फ्रेंच समाज में तनाव, विरोधाभास और बहुस्तरीय पहचान को चित्रित करती इस दौर की उल्लेखनीय फिल्में हैं। मैथ्यू कासोविट्ज ने इसी कड़ी में हेट (hate 1995) नामक फिल्म बनाई जिसके बाद बैनलिउ सिनेमा एक धारा (genre)के रूप में स्थापित हो गया। फ्रांस गणराज्य अपने नागरिकों में अलग-अलग पहचान को स्वीकार नहीं करता इसलिए मगरेब, अरब, बेउर, मगरेबी-फ्रेंच, जैसे शब्दों को वहाँ ठीक नहीं माना जाता। सामाजिक असमानताओं और नस्लीय भेदभाव के शिकार मगरेबी फिल्म मेकर्स ने अपनी समस्याओं को बेउर फिल्मों में चित्रित किया। कम बजट की शॉर्ट और डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के बनाने से आरंभ कर बेउर सिनेमा ने  फ्रेंच मीडिया द्वाराबनाई गई अपनी नकारात्मक छवि को बदलने की कोशिश की।

मूवी हेट

करीम दरिदी की फिल्म बाय-बाय (1995) तात्कालिक फ्रेंच समाज का परीक्षण करती प्रतीत होती है, जो बहुसांस्कृतिक, बहु नृजातीय, हाइब्रिड और वर्गीय आधार पर टूटी-फूटी हुई-सी प्रतीत होती है। यह फिल्म इस्माइल नामक गुस्सैल, हिंसक फ्रेंच-मगरेब युवक की कहानी है जो अपने भाई मौलूद को पेरिस से मरसेली होते हुए अपने होमलैंड ट्यूनीशिया लेकर जाता है। ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल और अन्य यूरोपीय देशों ने तीसरी दुनिया के गरीब देशों को अपनी कॉलोनी बनाकर वहाँ के संसाधनों और मानव समुदाय का भरपूर शोषण किया। उपनिवेशों के आजाद होने तक और उसके बाद भी बहुत सारे लोग इन विकसित यूरोपीय देशों में आकर बस गए थे। तीसरी दुनिया के नागरिक अपने मूल देश में तो शोषण के शिकार थे ही, जब वे यूरोपीय देशों में बसे तो वहाँ भी उनके साथ नस्लभेद और सामाजिक बहिष्करण जारी रहा। तीसरी दुनिया के देशों के नागरिक इन्हीं दो लोकेशनों, संस्कृतियों, पूंजीवाद और बहुलतावाद के बीच झूलते रहते हैं और उन्हें कहीं भी संतुष्टि नहीं मिलती है।  इस्माइल की दुविधाग्रस्तता और उसके भाई मौलूद के पितृदेश का नकार दरअसल उनकी पीढ़ी के युवाओं की परंपरा और पितृसत्तात्मक पारिवारिक व्यवस्था से अलगाव और दूरी इस फिल्म के माध्यम से दर्शकों के सामने आती है जो उनके हिस्से की सच्चाई है। इस्माइल खुद को न तो फ्रेंच और न ही मगरेब संस्कृति में समायोजित कर पाता है और उसके हाशिये पर होने की यही भावना डायस्पोरिक विषय का मूल है। इस तरह फिल्म बाय-बाय फ्रांस में रहने वाले नॉर्थ अफ्रीकन देशों के प्रवासियों के सामूहिक अनुभवों के साथ-साथ अस्तित्ववादी चेतना को भी भावाभियक्ति प्रदान करती है, जो बेउर सिनेमा का केन्द्रीय तत्व है।

Baton Rouge मूवी

तीखे प्रवासी अनुभवों की पुनर्रचना 

सन 1980 के दशक के आरंभिक दिनों से सन 2000 के दशक तक अफ्रीकन पृष्ठभूमि से फ्रांसीसी संस्कृति और सिनेमा में अपनी जगह बनाने के प्रयासों से लेकर नॉर्थ अफ्रीकन मगरेब मूल के निदेशकों ने अपना प्रभाव स्थापित किया और धीरे-धीरे फ्रेंच सिनेमा उद्योग में अपनी धाक जमा ली। इन निर्देशकों ने अपने काम के माध्यम से यह प्रयास किया कि वे अपनी नस्लीय पहचान के स्थान पर फिल्ममेकर के रूप में जाने पहचाने जाएँ।  उनकी कोशिश थी कि वे सिनेमा निर्माण की अपनी  निजी वास्तविक तकनीक और क्राफ्ट के लिए भी जाने जाएं।

डेज ऑफ ग्लोरी मूवी

ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ऑफ फिल्म स्टडीज के अनुसार, “सन 1994 से 2003 के बीच उत्तरी अफ्रीकन मूल के लगभग 20 फ़िल्मकारों ने अपनी पहली फिल्म बनाई जिनमें चरेफ़ और बूचरेब ने खूब सारा काम करके नाम और पैसा कमाया और मजबूती से बेउर सिनेमा की पहचान स्थापित की। बूचरेब की फिल्म डेज़ ऑफ ग्लोरी (2006) ने बड़ी सफलता अर्जित करते हुए कई पुरस्कार जीते। नॉर्थ अफ्रीकन मूल से अलग पहचान वाले निर्देशकों ने भी बेउर सिनेमा के अंतर्गत कई सफल फिल्में बनाई जिनमें माइकल हनेक की फिल्म हिडेन (hidden -2005) और जैक औडियार्ड की ए प्राफेट (A Prophet -2009) प्रमुख हैं।”(Kuhn & Westwell2012:31)।

मूवी कौस्कस

औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोप के देशों ने एशिया और अफ्रीका महाद्वीप के विभिन्न देशों को अपनी कॉलोनी बनाया और वहाँ के मानवीय एवं प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया। मानव श्रम को मुफ़्त या सस्ते में खरीदकर उन्हें एक देश से दूसरे अनजान देशों और द्वीपों पर ले जाने का काम भी इसी दौरान हुआ। बीसवीं सदी के मध्य में आजादी के आंदोलनों के परिणामस्वरूप यूरोपीय देशों को वापस अपने मूल देशों को जाना पड़ा। उपनिवेश काल मे विभिन्न देशों में जो आपसी संबंध विकसित हुए जो आजादी के बाद भी जारी रहे। तथाकथित तीसरी दुनिया के अविकसित और विकासशील देशों से बड़ी संख्या में लोग शिक्षा और रोजगार की तलाश में अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, इटली और ब्रिटेन में गए और बहुत से लोग वहीं बस भी गए। इनमें से कुछ फिल्मकार भी बने। प्रवासी फ़िल्मकारों ने अपने देश से आकर विदेशी भूमि पर बसे समुदायों के दुख-दर्द और उपलब्धियों को फिल्मी परदे पर चित्रित कर न केवल सिनेमा की नई और स्वतंत्र धाराएं स्थापित की बल्कि उन्हें पहचान दिलाने का भी काम किया। चिकानो सिनेमा, बेउर सिनेमा सब ऐसे ही प्रवासी फ़िल्मकारों द्वारा स्थापित सिनेमा की धाराएं हैं। भारत में विभिन्न देशों के प्रवास के सिनेमा पर बहुत काम  हुआ है इसलिए अब इस दिशा में काम किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

मूवी बाय- बाय

संदर्भ

नाफिसी, हामिद (2001) एन असेन्टेड सिनेमा: एक्सिलिक एण्ड डियसपोरिक फिल्म मेकिंग, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, अमेरिका।

लायुनी, याहया (2012) रिडिफ़ाइनिंग बेउर सिनेमा: कॉनसटयूटींग सब्जेक्टिविटी थ्रू फिल्म, पब्लिश्ड  ऑन सिमैन्टिकस्कालर. ओआरजी.

Kuhn & Westwell (2012)Oxford Dictionary of Film Studies, Oxford University Press, London.

राकेश कबीर जाने-माने कवि-कथाकार और सिनेमा के गंभीर अध्येता हैं।

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4 COMMENTS

  1. महत्वपूर्ण शोधपरक आलेख। बहुत ही ज्ञानवर्धक। बहुत बधाई🙏

  2. आपकी लेखक का काफी दिनों से इंतजार था ।बहुत दिनों के बाद आप का लेख पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ ।आपके द्वारा यह लिखा गया लेख जो प्रवासन पर आधारित है जिसमें नॉर्थ अफ्रीका देशों से आए हुए लोग जो रोजगार एवं अच्छे जीवन की तलाश में फ्रांस जा बसते हैं एवम उनके जीवन में आई कठिनाइयां जैसे की नस्लभेद, सामाजिक बहिष्कार, शोषण और इन पर प्रवासियों द्वारा किया गया आंदोलन जिसको आपने इस लेख के माध्यम से बहुत ही शानदार ढंग से प्रस्तुत किया है और इन्ही प्रवासियों में से प्रवासी फिल्मकारों द्वारा स्थापित सिनेमा जैसे की ची कानो सिनेमा , बेऊर सिनेमा से आपने रूबरू कराया है ।कितने गहन एवम शोधपरख लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं सर जी 👌👌👌🙏🙏🙏

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